राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी योजना – एक विशालकाय सरकारी धोखे का सच!

शिवानी

Nrega 1राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी योजना इन दिनों फ़िर सुख़िर्यों में हैं। कारण, अब इसे जल्द ही देश भर में लागू करने की तैयारी है। जी हाँ, इसे पूरे देश में लागू तो 2011 तक किया जाना था लेकिन अब क्या कहें, काँग्रेस और इस देश के “भावी” युवा नेता राहुल गाँधी इस योजना को जल्द से जल्द लागू करने के लिए इतने चिन्तित और व्यग्र नज़र आए कि अब यह योजना इसी साल पूरे देश में लागू की जायेगी!

संप्रग सरकार तो साल 2005 से ही इसे अपनी उपलब्धि बतला कर फ़ूली नहीं समा रही थी और तथाकथित वामपंथी पार्टियां भी इस योजना को “ऐतिहासिक” घोषित करते हुए कुछ इस अन्दाज़ में नज़र आईं मानों कह रहीं हों कि हमारे दबाव के कारण ही यह संभव हो पाया है कि सरकार विधेयक पेश करने के लिए मजबूर हुई। यही नहीं, तमाम न्यूज़ चैनलों और अख़बारों के तरह-तरह के कलमघसीट विश्लेषक और विशेषज्ञ इस योजना को लेकर अति आशावान नज़र आए और इसे “ऐतिहासिक” साबित करने में तन,मन, और धन से जुट गए। अब जब रोज़गार गारण्टी के नाम पर होनी वाली इस “महान अभूतपूर्व” सरकारी कवायद का चारों तरफ़ ढिंढोरा पीटा जा रहा है, इसको लेकर इतना हो हल्ला मचाया जा रहा है तो यह लाज़िमी है कि एक सरसरी निगाह इस पर भी दौड़ाई जाए कि आखिर यह रोज़गार गारण्टी योजना किसे और कैसे गारण्टी देती है।

यू.पी.ए. सरकार दावा करती है कि राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी योजना के द्वारा वह ग्रामीण बेरोज़गारों की एक बहुत बड़ी आबादी को रोज़गार मुहैया करा देगी। इस योजना के तहत हर ग्रामीण परिवार के एक अकुशल सदस्य को 50 रुपये प्रतिदिन की मज़दूरी के हिसाब से साल में 100 दिन रोज़गार देने की बात की गई है। संसाधनों की कमी का रोना रोते हुए सरकार ने इस योजना को सारे देश में लागू न करते हुए शुरू में केवल 200 ज़िलों में इसे लागू किया। इस योजना के तहत काम पाने की चाह रखने वाले व्यक्तियों को आवेदन भरना होता है। आवेदन के पन्द्रह दिनों के भीतर रोज़गार न मिल पाने की स्थिति में “क्षमा” मांगते हुए बेरोज़गारी भत्ता देना का प्रावधान भी है। इस योजना के अन्तर्गत जिन 200 ग़रीब जिलों को लागू करने के लिए चिन्हित किया गया, उनके लिए 11,300 करोड़ रुपए का मद निर्धारित किया गया था।

तालिका संख्या – 1

ज़िला       कुल आबण्टित राशि(करोड़ रुपये में)            प्रत्येक ज़िले को प्राप्त राशि (करोड़ रुपये में)

200        11,300                                                     56.5

330        12,000                                                     36.36

 

