वर्जीनिया गोलीकाण्ड – अमेरिकी संस्कृति के पतन की एक और मिसाल

शिशिर

vatechअमेरिका के ब्लैक्सबर्ग शहर में वर्जीनिया टेक विश्वविद्यालय में 17 अप्रैल को एक दक्षिण कोरियाई छात्र ने 29 छात्रों और तीन शिक्षकों को गोलियों से भून डाला और फ़िर खुद को भी गोली मार ली। वर्जीनिया गोलीकाण्ड ने एक बार फ़िर अमेरिकी समाज और संस्कृति के पतन के विशिष्ट चरित्र को उजागर किया है। अमेरिकी में हर साल आग्नेय अस्त्रों से 11,000 लोग मारे जाते हैं। यानी, 80 व्यक्ति प्रति दिन। मृतकों की यह संख्या किसी युद्ध में मारे जाने वाले लोगों से कम नहीं है। इराक़ में 2003 से जितने अमेरिकी सैनिक मारे गये हैं यह संख्या उसकी तिगुनी है। अमेरिका इराक़ में अपने सैनिकों की जान तो वैसे भी नहीं बचा सकता है; अगर बचा भी ले तो आत्मघाती अमेरिकी रुग्ण पूँजीवादी संस्कृति से उसकी जनता को कौन बचाएगा? उस पागलपन भरे उन्मादी व्यक्तिवाद से उस समाज को कौन बचाएगा जो समूह की कीमत पर व्यक्ति का महिमामण्डन करता है?

cho-seung-hui-455-x-351एक पागल, अकेला, अलगाव का शिकार व्यक्ति जो अपने आपे में नहीं था, वह अपनी डॉर्मेटरी से दो पिस्तौलें अपनी जेब में डालकर निकला और फ़िर उसने वर्जीनिया टेक में एक ऐसे नरसंहार को अंजाम दिया जो अद्वितीय था। इस पूरे नरसंहार पर जॉर्ज बुश कहते हैं कि यह बंदूकों का उदार कानून नहीं है बल्कि मानवता में निहित पतन की संभावना है जिसके कारण ऐसे काण्ड होते हैं। बुश ने इस बात से साफ़ इंकार कर दिया कि बंदूकों पर नियंत्रण के लिए किसी सख़्त कानून की ज़रूरत है। इसकी वजह साफ़ तौर पर अमेरिकी राजनीति में ज़बर्दस्त प्रभाव रखने वाली ‘गन लॉबी’ है। आज अमेरिका में 6 करोड़ 50 लाख के करीब निजी बंदूकें मौजूद हैं। इनका उत्पादन और व्यापार एक बेहद लाभदायक धंधा है। इसके पक्ष में प्रचार किया जाता है। और लंबे समय तक किये गये प्रचार का ही नतीजा है कि आज आम अमेरिकी नागरिक अपने पास बंदूक रखना अपना संवैधानिक अधिकार समझता है। और वर्जीनिया में तो इसके लिए किसी लाईसेंस तक की ज़रूरत नहीं है। नतीजा है एक ऐसी संस्कृति जो आदमखोर होने की हद तक मानवद्रोही है, जिसमें बंदूक के साथ एक जानलेवा रोमांस है, जिसमें मानवीय जीवन का कोई मूल्य नहीं है।

अमेरिकी जनता ने जनवाद के लिए लगभग ढाई सौ साल पहले एक लड़ाई लड़ी थी। इस लड़ाई ने वहाँ की जनता को निरंकुश औपनिवेशिक शासन से मुक्त कराया था। लेकिन आज अमेरिका बंदूक और अपने अंधे व्यक्तिवाद की निरंकुशता की गिरफ्त में है। जब भी वर्जीनिया गोलीकाण्ड जैसी कोई त्रासदी घटित होती है तो इसे समझने की सभी कोशिशें अपराधी के मनोविज्ञान को समझने पर केन्द्रित की जाती हैं। जैसे कि इस मामले में चो स्यूंग हुई की असामान्य मनःस्थिति को मीडिया ने काफ़ी उछाला। और चो स्यूंग हुई के निजी इतिहास में ऐसे कई कारक मौजूद थे जो बस उसकी मनःस्थिति पर ही लोगों का ध्यान केन्द्रित कर दें। उसके लेखन के हिंस्र चरित्र से उसके अध्यापक परेशान थे और उन्होंने उसे मानसिक स्वास्थ्य केन्द्र भेजने का सुझाव दिया था। उसका कोई मित्र नहीं था, वह अधिकांश समय अकेला रहता था। वह अमेरिकी श्वेत नस्लवादी छात्रों द्वारा अपने ऊपर कसे जाने वाले फ़िकरों से नाराज़ था। वह सामान्य पृष्ठभूमि से आता था और अमीर छात्रों के घमण्ड और उद्दण्डता से नफ़रत करता था।

