विकल्प की राह खोजते लोग और नये विकल्प की समस्याएँ

संपादकीय

वर्ष 2011 बीत गया। एक और वर्ष पूरी दुनिया में साम्राज्यवाद और पूँजीवाद ने मानवीय जीवन की कीमत पर मुनाफ़े का ताण्डव जारी रखा। और हमेशा से ज़्यादा नग्न रूप में। भूमण्डलीकरण के दौर में अन्तकारी रूप से संकटग्रस्त विश्व पूँजीवादी व्यवस्था ने अपने बचे-खुचे ‘‘कल्याणकारी’’, ‘‘जनवादी’’, ‘‘न्‍यायशीलता’’ के मुखौटों को एक के बाद एक नोच-नोचकर फेंकना जारी रखा। इसके शीर्षस्थ चौधरियों ने पूँजीवादी व्यवस्था को सही और वैध ठहराने के प्रयास भी अब छोड़ दिये हैं। जब-तब इस बात को मानने में अब उनके मुँह और कान लाल नहीं होते कि पूँजीवादी व्यवस्था अपनी नैसर्गिक गति से बेरोज़गारी, ग़रीबी, भुखमरी, बेघरी पैदा करती है; लेकिन साथ में वे विकल्पहीनता की बात करते हैं। उनका कहना है कि भले ही पूँजीवाद बहुसंख्यक आम मेहनतकश जनता को बेहतर जीवन नहीं दे सकता, मगर आप कर भी क्या सकते हैं! 20वीं सदी के समाजवादी प्रयोगों का अन्त संशोधनवादी, सामाजिक फासीवादी तानाशाहियों में होने और तमाम जनविद्रोहों के असफल होने, और बची-खुची समाजवादी सत्ताओं के धीरे-धीरे पतित होने को वे पूँजीवाद की अन्तिम विजय के तौर पर दर्शाते हैं। उनका कहना है कि भले पूँजीवादी जनवाद एक न्यायशील व्यवस्था न हो, मगर इसका विकल्प पेश करने का दावा करने वाली समाजवादी सत्ताएँ सर्वसत्तावादी और ग़ैर-जनवादी सिद्ध हुई हैं! इसलिए, उनके अनुसार, आज मानवता के पास पूँजीवादी व्यवस्था के नरभक्षीपन, मानवद्रोही चरित्र और मुनाफ़ाखोरी के बावजूद एक ही विकल्प है-पूँजीवादी जनवाद! वे समाजवाद और धार्मिक कट्टरपंथी फासीवाद और आतंकवाद को एक ही तराजू से तौलते हुए कहते हैं कि ‘देखो! तुम्हारे पास चुनने के लिए पूँजीवादी जनवाद और विभिन्न प्रकार के (कम्युनिस्ट या धार्मिक फासीवादीद्) सर्वसत्तावाद के अलावा कुछ भी नहीं है!’

यही बात साम्राज्यवादियों के टुकड़ों पर पलने वाले तमाम एन.जी.ओ. भी करते हैं। तमाम स्वयंसेवी संगठन और गैर-सरकारी संगठन ‘तीसरी दुनिया’ के देशों में इसी प्रचार के लिए तैनात किये गये हैं कि पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं है; कि पूँजीवादी संसदीय लोकतन्त्र सर्वश्रेष्ठ राजनीतिक व्यवस्था है, हालाँकि यह बहुसंख्यक जनता को अभी सिर्फ बदहाली और तबाही ही दे पा रही है; आप अधिक से अधिक यही कर सकते हैं कि मौजूदा पूँजीवादी लोकतन्त्र के दायरे के भीतर रहते हुए सुधार, पैबन्दसाज़ी, न्यायिक सक्रियता, नागरिक एडवोकेसी, और जनता की ‘अपनी पहलकदमी’ (यानी, सरकार को उसकी जि़म्मेदारियों से मुक्त करना!) जगाकर कुछ बेहतरी हासिल कर लें! आप यदि पूरी व्यवस्था के विरुद्ध किसी क्रान्तिकारी, रैडिकल आन्दोलन की बात करते हैं, जिसका रास्ता एक इंक़लाब के जरिये सत्ता शासक वर्गों के हाथ से छीनकर मेहनतकश जनता के हाथ में सौंपना हो, तो वे त्यौरियाँ चढ़ा लेते हैं! वे कहते हैं कि ऐसे प्रयास विफल हो चुके हैं और अगर सफल हुए भी तो उनका अन्त पूँजीवादी जनवाद से भी बुरी व्यवस्था में हुआ है-यानी, सर्वसत्तावाद!

‘सर्वसत्तावाद’ (टोटैलिटैरियनिज़्म) इस समय तमाम बौद्धिक हलकों में एक ‘कैचवर्ड’ बना हुआ है। न सिर्फ सत्ता के टुकड़ों पर प्रत्यक्ष रूप से पलने वाले एन.जी.ओ. इस सर्वसत्तावाद के भय से ओत-प्रोत हैं, बल्कि अपने आपको मार्क्‍सवाद, समाजवाद, कम्युनिज़्म से भी रैडिकल विचारों वाला मानने वाले और एक ‘‘नये किस्म के कम्युनिज़्म’’ की बात करने वाले तमाम फैशनेबुल चिन्तक भी इस सर्वसत्तावाद के डर में दुबले हुए जा रहे हैं! इनमें से कुछ शायद वाकई डरे हुए हैं, काफ़ी कुछ फेदिन के उपन्यास ‘आग्नेय वर्ष’ के चरित्र पास्तुखोव की तरह जो अन्त तक तय नहीं कर पाता है कि बोल्शेविक क्रान्तिकारियों का पक्ष ले या नहीं (क्योंकि वह क्रान्ति को एक सुन्दर वस्तु समझता था और गृहयुद्ध की भयंकरता से घबराया हुआ थाद्), और कुछ वास्तव में तो नहीं डरे हुए हैं लेकिन व्यावहारिकता के तकाज़े से पक्ष चुन रहे हैं और आवश्यकतानुसार पक्ष बदल भी रहे हैं, जैसा कि ‘आग्नेय वर्ष’ उपन्यास का ही एक दूसरा चरित्र त्स्वेतुखि़न कर रहा था (पता नहीं क्यों स्लावोज जि़ज़ेक की पिछले डेढ़ दशकों के दौरान लिखी गयी रचनाओं को पढ़कर बरबस ही त्स्वेतुखि़न की याद आती है!)। लेकिन (पूँजीवादी) जनवाद और सर्वसत्तावाद का छद्म विकल्प पेश करने की तरक़ीब पूँजीवाद के लिए अब कारगर नहीं दिख रही है।

बीता वर्ष पूँजीवाद के लिए उथल-पुथल भरा रहा है। आर्थिक संकट के भँवर में भयंकर रूप से फँसा पूँजीवाद अधिक से अधिक ग़ैर-जनवादी, दमनकारी और तानाशाहाना होता जा रहा है। मौजूदा संकट ने, जो कि 1930 के दशक की महामन्दी के बाद सबसे भयंकर संकट है, पूँजीवाद को अपने बचे-खुचे कल्याणकारी मुखौटों को भी फेंकने पर मजबूर कर दिया है। सबप्राइम संकट से लेकर मौजूदा सार्वभौम ऋण संकट तक जिस तरह से दुनिया के तमाम देशों की पूँजीवादी सत्ताओं ने खुले तौर पर वित्तीय इज़ारेदार पूँजीपति वर्ग को बचाने के लिए प्रत्यक्ष हस्तक्षेप किया है, और जनता पर होने वाले सामाजिक सार्वजनिक ख़र्चों में कटौती करके लालच, लोभ और मुनाफ़े की हवस के चलते तबाह होने वाले बैंकों और वित्तीय संस्थानों को बचाया है, उससे उनकी पक्षधरता एकदम साफ़ हो गयी है। यूनान, पुर्तगाल, स्पेन से लेकर अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस तक में सरकार की पूँजी-परस्त नीतियों के खि़लाफ़ छात्रा-युवा और मज़दूर सड़कों पर उतर रहे हैं। चिली में सार्वजनिक ख़र्चों में कटौती के खि़लाफ़ छात्रों का जुझारू आन्दोलन जारी है। मध्य-पूर्व में मौजूदा उथल-पुथल के लिए ऐतिहासिक सन्दर्भ तैयार करने का काम पूँजीवाद के असाध्य संकट ने ही किया है, क्योंकि उसने साम्राज्यवाद पर अरब देशों के तेल व प्राकृतिक गैस संसाधनों पर वर्चस्व स्थापित करने का दबाव बढ़ा दिया है। साम्राज्यवाद का बढ़ता दबाव देशी पतित बुर्जुआ सत्ताओं, नग्न दमन और ग़रीबी, बेरोज़गारी और महँगाई के खि़लाफ़ जनता के असन्तोष के साथ मिलकर अरब देशों में एक विस्फ़ोटक स्थिति पैदा कर रहा है। भारत और चीन जैसे देशों में कोई देशव्यापी उभार जैसी स्थिति तो नहीं है लेकिन मज़दूरों के आन्दोलनों की बारम्बारता बढ़ रही है। स्पष्ट है कि 20वीं सदी की क्रान्तिकारी समाजवादी सत्ताओं के पतन के बाद शुरू हुए हताशा, निराशा, अन्धकार और मिथ्या विकल्पहीनता के लम्बे दौर के बाद हम एक बेहद जटिल, दुरूह और दीर्घकालिक संक्रमणकाल की शुरुआत में प्रवेश कर रहे हैं। ऐसे में, बहुत से गहन-गम्भीर सवालों का जवाब देना आज देश की क्रान्तिकारी ताक़तों और परिवर्तनकामी छात्रों-युवाओं और मज़दूरों का कार्यभार बन जाता है। उसके बिना हम सिर्फ स्वतःस्फूर्त पूँजीवाद-विरोधी जनउभारों का जश्न मनाकर आगे नहीं बढ़ सकते। आज जो सबसे बड़ा सवाल हमारे सामने खड़ा है वह है बीसवीं सदी के समाजवाद के प्रयोगों की सफलताओं-असफलताओं के एक सुसंगत विवेचन का सवाल।

सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोग और पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना

1917 से लेकर 1976 तक का दौर विश्व सर्वहारा के महान प्रयोगों का दौर था। 1917 में दुनिया विश्व की पहली मज़दूर क्रान्ति की साक्षी बनी। यह पहला मौका था जब मार्क्‍सवादी विज्ञान, जो सर्वहारा वर्ग के ऐतिहासिक अनुभवों के निचोड़ और वैज्ञानिक समीक्षा-समाहार के तौर पर अस्तित्व में आया था, व्यवहार में उतारा जा रहा था। 1917 से लेकर 1953 में स्तालिन की मृत्यु तक रूस में सर्वहारा सत्ता कायम रही और इसने रूस को मध्ययुगीन अन्धकार से निकालकर दुनिया के उन्नततम और सर्वशक्तिशाली देशों की कतार में लाकर खड़ा कर दिया। इस पूरे दौर में रूस ने न केवल आर्थिक प्रगति की बल्कि मानव विकास और जीवन स्तर के मानकों के अनुसार भी रूस दुनिया के किसी भी देश से आगे था। बेरोज़गारी, ग़रीबी, वेश्यावृत्ति, अशिक्षा और बेघरी का उन्मूलन हो गया; और यह सब फासीवाद पर विजय पाने के दौरान भारी कुर्बानी और तबाही झेलकर समाजवादी रूस ने हासिल किया। स्तालिन के नेतृत्व मे समाजवादी रूस ने जो उपलब्धियाँ अर्जित कीं, उसे शीत युद्ध की शुरुआत से पहले तक पश्चिम के प्रेक्षक, पत्रकार, बुद्धिजीवी और अनुसन्धानकर्ता भी मानते थे। स्तालिन को एक शैतान के रूप में चित्रित करने, स्तालिनकालीन सोवियत संघ को एक गै़र-जनवादी, दमनकारी देश के रूप में चित्रित करने की साम्राज्यवादी साजि़श की शुरुआत शीत युद्ध के दौरान हुई, जो आज तक जारी है। लेकिन इस ऐतिहासिक सच्चाई को पलटा नहीं जा सकता है कि समाजवादी क्रान्ति ने ‘यूरोप का आलसी भालू’ कहे जाने वाले रूस को हर मायने में दुनिया के अग्रणी देशों की कतारों में लाकर खड़ा कर दिया। बीसवीं सदी रूस की अद्वितीय और द्रुत गति से हुई तरक्की का गवाह बनी, और यह समाजवाद के ही कारण सम्भव हुआ था। समाजवाद के तहत रूस में निजी सम्पत्ति के ख़ात्मे, कृषि में सामूहिकीकरण, औद्योगीकरण, योजनाबद्ध विकास, सामाजिक समानता, शिक्षा और संस्कृति में हुए प्रयोगों के बारे में एक आलेख में हम विस्तृत विश्लेषण नहीं दे सकते हैं। लेकिन कुछ बुनियादी बातों की ओर हम ध्यान खींचना चाहेंगे।

