मीडिया ने फ़ूलाया नौकरियां बढ़ने का गुब्बारा। नौजवानों के साथ एक मज़ाक!

योगेश, दिल्ली

पिछले दिनों दो प्रमुख बाज़ारू मीडिया संस्थानों-इंडिया टुडे और टाइम्स ऑफ़ इंडिया, ने देश भर में नौकरियों की भरमार का जो हो-हल्ला मचाया, उसकी असलियत जानने के लिए कुछ और पढ़ने या कहने की जरूरत नहीं है, बस खुली आँखों से आस-पड़ोस में निगाह डालिये; आपको कई ऐसे नौजवान दिखेंगे जो किसी तरह थोड़ी-बहुत शिक्षा पाकर या महँगी होती शिक्षा के कारण अशिक्षित ही सड़कों पर चप्पल फ़टकारते हुए नौकरी के लिए घूम रहे है या कहीं मज़दूरी करके इतना ही कमा पाते है कि बस दो वक्त का खाना खा सके। शायद आप स्वयं उनमे से एक हों और नंगी आँखों से दिखती इस सच्चाई को देखकर कोई भी समझदार और संवेदनशील आदमी मीडिया द्वारा फ़ैलाई गई इस धुन्ध की असलियत को समझ सकता है।

यह जानना ज़रूरी है कि मीडिया इस बारे में क्या परोस रहा है। इंडिया टुडे के मई, 2007 के अंक में “नौकरियाँ ही नौकरियाँ” शीर्षक से प्रकाशित एक में ख़बर के ‘विशेष रोजगार सर्वेक्षण’ की मानें तो भारत के नौजवानों के लिए नौकरियाँ इतनी तेज़ी से बढ़ रही हैं कि मानो यह हर दरवाज़े पर खड़ी इंतजार कर रही हो कि कब बच्चा नौजवान हो और उसे नौकरी दी जाए! इस तरह के दावों में टुटपुँजिया वर्ग का हिमायती अख़बार.‘टाइम्स ऑफ़ इण्डिया’ भी पीछे नहीं रहा, बल्कि और आगे बढ़ते हुए उसने जून, 2007 को एक मुख्य ख़बर छापी की भारत में 2000 से 2005 के बीच हर साल 1.13 लाख नौकरियाँ पैदा हुई हैं। इन दो ख़बरों के सन्दर्भ में हम यहाँ यह नहीं कहना चाहते कि अब नौकरियाँ मिलनीं बिल्कुल बन्द हो गयी हैं लेकिन इस सच्चाई से इन्कार नहीं किया जा सकता कि जिन क्षेत्रों में अभी भी काम की सीमित सम्भावनाएँ हैं, उन्हें रोज़गार की परिभाषा में तो कतई नहीं रखा जा सकता है। सरकारी और संगठित क्षेत्रों में तो नौकरियाँ लगातार कम हो रही हैं और इस तथ्य को अलग-अलग सर्वें कई बार साबित करते रहे हैं। खुद प्रधानमन्त्री भी कह चुके है कि वर्तमान आर्थिक नीतियों से होने वाला विकास ‘रोजगार विहीन विकास’ होगा। दूसरा निजी और असंगठित क्षेत्रों में दिहाड़ी या ठेके पर जो काम मिल पा रहा है और जिसे पढ़े-लिखे व योग्यता वाले नौजवान भी करने को मज़बूर है, उसे रोज़गार इसलिए नहीं कहा जा सकता क्योंकि रोज़गार का अर्थ होता है-रोज काम की पक्की गारण्टी, अच्छा वेतन जिसमें वे अपनी सभी बुनियादी आवश्यकताएँ पूरी कर सके। लेकिन फ़िलहाल असंगठित क्षेत्रों में जो काम मिल रहा है, उसमें रोज काम की गारण्टी नहीं है, और कामगारों से दस से बारह घण्टे या कभी इससे ज्यादा भी काम कराया जाता है। इसमें काम के दौरान मिलने वाली सुरक्षा व बुनियादी ज़रूरतों का भी अभाव रहता है। जबकि वेतन के नाम पर बस इतना दिया जाता है कि वह किसी तरह ज़िन्दा भर सके।