कुल मिलाकर यही है वह रोज़गार गारण्टी योजना जिसे ‘ऐतिहासिक’ बताया जा रहा था और जिसके लिए अभी भी इतना शोर मचाया जा रहा है, साल भर में महज़ 100 दिन का रोज़गार वह भी मात्र 50 रुपए की मज़दूरी पर! लेकिन साल के बाकी 265 दिन वह सौ दिन का (कहना चाहिए) ठेका मज़दूर और उसका परिवार क्या करेगा, क्या ख़ाकर ज़िन्दा रहेगा? ख़ैर, एक तरफ़ जहाँ सरकार इस पहलू पर आश्चर्यचकित ढंग से चुप्पी साधे हुए है, वहीं दूसरी ओर इस योजना के हिमायती यह कहते हुए घूम रहे हैं कि चलो कुछ लोगों को कुछ दिन के लिए ही सही कुछ तो मिल ही रहा है। लेकिन मनमोहन सिंह जी आपका यह “कुछ-कुछ” का सिद्धान्‍त तो वाकई में कुछ भी नहीं कर पा रहा है! बहरहाल, अगर मान भी लिया जाये कि योजना द्वारा निर्धारित न्यूनतम मज़दूरी की दर से हर ग्रामीण परिवार के एक अकुशल बोरोज़गार को साल में 100 दिन का रोज़गार मिल भी जाता है, जिसे अब तक के आंकड़ों और अनुभव असम्भव साबित कर चुके हैं, तो भी यह राशि औसतन एक महीने में महज़ 415 रुपए ही होगी। इस राशि में तो एक व्यक्ति को महीने भर भरपेट खाना भी नसीब नहीं हो सकता। शिक्षा, चिकित्सा पर होने वाले ख़र्च को तो भूल ही जाइये। रोज़गार गारण्टी के नाम पर यह कितना बड़ा सरकारी छल है इसका अन्दाज़ा तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि विधेयक में परिवार की परिभाषा स्पष्ट नहीं की गई है। अधिकांश गाँवों में अभी भी संयुक्त परिवार के ढाँचे मौजूद हैं। इसके चलते होगा यह कि संयुक्त परिवार को ही परिवार का पैमाना मानकर एक व्यक्ति को रोज़गार के लिए चुना जाएगा। खै़र, यह सरकारी मेहरबानी तो अभी केवल गाँवों तक ही सीमित है, इसलिए तो इस योजना के ज़रिये फ़िलहाल वह ग्रामीण बेरोज़गारों पर ही इनायत फ़रमा रही है। शहरी बेरोज़गारों की करोड़ों की आबादी की ओर ताकने की ज़हमत सरकार अभी नहीं उठाना चाहती। दूसरी बात यह है, कि शहर में पूँजी के अतिलाभ को निगाह में रखकर विशेष आर्थिक क्षेत्रों आदि के नाम पर जो औद्योगिक विकास हो रहा है वह शहरी बेरोज़गारों की आबादी के एक छोटे हिस्से को खपा सकता है। लेकिन शहरी बेरोज़गारों की संख्या में इससे ज़्यादा बढ़ोत्तरी सरकार ‘अफ़ोर्ड’ नहीं कर सकती। इसलिए बेहतर होगा कि गाँव से आने वाले सम्भावित प्रवासी को अर्ध-भुखमरी (यानी सौ दिन के रोज़गार के साथ) की हालत में अभी कुछ और समय तक गाँव में ही रोके रखा जाय। राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी योजना का एक लक्ष्य यही भी है। यानी, एक तीर से कई शिकार करने का इरादा है।

कितनी कारगार राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी योजना? एक निगाह आँकड़ों पर

यह ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना कितनी कारगर साबित हो रही है, यह तो इस लेख में आगे साफ़ हो जाएगा। लेकिन फ़िलहाल इस योजना के तहत आबण्टित की गई राशि पर एक नज़र डालने भर से सरकार द्वारा खड़े किये गये धूम्रावरण के पीछे की असलियत उजागर हो जाएगी। जैसा कि हमने पहले भी बताया कि शुरूआत में 200 जिलों में 11,300 करोड़ रुपए के मद के साथ इस योजना की शुरूआत की गई थी। गणना करने पर निकलता है कि प्रत्येक ज़िले के लिए औसतन 56.5 करोड़ रुपए की राशि की व्यवस्था की गयी थी। अभी पूरा साल भी नहीं गुज़रा था कि आबण्टित राशि तो 11,300 करोड़ से बढ़ाकर 12,000 करोड़ कर दी गयी लेकिन दूसरी तरफ़ जिलों की संख्या में 130 की अप्रत्याशित वृद्धि कर दी गयी। यानी अब प्रत्येक ज़िले की संख्या में 130 की अप्रत्याशित वृद्धि कर दी गयी। यानी अब प्रत्येक जिले को औसतन 56.5 करोड़ के स्थान पर 36.36 करोड़ ही मिल पायेगा। तालिका संख्या 1 से यह आंकड़े स्पष्ट हो जाँएगें।  यही नहीं, प्राप्त जानकारी के मुताबिक इस योजना के पहले साल में 200 जिलों के 1.5 करोड़ से अधिक परिवारों ने पंजीकरण करवाया लेकिन उनमें से सिर्फ़ 140 लाख परिवारों को ही रोज़गार मुहैया कराया जा सका। मतलब 10 लाख से अधिक बेरोज़गार ही रहे और जिन परिवारों को इस योजना के तहत रोज़गार मिला उन्हें भी यह रोजगार साल में 100 दिन के लिए नहीं बल्कि औसतन 30 दिन के लिए ही मिला। ग्रामीण विकास मन्त्रालय के रिकॉर्ड स्वयं यह स्वीकारते है कि इस योजना के 33 प्रतिशत उद्देश्य ही प्राप्त किये जा सके हैं। बावजूद इसके, सरकार इसे पूरे देश में लागू करने के लिए विशेष रूप से उत्साहित है।

