पप्पू वोट देकर क्या करेगा!

आशु, दिल्ली

दिल्ली विधानसभा चुनाव के मौके पर लोगों को मतदान के प्रति जागरूक करने के लिए ए.आर.रहमान की धुन की पैरोडी ‘पप्पू वोट नहीं देते’ की मदद ली गई। ग़ौरतलब है कि लगातार युवा वर्ग की दिलचस्पी मतदान में कम हो रही है। ऐसे में पप्पू के इस विज्ञापन को दिल्ली की सड़कों, रेडियो, सिनेमाघर में प्रसारित किया गया। और हर जगह लोगों से वोट ज़रूर देने की अपील की गयी।

आइये देखते हैं, अगर विज्ञापन से प्रभावित होकर पप्पू वोट देने के लिए भी तैयार होता है तो किसे वोट देता है? हालत यह है कि चुनावी नेताओं और अपराधियों के बीच कोई ख़ास फ़र्क नहीं रह गया है। एक गैर-सरकारी संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक जिन पाँच राज्यों में अभी चुनाव होने हैं। उनमें निर्वाचित हर पाँच में से एक विधायक की आपराधिक पृष्ठभूमि है। रिपोर्ट के अनुसार कुल नवनिर्वाचित 549 जनप्रतिनिधियों में से 124 का आपराधिक रिकार्ड है। अगर दिल्ली विधानसभा की बात की जाये तो कुल 70 सीटों वाली विधानसभा में 39 फ़ीसदी विधायक दागी हैं। यानी राजधानी दिल्ली में 91 उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि है।

दूसरी ओर चुनावी नौटंकी का खेल शुरू से देखा जाये तो शुरूआत होती है उम्मीदवार को टिकट देने से जिसमें असल में ज्यादा से ज्यादा बोली लगाकर टिकट बेचे जाते हैं। इसमें कांग्रेस और बीजेपी अव्वल हैं। लेकिन ग़रीबों और दलितों की पार्टी होने का दावा करने वाली बसपा भी इस खेल में पीछे नहीं है। महरौली विधानसभा क्षेत्र में बसपा ने घोषित उम्मीदवार जगदीश लोहिया को इसलिए टिकट नहीं दिया गया क्योंकि उनके पास वोट खरीदने के लिए नोट नहीं थे। जबकि चौधरी कंवर सिंह अपने मतदाताओं को रिझाने के लिए कई बार डांसर बुलाकर महफ़िल सजाने की औकात रखते हैं। जबकि कई निर्दलीय उम्मीदवार खड़े ही इसलिए होते हैं कि चुनाव के बिजनेस में मोलभाव करके मालामाल हो सके और खरीददार की झोली में वोट बैंक बढ़ा दे। दिल्ली में आधे दर्जन प्रत्याशियों ने मतदाता से पहले ही विरोधियों की गोद में बैठने की घोषणा कर दी है।

इस आधी तस्वीर में पप्पू ने चुनाव में खड़े उम्मीदवार की धनबल और बाहुबल की “योग्यता” देखी। आइये पूरी तस्वीर देखने के लिए पार्टियों के एजेण्डे और प्रचार का जायजा लिया जाये। पप्पू देखता है कि सभी चुनावी पार्टी मतदाताओं को लुभाने के लिए लुभावने नारे उछालने और कभी न पूरे होने वाले वायदे करने में एक-दूसरे को पछाड़ने में लगी हुई है। कोई भी पार्टी आम मेहनतकश जनता की जिन्दगी से जुड़े रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे बुनियादी मुद्दों को नहीं उठा रही है और विपक्षी पार्टियाँ महँगाई का मुद्दा उठाना भी सिर्फ़ जुबानी जमाखर्च से ज्यादा कुछ नहीं है। क्योंकि इनके राज में भी जनता ने महँगाई की मार झेली थी। सीधे-सीधे तौर पर सभी चुनावबाज पार्टियाँ आर्थिक नीतियों के सवाल पर चोर–चोर मौसेरे भाई हैं। ऐसे में चुनावबाज पार्टियों का वोट लेने का आधार धर्म, जाति-भाषा, क्षेत्र ही बचता है। और इस वोट बैंक की पतित राजनीति इनका आधार है।

चुनावी प्रचार पर नजर डाली जाये तो सिर्फ़ ये धन की बर्बादी के सिवाये कुछ नहीं है जिसमें लाखों-करोड़ों रुपये के पोस्टर, परचे, बैनर, शराब, गाड़ी और न जाने कितनी जगह, इस पैसे को पानी की तरह बहाया जाता है और प्रचार कार्य में भीड़ बढ़ाने के लिए दिहाड़ी मजदूरों, महिलाओं और बाल मजदूरों को शामिल किया जाता है। वैसे नारे लगा रहे इन मजदूरों को कई बार उम्मीदवार का नाम तक नहीं पता होता है लेकिन पेट के खातिर उन्हें किसी का झण्डा उठाना मंजूर है क्योंकि उनके लिए वोट से ज्यादा जरूरी दो जून की रोटी है। और कई नेता अपने भाषणों में बाल मजदूरी को अभिशाप बताते नहीं थकते, उनकी ही सभाओं में बाल मजदूरों से प्रचार–सामग्री बंटवाते देखा जा सकता है।

ये कुछ तथ्य हैं जिनको देखकर समझा जा सकता है कि ‘पप्पू’ के वोट देने के बावजूद चुनावी नौटंकी की फ़ूहड़ता को छिपाया नहीं जा सकता है। चुनावी नौटंकी में कोई जीते, हारेगी जनता ही।

वैसे पूँजीवादी व्यवस्था के पहरेदार चुनावी नौटंकी को बार-बार निष्पक्ष और अपराधमुक्त बनाने का प्रयास करते हैं मगर जिस व्यवस्था के केन्द्र में ही लोभ-लाभ की संस्कृति और मूलमंत्र मुनाफ़ा होगा वहाँ सारे नियम कानून को ताक पर रखकर लूट और शोषण बदस्तूर जारी रहेगा।

वैसे ये कोई नयी बात नहीं है जिसका संज्ञान व्यवस्था के पहरेदार को न हो। तभी चुनाव से पहले मुख्य चुनाव आयुक्त गोपालस्वामी ने ‘‘धनबल और बाहुबल को स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए बड़ी बाधा बताया। और ये बाधा दुनिया के सबसे बड़े ‘लोकतंत्र’ के लिए अच्छा संकेत नहीं है’’। जाहिरा तौर पर मुख्य चुनाव आयुक्त चुनावी नौटंकी में रैफ़री की भूमिका में होता है जिसका काम यही है कि लोगों का इसी व्यवस्था में विश्वास बनाये रखने के लिए चुनावी कवायद को निष्पक्ष और अपराधमुक्त बनाए रखा जाये।

लेकिन दुनिया के सबसे बड़े ‘लोकतंत्र’ की उम्र जैसे-जैसे बढ़ती जा रही है वैसे-वैसे ये पाँच साला चुनावी नौटंकी और ज्यादा फ़ूहड़, नंगे और बर्बर रूप में सामने आती जा रही है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-मार्च 2009

 

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