आज हमारे देश में बेरोज़गारी का आलम क्या है इसका अनुमान कभी-कभार छपने वाली इन ख़बरों से लगाया जाता सकता है। पिछली जून को कोलकत्ता में सरकारी लेबोरेट्री में अटेंडेट (काम-शीशे साफ़ करना, वेतन–2600) के एक पद पर ठेके की नौकरी के लिए 348 में उम्मीदवार आ जुटें, जिनमें 253 बी.ए. या एम.ए. पास थे। दूसरा अभी हाल में रेलवे विभाग में डी ग्रेड-खलासी के 4787 पदों के लिए देश भर से 8 लाख लोगों ने आवेदन किया। इस पद के लिए शैक्षणिक योग्यता सिर्फ़ 8वीं मांगी गयी थी, जबकि आवेदकों में 50 फ़ीसदी से ज्यादा ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट, एम.बी.ए. , बी.एड. और अन्य डिप्लोमाधारी भी शामिल थे। जब इन नौजवान से जाना गया कि वे ऐसी नौकरी के लिए क्यों आए हैं, जो उनकी योग्यता से काफ़ी कमतर है तो उनका दो टूक जवाब था कि कई सालों की कोशिश के बाद भी जब उन्हें योग्यता के स्तर की नौकरी नहीं मिल रही थी, तो वे करें भी तो क्या? इस सच्चाई के बावजूद कई बुद्धिजीवी और मध्यम वर्ग के लोग यह तर्क दे सकते है कि अब तो केन्द्र सरकार की ओर से “रोज़गार गारण्टी योजना” लागू हो गयी है, जिसे पहले ग्रामीण 200 जिलों में शुरू किया था और अब पूरे देश में लागू कर दिया गया है। इस सन्दर्भ में एक बात तो कहीं जा सकती है कि यह “सरकारी योजना” कुछ लोगों पर भ्रम की चादर डालने में तो जरूर सफ़ल रही है। लेकिन जिन लोगों को इस योजना से कुछ उम्मीदें हो, उन्हें अब पता चल रहा है कि जिन 200 ग्रामीण जिलों में इस योजना को लागू किया गया था, उसका परिणाम क्या रहा? एक तो बेरोज़गारों को साल के 365 दिनों में से 100 दिन रोज़गार देने की बात का क्या तुक है, यह तो महान अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह और उनकी चारण मण्डली ही बता सकती है। क्योंकि बाकी 265 दिन एक परिवार वाला आदमी क्या करेगा यह इस योजना में कहीं नहीं है। जिन 200 जिलों में इसे शुरू किया गया था वहाँ पाँच लोगों के परिवार को सिर्फ़ 700 रुपये ही प्राप्त हुए। यानी हर व्यक्ति को प्रतिदिन 38 पैसे। जबकि सरकार स्वयं मानती है कि किसी भी व्यक्ति को अपने आहार के के लिए इससे कहीं ज्यादा राशि की आवश्यकता पड़ती है। असल में इस तंत्र की कोई भी योजना बेरोजगारी को दूर ही नहीं कर सकती है। हाँ, वह सरकारी भ्रष्टाचारियों और घूसखोरों के लिए नियमित आमदनी का तोहफ़ा लेकर जरूर आती है। ऐसे में रोज़गार गारण्टी योजना के भ्रष्टाचार गारण्टी योजना में रूपान्तरित होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा!

दरअसल मुनाफ़े पर टिकी इस पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजीपति यह कभी नहीं चाहेंगे कि सभी को रोज़गार मिले, क्योंकि सभी को रोज़गार मिल गया तो पूँजीपति या मालिक वर्ग की मोलभाव क्षमता शून्य होगी और मज़दूरों की अनन्त। इसलिए पूँजीवाद में रोजगारशुदा मज़दूरों को निकाल देने का भय दिखाकर, मजदूरी कम करने और उसे निचोड़ने के लिए हमेशा बेरोजगारों की एक रिज़र्व आर्मी चाहिए होती है। इस आर्मी की संख्या बढ़ना पूँजीवाद के लिए खतरा है। पर इस व्यवस्था के दूरदर्शी पहरेदार और इन सब की सेवा में लगा मीडिया भी इसे रोक नहीं सकता। इसलिए मीडिया द्वारा इस पूँजीवादी व्यवस्था के कुरूप चेहरे को छुपाने की कोशिश पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। आधुनिक कॅारपरेट मीडिया का पक्ष इन पूँजीपतियों के साथ होना स्वाभाविक है, क्योंकि आज पूरे मीडिया पर ही पूँजीपति वर्ग का कब्जा है और तीनों खम्बों की तरह इस धनतंत्र का चौथा खम्बा भी जर्जर होती इस व्यवस्था को टिकाये रखने की कोशिश में लगा हुआ है। फ़िर भी दुकानदारों, व्यापारियों और धन्नासेठों के इशारों पर चलने वाला मीडिया बेरोज़गारी की सच्चाई के बारे में कितना भी झूठ परोसे लेकिन आम घरों के नौजवानों को बरगला नहीं सकता है क्योंकि बेरोज़गारी का संकट तो उनके सामने मुँह बाए खड़ा है और अब उन्हें धीरे-धीरे यह भी समझ आ रहा है कि यह व्यवस्था और सरकारें उसे दूर नहीं कर सकती है। तब यह सोचने की जरूरत है कि आखिर रास्ता क्या है?

 

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-मार्च 2008

 

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