कहानी – दो मौतें
अलेक्सान्द्र सेराफ़ेमोविच
एक लड़़की मास्को सोवियत के प्रधान कार्यायल में आई। उसकी आँखें भूरी थीं, और उसके सिर पर रूमाल था।
अक्टूबर का डरावना आसमान था। युंकर (फ़ौजी स्कूल के अफ़सर–छात्र- सं.) गीली छतों पर चुपके–चुपके रेंग रहे थे और चिमनियों की आड़ से गोली बरसाकर बेफ़िक्री से सोवियत चौक पार करनेवाले लोगों को मार गिरा रहे थे।
लड़की बोली:
“मैं क्रान्ति के लिए कोई बड़ा काम तो नहीं कर सकती। मैं आपको युंकरों के बारे में सूचनाएँ पहुँचाना चाहती हूँ। नर्स का काम मैं जानती नहीं, और नर्सें आपके पास है भी काफ़ी। मैंने आज तक कभी हाथ में हथियार नहीं उठाया है, अतः लड़ भी नहीं सकती। पर अगर आप मुझे पास दे दें तो मैं आपको युंकरों के बारे में सूचनाएँ ला-लाकर दे सकती हूँ।
चिकने पड़े चमड़े की जाकट पहने साथी ने बड़े गौर से उसकी ओर देखा। उसकी पेटी में पिस्तौल लटक रही थी, और तपेदिक की बीमारी और रातों के जागरण से उसके गाल बैठ गये थे।
वह बोला:
“आजकल की हालत समझती हो? अगर तुमने हमें बेवकूफ़ बनाया, तो हम तुम्हें गोली से उड़ा देंगे। और अगर तुम दुश्मनों के हाथ लग गईं, तो वह तुम्हें गोली मार देंगे, और अगर तुमने हमसे धोखा किया, तो हम तुम्हें अभी यहीं गोली से उड़ा देंगे।”
“मैं जानती हूँ।”
“तुमने सब कुछ अच्छी तरह सोच-विचार कर लिया है?”
उसने अपना रूमाल ठीक किया।
“आप मुझे पास दे दीजिये और ऐसे कागजात दे दीजिए जिससे यह साबित हो कि मैं फ़ौजी अफ़सर की बेटी हूँ।”
उन्होंने उससे दूसरे कमरे में जान के लिए कहा और एक संतरी पहरे पर लगा दिया।
चौक में दोनों तरफ़ से गोलियाँ चलीं, युंकरों की एक बख्तरबन्द गाड़ी आई थी, गोलियाँ चली थीं और गाड़ी वापस चली गई थी।
“जाने यह सब क्या बला है। हमने उसके बोर में पूछताछ की है, पर उससे भी क्या हासिल होगा?”-तपेदिक के से चेहरेवाला साथी बोला।–“हो सकता है कि उसके कारण हम खतरे में पड़ जायें, वह हमें धोखा दे दे। चलो, पास तो उसे दे ही दो। और अगर वह ऐसी–वैसी हरकत करती पकड़ी गई, तो हम उसे ठिकाने लगा देंगे।”
उसे नकली कागजात दिये गये, और सड़क के कोनों पर तैनात लाल सेना के संतरियों को अपना पास दिखलाती वह अरबात सड़क पर स्थिर अलेक्सांद्रोव फ़ौजी स्कूल के लिए चल पड़ी।
ज्नामेंका सड़क पर पहुँचते ही उसने अपना लाल पास छिपा लिया। यहाँ युंकर उसे चारों ओर से घेर कर स्कूल के अन्दर ड्यूटी अफ़सर के पास ले गये।
लड़की बोली:
“मैं नर्स का काम करना चाहती हूँ। सम्सोनोव के पीछे हटते समय मेरे पिता जर्मन युद्ध में मारे गये थे। मेरे दो भाई दोन क्षेत्र की कज्जाक-फ़ौजी टुकड़ियों के साथ हैं। यहाँ मैं हूँ और एक मेरी छोटी बहन।”
