अधिकारों का गणित

सम्पादक जी,

गत दिनों हरियाणा के मुख्यमन्त्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा ने एक नये अधिकार की माँग उठायी है। दिल्ली में एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने सुझाव दिया कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम की तर्ज़ पर खेल का अधिकार भी बनाया जाना चाहिए। यूँ तो हर बच्चा अपने बचपन में कोई न कोई खेल खेलता ही है। पुराने ज़माने के खेल अलग किस्म के हुआ करते थे लेकिन आजकल के खेल अलग हैं। वैसे आजकल के खेलों को ‘खेल’ की बजाय ‘गेम’ कहना ज्यादा उचित होगा। ‘गेम’ – जो नई पीढ़ी कम्प्यूटर पर खेल रही है। कम्प्यूटर से चिपकी इस पीढ़ी को पता नहीं ही चलेगा कि ‘गेम’ खेलते-खेलते वह खुद भी कैसे ‘कम्प्यूटर’ में तब्दील हो जायेगी। इस तरह से कम्प्यूटर के इस युग में ‘कम्प्यूटरों’ की एक नई पौध भी तैयार हो रही है जो भावी समाज का निर्माण करेगी, जिसमें केवल ‘कम्प्यूटर’ ही ‘कम्प्यूटर’ होंगे, मानव नहीं। विषयांतर हो रहा है। बात तो खेल के अधिकार की चल रही थी। तो जी, आजकल के ज्यादातर युवा तो ‘खेल’ से मतलब शायद ‘क्रिकेट’ को ही समझते हैं। समझें भी क्यों न? क्रिकेट में ही तो कैरियर है।

खैर, यहां सिर्फ खेल की बात नहीं है, बात है खेल के अधिकार की। तो जी, अधिकारों का भी अपना इतिहास है। आजादी के बाद से ही सभी सरकारें जनता को अधिकार-पे-अधिकार देती आयी हैं। लेकिन पता नहीं क्यों, जनता की हालत फिर भी पतली से पतली ही होती गयी? सरकार ने जनता को वोट का अधिकार दिया। सरकार कहती रही कि जनता के पास वोट नाम का यह अधिकार केवल अधिकार ही नहीं वरन हथियार है और जनता इस अधिकार द्वारा तख्तों-ताज भी बदल सकती है। जनता ने अपने इस अधिकार का प्रयोग किया और तख्तो-ताज बदले। बल्कि कई-कई बार बदलकर देखे लेकिन जनता की हालत नहीं बदली। फिर धीरे-धीरे जनता का इस अधिकार से मोहभंग होने लगा और वोट की कतार में लगने की बजाय अपने काम पर जाना ज्यादा पसन्द करने लगी। इस तरह से मतदान का प्रतिशत लगातार घटने लगा तो सरकार के एक हिस्से ने आवाज़ लगायी कि मतदान के अधिकार को अनिवार्य होना चाहिये। जनता हैरान! अरे, जो अनिवार्य और बाह्य ही हो गया तो फिर वह ‘अधिकार’ कहाँ रहेगा? यह तो वही बात हो जायेगी कि देश के नागरिकों को अपने देश में कहीं भी घुमने-फिरने की आजादी है, यह उसका अधिकार है। अब सरकार कहने लगे कि आपको देश-भर में कहीं भी घूमना-फिरना पड़ेगा! नागरिक कहेगा कि मुझे अधिकार तो है लेकिन मेरे घुटनों में दर्द है। मुझे चलने-फिरने में दिक्कत है, मैं घूम-फिर नहीं पाऊंगा। तो सरकार कहेगी कि नहीं, तुम्हें घूमने-फिरने का अधिकार दिया गया है। इस अधिकार का प्रयोग तो करना ही पड़ेगा! है न मजे की बात? इधर जनता आवाज़ उठा रही है कि हमें ‘राईट टू रिजेक्ट’ चाहिए, उधर सरकार का दूसरा हिस्सा (सरकार के भी हिस्से होते हैं) कह रहा है कि मत के अधिकार को अनिवार्य करो।