इस तरह के विश्लेषण में सबसे पहले व्यक्ति को समाज से अलग कर दिया जाता है। इसकी वजह एकदम साफ़ है। क्योंकि इसके बाद एक ऐसे समाज के विश्लेषण तक जाने की कोई आवश्यकता नहीं होगी जो पूर्णता की इस मंज़िल पर पहुँच चुका है कि अब उसकी ‘मिरर इमेज़’ दुनिया में रची जा सकती है! राष्ट्रपति बुश ने बार-बार ताल ठोंक कर कहा भी है कि वह दुनिया भर में अमेरिकी शैली का जनवाद और अमेरिकी समाज जैसा समाज बनाना चाहते हैं। आखिर ऐसे समाज की जाँच की क्या ज़रूरत जो इस बात पर सहमत है कि वह सर्वश्रेष्ठ है, उसकी संस्कृति विजयी है, उसकी सेना विजयी है, उसके पास सर्वश्रेष्ठ हथियार हैं, सर्वश्रेष्ठ तकनोलॉजी है?

नतीजतन जिस चीज़ की जाँच की जाती है वह होता है अपराधी का रुग्ण मानस। लेकिन इस बात की कोई जाँच नहीं की जाती कि उस रुग्ण व्यक्ति की रुग्णता का कारण क्या है? इसलिए समाज की जाँच किसी भी हालत में रोकी जानी चाहिए। इसलिए सारा मीडिया और बुद्धिजीवी उस अपराधी के मानस की पड़ताल में लग जाते हैं और इस बात की कोई जाँच नहीं की जाती कि वह कौन सा समाज है जिसमें हर साल इस तरह से 11,000 हत्याएँ हो जाती हैं।

अमेरिकी समाज में इस मानसिकता की उपज की वजहें तलाशी जानी चाहिए। यह व्यक्तिवाद की रुग्णता की हद तक पहुँच चुकी वह विचारधारा है जिसे पूँजीवाद पूरे समाज की नस-नस में भरता है, जो इस तरह के काण्ड के लिए जिम्मेदार है। इस तरह के हत्याकाण्डों को अंजाम देने वाले व्यक्तियों और उन व्यक्तियों में एक गहरा संबंध है जिनके कौशल, नायकत्व, ताक़त, और कीमत पर मीडिया और समाज पुष्पवर्षा करता है और जिनका महिमामण्डन करता है। सफ़लता और असफ़लता के बीच की खाई एक आदमखोर प्रवृत्ति पैदा करती है। सफ़लता और असफ़लता का व्यक्तियों में निरपेक्षीकरण कर दिया जाता है। इससे ठीक उसी प्रकार की अपरिवर्तनीय श्रेणियाँ पैदा हो जाती हैं जिस प्रकार की अपरिवर्तनीय श्रेणियाँ सामंती मध्ययुग में ‘अच्छा’ और ‘बुरा’ थीं। सफ़ल लोगों के लिए सबकुछ होता है और ‘असफ़ल’ लोगों के लिए कुछ भी नहीं; वे लूज़र होते हैं और लूज़र को कुछ नहीं मिलता। जबकि ‘विनर टेक्स ऑल’ यानी ‘सबकुछ विजेता का’!

यह खाई बेहद ख़तरनाक नतीजे पैदा करती है। अमीर और ग़रीब के बीच की खाई, सफ़ल और असफ़ल के बीच की खाई को इतना बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है कि वे लोग अपने प्रति किये जा रहे अन्याय के प्रति सचेत हो जाते हैं, जिनके ऊपर ‘असफ़ल’ और ‘पराजित’ का ठप्पा लगा दिया जाता है। समाज में उनका कोई मूल्य नहीं होता है। वे उन व्यक्तियों की औसत क्षमताओं से भी वाकिफ़ होते हैं जिनपर मीडिया और समाज फ़ूलों की वर्षा कर रहा होता है और प्रशंसा बरसा रहा होता है। समाज में उन्हें ऐसा कोई समूह नहीं मिलता जहाँ वे अपने आपको वैध पाएँ, जहाँ उनकी योग्यता का कोई मोल हो, जो उनके प्रति संवेदनशील हो, जो उनका सम्मान करता हो। इस तरह बहिष्कृत लोग पहचान और मान्यता के भूखे होते हैं। एक ऐसे समाज में उनसे यही उम्मीद की जा सकती है जिसमें व्यक्ति ही सबकुछ है सामूहिक हित कुछ भी नहीं। परिधि पर धकेल दिये गये ऐसे लोगों के लिए पहचान और मान्यता हासिल करने का अंतिम और सबसे कारगर रास्ता होता है हिंसा के किसी ऐसे कारनामे को अंजाम देना जिससे वे पूरे समाज की निगाह में आ जाएँ। वे ऐसा करके यह ऐलान करते हैं कि ‘देखो! हमारा भी वजूद है! तुम हमारे वजूद को नज़रंदाज़ करते हो? तुम्हें अब हमारे अस्तित्व को स्वीकारना पड़ेगा!’