“ठीक, बहुत अच्छा। हमें बड़ी खुशी है। हम अपने महान रूस के लिए विकट संघर्ष कर रहे है। किसी भी भले देशभक्त की सहायता पाकर हमें खुशी होती है। और तुम तो अफ़सर की लड़की हो। कृपया इधर आओ।”
लोग उसे बैठक में ले गये, और उसके लिए चाय लाये।
ड्यूटी अफ़सर अपने मातहत से बोला:
“स्तेपानोव, मजदूरों जैसे कपड़े पहन लो और पोक्रोव्का सड़क चले जाओ। पता यह है। यह जो लड़की यहाँ बैठी है, इसके बारे में सब कुछ पता लगाकर लाओ।”
स्तेपानोव ने कोट पहना, उसके ऊपरी हिस्से में खून का दाग और छेद था। यह कोट कुछ समय पहले ही मरे मजदूर के बदल से उतारा गया था। उसने उसके पतलून, कटे-फ़टे जूते और टोपी भी पहन ली और शाम के झुटपुटे में पोक्रोव्का के लिए रवाना हो गया।
वहाँ उसे दुबला-पतला आदमी मिला। उसके सिर के बाल लाल थे और वह अजीब ढंग से आँखें घुमाता था। उसने उस लड़की के बारे में बतलाया:
“हाँ-हाँ, नम्बर दो में कोई औरत रहती जरूर है। उसके साथ एक छोटी बहन भी है। साली पैसेवाली है!”
“इस समय वह कहाँ है?”
“आज सुबह से तो घर आई नहीं। हो सकता है कि गिरफ्तार कर ली गई हो। कप्तान की बेटी है, पूरी हरामजादी जो ठहरी। लेकिन तुम्हें उसकी क्या जरूरत आ पड़ी है?”
“उसकी नौकरानी हमारे गाँव की है। उसी से मिलना चाहता था, और कुछ नहीं। अच्छा, चला।”
रात को जब युंकर अपनी-अपनी ड्यूटियों से लौटे, तो उन्होंने लड़की की बड़ी खातिर की। उसके लिए केक, मिठाइयाँ मँगवाईं। एक ने जोर–जोर से पियानो बजाना शुरू कर दिया, तो दूसरा बाकायदा जमीन पर घुटना टिकाकर हँसते उसे गुलदस्ता भेंट करने लगा।
“हम जल्दी ही इन बदमाशों को ठिकाने लगा देंगे। वैसे बहुत अच्छी सीख दे चुके हैं हम इन्हें। कल रात को स्मोलेन्स्की बाजार की तरफ़ से हमला बोलेंगे। तब देखना कैसे इनके होश उड़ते हैं।”
दूसरे दिन वे उस लड़की को मरहम-पट्टी के काम के लिए अस्पताल ले गये।
चूने से पुती दीवार के पास से गुजरते हुए किसी चीज की ओर उसका ध्यान गया: दीवान से लगी एक मजदूर की लाश पड़ी थी। उसके बदन पर गुलाबी कमीज थी, सिर पीछे की ओर लटका था, फ़टे तलेवाले जूते कीचड़ से सने हुए थे और बाईं आँख के ऊपर काला छेद था।
“जासूस है”, बिना उसकी ओर देखे, उधर से गुजरते हुए युंकर ने कहा, “हमने पकड़ा था उसे।”
सारे दिन लड़की ने इतनी दया और कुशलता से लोगों की मरहम-पट्टी की कि उसकी काली, लम्बी बरौनियोंवाली भूरी आँखों को घायल लोग कृतज्ञता से देखते थे:
“धन्यवाद, सिस्टर।”
दूसरे दिन रात को उसने घर जाने की अनुमति माँगी। जवाब मिला: खाली नहीं है? एक-एक कोने पर दुश्मनों की निगाह है। तुम हमारे इलाके से बाहर निकली नहीं कि वे बदमाश, तुम्हे पकड़कर, बिना कुछ कहे-सुने गोली मार देंगे।”