समाजवाद के बेजोड़ और अचम्भित कर देने वाले प्रयोगों और प्रगति के बावजूद रूस के समाजवादी प्रयोग और रूसी कम्युनिस्ट पार्टी की समाजवाद के निर्माण की समझदारी में अर्थवाद के भटकाव के चलते पार्टी के भीतर मौजूद बुर्जुआ विकृतियाँ और नौकरशहाना प्रवृत्तियों पर काबू नहीं पाया जा सका। स्तालिन के जीवन काल में रूस एक समाजवादी देश बना रहा क्योंकि राजसत्ता का चरित्र स्तालिन के नेतृत्व में सर्वहारा बना रहा और स्तालिन सर्वहारा स्वभाव और दृष्टि से तमाम बुर्जुआ और नौकरशाहाना प्रवृत्तियों का ख़ात्मा करने का प्रयास करते रहे। स्तालिन की ठीक उन्हीं कारणों से आलोचना नहीं की जा सकती, जिन ‘’कारणों’’ से रॉय मेदवेदेव, इसाक डॉइशर, लियॉन त्रात्स्की जैसे लोगों ने, और साम्राज्यवादी देशों के टट्टू बुद्धिजीवियों और मीडिया ने पिछले छह दशकों के दौरान की है। मज़दूर राज्य के विरुद्ध बुर्जुआ षड्यन्त्रों और दुरभिसन्धियों को कुचलने का जो काम स्तालिन ने किया, वह अगर बुर्जुआ वर्ग के टुकड़खोरों के मन में भय की सिहरन और घबराहट पैदा करता है तो इसमें आश्चर्य भी क्या है? निश्चित तौर पर, इस पूरे काम में कई बार ज़्यादतियाँ भी हो गयीं। लेकिन देश के बाहर साम्राज्यवाद और देश के भीतर, यहाँ तक कि पार्टी के भीतर समाजवादी प्रयोग के विरोधियों और षड्यन्त्रकारियों से घिरे होने के चलते स्तालिन को कभी ठहरकर सोचने का वक्त नहीं मिला। लेकिन यह भी सच है कि समाजवाद के निर्माण के बारे में स्तालिन की समझदारी में एक अर्थवाद मौजूद था। यह कमज़ोरी पूरे यूरोपीय मज़दूर आन्दोलन में मार्क्‍स के काल से ही मौजूद रही थी। इस रुझान के खि़लाफ़ मार्क्‍स, एंगेल्स और लेनिन ने संघर्ष जारी रखा था। लेकिन इसके बावजूद इसका शक्तिशाली प्रभाव बोल्शेविक क्रान्ति के बाद भी बना हुआ था। इस रुझान का मानना था कि सर्वहारा सत्ता स्थापित होने, सुदृढ़ीकश्त होने और खेती और उद्योग दोनों क्षेत्रों में निजी सम्पत्ति का कानूनी तौर पर उन्मूलन होने के बाद समाजवादी निर्माण का अर्थ महज़ उत्पादक शक्तियों का तीव्र विकास करते जाना होता है। उत्पादक शक्तियों पर विकास के इस गैर-द्वन्द्वात्मक ज़ोर के ही कारण सोवियत संघ के आर्थिक नियोजन में हमेशा उद्योग पर अधिक ज़ोर रहा। जब फासीवाद का ख़तरा मण्डरा रहा था तब तो कृषि से अधिशेष को निचोड़कर उद्योग में डालना सोवियत संघ की बाध्यता थी, क्योंकि रासायनिक और बड़े यान्त्रिक उद्योगों, धातुओं के उत्पादन और परिशोधन के बिना सोवियत संघ जर्मनी से टकराने योग्य युद्ध मशीनरी नहीं बना सकता था। लेकिन उत्पादक शक्तियों के विकास पर अधिक ज़ोर के कारण सामान्य स्थितियों में भी कृषि पर कम और उद्योग पर ज़्यादा ज़ोर की ही नीति लागू होती, क्योंकि कृषि में उत्पादक शक्तियों के विकास की एक भौतिक-प्राकृतिक सीमा होती है, और उत्पादक शक्तियों के विकास की गति भी कम होती है, जबकि उद्योग में कहीं तेज़ गति से उत्पादक शक्तियों का विकास हो सकता है और सैद्धान्तिक तौर पर इसकी कोई भौतिक-प्राकृतिक सीमा नहीं है। इसीलिए उद्योग पर ज़ोर हमेशा ज़्यादा रहा और कृषि पर कम, जो कि युद्ध की अपवादस्वरूप परिस्थितियों में और बढ़ गया। इस प्रकार स्तालिन के नेतृत्व में सोवियत पार्टी की समझदारी यह थी कि उत्पादक शक्तियों के तेज़ और असीमित विकास के जरिये ही कम्युनिज़्म की मंजि़ल में प्रवेश किया जा सकता है क्योंकि जब प्रचुरता की अवस्था आयेगी, केवल तभी ‘सभी से उनकी क्षमता के अनुसार, और सभी को उनकी आवश्यकता के अनुसार’ के कम्युनिस्ट सिद्धान्त को अमल में लाया जा सकता है। इसलिए 1936 में ही, जब कृषि क्षेत्र में सामूहिकीकरण समाप्त हुआ और निजी सम्पत्ति का ख़ात्मा हुआ तो स्तालिन ने घोषणा की कि समाजवादी सोवियत संघ में अब शत्रुतापूर्ण वर्ग नहीं हैं; मज़दूर, बुद्धिजीवी और छात्रों को मिलकर अब कम्युनिज़्म की ओर बढ़ना है। लेकिन स्पष्टतः महज़ निजी सम्पत्ति के कानूनी ख़ात्मे से पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों के रूपान्तरण का काम पूरा नहीं होता। निश्चित रूप से यह रूपान्तरण करने की पूर्वशर्त है और इसके बग़ैर उत्पादन सम्बन्धों के रूपान्तरण की बात करना भी बेमानी होगा। लेकिन मालिकाने के सामूहिक होने के बाद भी वितरण के सम्बन्धों का पूर्ण रूपान्तरण नहीं हुआ था, सामूहिक फार्मों और उद्योगों के अस्तित्व में आने के बाद भी वस्तुओं का माल के रूप में उत्पादन और इसलिए विनिमय सम्बन्धों की मौजूदगी थी, जनता द्वारा खुद राजनीतिक निर्णय लेने की प्रक्रिया के विकास का स्तर निम्न था, पार्टी की राजनीतिक नेतृत्व की भूमिका और विशेषकर संस्थाबद्ध नेतृत्व देने की स्थिति का क्रमिक उन्मूलन होने का काम अभी शुरुआती मंजि़लों में भी नहीं था, मानसिक और शारीरिक श्रम के बीच के अन्तर का समाप्त होना, शहर और गाँव के बीच के अन्तर का समाप्त होना, उद्योग और कृषि के बीच के अन्तर का समाप्त होना अभी बाक़ी था। इसके अतिरिक्त, संस्कृति से लेकर शिक्षा और मनोविज्ञान तक में बुर्जुआ विचारों का प्रभाव अभी मज़बूती से मौजूद था। बुर्जुआ अधिकारों की मौजूदगी बनी हुई थी। उद्योग से लेकर कृषि तक में विशेषज्ञों को विशेषाधिकार हासिल थे। प्रबन्धक, तकनोशाह, और पर्यवेक्षकों को कल-कारखानों, खानों-खदानों और सामूहिक फार्मों तक में विशेषाधिकार और सुविधाएँ और साथ ही अधिक वेतन हासिल था। आम तौर पर, मानसिक और शारीरिक श्रम के बीच, उद्योग और कृषि के बीच, और गाँव और शहर के बीच विभेद के आधार पर पूँजीवादी विशेषाधिकार प्राप्त ये लोग कम्युनिस्ट पार्टी के संगठनकर्ता, कमिसार आदि थे। यह वर्ग सोवियत संघ में समाजवाद के निर्माण के दौरान लगातार अपनी स्थिति मज़बूत करता रहा। एक तरफ़ रूस उत्पादक शक्तियों के विकास, जीवन स्तर के विकास, और सामूहिकीकरण में आगे बढ़ रहा था, वहीं दूसरी ओर पार्टी के भीतर ही यह विशेषाधिकार-प्राप्त वर्ग अपनी जड़ें गहरी कर रहा था। स्तालिन इस बात को धीरे-धीरे समझ रहे थे। लेकिन इसके कारणों की कोई स्पष्ट समझदारी स्तालिन विकसित नहीं कर सके। और विशेषकर जब उनका विश्लेषण यह था कि 1936 में सोवियत संघ में शत्रुतापूर्ण वर्ग नहीं हैं, तो वे समस्या की कुंजीभूत कड़ी तक पहुँच भी नहीं सकते थे। जब तक वे इस सच्चाई को पहचान सके कि समाजवादी संक्रमण एक सुदीर्घ अवधि होगा और इस पूरी अवधि के दौरान समाज में वर्गों की मौजूदगी रहेगी, और समाज के विकास को समझने की कुंजी वर्ग संघर्ष ही होगी, तब तक पार्टी के भीतर नौकरशाह बुर्जुआ वर्ग ने अपने पाँव जमा लिये थे। जीवन के अन्तिम वर्षों में स्तालिन ने इस नौकरशाह वर्ग की जकड़ को तोड़ने के लिए तमाम प्रयास किये, लेकिन इससे पहले कि वे इन प्रयासों को व्यवस्थित रूप से आगे बढ़ा पाते, 1953 में उनकी मृत्यु हो गयी और ख्रुश्चेव के सत्ता में आने के साथ ही सोवियत संघ में पूँजीवाद की पुनर्स्‍थापना की शुरुआत हो गयी और 1956 में बोल्शेविक पार्टी की बीसवीं कांग्रेस का समय आते-आते ख्रुश्चेव का संशोधनवाद पार्टी में अपनी स्थिति को निर्णायक रूप से मज़बूत कर चुका था। हालिया वर्षों में ग्रोवर फर, मारियो सूसा, आदि जैसे लोगों के शोध ने दिखलाया है कि स्तालिन जीवनपर्यन्त पार्टी के भीतर नौकरशाही और बुर्जुआ तत्वों के खि़लाफ़ लड़ते रहे जो स्तालिन के नाम का प्राधिकार इस्तेमाल करते हुए समाजवाद और स्तालिन दोनों को ही कलंकित करने का काम कर रहे थे। लेकिन चूँकि स्तालिन समाजवादी संक्रमण के दौरान वर्ग संघर्ष की प्रकृति को नहीं समझ पाए, इसलिए वे ऐसे तत्वों के पैदा होने की ज़मीन को नहीं देख पाए।

बीसवीं कांग्रेस में ख्रुश्चेव ने स्तालिन पर जमकर कीचड़ उछाला और उनके महान नेतृत्व को बदनाम करने की हर सम्भव कोशिश की। इसके बाद, ख्रुश्चेव ने समाजवाद की महान संस्थाओं, मूल्यों और ढाँचे को व्यवस्थित तरीके से नष्ट करने और तोड़ने की शुरुआत की। इस काम को ब्रेझनेव और कोसिगीन के काल में और आगे बढ़ाया गया। जैसे ही रूस समाजवाद के पथ से विपथगमन कर पूँजीवाद के पथ पर आया वह एक समाजवादी देश से एक सामाजिक साम्राज्यवादी देश में तब्दील हो गया और दुनिया की दूसरी बड़ी महाशक्ति संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ प्रतिस्पर्द्धा में उतर गया। पूर्वी यूरोप और अफगानिस्तान और साथ ही अफ्रीका के कई देशों में सोवियत साम्राज्यवाद ने अपने कारनामे दिखलाये। और इन सभी कारनामों का दाग़ समाजवाद के नाम पर लगा, क्योंकि सोवियत संघ नाम के लिए अभी भी समाजवादी ही था। देश के भीतर पूँजीवाद की ओर विपथगमन को समझने में जनता को समय लगा। लोगों के लिए यह विश्वास से परे था कि महान लेनिन और महान स्तालिन की पार्टी एक-एक करके समाजवाद की सभी उपलब्धियों को नष्ट करने का काम कर रही है। जैसे-जैसे, सोवियत समाजवाद एक राजकीय इज़ारेदार पूँजीवाद में तब्दील हुआ, वैसे-वैसे देश में बेरोज़गारी, ग़रीबी, बेघरी जैसी समस्याएँ फिर से सिर उठाने लगी। मज़दूरों और आम मेहनतकश जनता पर एक सामाजिक फासीवादी किस्म के नियन्त्रण के द्वारा सोवियत संघ की संशोधनवादी पार्टी ने उत्पादकता के स्तर को ऊँचा बनाये रखने का प्रयास किया। मज़दूरों और आम मेहनतकशों के हर प्रतिरोध को बेरहमी से कुचला गया। पार्टी और राज्य की आलोचना असम्भव थी, अपराध थी। कोई सत्ता के खि़लाफ़ नहीं बोल सकता था। नागरिकों के व्यक्तिगत निजी जीवन तक पर राजसत्ता की निगाह होती थी। इसका कारण यह था कि सोवियत संशोधनवादियों को हमेशा यह डर सताता रहता था कि जैसे-जैसे जनता उनकी असलियत को समझती जाएगी, वैसे-वैसे उसे विरोध और प्रतिरोध का सामना करना पड़ सकता है। इसलिए संशोधनवादी सत्ता देश की जनता पर एक सामाजिक फासीवादी किस्म के नियन्त्रण का इस्तेमाल करती थी। इन गैर-जनवादी हरक़तों का इल्ज़ाम भी नामधारी समाजवाद होने के नाते समाजवाद और मार्क्‍सवाद पर आया। 1956 के बाद सोवियत संघ की अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक साम्राज्यवादी भूमिका और देश के अन्दर जनता के खि़लाफ़ एक सामाजिक फासीवादी भूमिका को ही बुर्जुआ मीडिया ने सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के रूप में चित्रित किया। और आज तक साम्राज्यवादी मीडिया और साम्राज्यवाद के भाड़े के बुद्धिजीवी 1956 के बाद के पूरे दौर को सर्वहारा अधिनायकत्व का उदाहरण बताते हुए उसे पूँजीवादी जनवाद के बरक्स खड़ा करते हैं, और दावा करते हैं कि कम-से-कम पूँजीवादी जनवाद एक सापेक्षिक नागरिक स्वतन्त्रता तो देता है!