खैर, अधिकारों की बात चल रही है तो याद आता है कि सरकार ने हमें कितने-कितने अधिकार दिये! उसने जनता को जीने का अधिकार दिया। लेकिन ये क्या? जनता में से कई तो राष्ट्रपति को पत्र लिखकर खुदकशी की अनुमति ही माँगने लगे। और कई तो इसके लिए अनुमति के चक्कर में भी नहीं पड़ना चाहते और सीधे ही भगवान को प्यारे हो जाते हैं! आज़ादी के बाद से लेकर आज तक देश-भर में आत्महत्याएँ करने वाले किसानों ने किससे अनुमति माँगी थी? ये तो शुक्र है कि सरकार ने जनता को आत्महत्या करने का अधिकार नहीं दिया, वरना तो पता नहीं कि देश में क्या होता? अजीब विडम्बना है कि उधर सरकार जनता को अधिकार पे अधिकार दिये जा रही है और इधर जनता की हालत बद से बदतर होती जा रही है। सरकार ने जनता को बोलने और भाषण देने का अधिकार दिया लेकिन जनता की बोलती ही बन्द है! सरकार द्वारा दिये गये अधिकारों में से यही अधिकार तो सबसे बढि़या है लेकिन अन्य अधिकारों की तरह जनता इसे भी प्रयोग नहीं कर रही। मुझ जैसों को जो कम से कम इस अधिकार का तो प्रयोग करना ही चाहते हैं, जनता सिरफिरा ही समझने लगती है। माना कि सरकार ने इस अधिकार को जनता को सौंपते समय उतनी उदारता नहीं दिखाई जितनी कि अन्य अधिकारों में, और जनता को यह अधिकार सौंपते समय इसमें अनेक ‘किन्तु-परन्तु’ भी डाल दिये। फिर भी आपको जितना मिला है, उतना तो प्रयोग कर ही सकते हैं जी!

तो जी, यह मान लेना चाहिये कि जनता अपने किसी भी अधिकार का प्रयोग करना ही नहीं चाहती। सरकार ने तो जनता को चुनाव लड़ने का भी अधिकार दिया लेकिन जनता के मलाईदार तबके ने इस अधिकार पर भी कब्ज़ा कर लिया और इस अधिकार का प्रयोग करके मलाईदार स्वयं तो सरकार हो गये लेकिन जनता फिर छाछ की छाछ ही रह गयी। कभी-कभार जब छाछ किस्म की जनता भी अपने इस अधिकार का प्रयोग करने आगे आती है तो स्वयं जनता ही उसे ‘रिजेक्ट’ कर देती है। अब तो छाछ जनता ने भी मान लिया है कि चुनाव का अधिकार तो मलाईदार के पास ही रहना उचित है!

यूं, ऐसा भी नहीं है कि अधिकार सिर्फ जनता के ही पास होते हैं। सरकार के पास भी अधिकार होते हैं। लेकिन जब भी सरकार अपने अधिकारों का प्रयोग करती है तो पता नहीं कैसे, जनता ही उसकी चपेट में आ जाती है। सरकार ने जब भी अपने किसी अधिकार का कोई तीर चलाया तो उसका निशाना किसी पशु-पक्षी को नहीं, जनता को ही लगा। उधर, सरकार ने एक निशाना तो लगाया तो इधर लाखों नौकरियाँ ग़ायब हो गयीं! सरकार ने दूसरा निशाना लगाया तो किसानों से उनकी ज़मीनें छिनने लगीं। सरकार के निशाने भी अजीब होते हैं जो केवल जनता को ही लगते है! पता नहीं जनता ही निशाने की जड़ में आ जाती है या कि सरकार का निशाना ही जनता होती है? खै़र, सरकार तो सरकार है जी, आम जनता की तो क्या औकात, वह बड़ों-बड़ों को भी निशाना बना सकती है। पिछले दिनों जनता के आगे चलने वाले दिल्ली और मुम्बई में ‘बड़े-बड़े’ ही तो थे? किसी ने पूछा कि शेर बच्चे पैदा करता है; जंगल का राजा जो ठहरा! तो सरकार को भी जंगल का राजा ही समझो। अब ये अलग बात है कि आपकी हिफाजत करेगी या शिकार? असल में जंगलराज में सवाल तो पूछे भी नहीं जाने चाहियें।

खैर, विषयांतर के लिए क्षमा चाहता हूं। बात जनता के अधिकारों से शुरू हुई थी, तो सरकार ने अधिकारों से जनता-जनार्दन की झोली भरने में कभी भी कंजूसी नहीं बरती लेकिन जनता-जनार्दन को फिर भी लग रहा है कि उसकी झोली खाली ही है। अब ये तो सरकार जाने या फिर जनता कि उसकी झोली ही फटी हुई है या फिर अधिकारों के नाम पर उसे कुछ और ही दिया जा रहा है?