रोज़गार गारण्टी योजना के क्रियान्वयन के राज्य स्तर पर हुए सर्वेक्षणों के परिणाम तो इस योजना के निष्प्रभावी होने और इसे महज़ एक सरकारी झुनझुने से ज़्यादा कुछ न होने का और बेहतर तरीके से खुलासा करते हैं।

आइए पहले एक नज़र उड़ीसा पर डालें। अपनी ग़रीबी और भुखमरी के लिए कुख्यात उड़ीसा के कालाहाण्डी ज़िले के जूनागढ़ ब्लॉक के बलदेवमल गाँव में नयी रोज़गार गारण्टी योजना के लिए 350 जॉब कार्ड दिये गये। वहाँ की ग्राम पंचायत के मन्त्री ने गाँव में 450 मानव दिन के रोज़गार के अवसर प्रदान करने का दावा किया। यानी एक परिवार को सिर्फ़ सवा दिन का रोज़गार प्राप्त होगा! सम्पूर्ण उड़ीसा प्रान्त की कुल जनसंख्या 3 करोड़, 70 लाख में कुछ 32 लाख जॉब कार्ड जारी किये गये, जिनपर महज़ 450 लाख मानव दिन का रोज़गार दिया गया। यानी एक परिवार को 14 दिन का रोज़गार मिला। इसके अलावा उड़ीसा के गजपति ब्लाक के दो गाँवों में रोज़गार प्राप्त करने वाले व्यक्तियों को जॉब कार्ड भी नहीं दिये गए। कोरापुट, रायगद, नवरंगपुर जिलों के कई गाँवों में काम करने के बावजूद कोई भुगतान नहीं हुआ। हाल ही में, उड़ीसा में पर्यावरण और खाद्य सुरक्षा केन्द्र, दिल्ली के परशुराम रे द्वारा किया गया अध्ययन कुछ नंगे तथ्यों को सामने लाया: ऐसे गाँवों की संख्या जिनमें पूरी और सही जॉब कार्ड प्रविष्टि हुई हो-100 में से 0; ऐसे गाँवों की संख्या जिन्होंने 100 दिन का रोजगार मुहैया कराया-100 में से 0; ऐसे गाँवों की संख्या जहाँ न तो कोई रोज़गार और न ही जॉब कार्ड दिए गए-100 में से 11; ऐसे गाँवों की संख्या जहाँ कोई रोज़गार नहीं दिया गया-100 में से 37!

तो यह है इस योजना की सच्चाई और वहीं उड़ीसा की सरकार बड़ी बेशर्मी से इस बात का दावा करती है कि उसने 700 करोड़ के मदों का व्यय किया, यानी, 82.39 प्रतिशत मदों का इस्तेमाल किया। यह इस्तेमाल ज़मीन पर तो कहीं नज़र नहीं आया, हाँ मगर योजना का कार्यान्यन करने वालों की जेबों में ज़रूर दिख गया! यह सिर्फ़ एक राज्य का सच नहीं है, यह योजना जिन भी राज्यों और जिलों में लागू हुई वहाँ इसमें ऐसी ही या इससे मिलती जुलती हकीकत का ही बयान किया।

महाराष्ट्र के चन्द्रपुर ज़िले में, 2005–06, और 2006–07 के दौरान कुल 51.35 करोड़ राशि आबण्टित की गई मगर खर्च केवल 8.04 करोड़ ही किया गया (मार्च 31, 2007 तक)। ग़ौरतलब है कि महाराष्ट्र में रोज़गार गारण्टी योजना पिछले 30 सालों से लागू है। एक सर्वेक्षण के अनुसार महाराष्ट्र के गाँवों की महज 1.9 प्रतिशत आबादी ने ही इस योजना के तहत अपना नाम दर्ज कराया। कारण साफ़ है नाममात्र के रोज़गार से पेट नहीं भरता! महाराष्ट्र के 30 सालों के अनुभव से साफ़ हो गया है कि ऐसी कोई भी योजना ग़रीबी और बेरोज़गारी रोकने में कारगर नहीं होगी।