“मैं उन्हें अपने कागजात दिखलाऊँगी। मैं तो शान्तिप्रिय नागरिक हूँ। मैं इस तरह बाहर नहीं रह सकती। घर पर मेरी छोटी बहन है। भगवान जाने उसका हाल क्या है, वह कैसी है, मुझे बड़ी चिन्ता हो रही है।”
“अच्छा, घर पर छोटी बहन है। तो ठीक है, दो युंकर मैं तुम्हारे साथ किये देता हूँ। वे तुम्हें पहुँचा आयेंगे।”
“नहीं, नहीं…”-हाथ आगे करते हुए डरी आवाज में लड़की बोली, “मैं अकेले चली जाऊँगी… बिल्कुल अकेले… मुझे डर नहीं लगता।”
उसने उसकी आरे गौर से देखा।
“हाँ… ठीक है, तो जाओ।”
“गुलाबी कमीज, आँख के ऊपर काला छेद… सिर पीछे लटका हुआ…”-लड़की के दिमाग में कौंध गया।
वह फ़ाटक के बारह निकली, और तुरन्त ही अँधेरे के समुन्दर में खो गई– न किसी चीज का नाम-निशान, न किसी तरह की कोई आवाज।
स्कूल की ओर से कोना काटते हुए उसने अरबात चौक पार किया और फ़िर अरबात गेट पर आई। अँधेरे का एक छोटा सा घेरा प्रतिपल उसके साथ चल रहा था, और इसमें वह अपनी आकृति पहचान रही थी। और कहीं कुछ नहीं। इतनी बड़ी दुनिया में वह बिल्कुल अकेली थी।
वह भयभीत नहीं थी, पर भीतर से बाहर तक उसमें तनाव था।
याद आ रहा था, बचपन में पिता के बाहर चले जाने पर वह कभी-कभी उनके कमरे में चली जाती, पलंग के ऊपर दीवार पर लगे कालीन पर लटके गिटार को उतारती, पैर सिकोड़कर बैठ जाती, तार को छेड़ती, खूँटी फ़िराती, तार खूब कसती जाती और उससे निकलता स्वर ऊँचा और करुण हो जाता कि जो सुना न जा सके। झन–झन–झन… तार की झनझनाहट हृदय को चीरने लगती… अब और नहीं कसा ला सकता था, तार टूट जाता… वह सिर से पैर तक सिहर उठती, और उसके माथे पर पसीने की बूँदे छलक आतीं… इससे उसे ऐसा सुख मिलता था, जिसकी कोई तुलना नहीं थी।
वह ही वह अँधेरे में चली जा रही थी, मन में कोई डर न था, बस कानों में ऊँचा और ऊँचा गूँज रहा था: झन–झन–झन… उसे अपनी स्याह आकृति अस्पष्ट सी दिखाई दे रही थी।
सहसा ही उसने हाथ फ़ैलाया, तो वह किसी मकान की दीवार से जा लगा। उसके सारे शरीर में डर की एक लहर सी दौड़ गई और वह ऐसी कमजोरी महसूस करने लगी कि उसके माथे पर पीसने की बूँदें छलक आईं, बिल्कुल बचपन के दिनों की सी। अरे-मकान की दीवार, पर यहाँ तो पार्क की रेलिंग होनी चाहिए थी। मतलब यह कि मैं रास्ता भटक गई हूँ। खैर, इससे क्या फ़र्क पड़ता है। अभी रास्ता मिल जायेगा। अन्दर की कँपकँपी से उसके दाँत किटकिटा रहे थे। किसी ने झुककर कानों में उपहास से फ़ुसफ़ुसाकर कहा:
“यह तो अन्त का आदि है… समझती नहीं तुम?– तुम सोचती हो कि तुम केवल रास्ता भटक गई हो, लेकिन, नहीं यह तो आरम्भ है…”
