मसौदा राष्ट्रीय औषध मूल्य निर्धारण नीति-2011
दवा कम्पनियों के मुनाफे के लिए इंसानी जि़न्दगी से घिनौने खिलवाड़ का मसौदा
प्रशान्त
किसी भी देश के नागरिकों तक जीवन-रक्षक व अत्यावश्यक दवाओं की सहज व सस्ती उपलब्धता को सुनिश्चित करना हरेक राज्य के सबसे महत्वपूर्ण दायित्वों में से एक है। एक स्वस्थ इंसानी, जिन्दगी के लिए अनिवार्य होने के कारण यह देश की जनता का एक प्रमुख जनवादी अधिकार व मानवाधिकार भी है। लेकिन जो राज्य लोगों की सबसे बुनियादी जरूरतों – भरपेट भोजन, कपडे़ और सिर के ऊपर छत – को भी पूरा न करता हो उससे बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं के सस्ती दरों पर उपलब्ध कराए जाने का भ्रम पालना ही एक नादानी भरी सोच है। ख़ासकर नवउदारवाद और भूमण्डलीकरण के इस दौर में जबकि देश की बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी की पूँजी के आधुनिक गुलामों और मुनाफ़ा निचोड़ने के लिए इस्तेमाल होने वाले यंत्रों से अधिक कोई कीमत न हो तो केवल पूँजीवादी राज्य से केवल यहीं उम्मीद की जा सकती है कि वह एक एक करके स्वास्थ्य सुविधाओं, दवा-इलाज आदि को मुनाफ़े की हवस में अंधे पूँजीपतियों और उनके जंगल (बाजार) को सौंपता जाए। राष्ट्रीय औषध मूल्य निर्धारण नीति-2011 का मसौदा इसी दिशा में उठाया एक धूर्ततापूर्ण कदम है। धूर्ततापूर्ण इसलिए क्योंकि इसके द्वारा राज्य राष्ट्रीय अत्यावश्यक औषध सूची-2011 (एन. एल. ई. एम.-2011) में शामिल सभी 348 दवाओं को मूल्य नियन्त्रण के अन्तर्गत लाने के आवरण में सरकार दवा क्षेत्र में लगे पूँजीपतियों के मुनाफे को बढ़ाने वाली अपनी इस नीति को लागू करना चाहती है। एन.पी.पी.पी.- 2011 पर चर्चा से पहले आइए एक बार आज़ाद भारत में दवाओं के मूल्य निर्धारण के इतिहास पर एक नज़र डाल लेते हैं।
दवाओं के मूल्य नियन्त्रण की कवायद सबसे पहले 1962 में औषध मूल्य प्रदर्शन आदेश और 1963 औषध मूल्य नियंत्राण आदेश (Drug Price Control Order, DPCO) के द्वारा शुरू की गयी। लेकिन व्यापक औषध मूल्य नियंत्रण नीति का निर्माण 1979 में किया गया। इसके तहत 347 दवाओं को मूल्य नियन्त्रण के अन्तर्गत लिया गया। लेकिन धीरे धीरे नेहरू के समाजवादी मुखौटे वाले पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद की हवा निकलने के साथ ही दवाओं के क्षेत्र में भी बाज़ार का प्रभाव बढ़ता गया। 1987 व 1994 में डी. पी. सी. ओ.-1979 में किए गए संशोधनों द्वारा अधिकांश दवाओं को मूल्य नियन्त्रण के दायरे के बाहर कर दिया गया (देखें तालिका-1)।