समाजवाद की समस्याएँ और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति

सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोग के ढहने और संशोधनवाद के पार्टी में काबिज़ होने के पीछे के कारणों का माओ ने विस्तृत विश्लेषण किया। स्तालिन के जीवन काल में ही माओ ने सोवियत संघ के समाजवादी प्रयोग की कुछ आलोचनाएँ प्रस्तुत कीं। समाजवाद की समस्याओं पर माओ की चिन्तन की शुरुआत सोवियत समाजवाद की आलोचना के साथ ही हुई। माओ ने अपने इस चिन्तन को विकसित करने में लेनिन के चिन्तन के छूटे हुए सिरे को पकड़ा। लेनिन ने 1924 में मृत्यु से पहले सोवियत संघ में और आम तौर पर समाजवाद की समस्याओं पर चिन्तन की शुरुआत कर दी थी। कम ही लोग इस बात से वाकिफ़ हैं कि सांस्कृतिक क्रान्ति शब्द का इस्तेमाल भी पहली बार लेनिन ने किया था। लेकिन लेनिन सांस्कृतिक क्रान्ति की पूरी अवधारणा को अभी विकसित नहीं कर सके थे। उन्होंने इस बात की ओर ज़रूर इशारा किया था कि सोवियत समाजवादी राजसत्ता में बुर्जुआ विकृतियाँ और नौकरशाहाना विरूपताएँ मौजूद हैं; उन्होंने यह भी बताया था कि खेती के क्षेत्र में और साथ ही निजी व्यापार के क्षेत्र में निजी मालिकाने और टटपुँजिया उत्पादन की मौजूदगी बुर्जुआ तत्वों के पुनरुत्पादन का एक सतत् स्रोत है; साथ ही, उन्होंने इस बात की ओर भी आगाह किया था कि पूँजीवाद और समाजवाद के बीच का संघर्ष लम्बा खिंचने वाला है और पहले चक्र में इनमें से कौन विजयी होगा इसका फैसला एक लम्बी ऐतिहासिक अवधि के बाद ही हो सकेगा; लेनिन का मानना था कि उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ ही समाजवादी शिक्षा और नये समाजवादी मनुष्य के निर्माण के पहलू पर भी लगातार ज़ोर होना चाहिए। इसके बग़ैर, समाजवाद के निर्माण के कार्य को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता और न ही कम्युनिज़्म की ओर आगे बढ़ा जा सकता है। लेकिन स्तालिन लेनिन के चिन्तन के इस छूटे सिरे को नहीं पकड़ पाये। इसके बजाय वे यूरोपीय मज़दूर आन्दोलन में मौजूद अर्थवादी भटकाव, यानी समाजवादी निर्माण में महज़ उत्पादक शक्तियों के विकास पर ही बल देने की भूल, के शिकार बन गये। नतीजतन, वे समाजवादी समाज के पूरे चरित्र और प्रकृति को सही ढंग से नहीं समझ पाए। माओ ने लेनिन के छूटे हुए विश्लेषण को आगे बढ़ाया और गुणात्मक रूप से विकसित करते हुए समाजवादी संक्रमण की एक सुसंगत समझदारी विकसित की, और साथ ही महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति का युगान्तरकारी सिद्धान्त प्रतिपादित किया। समाजवादी संक्रमण के दौरान पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना को रोकने और कम्युनिज़्म की ओर बढ़ने के सिद्धान्त को विकसित करने के काम में महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति का सिद्धान्त ही आज सर्वहारा क्रान्तिकारियों के लिए एक उपयुक्त प्रवेश द्वार हो सकता है। माओ ने बताया कि समाजवादी संक्रमण एक सुदीर्घ ऐतिहासिक अवधि है जिस दौरान वर्ग संघर्ष ही सर्वहारा क्रान्तिकारियों के लिए कुंजीभूत कड़ी है। समाजवादी समाज में सर्वहारा वर्ग सत्ता में आ चुका होगा, लेकिन बुर्जुआ वर्ग समाज में मौजूद रहेगा और अपने खोए हुए स्वर्ग को प्राप्त करने की कोशिश जारी रखेगा। माओ ने बताया कि उत्पादन सम्बन्धों के क्रान्तिकारी रूपान्तरण का काम निजी सम्पत्ति के कानूनी ख़ात्मे के साथ शुरू होता है, ख़त्म नहीं, क्योंकि निजी सम्पत्ति का कानूनी ख़ात्मा महज़ मालिकाने के सवाल को हल करता है। यह न तो वितरण के सवाल को पूरी तरह से हल करता है और न ही उत्पादन और वितरण की पूरी प्रक्रिया में मौजूद तीन महान अन्तरवैयक्तिक असमानताओं को, यानी कि, मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के बीच का अन्तरविरोध; शहर और गाँव के बीच का अन्तरविरोध; और, उद्योग और कर्षि के बीच का अन्तरविरोध। जब तक ये असमानताएँ मौजूद रहती हैं तब तक पूँजीवादी विशेषाधिकार मौजूद रहते हैं; वस्तुओं का विनिमय मौजूद रहता है और इस प्रकार वस्तुओं का अस्तित्व महज़ उपयोग मूल्य के रूप में (यानी कि केवल उपयोग हेतु) नहीं बल्कि माल के रूप में होता है; पूँजीवादी विशेषाधिकार से सम्पन्न पार्टी कमिसारों और संगठनकर्ताओं का वर्ग पार्टी के भीतर एक नये किस्म के पूँजीपति वर्ग का सृजन करता है और पार्टी के भीतर बुर्जुआ हेडक्वार्टर स्थापित करता है; विशेषज्ञों, प्रबन्धकों, पर्यवेक्षकों का वर्ग समाज के भीतर एक विशेषाधिकार-सम्पन्न तबका बनता है और पार्टी के भीतर मौजूद बुर्जुआ वर्ग के साथ साँठ-गाँठ कर एक ऐसी शक्ति का सृजन करता है जिसका समाजवाद और सर्वहारा वर्ग से अन्तरविरोध होता है। ये तत्व अपनी वर्ग प्रकृति और स्वभाव से हर समाजवादी प्रयोग के रास्ते में बाधा पैदा करते हैं, षड्यन्त्र करते हैं और सर्वहारा सत्ता का तख़्ता-पलट करने की फि़राक़ में रहते हैं। यदि इन वर्गों के खि़लाफ़ सर्वतोमुखी सर्वहारा अधिनायकत्व को नहीं लागू किया गया तो ये वर्ग अन्ततोगत्वा सर्वहारा सत्ता को पलटकर एक पूँजीवादी सत्ता में तब्दील कर देंगे। माओ ने बताया कि पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना को रोकने के लिए क्रान्ति को सतत् जारी रखना होगा। समाज में मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के बीच, शहर और गाँव के बीच और उद्योग और कृषि के बीच के विभेद समाजवादी समाज में मौजूद रहते हैं; पूँजीवादी विशेषाधिकार मौजूद रहते हैं; इन सबके खि़लाफ़ सर्वहारा वर्ग की लड़ाई महज़ पूँजीवाद के खि़लाफ़ लड़ाई नहीं है। इनके खि़लाफ़ सर्वहारा वर्ग की लड़ाई वर्ग समाज के चार हज़ार वर्षों के खि़लाफ़ एक महान युगान्तरकारी संघर्ष है। इसके लिए महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की ज़रूरत है। यानी कि अधिरचना के क्षेत्र में, यानी कि संस्कृति, शिक्षा, कला, मनोविज्ञान, राजनीति, आदतों, मूल्यों, मान्यताओं आदि सभी क्षेत्रों में सर्वहारा क्रान्ति को जारी रखना; यानी कि इन सभी क्षेत्रों में उपरोक्त तीन अन्तरवैयक्तिक असमानताओं का सतत् प्रचार, संघर्ष और प्रचार के जरिये क्रमिक ख़ात्मा; बुर्जुआ वर्ग के ऊपर सर्वहारा वर्ग का सर्वतोमुखी अधिनायकत्व लागू करना; पार्टी के भीतर आलोचना-आत्मालोचना, शुद्धीकरण आदि के अभियानों के जरिये बुर्जुआ कचरे की समय-समय पर सफ़ाई करना; मार्क्‍सवाद-लेनिनवाद के उसूलों को जनता के बीच लगातार प्राधिकार बनाना; टटपुंजिया उत्पादन पद्धतियों का क्रमिक ख़ात्मा करना; उत्पादन को बढ़ाने पर ज़ोर देना, लेकिन इस तरह से नहीं कि मानसिक और शारीरिक श्रम, शहर और गाँव, उद्योग और कृषि के बीच का अन्तरविरोध और अधिक बढ़े। इसीलिए माओ ने नारा दिया था, ‘क्रान्ति पर पकड़ बनाये रखो और उत्पादन को बढ़ाओ!’ माओ ने बताया कि हालाँकि उत्पादन सम्बन्धों और उत्पादक शक्तियों के बीच के अन्तरविरोध में ऐतिहासिक तौर पर उत्पादक शक्तियाँ निर्णायक होती हैं, लेकिन क्रान्ति के बाद, सर्वहारा सत्ता स्थापित होने के बाद, उत्पादन सम्बन्धों के क्रान्तिकारी रूपान्तरण का पहलू प्रधान हो जाता है। उत्पादन सम्बन्धों के चरित्र से ही किसी सामाजिक संरचना के चरित्र की पहचान होती है। उत्पादन सम्बन्धों और उत्पादक शक्तियों के बीच की द्वन्द्वात्मकता को सही ढंग से समझे बिना समाजवादी निर्माण और संक्रमण की एक सुसंगत समझदारी नहीं हासिल की जा सकती। माओ ने चीन में महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के शुरू होने के बाद ही कहा था कि इसके बाद भी इस बात का फैसला होने में अभी लम्बा समय लगेगा कि चीन में पहले चक्र में पूँजीवाद जीतेगा या समाजवाद। समाजवाद की अन्तिम विजय को सुनिश्चित करने के लिए कई सांस्कृतिक क्रान्तियों को आवश्यकता पड़ेगी। चीन में महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति अभी चल ही रही थी कि 1976 में माओ की मृत्यु हो गयी। पार्टी के भीतर पूँजीवादी पथगामियों की पराजय अभी पूर्ण नहीं हुई थी, हालाँकि सांस्कृतिक क्रान्ति ने उन्हें काफ़ी कमज़ोर कर दिया था। माओ की मृत्यु के बाद कई महीनों तक पार्टी में एक ज़बर्दस्त संघर्ष जारी रहा जिसमें अन्ततः कुछ मध्यमार्गियों और उदारवादियों के कारण पूँजीवादी पथगामियों की विजय हुई। माओ की लाइन का प्रतिनिधित्व करने वाले चार नेताओं को संशोधनवादियों ने गिरफ्तार कर लिया और जेल में डाल दिया। उनके खि़लाफ़ पूरे देश में माओ-विरोधी षड्यन्त्रकारी होने का प्रचार किया गया। पार्टी के भीतर मौजूद ईमानदार कार्यकर्ताओं का बड़ा हिस्सा भी इन परिवर्तनों को उस समय सही ढंग से समझ नहीं पाया। इसमें भी मध्यमार्गियों की काफ़ी बड़ी भूमिका थी। अन्ततः देंग सियाओ पिंग के नेतृत्व में सर्वहारा सत्ता का तख़्तापलट हो गया और 1978 आते-आते संशोधनवादियों ने अपनी विजय को सुदृढ़ कर लिया। लेकिन माओ के नेतृत्व में चली महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के ही कारण आज तक चीन के संशोधनवादी सत्ताधारी चैन से नहीं बैठ सके हैं। हर वर्ष ही चीन में माओवादियों का दमन, गिरफ्तारी, हत्याएँ होती हैं; मज़दूर बार-बार सड़कों पर उतरते हैं; चीन की सामाजिक फासीवादी सत्ता के खि़लाफ़ छात्रा-युवा जब-तब आन्दोलन की राह लेते हैं। 1989 में तियेनामेन चैक पर हुए आन्दोलन में भी जो ताक़तें सक्रिय थीं, उनमें से कुछ छात्र-युवा ऐसे थे जो चीन की गैर-जनवादी संशोधनवादी सामाजिक जनवादी सत्ता के दमनकारी रवैये का विरोध कर रहे थे और जनवादी स्पेस की माँग कर रहे थे लेकिन मज़दूरों का एक बड़ा हिस्सा और छात्रों का भी एक हिस्सा देंग सियाओ पिंग के ‘‘बाज़ार समाजवाद’’ और माओ के समाजवादी चीन की क्रान्तिकारी संस्थाओं के व्यवस्थित ध्वंस का विरोध कर रहा था। जो भी हो, एक महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति किसी भी रूप में चीन में समाजवादी प्रयोग की उत्तरजीविता को सुनिश्चित नहीं कर सकती थी। माओ पहले से ही इस बात को समझते थे और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति को एक सतत् जारी प्रक्रिया के रूप में देखते थे, न कि एक कदम या घटना के रूप में। वह प्रक्रिया पहले प्रयास में ही जारी रहने में सफल होती इस बात की कोई गारण्टी वैज्ञानिक तौर पर नहीं की जा सकती थी। अपनी अपूर्णताओं और असफलताओं के बावजूद महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति का पहला प्रयोग समाजवाद की समस्याओं और उनके समाधान के बारे में सर्वहारा वर्ग की समझदारी को विकसित कर गया। महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति का सिद्धान्त मार्क्‍सवाद के विज्ञान का सबसे उन्नत विकास है और इक्कीसवीं सदी में सर्वहारा क्रान्तिकारी इसे समझे बग़ैर न तो क्रान्ति के पहले पूँजीवाद का मुकाबला कर सकते हैं, और न ही क्रान्ति के बाद उसके षड्यन्त्रों से सर्वहारा सत्ता की हिफ़ाज़त कर सकते हैं। महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के अवदानों को निश्चित रूप से एक छोटे-से आलेख में पूरी तरह से स्पष्ट नहीं किया जा सकता है। महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति का सिद्धान्त एक बन्द सिरे वाला सिद्धान्त नहीं है और ऐसा नहीं कि इसे आगे विकसित होने की कोई ज़रूरत नहीं है। इस सिद्धान्त ने समाजवाद की समस्याओं को समझने और उन्हें हल करने में सिर्फ एक दरवाज़ा खोला है। यह सही दिशा में सही अप्रोच और सही पद्धति के साथ सोचने की महज़ एक शुरुआत है।

