अब इंजीनियरिंग-मेडिकल भी रोज़गार की गारण्टी नहीं
विवेक, लखनऊ
पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में मुनाफ़े की कई शर्तें होती हैं। उनमें से एक होती है बेरोज़गारों की रिज़र्व आर्मी की मौजूदगी। फ़ैक्ट्री और दफ्तरों में काम करने वालों के अलावा अगर बेरोज़गारों की एक विशाल सेना बाहर मौजूद हो तो रोज़गारशुदा कामगारों के मोलभाव करने की क्षमता कम हो जाती है और उनका शोषण आसान हो जाता है। इसीलिए पूँजीपतियों के मुँह से यह जुमला सुनने को मिल जाता है कि बेरोज़गार मज़दूर तो सड़कों पर कुत्तों से भी आसानी से मिल जाएँगे।
चुनावबाज़ पार्टियाँ लोगों को भरमाने के लिए कभी ‘साल में सौ दिन रोज़गार’, ‘काम के बदले अनाज’ आदि जैसे नारे देती रहती हैं। मगर वे भी जानती हैं कि बेरोज़गारी इस व्यवस्था के अन्दर न तो ख़त्म की जा सकती है और न ही ऐसा करना लाभदायक होगा। इसलिए बेरोजगारी महज़ एक चुनावी मुद्दा है। लिहाज़ा, पूरी दुनिया में बेरोज़गारी तेज़ी से बढ़ रही है।
आज भारत में क़रीब 25 करोड़ लोग बेरोज़गार हैं और यह संख्या लगातार बढ़ रही है। इनमें अधिकांश आम घरों से आने वाले लोग हैं। कोई दसवीं पास है, तो कोई बारहवीं पास है, किसी ने आई.टी.आई किया है, तो किसी ने पॉलीटेक्निक। मगर नई आर्थिक नीतियाँ लागू होने के बाद से एक नई परिघटना सामने आई है। अब बेरोज़गारों की इस जमात में डॉक्टर और इंजीनियर भी शामिल हो गए हैं।
भारत में यह सोच काफ़ी हावी रही है कि बेटा अगर इंजीनियर या डाक्टर बन गया तो समझ लो कि रोज़गार पक्का। लेकिन भूमण्डलीकरण की कड़वी सच्चाई अब इस भ्रम को तोड़ रही है। आज भारत में 20 प्रतिशत इंजीनियर बेरोज़गार घूम रहे हैं। एक समय में ये क्षेत्र रोज़गार की गारण्टी माने जाते थे। नतीजतन, कोई इंजीनियर–डाक्टर से नीचे कुछ बनना ही नहीं चाहता था। भारत में 1993 में 5,97,680 इंजीनियर थे। 2003 में यह संख्या दोगुनी होकर 11,83,186 हो गई। नतीजतन, सरकारी और निजी संस्थानों में इंजीनियरिंग कोर्सों की मोटी फ़ीस देकर आज जब छात्र इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर निकलता है तो कह नहीं सकता कि उसे नौकरी मिलेगी या नहीं। जाहिर है, कि हमेशा ऊपर देखने की आदत रखने वाले मध्य वर्ग को इस बदलाव से थोड़ा होश आएगा और उसके नौजवान अपने कैरियरवाद को तिलांजलि देकर समाज के बारे में सोचने को मजबूर होंगे।
आह्वान कैम्पस टाइम्स, जुलाई-सितम्बर 2005
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