इस बार भी आदमखोर शिक्षा व्यवस्था की बलि चढ़े मासूम बच्चे
योगेश, दिल्ली
“पापा मैं आप लोगों के लायक नहीं हूँ और न ही आपकी अपेक्षाओं पर खरा उतर सकता हूँ। आप किसी और को अपना बेटा बना लें, जो आपकी इच्छाओं को पूरा कर सके।”
“परीक्षा की तैयारी न होने कारण फ़ेल होने का डर बार-बार सता रहा है। मम्मी-पापा ने मुझसे ढेरों उम्मीदें लगा रखी हैं जिसे मैं पूरा नहीं कर पाऊँगा इसलिए मैं…”
आत्महत्या करने से पहले सुसाइड नोट में दर्ज स्कूली छात्रों की ये अभिव्यक्तियाँ उस मानसिक तनाव को दर्शाती हैं जो इस शिक्षा व्यवस्था और समाज की देन है जिसमें पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बनने का दबाव माँ-बाप के सपने और समाज की उम्मीदों पर खरा न उतर पाने कि स्थिति में वह अपने आपको हताश और निराश पाता है और तंग आकर वह मौत को गले लगा लेता है।
हाल में राजधानी और अन्य महानगरों में छात्रों द्वारा आत्महत्या करने की प्रवृत्ति में तेज़ी से इजाफ़ा हुआ है। इन छात्रों में अधिकांश छात्र सम्पन्न घरों से आते थे और कई पढ़ने में औसत से अच्छे थे। लेकिन भूमण्डलीकरण के दौर में उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों ने शिक्षा व्यवस्था में जिस अस्वस्थ प्रतियोगिता को जन्म दिया है उसमें छात्र पिछड़ने पर अपने आपको अपराधग्रस्त महसूस करने लगते हैं। दूसरी तरफ़, मां-बाप भी बच्चों पर सिर्फ़ आगे बढ़ने के लिए दबाव डालते हैं। उनके लिए बच्चे की असफ़लता उनकी सामाजिक हैसियत को कमतर कर देती है। लेकिन ऐसा नहीं है कि छात्रों में बढ़ती इस प्रवृत्ति के लिए माँ-बाप या स्वयं छात्र को दोषी ठहराया जा सकता है। इसका कारण तो इस पूँजीवादी व्यवस्था का पूरा सामाजिक ताना-बाना है जिसमें घिसी–पिटी लकीर पर चलना ही सफ़लता माना जाता है। इस समाज की रीत है कि ‘जो जीता वही सिंकदर, जो पिछड़ा वह बंदर’। पिटी–पिटाई लीक पर जो न चल पाए उसे समाज में हिकारत भरी निगाहों से देखा जाता है। यह शिक्षा प्रणाली जिस प्रतियोगिता को जन्म देती है वह आपस में ईर्ष्या और द्वेष को ही जन्म नहीं देती बल्कि छात्रों को आत्महत्या करने पर मजबूर भी करती है।
भूमण्डलीकरण और उदारीकरण के दौर में बदली शिक्षा नीति ने इस प्रणाली को और अधिक अमानवीय बना दिया है जिसमें केवल सबसे पहले स्थान पर आने वाले के लिए ही मौका है, जबकि उससे कमतर छात्रों का भविष्य अंधकार में छोड़ दिया जाता है। साथ ही पूँजीवादी मीडिया और संस्कृति भी यही प्रचारित करती है “पढ़ो ताकि बढ़ा आदमी बनो और ख़ूब पैसा कमाओ’’। वह स्वयं भी गुनगुनाता है, “दुनिया जाए भाड़ में ऐश करो तुम”। यह सोच छात्रों को लालची, स्वार्थी और संवेदनशून्य बना रही है। इस शिक्षा व्यवस्था के दूसरे पहलू पर ग़ौर करना भी ज़रूरी है। कोई छात्र इस शिक्षा व्यवस्था में सफ़लता प्राप्त कर ले, तो क्या वह एक बेहतर इंसान की ज़िन्दगी जी पाएगा? इस शिक्षा व्यवस्था के केन्द्र में इंसान नहीं है आम घरों से आने वाले छात्रों को शिक्षा इसलिए दी जाती है ताकि उन्हें इस व्यवस्था के यंत्र का एक नट-बोल्ट बनाया जा सके। यानी उस भीड़ में शामिल किया जा सके जो इस व्यवस्था की सेवा में लगी है।
इस शिक्षा व्यवस्था का उद्देश्य छात्रों को भेड़ बनाना है या उसे मरने के लिए मजबूर कर देना है। ऐसी शिक्षा व्यवस्था जो इस कदर अमानवीय है, जो मासूम छात्रों की हत्यारी है उसकी सही जगह इतिहास का कूड़ादान ही हो सकती है। लेकिन यह शिक्षा व्यवस्था एक खास राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था की पैदावार है। इसे अलग से नहीं बदला जा सकता। इसे बनाया ही इस तरीके से गया है कि यह इस राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था की सेवा करे। हर राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था की अपनी शिक्षा व्यवस्था होती है। पूँजीवादी व्यवस्था का सूत्रवाक्य है “सर्वाइवल ऑफ़ दि फ़िटेस्ट” तो उसकी शिक्षा व्यवस्था का सूत्रवाक्य है “भेड़ बनो या जा मरो।’’
आह्वान कैम्पस टाइम्स, जुलाई-सितम्बर 2005
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