पूँजीवाद का अन्तकारी संकट और विकल्प की चुनौतियाँ

एक बात स्पष्ट है कि बीसवीं सदी की सर्वहारा क्रान्तियों की सफलताओं-असफलताओं, पूर्णताओं-अपूर्णताओं, शक्तियों-कमज़ोरियों को समझे बग़ैर हम इक्कीसवीं सदी में पूँजीवाद का विकल्प देने की बात नहीं कर सकते। लेकिन आज ऐसा ही किया जा रहा है। विश्व पूँजीवाद एक अभूतपूर्व रूप से गम्भीर संकट से ग्रस्त है। 1930 के दशक की महामन्दी के दौरान अभी इज़ारेदार पूँजीवाद अपनी सन्तृप्ति बिन्दु पर नहीं पहुँचा था। अभी विश्व का बड़ा हिस्सा पूँजी की जकड़ में पूरी तरह से नहीं आया था; औपनिवेशिक दुनिया के समाजों के पोर-पोर में अभी पूँजी नहीं समाई थी। 1940 से 1970 के दशक तक चली विऔपनिवेशीकरण की प्रक्रिया, देशों के आज़ाद होने, राष्ट्रीय प्रश्न के हल होने, द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद पूरे साम्राज्यवाद के ढाँचे, रणनीति और आम कार्यनीति में कुछ बुनियादी बदलाव आये हैं। वित्तीय पूँजी का प्रभुत्व आज लेनिन के काल से कहीं ज़्यादा है; पूँजी पहले हमेशा के मुकाबले ज़्यादा परजीवी, सट्टेबाज़, अनुत्पादक, मरणासन्न हुई है। विश्व पूँजीवादी तन्त्र पहले से कहीं ज़्यादा खोखला, कमज़ोर और बीमार हुआ है। अपनी तमाम सैन्य शक्तिमत्ता के बावजूद साम्राज्यवाद अपने ही अन्दरूनी संकटों से भयंकर उथल-पुथल में है। भूमण्डलीकरण के दौर में, विश्व पूँजीवाद के पास न तो उत्पादक निवेश की सम्भावनाएँ शेष हैं और न ही वित्तीय पूँजी के जुए के लिए पर्याप्त अवसर बचे हैं। अति-उत्पादन और पूँजी की प्रचुरता के बोझ तले पूँजीवाद का ढाँचा चरमरा रहा है। लेकिन इन सबके बावजूद पूँजीवाद अपने आप इतिहास के नेपथ्य में नहीं जाने वाला। उसे इतिहास के कचरा पेटी में पहुँचाने के लिए एक अभिकर्ता, एक सक्रिय शक्ति की ज़रूरत है, जिसके पास पूरी पूँजीवादी अर्थव्यवस्था, समाज, राजनीति और संस्कृति का एक स्पष्ट विकल्प हो।

मार्क्‍सवाद के अतिरिक्त कोई भी ऐसी विचारधारा नहीं है जिसने पूँजीवाद के विकल्प का एक वैज्ञानिक और व्यावहारिक ख़ाका पेश किया हो। पूँजीवाद को ही अधिक मानवीय बनाने और उसमें कुछ सुधार और पैबन्दसाज़ी करने वाली तमाम विचारधाराएँ सामने आयीं और एक-एक करके विस्मृति के गर्भ में समा गयीं। पूँजीवाद के अस्तित्व के हर बीतते दिन के साथ ऐसी सभी विचारधाराएँ अपनी अप्रासंगिकता को और स्पष्ट रूप से अनावृत्त करती जा रही हैं।

लेकिन मज़दूर वर्ग का आन्दोलन पूरी दुनिया में आज एक गहरे संकट का शिकार है और उसके पुनरुत्थान के लिए कई चुनौतियाँ मौजूद हैं। ऐसे अधिकांश देशों में, जो आने वाले समय की सर्वहारा क्रान्तियों का झंझा-केन्द्र बनने वाले हैं, मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी अतीत की क्रान्तियों से आलोचनात्मक रूप से सीखने की बजाय उनका अन्धानुकरण करने की मनोवृत्ति का शिकार हैं। इनमें से भी अधिकांश ऐसे हैं जो चीन में माओ के नेतृत्व में हुई नवजनवादी क्रान्ति को अपने-अपने देशों में दुहराना चाहते हैं। 1963 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने अन्तरराष्ट्रीय स्थिति पर अपनी अवस्थिति रखते हुए कहा था कि आम तौर पर ‘तीसरी दुनिया’ के देशों में, जिनमें प्रत्यक्ष औपनिवेशिक नियन्त्रण वाले देश और अप्रत्यक्ष साम्राज्यवादी नियन्त्रण वाले नवस्वाधीन देश शामिल थे, नवजनवादी क्रान्ति होगी क्योंकि इन देशों में अर्द्धऔपनिवेशिक- अर्द्धसामन्‍ती या औपनिवेशिक अर्द्धसामन्ती सामाजिक संरचनाएँ हैं और जिन नवस्वाधीन देशों में वहाँ का पूँजीपति वर्ग सत्ता में आया है, वह आम तौर पर साम्राज्यवाद का दलाल है और देशी सामन्तवाद के साथ समझौतापरस्त रुख़ रखने वाला है। यह एक आम दिशा-निरूपण था, जिसके सही और ग़लत होने पर बहस हो सकती है। कई देशों में उस समय वाकई ऐसी या इससे मिलती-जुलती स्थिति थी। लेकिन भारत में तब भी ऐसी स्थिति थी या नहीं, इस पर सवाल खड़ा किया जा सकता है। लेकिन, जो भी हो, तब से लेकर 1990 के दशक तक जब आखि़री उपनिवेश भी आज़ाद हो गया, पूरी दुनिया के ढाँचे में बहुत बदलाव आ चुका है। राष्ट्रीय मुक्ति का प्रश्न पूरी तरह से हल हो चुका है; विश्व पूँजीवाद भूमण्डलीकरण के दौर में प्रविष्ट हो चुका है; अपेक्षाकृत कम विकसित और विकासशील देशों में, जो कि साम्राज्यवादी नहीं हैं, जो बुर्जुआ वर्ग सत्तासीन है वह किसी भी रूप में दलाल पूँजीपति वर्ग की भूमिका नहीं निभा रहा है; इन देशों की सामाजिक संरचना में पूँजीवादी उत्पादन पद्धति स्पष्ट रूप से सबसे प्रभावी और प्रमुख उत्पादन पद्धति है। इसलिए ये देश अर्द्धसामन्ती और अर्द्धऔपनिवेशिक देश नहीं हैं। ये पिछड़े किन्तु पूँजीवादी देश हैं जहाँ का पूँजीपति वर्ग न तो राष्ट्रीय है (क्योंकि उसका जनता के साथ कुछ भी साझा नहीं है) और न ही दलाल है (क्योंकि वह राजनीतिक रूप से स्वतन्त्र है और बहुध्रुवीय विश्व में पूरे साम्राज्यवाद पर आर्थिक और तकनोलॉजिकल निर्भरता रखते हुए भी, वह किसी एक साम्राज्यवादी देश का दलाल नहीं है)। इन देशों का पूँजीपति वर्ग साम्राज्यवाद के कनिष्ठ साझीदार की भूमिका में है और उसके साथ नत्थी होकर अपने देश की जनता की साम्राज्यवादी- पूँजीवादी लूट में लगा हुआ है। यह मार्क्‍सवाद की किसी किताब में नहीं लिखा है कि बुर्जुआ वर्ग या तो साम्राज्यवादी होगा, या राष्ट्रीय और या फिर दलाल! लेकिन एक टिकाऊ सर्वहारा क्रान्ति की सम्भावनाएँ रखने वाले अधिकांश ‘तीसरी दुनिया’ के देशों में मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी क्रान्तिकारी नवजनवादी क्रान्ति, दीर्घकालिक लोकयुद्ध और अर्द्धऔपनिवेशिक-अर्द्धसामन्ती विश्लेषण को विचारधारा का प्रश्न मान बैठे हैं, जो कि वास्तव में क्रान्ति के कार्यक्रम का सवाल है, जिसे बदलती परिस्थितियों के साथ क्रान्तिकारियों को बार-बार उन्नत करना पड़ता है, बदलना पड़ता है और संशोधित करना पड़ता है। कार्यक्रम को विचारधारा का प्रश्न बना देने के चलते इस सवाल पर उन्होंने सोचने-समझने के दरवाज़े ही बन्द कर दिये हैं और यह कट्टरपंथी माक्र्सवाद उनके लिए विश्लेषण के वैज्ञानिक उपकरण की बजाय सोचने का विकल्प बन गया है! यही वह सबसे बड़ी समस्या है जिसका सामना आज विश्व भर में कम्युनिस्ट आन्दोलन कर रहा है। आज स्पष्ट रूप से नवजनवादी क्रान्ति के सिद्धान्त के इस ढाँचे-खाँचे को तोड़कर बाहर आने की ज़रूरत है और अपने देश की ठोस परिस्थितियों का ठोस विश्लेषण करने की ज़रूरत है। इसके बिना कम्युनिस्ट आन्दोलन जिस संकट का शिकार है, उसका कोई हल नहीं निकल सकता।