राकेश बाबू ‘राणा’
गांव व डाक., कलायत, जिला-कैथल (हरियाणा)

 

आह्वान सराहनीय कार्य कर रहा है…

सम्पादक महोदय,

आह्वान पत्रिका इस समय की सबसे महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में से है। यही पत्रिका देश-विदेश में हो रहे बदलावों का जनपक्षधर विश्लेषण करती है। एफ.डी.आई. पर सही क्रान्तिकारी अवस्थिति, यूरोजोन संकट तथा आधुनिक भौतिकी पर आये लेख सराहनीय हैं। इन्जीनियरिंग कॅालेज में पढ़ने के कारण हमें इतना समय ही नहीं मिलता है कि हम इन विषयों पर सही समझ विकसित कर सकें। हालांकि टी.वी., इन्टरनेट व अखबारों से जमा होकर सूचनाओं का विशाल भण्डार तो होता है लेकिन वह हमें सच्चाई के करीब पहुँचने नहीं देता है। आह्वान इस मायने में एक वैकल्पिक क्रान्तिकारी मीडिया का रोल अदा कर रही है तथा जनपक्षधर सच्चाई बयान कर रही है।

यूरोजोन पर आया लेख पढ़कर एक जरूरी बात समझ आयी जो मैं आह्वान के साथियों से साझा करना चाहूँगा। यूरोजोन की सामूहिक ताकत आज गम्भीर संकट का शिकार है जिसने विज्ञान को भी अपनी चपेट में ले लिया है। परन्तु यह पूँजीवाद ही था जिसने विज्ञान को विकसित किया था। औद्योगिक क्रान्ति ने विज्ञान को नये आयामों तक विकसित किया वैज्ञानिक विकास के रास्ते बढ़ते हुये मनुष्य ने ब्रह्माण्ड की संरचना तथा सूक्ष्म से सूक्ष्म जगत को व्याख्यायित किया व इन्हें उद्योग से मिलाकर प्रोद्योगिकी को जन्म दिया। परन्तु जिस संकट में आज यह व्यवस्था उलझी हुई है यह खुद विज्ञान तथा प्रोद्योगिकी का गला घोंट रही है। यूरोजोन के संकट के कारण ही सर्न का महाप्रयोग आर्थिक संकट में है, कई देशों ने इस प्रयोग में आगे आर्थिक निवेश करने में असमर्थता जाहिर की है। इस आर्थिक संकट का सबसे बड़ा शिकार स्पेन का विज्ञान मंत्रालय बना है, यह अब अस्तित्व में ही नहीं है। संकट के कारण मची उथल पुथल में वहाँ प्रतिक्रियावादी सरकार की ताजपोशी हुई है जिसने खुद को उबारने के लिये विज्ञान मंत्रालय को ही खत्म कर दिया। अन्य देशों में भी विज्ञान के बजट में 70-80 फीसदी तक की कटौती हुई है। यही हाल स्वास्थ्य बजट का भी है परन्तु इन सभी देशों ने सुरक्षा बजट को छुआ भी नहीं है या फिर कुछ कटौती मजबूर होकर की है। कारण साफ है मौजूदा व्यवस्था न तो विज्ञान की मित्र है और न मानव केन्द्रित, यह मुनाफा केन्द्रित व्यवस्था है। अन्त में मैं भी शिशिर के लेख के ‘निष्कर्ष के स्थान पर’ में लिखी बात से सहमत हूँ कि ‘‘मानवता के सामने आज दो ही विकल्प हैं-समाजवाद या विनाश! और मानवता की रचनात्मकता, विवेक और जीवटत पर हमें पूरा भरोसा है। हम निश्चय ही विनाश के विकल्प को नहीं चुनेंगे।”

प्रियांक, एमआईईटी, मेरठ

 

फिल्म समीक्षा का स्तम्भ फिर से शुरू करें

आह्वान प्रगतिशील छात्रों और युवाओं के लिए एक बेहद शानदार पत्रिका है। सभी लेख विचारोत्तेजक हैं। पिछले अंक में छपे यूरोजोन संकट के विषय में लेख विशेष रूप से सराहनीय था और युवाओं को सही स्थिति से अवगत कराता है।

‘‘आधुनिक भौतिकी और भौतिकवाद के लिए संकट’’ लेख सरल व संक्षेप में भौतिकवादी विश्वदृष्टिकोण से अवगत कराता है और उसे समझाता है।

आह्वान के पिछले चार-पांच अंक पढ़ने के बाद पुराने अंकों को भी मित्रों द्वारा उपलब्ध कराकर पढ़ा। मेरा सुझाव है कि आह्वान में फिल्म समीक्षा संबंधी लेख भी सम्मिलित किये जाने चाहिए चूंकि आज की फिल्में युवाओं को विशेष रूप से प्रभावित करती हैं और उन्हे पथभ्रष्ट भी करती हैं इसलिए फिल्मों की आलोचना सम्बन्धी सामग्री भी छापी जानी चाहिए। संपादन कार्य सराहनीय है।

विराट
आई.ई.सी. कॉलेज, ग्रेटर नोएडा

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2012

 

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