खेलोगे-कूदोगे होगे ख़राब…
दिल्ली विश्वविद्यालय में सेमेस्टर प्रणाली लागू

काजल

दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं को ‘‘किताबी कीड़ा’’ बनाने की नयी कवायद शुरू हो चुकी है। विश्वविद्यालय कुलपति के प्रस्ताव के अनुसार नये सत्र से स्नातक सत्र के पाठयक्रमों में जे.एन.यू. और आई.आई.टी. जैसे संस्थानों के तर्ज़ पर सेमेस्टर प्रणाली लागू की जायेगी। मतलब यह कि अब स्नातक स्तर के छात्र-छात्राओं को शैक्षणिक सत्र के अन्त में एक बार परीक्षा न देकर साल में दो बार परीक्षाएँ देनी होगी। कुलपति महोदय, छात्रों पर पहले ही इन्टर्नल असेसमेन्ट (आन्तरिक मूल्यांकन) के तहत होने वाली परीक्षाओं का बोझ क्या कम है, कि आप उन पर सेमेस्टर प्रणाली का भार भी थोप रहे हैं? सोचने वाली बात है कि आखिर विश्वविद्यालय प्रशासन ऐसा कर क्यों रहा है? क्यों वह पूरे साल छात्रों को अपने पाठ्यक्रमों से बाँध देना चाहता है? ऐसा करने के पीछे की मुख्य वजह क्या है?

अगर खुद प्रशासन की सुनें तो वह मानता है कि सेमेस्टर प्रणाली के लागू हो जाने से छात्र अपने पाठ्यक्रमों पर अधिक ध्यान केन्द्रित कर पायेंगे और पढ़ाई के प्रति उनका रवैया ज्यादा संजीदा होगा। दूसरे, इस प्रणाली के चलते वे कक्षाओं में नियमित रूप से आयेंगे जिससे अनुपस्थिति-दर कम हो जायेगी। तीसरा, भारत के कई अग्रणी शैक्षणिक संस्थानों जैसे कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय एवं आई.आई.टी. में सेमेस्टर प्रणाली को सफ़लतापूर्वक लागू किया गया है, तो फ़िर इस संदर्भ में दिल्ली विश्वविद्यालय क्यों पीछे रहे। प्रशासन का यह भी कहना है कि सेमेस्टर प्रणाली उच्च शिक्षा के भूमण्डलीकरण की तरफ़ एक लम्बा डग होगा। उनके मुताबिक दुनिया भर के शिक्षा जगत में अमेरिकी शिक्षा प्रणाली का ही बोलबाला है और इसलिए दिल्ली विश्वविद्यालय को ऐसे कदम का स्वागत करना चाहिए।

वहीं दूसरी तरफ़ दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ (डूटा) ने इस प्रस्ताव का जमकर विरोध किया है। शिक्षक संघ के अनुसार सेमेस्टर प्रणाली को लागू करने का निर्णय मनमानी है और इसे कत्तई बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। डूटा के अध्यक्ष आदित्य नारायण मिश्र का कहना है कि कुलपति बिना किसी पूर्व सूचना तैयारी के इस प्रस्ताव को मनमाने ढंग से थोपने पर तुले हैं। उनके मुताबिक दिल्ली विश्वविद्यालय में सेमेस्टर प्रणाली सम्भव ही नहीं है। जब अभी साल में एक बार परीक्षा होने पर नतीजों के आने में चार–पाँच माह लग जाते हैं, तो ऐसे में दो बार परीक्षा करा पाना कितना व्यवहारिक है? साफ़ है कि शिक्षक संघ की आशंकाएँ इस प्रणाली की व्यवहारिकता को लेकर है। लेकिन यहाँ प्रश्न केवल सेमेस्टर प्रणाली के लागू किये जाने की व्यवहारिकता-मात्र का नहीं है।