यह समस्या तो कम्युनिस्ट आन्दोलन की अन्दरूनी समस्या है। इसके अलावा, मार्क्‍सवाद पर पूँजीवादी मीडिया, सांस्कृतिक और बौद्धिक उपकरण भी लगातार नये हमले कर रहे हैं, मार्क्‍सवादियों को अन्दर से तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं, तमाम किस्म के रंग-बिरंगे ‘रैडिकल’ बुद्धिजीवियों को अपने वर्चस्वकारी मैकेनिज़्म के जरिये सहज गति से पैदा कर रहे हैं, जो मार्क्‍सवाद पर जाने-अनजाने हमले कर रहे हैं। सूचना तकनीक की क्रान्ति के इस दौर में पूँजीवाद ने अपने मनोवैज्ञानिक और सांस्‍कृतिक वर्चस्व को टी.वी., इण्टरनेट, आदि के जरिये और अधिक गहरा बनाया है। यह सच है कि ये सभी माध्यम क्रान्तिकारी शक्तियों को भी पूँजीवादी विचारधारा के वर्चस्व के ‘सबवर्जन’ का अवसर देते हैं (यही कारण है कि चीन के संशोधनवादी सत्ताधारियों को कई वेबसाइटों को ब्लॉक करना पड़ा है, जिनमें से कई माओ के विचारों के प्रचार का काम कर रही थीं)। लेकिन आज अपने विचारधारात्मक बचकानेपन के कारण अधिकांश मामलों में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी शक्तियाँ इस हालत में हैं ही नहीं कि पूँजीवाद के विचारधारात्मक वर्चस्व को पलट सकें! इण्टरनेट और टेलीविज़न के बाहर भी एक पूरा क्रान्तिकारी वैकल्पिक मीडिया खड़ा करने की ज़रूरत है जो पूँजीवादी मूल्यों को उत्पादित-पुनरुत्पादित करने, पूँजीवाद के पक्ष में सहमति को ‘मैन्यूफैक्चर’ करने की पूरी प्रक्रिया में विघ्न और बाधाएँ पैदा करता रहे। इन अर्थों में क्रान्तिकारी ताक़तों को अपने वैकल्पिक मीडिया का ढाँचा खड़ा करना होगा। इस विषय पर हम यहाँ अधिक विस्तार में नहीं जा सकते।

मार्क्‍सवाद को नये बहेतू दार्शनिकों की ‘‘चुनौती’’ और उनका इतिहास-भूगोल

एक विचारधारा के रूप में मार्क्‍सवाद के सामने कोई संकट नहीं है। मार्क्‍सवाद पर जो भी हमले किये जा रहे हैं, उनके नाम नये हो सकते हैं लेकिन उनकी अन्तर्वस्तु में कुछ भी नया नहीं है। उत्तरआधुनिकतावाद, उत्तरसंरचनावाद, प्राच्यवाद, उत्तर-प्राच्यवाद, सबऑल्टर्निज़्म आदि की ‘‘चुनौतियाँ’’ धूल-धूसरित हो चुकी हैं। अकादमिक दुनिया तक में आज मार्क्‍सवाद की ‘वापसी’ की बात हो रही है (हालाँकि, जिस चीज़ की वापसी हो रही है, उसमें कितना मार्क्‍सवाद है और कितना नहीं, यह एक बहस का मसला है!)। कम-से-कम ‘उत्तर-’ विचार सरणियाँ कोमा में पड़ी आखि़री साँसें गिन रही हैं। लेकिन सट्टेबाज़ रैडिकल ‘’दार्शनिकों’’ के रूप में एक नयी धारा है, जो मार्क्‍सवाद पर हमला बोल रही है। इनमें एलेन बेदियू, स्लावोज जि़ज़ेक, एण्टोनियो नेग्री, माइकल हार्ट, याक्स रैंसिये, आदि जैसे बहेतू दार्शनिक शामिल हैं। इन्हें हम यूँ ही सट्टेबाज़ और बहेतू दार्शनिक नहीं बोल रहे हैं। ये वाकई बहेतू और सट्टेबाज़ हैं! इनमें से अधिकांश एक नये किस्म के कम्युनिज़्म की बात कर रहे हैं! एक ऐसा कम्युनिज़्म जो मार्क्‍सवादी नहीं होगा! इनका मानना है कि कम्युनिज़्म एक निरपेक्ष सत्य है जिसकी निरपेक्ष यात्रा प्राचीन काल से ही चल रही है और प्लेटो, रूसो, जैकोबिन दल, और बीसवीं सदी का मार्क्‍सवादी कम्युनिज़्म इस निरपेक्ष यात्रा के अलग-अलग सापेक्ष बिन्दु हैं और अब हम उन बिन्दुओं को पीछे छोड़ आये हैं; अब कम्युनिज़्म की यह निरपेक्ष यात्रा पार्टी और राज्य को अप्रासंगिक बना चुकी हैं और उससे आगे आ चुकी हैं; हालाँकि वर्ग को अप्रासंगिक नहीं बताया जाता लेकिन इन महानुभावों के लेखन में कहीं भी वर्ग, राजसत्ता का वर्ग चरित्र, जैसी पुरानी पड़ चुकी बातें नहीं आतीं (श्रीमान बेदियू)! पूँजीपति वर्ग की बजाय ये दमनकारी शासक (दि रूलर्स) और सर्वहारा वर्ग की जगह बहुसंख्या (दि मल्टीट्यूड) शब्द का इस्तेमाल बहुत पसन्द और चाव के साथ करते हैं; पूँजी, उत्पादन, आदि की जगह ये साझा (कॉमंस) की बात करना पसन्द करते हैं (श्रीमान नेग्री व श्रीमान हार्ट, तथा श्रीमान जि़ज़ेक भी)! कुछ ऐसे हैं जो मार्क्‍सवादी कम्युनिज़्म के आगे जाने का भी दावा नहीं करते, और उसे मानने का भी दावा नहीं करते; न तो वे राज्य और पार्टी की ज़रूरत के बारे में कुछ साफ़ कहते हैं; सर्वहारा अधिनायकत्व के बारे में भी हर वर्ष वे नियम से अवस्थिति बदलते हैं; लेकिन इतना वे ज़रूर कहते हैं कि बीसवीं सदी के मार्क्‍सवादी कम्युनिज़्म का अन्त एक विपदा/दुर्गति में हुआ और एक नये किस्म के कम्युनिज़्म की ज़रूरत है और इसके बाद वे वही गाना गाते हैं जो श्रीमान बेदियू व श्रीमान नेग्री तथा श्रीमान हार्ट गाते हैं (श्रीमान जि़ज़ेक)! कुछ इन सब बातों में यह जोड़ देते हैं कि सर्वहारा वर्ग/दमित वर्ग/अधीनस्थ वर्ग को किसी नेतृत्व या पार्टी की आवश्यकता नहीं है; वे दमित की ‘‘स्‍वशिक्षा’’ के पक्षधर हैं और कहते हैं आज की ज़रूरत मार्क्‍सवाद से ज़्यादा रैडिकल सोच की है, क्योंकि मार्क्‍सवाद स्वयं सत्तावादी, दमनकारी और अपचयनवादी है (श्रीमान रैंसिये)! इसके अलावा कुछ ऐसे हैं जिन्होंने हर प्रकार की सार्वभौमिकता का हन्ता बनने की ठान रखी है और कह रहे हैं कि सार्वभौमिकता, निरपेक्षता, सामान्यता की सभी बातें वास्तव में दमनकारी होती हैं; इसलिए हमें खण्डों की हिफ़ाज़त में तन-मन-धन से लग जाना चाहिए; यानी कि, वर्ग जैसी अवधारणाएँ, सर्वहारा वर्ग की एकता जैसी अवधारणाएँ ही दमनकारी हैं और हमें टुकड़ों का जश्न मनाना चाहिए (सुश्री जुडित बटलर, श्रीमान लाक्लाऊ व श्रीमान माउफ)! और अन्त में कुछ ऐसे हैं जिन्होंने बिना सत्ता को चकनाचूर किये और बिना एक नयी क्रान्तिकारी सत्ता स्थापित किये ही, क्रान्ति कर डालने के ऊपर दस-दस, बारह-बारह थीसीज़ लिख मारी है (श्रीमान जॉन हॉलोवे)!