उसने याद करने की भरसक कोशिश की: दाईं ओर ज्नामेन्का सड़क, बाईं ओर पार्क… हो न हो, वह वहीं कहीं है इन दो जगहों के बीच। उसने हाथ फ़ैलाया तो एक खम्भा था। तार का खम्भा है न? उसका दिल जोर–जोर से धड़कने लगा। वह झुक गई औ कुछ टटोलने सी लगी, उँगलियाँ ठण्डे, गीले लोहे पर पड़ीं… पार्क की रेंलिग। तुरन्त उसके मन का बोझ उतर गया। वह चुपचाप उठी और… काँपने लगी। उसे आसपास की हर चीज घूमती सी लग रही थी, धुँधली सी, कभी छिपती, कभी दिखती, इमारतें, दीवारें पेड़। ट्रामों के खम्भे, ट्राम की पटरियाँ, हर चीज खून से लाल रंग की और खून अंधकार में चलती लग रही थी। खून सा लाल कुहरा भी हिलता लग रहा था। नीचे लटके से बादलों में भी लाल रंग कौंध रहा था।
वह उसी तरफ़ चल दी, जिधर से यह खामोश, कँपकँपाती प्रकाश-किरण आ रही थी। वह निकीत्सकिये गेट की तरफ़ जा रही थी। अजीब बात थी कि अब तक न तो किसी ने उसे आवाज दी और न किसी ने उसे टोका। पर, इस बात का ज्ञान उसे बराबर रहा कि बड़े-बड़े गेटों के पास और मकानों के दरवाजों के पास, हर जगह अँधेरे काने में संतरी छिपे खड़े हैं, और उनकी आँखें बराबर उस पर लगी थीं। वह उनके आगे से गुजर रही थी, लाल प्रकाश उसके ऊपर पड़ रहा था, वह चलती गई उस लाल प्रकाश को चीरती।
वह शान्त भाव से कदम बढ़ाती एक हाथ में सफ़ेद गार्डों का दिया पास पकड़े और दूसरे में लाल गार्डों का दिया, जब जिस पास की जरूरत होगी, तब वहीं दिखाने के लिए। सड़कें सूनी थीं। जब जिस पास की जरूर थी केवल लपटें, दर्द से भरी, खामोश। निकीत्सकिये गेट के आसपास और भी भयानक आग लगी थी। लपट की जीभें नीचे छाये लाल बादलों को भेद रही थीं, और बादलों परल लाल धुँआ फ़ैल जाता था। एक बड़ी, ऊँची इमारत ऊपर से नीचे तक आग में धधक रही थी, उस आग के प्रकाश में आँखें चौंध जाती थीं। इस भीषण अग्नि-काण्ड में हर चीज बुरी तरह थरथर रही थी और ऊपर हवा में उछल जाती थी। केवल कड़ियाँ, मुंडेरे और दीवारं काले अस्थि-पंजर सी स्थिर खड़ी थीं। जहाँ पहले खिड़कियाँ थीं-वहाँ केवल बड़े-बड़े छेद रहे गये थे-उनमें से भी झुलसती लपटें निकल रही थीं।
जैसे एक लम्बी पूँछवाले लाल पक्षी की चिनगारियाँ आसमान तक उठी जा रही थीं और उस इमारत के आसपास की हर चीज चिनगारियों और लपटों की चटकने की आवाज में डूबी जा रही थी।
लड़की ने मुड़कर देखा। सारा शहर अंधकार में खोया था। अनगिनत इमारतें, घण्टाघर, चौक, पार्क, थियेटर और चकले-कुछ भी नजर नहीं आता था, अँधेरा था बस, गहरा, घना।
सब जगह सन्नाटा था रहस्य-भरा सा। लगा कुछ होनेवाला है, पर बताया नहीं जा सकता। इस गहन सन्नाटे में जैसे इंतजार था, आशंका थी। लड़की सहम गई।
बेहद गरमी थी। उसने कोना काटा और सड़क पार की, पर नुक्कड़ पर पहुँचते ही भारी सा आदमी अँधेरे में से निकला। उसकी संगीन पर रोशनी पड़ रही थी।
“कहाँ जा रही हो? कौन हो?”