सेमेस्टर प्रणाली को लागू करने के पीछे की असली मंशा क्या है? बात एकदम साफ़ है, यह एक और क़दम है पढ़ाई और पाठ्क्रम के नाम पर छात्रों को यथास्थितिवादी बनाने का, उन्हें किताबों की चौहद्दी में क़ैद करके देश, दुनिया, समाज के बारे में सोचने से रोकने का। जब विद्यार्थी पूरा साल अंकों, ट्युटोरियल, असाइनमेन्ट और परीक्षाओं के चक्कर में ही रहेंगे, तो वाक़ई में किसी और चीज के बारे में सोच कैसे पायेंगे? हम सभी विश्वविद्यालय में प्रवेश के महत्व को भली-भाँति जानते हैं। स्कूली शिक्षा और अनुशासन से बिल्कुल अलग यह एक नई दुनिया होती है-आज़ादी की, जनवाद, स्वावलम्बन, आत्मविश्वास की, स्वयं निर्णय लेने की ताक़त की। इसी दुनिया में हम कई नये लोगों, कई नये विचारों और ज़िन्दगी जीने के कई नये तरीकों से मुख़ातिब होते हैं। एक कोर्स के पाठ्यक्रम को पढ़ते हुए हमारे भीतर अन्य विषयों के बारे में जानने की भी इच्छा होती है। और ऐसा होना भी स्वाभाविक है। फ़िर क्यों कोई गणित या भौतिक विज्ञान का छात्र इतिहास, साहित्य, समाजशास्त्र, दर्शन शास्त्र के विषय में न जाने? लेकिन नई प्रणाली के अन्तर्गत ऐसा हो पाना काफ़ी मुश्किल होगा। छात्र-छात्राएँ पूरा साल अपने कोर्स की पढ़ाई करते-करते ही घिस जायेंगे, अन्य चीजों को जानने-समझने का तो बस सपना-भर देख पायेंगे।

विश्वविद्यालय छात्र-युवा राजनीति का मंच भी होता है। इस मायने में उपरोक्त प्रणाली छात्र राजनीति के क्रान्तिकारीकरण में बाधा डालने का नया ज़रिया है। इसका असली मकसद सीधे-सीधे छात्र-छात्राओं के क्रान्तिकारी राजनीतिकरण को बाधित करना है, उसे रोकना है। पूरा दिन छात्रों को कक्षा और पढ़ाई में उलझाए रखने के पीछे की मंशा ही यही है। प्रशासन का इरादा साफ़ है-जब तक छात्रों के सर पर समय से ट्युटोरियल जमा करने या फ़िर परीक्षाओं में बैठने की तलवार लटकी रहेगी, तब तक उनके पास देश और समाज के मौजूदा हालात पर या फ़िर उन्हें बदलने के बारे में सोचने की फ़ुरसत ही नहीं रहेगी। ज़ाहिरा तौर पर कैम्पसों के भीतर होने वाली गन्दी, चुनावबाज पूँजीवादी छात्र राजनीति के बरक्स एक कारगर क्रान्तिकारी विकल्प का मॉडल खड़ा करने के लिए छात्रों को संघर्ष में शामिल होना होगा, उन्हें संगठित होना होगा। और एक हद तक यह तब सम्भव है जब उन्हें सुबह-शाम, रात-दिन कोल्हू के बैल की तरह अपने पाठ्यक्रमों से बाँध कर न रखा जाये। हालाँकि विश्वविद्यालय प्रशासन यहाँ पर थोड़ा से गच्चा खा गया-समय की मौजूदगी फ़ुरसत से तय नहीं होती, ज़रूरत से तय होती है। आज छात्रों-युवाओं को किस चीज़ की ज़रूरत है, उन्हें यह समझने से कोई सेमेस्टर प्रणाली नहीं रोक सकती। हाँ, थोड़ी बाधा ज़रूर पैदा करेगी। छात्रों को इसका पुरज़ोर विरोध करने की ज़रूरत है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अप्रैल-जून 2009

 

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