दवाओं को मूल्य नियन्त्रण के बाहर किए जाने की इसी प्रक्रिया की क्रमिकता में ही वर्ष 2002 में तत्कालीन राजग सरकार द्वारा एक नयी एन.पी.पी.पी. प्रस्तुत की गयी। इसके द्वारा मूल्य नियन्त्रण की ज़द में आने वाली दवाओं की संख्या 74 से घटाकर 35 से भी कम कर देने की योजना थी। लेकिन इस नीति के खिलाफ़ कुछ सुधारवादी संगठानों द्वारा कर्नाटका उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की गयी। जिस पर सुनवायी करते हुए कर्नाटका उच्च न्यायालय ने एन.पी.पी.पी.-2002 के अमल पर रोक लगा दी। कर्नाटका हाई कोर्ट के इस निर्णय के खि़लाफ़ 2003 में सरकार ने देश के सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा घटघटाया जहाँ उसको अपने मनमुआफि़क निर्देश मिल गया। सर्वोच्च न्यायालय ने कर्नाटका उच्च न्यायालय के फैसले पर रद्द करते हुए सरकार को 2 मई 2003 से पहले अत्यावश्यक और जीवन-रक्षक दवाओं को मूल्य नियन्त्रण की सीमा से बाहर होने से बचाने के लिए दवाओें की अनिवार्यता का उपयुक्त पैमाना सूत्रीकृत करने का निर्देश दिया। इसके साथ ही अत्यावश्यक और जीवन-रक्षक दवाओं की पुनः समीक्षा करने का भी निर्देश दिया गया। सरकार के लिए ऐसे निर्देशों का पालन करना बहुत आसान काम था। पहले तो सर्वोच्च न्यायालय के इन निर्देशों के अनुसार कुछ कमेटियों का निर्माण किया गया; इन कमेटियों द्वारा 2005 में दी गयी रिपोर्ट के आधार पर मूल्य निर्धारण मामले के समाधान के लिए दो ‘ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स’ का निर्माण किया गया लेकिन हर दूसरे मामले की तरह इसमें भी वहीं ढ़ाक के तीन पात वाली पुरानी कहानी ही दोहराई गयी और 7 सालों में इस समस्या का कोई समाधान नहीं निकाला जा सका।
इस बीच दवाओं और स्वास्थ्य सुविधाओं का मुनाफे के एक बड़े स्रोत के रूप में निजी कम्पनियों द्वारा इस्तेमाल बडे़ पैमाने पर होने लगा; दवाओं के दाम लगातार बढ़ते गये, सरकारी अस्पतालों की डिस्पेनसरी से मिलने वाली दवाओं की संख्या लगातार कम होती गयी; एक ही दवा के दसियों ब्राण्ड बाजार में आ गए जिनके दामों में एक दूसरे से बहुत अन्तर होता है। इस प्रकार दवा बाजार में आज भयानक अराजकता व्याप्त है और डॉक्टरों व केमिस्टों तथा नेताओं-मंत्रियों-नौकरशाहों से साँठ-गाँठ करके बाजार की बड़ी कम्पनियाँ दवाओं के दाम को मनमुआफि़क बढ़ाती रहती हैं। इन सरकारी नीतियों का परिणाम आज हमारे सामने है। दिन-ब-दिन दरिद्र होती देश की आम मेहनतकश आबादी के लिए साधारण दवा-इलाज तक कराना भी अब असम्भव हो चला है। देश में आज कुल बीमार आबादी का 1/5 का कोई उपचार नहीं होता है। देश में हर साल 2-4% लोग दवा-इलाज पर होने वाले खर्चे के कारण गरीबी रेखा (भुखमरी रेखा) के नीचे चले जाते हैं। देश में आज भी डायरिया, हैजा, बुखार जैसी साधारण बिमारियों से लोगों की मौत होती रहती है। ऐसे में देश की जनता के साथ किए जा रहे इस घोर अन्याय व शोषण को और शातिर रूप से जारी रखने के उद्देश्य से ही वर्तमान एन.पी.पी.पी-2011 का मसौदा तैयार किया गया है। आइए अब इस मसौदे पर नज़र डालते हैं।