वह ठिठकी और उसने आँखें ऊपर कीं। पर, किस हाथ में कौन सा पास है, इसका उसे ध्यान ही नहीं रहा। नतीजा यह हुआ कि पल भर को वह झिझकती रही। रायफ़िल की नली उसकी छाती से आ लगी।
बात क्या है? लड़की ने दायाँ हाथ आगे करना चाहा था, पर बायाँ हाथ आगे बढ़ गया और खुल गया।
उसके हाथ में युंकरों का दिया पास था।
संतरी ने रायफ़िल नीची कर ली और अपनी मोटी, बेकाबू सी उँगलियों से पास को सीधा किया। एक क्षण को लड़की सिहर उठी, ऐसी अनुभूति उसे कभी नहीं हुई थी। उसके पीछे आग की चटक-चटककर बिखरती चिनगारियों का प्रकाश कौंध रहा था। युंकरों का दिया पास संतरी की सख्त हथेली पर उलटा रखा था…
“अहा, यह अनपढ़ है।”
“यह लो।”
लड़की ने उस मनहूस पास को मरोड़ लिया।
“कहाँ जाना चाहती हो?” संतरी ने पूछा।
“प्रधान कार्यालय में… सोवियत के दफ्तर में।”
“गलियों से होती हुई चली जाओ, नहीं तो दुश्मनों के हाथ पड़ जाओगी।”
प्रधान कार्यालय में उसकी बड़ी आवभगत की गई, जो सूचना वह लाई थी, वह बड़े महत्व की थी। सबने उससे बड़े मैत्री-भाव से बातें कीं और तरह-तरह के सवाल किये। चमड़े की जाकट पहने, तपेदिक से पीले चेहरेवाला आदमी उसकी ओर देखकर स्नेह से मुस्कराया:
“शाबाश, शाबाश! लेकिन, जरा सम्भल कर रहना।”
शाम को गोलियों की बरसात थमी कि लड़की अरबात सड़क की ओर रवाना हुई। अस्पताल में पास के इलाके से आनेवाले घायलों की गिनती प्रति क्षण बढ़ रही थी। युंकरों ने स्मोलेन्स्की बाजार की ओर से हमला किया था, जिस में उन्हें मुँह की खानी पड़ी। उनकी भारी हानि हुई थी।
थकान से बुरी तरह चूर होने पर भी लड़की सारी रात घायलों को पानी देती रही और उनके घावों की मरहम-पट्टी करती रही। घायल उसकी प्रत्येक गतिविधि की ओर ध्यान देते, और उसी ओर कृतज्ञता से देखते थे। अगली सुबह मजदूरों के कपड़े पहने युंकर झपटता हुआ अस्पताल में आया। उसके बाल बिखरे थे, सिर नंगा और चेहरा विकृत था।
वह दौड़ता हुआ सीधा लड़की के पास पहुँचा:
“इस… इस कुतिया ने… हमें धोखा दिया है…”
लड़की लड़खड़ाकर पीछे हटी और कागज की तरह सफ़ेद पड़ गई। पर, दूसरे ही क्षण उसका चेहरा तमतमा उठा, और वह चिल्लाई: “तुम… तुम मजदूरों को मौत के घाट उतार रहे हो! और, वे… वे अपनी गरीबी से, अपने नरक से उभरने के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं… मैंने… मुझे हथियार चलाना नहीं आता, फ़िर भी मैंने तुम्हें मार डाला…”
वे उसे चूने से पुती दीवर के पास लाये। लड़की ने आज्ञाकारितापूर्वक छाती पर दो गोलियाँ झेलीं, और वहीं गिर पड़ी, जहाँ पहले सूती कमीज पहने मजदूर पड़ा था। इसके बाद जब तक वे उसे वहाँ से ले नहीं गये, उसकी लम्बी बरौनियोंवाली भूरी आँखें बराबर आसमान पर लगी रहीं-अक्टूबर के रुक्ष, डरावने बादलों को एकटक निहारती रहीं।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-मार्च 2009
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