स्माइल पिंकी: मुस्कान छीनने और देने का सच
परदा व परदे के पीछे का यथार्थ

आशीष

स्लमडॉग मिलियनेयर व स्माइल पिंकी के जरिये प्रतिभाओं का डंका दुनिया भर में बज चुका है। ऑस्कर अवार्ड वितरण समारोह की रात वास्तव में शहदभरी रात साबित हुई, जिसने भारतीय मीडिया एवं भारतीयों के दिलों दिमाग में मिठास घोल दी है।

DVD insertजी हाँ, बात उस लघु वृत्तचित्र ‘स्माइल पिंकी’ की है। अमेरिकी निर्देशक मेगन मायकान द्वारा निर्देशित यह डाक्युमेंट्री भारतीय चैनलों के प्रतिस्पर्धा और चर्चा का विषय बनी। ‘स्माइल पिंकी’ उत्तर प्रदेश में मिर्जापुर जिले के गाँव रामपुर डबाही की 9 वर्ष की एक लड़की की कहानी है जिसका ऊपर का होठ बचपन से ही कटा हुआ था। लोग उसे ‘होठकटी’ कहकर चिढ़ाते थे उसके ग़रीब माता-पिता राजेन्द्र सोनकर और शिमला देवी के लिए उसका इलाज कराना सम्भव नहीं था। पिंकी का बचपन उसके कटे होठों की वजह से नारकीय हो गया था समाज में हर कहीं उसे तिरस्कार और उपेक्षा का सामना करना पड़ रहा था और इसी बीच पिंकी के परिवार की मुलाकात एक एन.जी.ओ. ‘स्माइल ट्रेन’ के कार्यकर्ता से हुई और एक ऑपरेशन द्वारा पिंकी के होठ को ठीक कर दिया जाता है।

इस वृत्तचित्र के ऑस्कर पुरस्कार प्राप्त होने को ऐेसे प्रचारित किया जा रहा है मानो इसकी सफ़लता से दुनियाभर के तमाम ग़रीब बच्चे, ग़रीबी के कारण पैदा हुई तमाम बीमारियों से छुटकारा पा गए हों अथवा इससे छुटकारा पाने का एन.जी.ओ.-पंथी तरीका एवं चिकित्सकीय सुविधाएँ ही सही और एकमात्र विकल्प है। ऑस्कर में ‘स्माइल पिंकी’ की सफ़लता के बाद रामपुर डबाही गाँव में हलचलें बढ़ गयी गाँव व गाँव के ग़रीब दम्पति रातों रात ग्लोबल बन गये और ऐसा लगने लगा कि सम्पूर्ण विश्व पिंकी जैसे बच्चों की हँसी और खुशी के लिए व्याकुल हो गया है और दोनों हाथ फ़ैलाकर उसे गले लगाना चाहता है।

‘‘निर्देशक मेगन मायकान का कहना है कि सामाजिक विषयों पर डॉक्यूमेंट्री बनाने वाली फ़िल्मकार होने के कारण उन्हें ऐसी फ़िल्म बनाने का अवसर कम ही मिलता है जिसका अंत सुखद हो।’’

कला के मापदण्डों और मानकों की कसौटियों के कुछ बिन्दुओं पर स्माइल पिंकी एक अच्छा लघुवित्तचित्र हो सकता है; बालमन पिंकी की संवेदनाओं के बारीक पहलुओं को उजागर करने, उसकी तकलीफ़ों और खुशी को उजागर करने का कला का यह एक सफ़ल प्रयास हो सकता है लेकिन कला की अपनी सामाजिक राजनीतिक और दार्शनिक पक्षधरता होती है; समस्या के मूल कारणों पर पर्दा डालने और विश्व बाजारवादी पूँजीवादी व्यवस्था के पोषण के कारणों से व तीसरी दुनिया के बाजार के कारण स्माइल पिंकी को यह पुरस्कार दिया गया है।

पिंकी जैसे तमाम बच्चों की शारीरिक विकृति के बारे में जिस ‘स्माइल पिंकी’ वृत्तचित्र को जागरूकता फ़ैलाने के लिए सर्वाधिक कारगर माना जा रहा है उसकी जागरूकता की सीमाएँ स्पष्ट हैं। लोग जानेंगे कि उनके बच्चे की शारीरिक विकृति का इलाज हो सकता है, लोग जानेंगे कि किसी दानवीर, किसी मालिक, किसी एन.जी.ओ. की उन पर कृपा दृष्टि हो और हजार ठोकरों के बाद उन्हें मिलेगी एक मुस्कान भीख में।

पिंकी की मुस्कान क्यों गायब हो गयी? क्या कारण है कि इस तरह की शारीरिक विकृति सम्बन्धी बीमारियाँ ग़रीबों के बच्चों को ही अधिकाधिक होती हैं? सही दिशा में प्रयास तो यह होगा कि लोगों के अन्दर इस बात के लिए जागरूकता फ़ैलाई जाए कि इस तरह की बीमारियों के पैदा होने का मूलस्रोत क्या है उसे खत्म कैसे किया जाये।