अब शायद आप समझ गये होंगे कि हमने इन ‘‘दार्शनिकों’’ को सट्टेबाज़ और बहेतू दार्शनिक क्यों कहा है! इनकी कोई धुरी नहीं है। इनके इरादों पर बात न करते हुए इनकी सोच के केन्द्र-बिन्दुओं पर बात करते हैं। आप अगर ग़ौर करें तो पाएँगे कि तमाम रैडिकल तेवर, गर्मा-गर्म बातों और नये किस्म की क्रान्ति का पक्ष रखने के दावों के बावजूद इनका निशाना एकदम ठीक वे अवधारणाएँ हैं जो मार्क्‍सवाद की क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु का निर्माण करती हैं। मिसाल के तौर पर, वर्ग की अवधारणा, सर्वहारा अधिनायकत्व की अवधारणा, वर्ग के हिरावल के रूप में कम्युनिस्ट पार्टी की अवधारणा, पूँजी की अवधारणा, अलगाव और शोषण की अवधारणा, आदि। ये बहेतू दार्शनिक या तो इन अवधारणाओं को नकार देते हैं या उन्हें विकृत कर देते हैं। इनकी छद्म दार्शनिक जालसाजि़यों को समझना हो तो इनका दार्शनिक और राजनीतिक स्रोत देखना होगा। वास्तव में, इनमें से अधिकांश का स्रोत वही है जो कि उत्तर-आधुनिकतावादी विचार सरणियों का था-यानी, मई 1968 का आन्दोलन जिसका केन्द्र पेरिस था। सोवियत सामाजिक साम्राज्यवाद के पूर्वी यूरोप में किये गये हस्तक्षेप और पूर्वी यूरोप की छद्म समाजवादी देशों में जनता का अनुभव 1960 के दशक में सोवियत समाजवाद के प्रति पूर्वाग्रहों का कारण बना। यूरोप में और विशेषकर फ्रांस में तमाम ऐसे राजनीतिक और दार्शनिक चिन्तक थे, जिनकी विचारधारात्मक शुरुआत एक मार्क्‍सवादी के रूप में हुई थी, लेकिन बाद में सोवियत साम्राज्यवाद के अनुभव के कारण उनका मोहभंग मार्क्‍सवाद से ही हो गया क्योंकि वे क्रान्तिकारी मार्क्‍सवाद और संशोधनवाद के बीच फर्क नहीं कर पाये। साथ ही उसी समय चीन में महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति भी जारी थी, जिसे यूरोप में बहुतों ने ‘पार्टी के विरुद्ध क्रान्ति’ समझा! कुल मिलाकर, नतीजा यह हुआ कि ये तथाकथित ‘नव दार्शनिक’ (न्यू फिलॉसफर्स) सारी बुराई की जड़ पार्टी और सर्वहारा अधिनायकत्व के सिद्धान्त का समझने लगे। इनमें से कुछ मार्क्‍सवाद को सत्तावादी, दमनकारी आदि कहते हुए उत्तरआधुनिकतावाद की ओर चले गये, जैसे कि मिशेल फूको, याक्स देरीदा, आदि। कुछ ऐसे थे जो कि नये किस्म के मार्क्‍सवाद की बातें करने लगे! इनमें से अधिकांश पर अल्थूसर, अलेक्सान्द्र कोखीवे और याक्स लकाँ का प्रभाव था और कई तो अल्थूसर के छात्र थे। अल्थूसर ने फ्रांसीसी कम्युनिस्ट पार्टी के संशोधनवाद सोवियत संशोधनवाद पर समझौतापरस्त अवस्थिति अपनायी, जिसके कारण उनके कई छात्र उनके प्रभाव से मुक्त हो गये, जैसे कि याक्स रैंसिये, एतियन बालीबार, फूको आदि। लेकिन इनमें से अधिकांश अल्थूसर की ग़लती को मार्क्‍सवाद की ग़लती समझ बैठे। इसी दार्शनिक भ्रम-विभ्रम की भट्ठी से, नीत्शे, स्पेंगलर, डेनियल बेल, आरों, रोस्तोव आदि के प्रभावों को लेकर उत्तर-आधुनिकतावाद का जन्म हुआ। और आज के जिन दार्शनिकों को हम बहेतू और सट्टेबाज़ दार्शनिक कह रहे हैं उनकी गंगोत्री भी मई 1968 का भ्रमग्रस्त पेरिस ही है। सही मायनों में कहें तो उत्तर-आधुनिकतावाद के प्रत्यक्ष हमलों के चुक जाने के बाद, उत्तर-आधुनिकतावाद का विरोध करने का स्वाँग रचते हुए सट्टेबाज़ और बहेतू दार्शनिकों के दार्शनिक ख़ानाबदोशी ने वास्तव में फिर से मार्क्‍सवाद की क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु को ही निशाना बनाया है। इनके शब्द अलग हैं; उत्तर-आधुनिकतावाद जिस नंगई से पूँजीवाद की अन्तिम विजय, कोई विकल्प न होने, पहचान की राजनीति के समर्थन, आदि की बात करता था, अब वैसा करना अपना मज़ाक उड़वाने जैसा होगा। इसलिए इन नये बहेतू दार्शनिकों ने प्रत्यक्ष तौर पर पूँजीवाद-विरोध की भाव-भंगिमा अपनायी है और पूँजीवाद की ये लोग एक ‘’नये किस्म की आलोचना’’ करते हैं, जो अलग से चर्चा का विषय है! आज के ज़माने में पूँजीवाद के खि़लाफ़ आम जनता सड़कों पर उतर रही है। यह 1990 का दौर नहीं है जब दुनिया भर में पस्ती और निराशा छायी हुई थी। उस समय उत्तर-आधुनिकतावाद नंगे तौर पर ‘अन्त’ का सोहर गा सकता था। अब कोई भी विचारधारा जो ऐसा प्रयास करेगी, उसके हश्र का अनुमान लगाया जा सकता है। इसलिए पूँजीवादी बौद्धिक तन्त्र ने अपनी सहज गति से नये किस्म के ‘‘दार्शनिकों’’ को पैदा किया है जिसमें से किसी को ‘मोस्ट एण्टरनेनिंग थिंकर’, ‘ग्रेटेस्ट लिविंग थिंकर’ आदि कहा जा रहा है तो किसी को ‘मोस्ट इनोवेटिव थिंकर ऑफ जेनरेशन’ और पता नहीं क्या-क्या कहा जा रहा है। लेकिन जैसा कि हमने देखा, इन नये ‘‘दार्शनिकों’’ का निशाना भी वही है जो कि 1990 के दशक और 2000 के दशक की शुरुआत में उत्तर-आधुनिकतावाद, उत्तर-औपनिवेशिक सिद्धान्त आदि का था-माक्र्सवाद की क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु। आज इन बहेतू दार्शनिकों की दार्शनिक आवारागर्दी की कठोर आलोचना की ज़रूरत है और इनके विचारों के वास्तविक जन-विरोधी चरित्र को साफ करने की ज़रूरत है। यह समझने की ज़रूरत है कि शब्दों की सारी बाज़ीगरी के पीछे इनका इरादा और मकसद क्या है।

दुनिया को स्पष्ट शब्दों में स्पष्ट विकल्प की ज़रूरत है, जो कि दिया जा सकता है और सम्भव है, बशर्ते कि दुनिया भर में क्रान्तिकारी शक्तियाँ अन्दर और बाहर, दोनों ओर से सामने आ रही चुनौतियों का सही तरीके से मुकाबला करें। आज पूरी दुनिया में जो पूँजीवाद-विरोधी जनान्दोलन चल रहे हैं, वे अराजकतावाद, स्वतःस्फूर्ततावाद और तरह-तरह की विजातीय प्रवृत्तियों का शिकार हैं। इन आन्दोलनों में जनता स्वतःस्फूर्त तरीके से पूँजीवाद-विरोधी घृणा और नफ़रत से उतरी है। लेकिन पूँजीवाद के खि़लाफ़ यह घृणा रखना काफ़ी नहीं है; स्वतःस्फूर्तता काफ़ी नहीं है; एक पंक्ति में कहें तो महज़ पूँजीवाद-विरोध पर्याप्त नहीं है। इन आन्दोलनों में अराजकतावाद और चॉम्स्कीपंथ का जो पुनरुत्थान होता दिख रहा है, वह लघुजीवी सिद्ध होगा; बल्कि कहना चाहिए कि इन स्वतःस्फूर्त आन्दोलनों में बिखराव के साथ यह लघुजीवी सिद्ध होने भी लगा है। अराजकतावाद कोई विकल्प पेश नहीं कर सकता। हमें एक सुस्पष्ट, सुसंगत क्रान्तिकारी विकल्प पेश करना होगा। और उसके लिए दुनिया भर के सर्वहारा क्रान्तिकारियों को अपने भीतर मौजूद कमज़ोरियों, कठमुल्लावाद, धुरी-विहीन चिन्तन और आत्मसमर्पणवाद को त्यागना होगा और मार्क्‍सवाद के उसूलों पर खड़े होकर, द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के विज्ञान पर खड़े होकर इन चुनौतियों का सामना करना होगा। बिना क्रान्तिकारी विचारधारा, क्रान्तिकारी पार्टी और क्रान्तिकारी आन्दोलन के बिना कोई क्रान्ति नहीं हो सकती। आज अपनी विचारधारात्मक कमज़ोरियों और कार्यक्रम-सम्बन्धी कठमुल्लावादी समझदारी से निजात पाकर विश्व भर में सर्वहारा क्रान्तिकारियों को एक नयी क्रान्तिकारी पार्टी को खड़ा करने की तैयारी करनी होगी। आन्दोलन की संकट को दूर करने का यही रास्ता है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2012

 

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