एन.पी.पी.पी-2011 के मसौदे की शुरुआत एक बहुत ही जन पक्षधर दिखने वाले प्रस्ताव से होती है। मसौदे में राष्ट्रीय अत्यावश्यक औषध सूची-2011 में शामिल सभी 348 दवाओं को मूल्य नियन्त्रण के दायरे के अंतर्गत लेने को कहा गया है। इसके साथ ही दवाओं को किसी कम्पनी के मार्केट शेयर व अन्य बाजार आधारित आधारों पर नहीं बल्कि दवाओं की अनिवार्यता के आधार पर मूल्य नियन्त्रण के अन्तर्गत लेने की बात कही गयी है। लेकिन ये प्रस्ताव तो केवल हाथी के दिखाने के दाँत हैं और ऊपरी सजावट के तौर पर शामिल किए गए हैं। और हाँ, इससे देश के सर्वोच्च न्यायालय को सन्तुष्टि भी जरूर मिल गयी होगी क्योंकि उसके निर्देशों का सरकार ने पालन जो किया है। लेकिन थोड़ा ही आगे पढ़ने पर जल्दी ही इस मसौदे का जनद्रोही चरित्र सामने आ जाता है जब मसौदे में दवाओं के मूल्य नियन्त्रण के लिए निम्न दो सिद्धान्त प्रस्तुत किए जाते हैं:
1) केवल अंतिम उत्पादों (फॉर्मूलेशन्स) के मूल्यों का विनियमन
2) मूल्य निर्धारण के लिए बाजार-आधारित मूल्य निर्धारण पद्धति का प्रयोग
अभी तक दवाओं के मूल्य दो स्तरों पर विनियमित किए जाते रहे हैं। पहले स्तर पर दवाओं के उत्पादन के लिए प्रयुक्त होने वाले कच्चे मालों या ‘बल्क ड्रग’ के उत्पादन के मूल्य पर नियन्त्रण लगाया जाता है। इसमें कच्चे माल के विक्रय पर होने वाले मुनाफे को उत्पादन लागत की एक निश्चित दर पर फिक्स कर दिया जाता है। दूसरे स्तर पर फॉर्मूलेशन्स या अन्तिम उत्पादों के मूल्य को विनियमित किया जाता है। इसके लिए फॉर्मूलेशन्स के उत्पादन लागत की गणना की जाती है और उत्पादन पश्चात होने वाले खर्चे पर एक ऊपरी सीमा तय कर दवाओं के मूल्य का निर्धारण किया जाता है। उत्पादन पश्चात होने वाले खर्चों में कम्पनी का मुनाफ़ा भी शामिल होता है जो 1995 डी.पी.सी.ओ. के अनुसार 100% तय किया गया थी। इस प्रकार यदि किसी दवा की उत्पादन लागत 1 रु है तो उसका अधिकतम बाजार मूल्य 2 रु हो सकता है। लेकिन वर्तमान मसौदे में ‘बल्क ड्रग’ के विनियमन को समाप्त करने के पीछे सरकार यह तर्क देती है कि कम्पनियाँ मूल्य नियन्त्रण के अन्तर्गत आने वाले ‘बल्क ड्रग’ का इस्तेमाल न करके मूल्य नियन्त्रण के बाहर आने वाले ‘बल्क ड्रग’ का इस्तेमाल करती हैं। इसकी वजह से ‘बल्क ड्रग्स’ के किसी मिश्रण द्वारा निर्मित होने वाले फॉर्मूलेशन के उत्पादन और फलस्वरूप बाजार में उस फॉर्मूलेशन की उपलब्धता पर बहुत बुरा असर पड़ता है। लेकिन ये तर्क सरासर गलत हैं। क्योंकि बल्क ड्रग्स सीधे उपभोक्ताओं को नहीं बल्कि फार्मूलेशन्स के उत्पादकों को बेचे जाते हैं और इसलिए इनके विक्रय द्वारा होने वाले मुनाफे को बढ़ाना उस प्रकार के जोड़-तोड़ द्वारा सम्भव