समूह और समाज की कीमत पर व्यक्ति के ‘कल्ट’ की स्थापना के यही नतीजे हो सकते हैं। अमेरिकी मीडिया और व्यवस्था अभी भी उन समाजवादी प्रयोगों को कलंकित करते हैं जो अब जीवित नहीं हैं और फ़ौरी पराजय का शिकार हो गये हैं। वे कहते हैं कि इन व्यवस्थाओं में व्यक्ति को कोई स्थान नहीं मिलता। व्यक्ति की कीमत पर सामूहिक हित की बात नहीं की जानी चाहिए। लेकिन वे भूल जाते हैं कि समूह व्यक्तियों से ही बनता है। व्यक्ति के हित की बात करने के पीछे मक़सद कुछ व्यक्तियों की बात करना है। समाजवाद की प्रतिक्रिया में अमेरिकी व्यवस्था लगातार व्यक्तिवाद पर अतिरिक्त बल देती है। लेकिन यह रुग्ण किस्म का व्यक्तिवाद अमेरिकी समाज के लिए आत्मघाती सिद्ध हो रहा है।

तटस्थता और उपेक्षा से मुक्ति के लिए ऐसे व्यक्ति हिंसा के कुछ ऐसी कार्रवाइयों का सहारा लेते हैं जो उन्हें वैश्विक मीडिया की निगाह में ला देती हैं। इस हिंसा का शिकार होते हैं उसी समाज के वे लोग जो इस व्यक्तिवादी विचारधारा से ओत-प्रोत होते हैं।

अमेरिकी समाज का यह संकट सिर्फ़ अमेरिकी समाज का संकट नहीं है। हमें भूलना नहीं चाहिए कि यह संकट पूँजीवादी विश्व के शिखर पर सबसे ज़्यादा है। पूँजीवाद ने सामन्तवाद के विरुद्ध लड़ते हुए व्यक्तिवादी विचारधारा को जन्म दिया था। सामन्तवाद व्यक्ति और वैयक्तिकता का दमन करता था और चर्च उसके पैरों में बेड़ियाँ डालता था। उस समय व्यक्तिवाद और मानवकेन्द्रित समाज का दर्शन एक क्रान्तिकारी विचारधारा के रूप में सामने आया था। लेकिन पूँजीवाद के विकास और उसके एक वैश्विक व्यवस्था के रूप में उदय के साथ-साथ धीरे-धीरे यह विचारधारा प्रतिक्रियावादी रूप अख्तियार करती गयी। आज यह एक अनैतिहासिक और प्रतिक्रियावादी विचारधारा बन चुका है। व्यक्तिवाद का दर्शन इस दिशा में ही विकसित हो सकता था।

वर्जीनिया गोलीकाण्ड ने इस बात को एक बार फ़िर उजागर कर दिया है कि पूँजीवाद और उसके द्वारा प्रसारित और समर्थित रुग्ण व्यक्तिवाद समाज और मानवता को सिर्फ़ यही दे सकता है। आज के दौर में जब दुनिया की सभी बुनियादी उत्पादक प्रक्रियाओं का चरित्र सामूहिक हो चुका है, आज जबकि दुनिया की समस्त समृद्धि और सम्पदा के स्रोत के तौर पर मेहनतकश समूह सामने है, ऐसे में व्यक्तिवाद की सोच और पूँजीवादी विचारधारा एक अनैतिहासिक विचारधारा है। इसके नतीजे के तौर पर हमें इसी तरह के गोलीकाण्ड और नरसंहार मिलते रहेंगे; इसी तरह के मानसिक रुग्ण पैदा होते रहेंगे; और इसके ज़िम्मेदार वे स्वयं नहीं होंगे बल्कि वह समाज होगा जिसमें व्यक्तिगत लाभ और पहचान ही सबकुछ होगा और सामूहिक हित का कोई स्थान नहीं रहेगा। सामूहिकता वैयक्तिकता का निषेध नहीं है। उल्टे सामूहिकता में ही वैयक्तिकता पूरी तरह से फ़लफ़ूल सकती है। एक ऐसे समाज में जिसमें मुट्ठी भर लोगों के पास ही सारे अवसर और संपत्ति हो, उसमें सिर्फ़ उन्हीं की वैयक्तिकता फ़लफ़ूल सकती है। एक ऐसा समाज ही अपने सभी सदस्यों की वैयक्तिकता को स्थान दे सकता है जिसमें वैयक्तिकता का आधार पैसा, ताक़त और समृद्धि न हो, बल्कि व्यक्ति की अद्वितीयता पर विश्वास और श्रम की गरिमा की बहाली हो। जिसमें सभी व्यक्ति अपनी योग्यता के मुताबिक समाज के विकास में योगदान देते हों और समाज हरेक व्यक्ति के योगदान का सम्मान करता हो और उसे मान्यता देता हो। यह उसी समाज में हो सकता है जिसमें निजी संपत्ति और निजी लाभ का कोई स्थान न हो और सामूहिक हित ही सर्वोच्च हो।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-सितम्‍बर 2007

 

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