देश में हर साल करीब 35 हजार ऐसे बच्चे जन्म लेते हैं जिनके होंठ और तालू कटे-फ़टे होते हैं जिनमें से अधिकांश बच्चे ग़रीबी और कुपोषण का शिकार होते हैं। एक बार के लिए यह मान भी लिया जाये कि इन सबका इलाज सम्भव होगा तो भी एक चौथाई बच्चे ठीक नहीं किये जा सकते हैं। अभी भी पुरानी भ्रांतियाँ और धारणाएँ ऐसे बच्चों के जीवन के लिए अभिशाप बनी है जिसके कारण बच्चों को न घर में सम्मान मिलता है न बाहर।

वैज्ञानिकों का मानना है कि गर्भावस्था में महिलाओं का कुपोषण ही इसका सबसे बड़ा कारण है। तब सच्ची जागरूकता और सही कदम यह होगा कि बताया जाये कि पिंकी की मुस्कान वापस आएगी भरपूर पोषण से और देश के ग़रीब मेहनतकशों का पोषण तब नहीं हो सकता जब तक ग़रीबी कायम है। इसकी बुनियाद में है असमानता पर टिकी सामाजिक व्यवस्था।

ऐसे में सच्ची जागरूकता यह होगी कि एक कला और लघुवृत्तचित्र चीख-चीखकर बताये कि पिंकी मुस्करायेगी अगर सभी ग़रीब संगठित होकर अपने अधिकार के लिए आज के निजाम के खिलाफ़ बगावत का बिगुल फ़ूंक दें। वह दिखायेगी आज के विश्व की नंगी सच्चाई कि दुनिया भर में कुपोषण की शिकार कुल आबादी का 27% और कम वजन वाले बच्चों का 43% हिस्सा केवल भारत में है और जो भारत आज विश्व की आर्थिक महाशक्ति बनने के लिए अग्रसर है वहाँ मजदूरों और ग़रीबों के श्रम के शोषण ने भूख और कुपोषण का ग्राफ़ भी ऊँचा होता जा रहा है।

हालांकि इस गणित को समझना कोई मुश्किल नहीं है जिस सामाजिक ढांचे में आबादी का एक बड़ा हिस्सा कुपोषण और भूखमरी का सामना कर रहा है। वहाँ केवल विकास दर के बूते खुशहाली का दावा किया जाये। लेकिन ‘स्माइल पिंकी’ में यह गुस्सा गायब है। वह मुस्कान लौटाने की जो राह दिखाती है वह समस्या के मूल तो दूर सतही निदान भी प्रस्तुत नहीं करती। वह करती है एक साजिश, समस्या पर पर्दा डालने का और पैदा करती है व्यवस्था मोह से भंग दिलों में व्यवस्था के प्रति आस्था, और ऑस्कर भी उसे इसी बात के लिए मिला है।

दूसरा प्रश्न यह कि पिंकी की मुस्कान का समाधान अगर हम एक बार प्लास्टिक सर्जरी को मान ले तो सवाल उठता है कि क्या ऐसे बच्चों के माँ-बाप अपने बच्चों के जीवन की मुस्कान की भीख मांगे? प्रश्न उठता है कि आखिर वे क्या कारण है जब दिन में 12–12 या 14–14 घण्टे कमरतोड़ मेहनत करने के बाद एक सामान्य-सी प्लास्टिक सर्जरी के लिए अपने बच्चे को लेकर मेहनतकश माँ-बाप दर-दर की ठोकर खाए। और अगर दूसरे माध्यम (अर्थात चिकित्सकीय माध्यम) से भी वृत्तचित्र ‘स्माइल पिंकी’ पिंकी जैसे तमाम बच्चों की मुस्कान के लिए जागरूकता फ़ैलाना चाहता है तो वह दिखायेगा कि कैसे चिकित्सा बाजार में बिकने वाला माल बन चुकी है; कैसे जीवन प्रदायी दवायें उनसे दूर होती जा रही है जिनको उनकी सबसे ज्यादा जरूरत है। वह आगाज करेगा कि चिकित्सकीय सुविधा तभी समाधान बन सकती है जब इसे मुनाफ़े की जकड़बन्दी से मुक्त किया जा सके; वह बताएगी कि एक ग़रीब तभी इलाज करवा सकेगा जब उसकी कमरतोड़ मेहनत का शोषण बन्द हो सकेगा। अगर ‘स्माइल पिंकी’ वास्तव में पिंकी जैसे बच्चों के लिए प्रयास होता तो वह दिखाती पिंकी के दारूण दुःख के मूलबीज कुपोषण की विधानकर्ता शोषणकारी व्यवस्था में निहित हैं और उसका समाधान वह एक चिकित्सकीय परिणति से नहीं बल्कि उस आर्थिक, सामाजिक राजनैतिक घटाटोप के हर संजाल को छिन्न-भिन्न करने वाली क्रान्तिकारी चिकित्सा से दर्शाती। लेकिन ‘स्माइल पिंकी’ ऐसा नहीं करेगी क्योंकि ऐसा करने से हिलने लगेगा वह सिंहासन व राजदण्ड जो देता है मेगन मायलन के हाथ में 14 कैरेट गोल्ड प्लेटेड व्रिटेनियम की बनी ‘एकेडेमी अवार्ड ऑफ़ मेरिट’ की वह 13.5 इंच की चमचमाती ट्राफ़ी!

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अप्रैल-जून 2009

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