नहीं है जैसा की डॉक्टरों और केमिस्टों के साथ साँठ-गाँठ करके उपभोक्ताओं को बेचे जाने वाले फॉर्मूलेशन्स के साथ सम्भव है। बल्कि इस मामले मंे तो बाजार प्रतियोगिता ‘बल्क ड्रग्स’ के मूल्य को नियन्त्रित रखती हैं। उल्टे इस प्रावधान के लागू होने पर कम्पनियाँ अत्यावश्यक ‘बल्क ड्रग्स’ से असारभूत (Non-essential) फॉर्मूलेशन्स का निर्माण करने को प्रेरित होंगी क्योंकि वे फॅार्मूलेशन्स मूल्य नियन्त्रण के बाहर होंगे यदि उनके बुनियादी संघटक अवयवों में एक भी एन.एल.ई.एम.-2011 में जारी सूची के बाहर आता है। आज ही देश के दवा बाजार में ऐसे अतार्किक गैर जरूरी फॉर्मूलेशन्स की भरमार है और ये प्रावधान इस संकटग्रस्त स्थिति को और अधिक बदतर ही बनाएगा।
अब जरा दूसरे प्रावधान पर नज़र डालते हैं जो बाज़ार-आधारित मूल्य निर्धारण पद्धति की बात करता है। इस प्रावधान के अनुसार किसी फॉर्मूलेशन्स का मूल्य एक ऊपरी सीमा द्वारा नियन्त्रित किया जाएगा जो उस फॉर्मूलेशन का उत्पादन करने वाले बाजार हैसियत के हिसाब से सबसे ऊपर के तीन ब्राण्ड्स के भारित औसत मूल्य द्वारा तय होगी। अगर देखा जाए तो अधिकांश दवाओं के मामले में बाजार हैसियत के हिसाब से ऊपर आने वाले ब्राण्ड्स के उत्पादों की कीमत सबसे ज्यादा होती है। इस प्रकार अपने इस मसौदे द्वारा सरकार बड़ी दवा कम्पनियों के सामने पूरी तरह से शीश नवा दिए हैं। इसको एक उदाहरण के द्वारा समझते हैं। ऐमेरिल एक एण्टी-डायबेटिक्स दवा है। इस दवा के ऊपर के तीन ब्राण्ड्स का औसत 59.3 रू. है जबकि नीचे के तीन ब्राण्ड्स का औसत 10.8 रू. है। ऐसे में सरकार द्वारा प्रस्तुत वर्तमान मसौदे के अनुसार ऐमेरिल के बाजार मूल्य की ऊपरी सीमा 59.3 रू. होगी। ऐसे में इस दवा का उत्पादन करने वाला कोई मूरख ही होगा जो अपने दामों को 59.3 रू. से कम रखेगा। अर्थात् बाजार प्रतियोगिता दामों को कम करने की अपेक्षा दामों को बढ़ाएगी!! देश के महान अर्थशास्त्री प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह और उनकी सरकार को इस मसौदे के निर्माण के लिए पूँजीपतियों से भरपूर शाबाशी और चबाने के लिए हड्डियाँ मिली होंगी। आखिर उन्होंने इंसानी जि़न्दगी से खिलवाड़ करने की कला में अपने आप को महारथी जो सिद्ध किया है!
यह नीति उन तमाम नीतियों में से एक हैं जो आने वाले समय पर पूँजी के हित में बनायी जाने वाली हैं। नवउदारवाद के वर्तमान दौर में एक पूँजीवादी राज्य यह करने को मजबूर है। साफ है यह व्यवस्था आज केवल मानवद्रोही ही नहीं रही है बल्कि आदमखोर का रूप धारण कर चुकी है और अब यह इसी तरह देश की गरीब मेहनतकशों का कतरा कतरा रक्त चूस कर ही जिन्दा रह सकती है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2012
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