 तो फ़िर इस रोज़गार गारण्टी योजना का क्या मतलब है? वास्तविकता यह है कि यह एक भ्रम का पर्दा है, एक धूम्रावरण है, इस व्यवस्था के कुरूप चेहरे को छिपाये रखने के लिए और इस पर इस देश के प्रधानमन्त्री श्रीमान “भोले-भाले” इसके ईमानदारी से क्रियान्वयन पर, प्रशाशसनिक स्तर पर होने वाली गलतियो, ख़ामियों, कमियों को दूर करने पर बल देते हैं। उनके मुताबिक ऐसे ही गरीबों की आर्थिक दशा में सुधार आएगा और ग़रीबी पर भी काफ़ी हद तक नियंत्रण हो सकेगा (हंसिये मत! हमारे अतिसज्जन प्रधानमंत्री जी यह बात बहुत ही गम्भीरता से कह रहे है!)

मगर अब मनमोहन सिंह जी को कौन समझाए कि ऐसी कई योजनाएँ आईं और चली गई, जैसे मिड डे मील, अन्त्योदय योजना, अन्नपूर्णा, आशा आदि, लेकिन इनमें से किसी भी योजना के उद्देश्य को पूरा नहीं किया जा सका है। सच तो यह है कि प्रधानमन्त्री महोदय को इस बाबत कुछ भी समझाने की आवश्यकता नहीं है। इस व्यवस्था के संकट ज्यों के त्यों बने रहेंगे, बल्कि और भी बदतर होते जाएँगे। दरअसल एक पूँजीवादी व्यवस्था के तहत बेरोज़गारी दूर की ही नहीं जा सकती। यह एक शेख्चिल्ली के सपने से ज्यादा कुछ नहीं है। इस व्यवस्था के पैरोकार ख़ुद भी नहीं चाहेंगे कि बेरोज़गारी दूर हो। बेरोजगारों की एक रिज़र्व फ़ौज की जरूरत तो पूँजीवाद को हमेशा ही रहती है जो रोज़गारशुदा मज़दूरों की मोलभाव क्षमता को कम करने के लिए पूँजीपतियों द्वारा इस्तेमाल की जाती है। लेकिन जब बेरोज़गारी एक सीमा से अधिक बढ़ जाती है, महामारी का रूप धारण करने लगती है और सामाजिक अशान्ति का कारण बनने लगती है तब इस व्यवस्था के दूरदर्शी पहरेदार कुछ ऐसी योजनाओं द्वारा, जो ‘सेफ्टी वॉल्व’ की भूमिका अदा करती हैं, देश की बेरोज़गार आबादी के गुस्से के ज्वालामुखी को फ़टने से रोकने के लिए पानी की छींटों का छिड़काव करते है। जैसे “मिश्रित अर्थव्यवस्था” (राजकीय पूंजीवाद और खुले बाज़ार वाले पूंजीवाद की मिली जुली अर्थव्यवस्था) के दौर में पूँजीवादी विकास की बुनियाद तैयार करने के लिए नेहरू ने “समाजवाद” का गीत गया था, वैसे ही भूमण्डलीकरण के “रोज़गारविहीन विकास” के इस नए दौर में रोज़गार गारण्टी जैसा कल्याणकारी झुनझना जनता को थमाकर इस ढाँचे के ख़िलाफ़ जनता के बढ़ते गुस्से को ठण्डा करने का प्रयास किया जा रहा है। लेकिन साफ़ है, ऐसी योजनाओं और प्लानों से होना-जाना कुछ नहीं है, फ़िर चाहे उन्हें पूरे देश में लागू करने की बात ही क्यों न हो। ऐसी हर योजना पूँजीवाद के अन्तकारी संकट को तब तक टालने का काम कर सकती है जब तक कि देश के क्रान्तिकारी युवा और मज़दूर इस ढाँचे को उखाड़ फ़ेंकेने के लिए एक क्रान्तिकारी पार्टी के तहत संगठित नहीं हो जाते।

 

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-मार्च 2008

 

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