जनता के भगवान डॉक्टर, डॉक्टर का भगवान पैसा

नमिता, इलाहाबाद

क्या कहा? स्वस्थ करने की गारण्टी? भई गारण्टी तो पैसा लौटाने की होती है, स्वस्थ करने की नहीं। मरीज का कर्त्तव्य है पैसा देना और डाक्टर का कर्त्तव्य है इलाज करना। फ़िर बीच में स्वस्थ करना कहाँ से आ गया?

यही है हमारे भूमण्डलीकरण के ज़माने की उदारीकरण की बयार, जहाँ हर चीज़ का निजीकरण हो चुका है। चिकित्सा का भी निजीकरण हो चुका है। डॉक्टर लोग काफ़ी उदार हो गए हैं, इतने उदार कि लोगों की जान लेने में उदारता की सीमा पार कर जाते हैं।

अब भई इस उदारीकरण के ज़माने में लोगों को अपनी जान बचानी है तो डाक्टरों को पत्रम-पुष्पम तो करना ही पड़ेगा, माल-पानी तो देना ही पड़ेगा। थोड़ा हाड़-मांस तो गलाना ही पड़ेगा। या फ़िर उधार पर पैसा ले लिया जाय, या सामान गिरवी रख दिया जाय। फ़िर तो पूरी ज़िन्दगी पड़ी है उधार चुकता करने के लिए।

greedy-doctor-5646157अब आप कहेंगे चिकित्सा जैसे मानवीय पेशे में इतनी असंवेदनशीलता? तो हम एक बार फ़िर कहेंगे कि भूमण्डलीकरण का जमाना है। हर चीज़ का बाज़ारीकरण हो चुका है। ‘येन–केन प्रकारेण’ आज के बाज़ारू जमाने की विशेषता है। पैसा कमाने की अन्धी प्रतियोगिता में शामिल होना तो इनकी नियति है। जितना चाहे आदमी के ज़िन्दा लाश को नोचा-खसोटा जा सकता है।

आए दिन डॉक्टरों की घोर आपराधिक लापरवाही के कारण लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है। ऑपरेशन के दौरान कभी मरीज़ के पेट में कैंची छोड़ देना, कभी गलत इंजेक्शन देकर लोगों की जान ले लेना आम बात हो गयी है। लेकिन ये दरिन्दे बड़ी ही बेशर्मी से अपना पल्ला झाड़ लेते हैं और कहते हैं कि सारे मरीज़ों को तो नहीं बचाया जा सकता। लोगों का मरना-जीना तो लगा ही रहता है। लेकिन अगर डॉक्टरों की लापरवाही के कारण किसी मरीज़ की जान जाए तो क्या उसे माफ़ किया जा सकता है?

पिछले दो-तीन महीनों के अन्दर डॉक्टरों की लापरवाही ने कई मरीज़ों के जान ली, जिन्हें बचाया जा सकता था। कुछ दिनों पहले बाराबंकी के एक अस्पताल के डॉक्टरों ने एक गर्भवती महिला का ऑपरेशन करने से इसलिए इंकार कर दिया क्योंकि उसके पास 20,000 रुपये नहीं थे। मजबूरन उसे अस्पताल के बाहर तपती दुपहरी में बच्चे को जन्म देना पड़ा और बच्चे की मौत भी हो गई।

दिल्ली के एक सम्मानित अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड में गलत इंजेक्शन देने से मरीज़ की मौत हो गई। दरअसल हुआ यूँ कि उस अस्पताल में एक ही नाम के दो मरीज़ इलाज करा रहे थे, जिसमें एक को न्यूमोनिया की शिकायत थी और दूसरे को लीवर की बीमारी थी। न्यूमोनिया वाले मरीज को लीवर वाले मरीज का इंजेक्शन लगा दिया गया। इंजेक्शन लगाने के पहले जब मरीज़ के परिजनों ने नर्स को बताया कि यह इंजेक्शन मरीज़ के परचे में नहीं लिखा है तो नर्स ने उन्हें डाँटकर चुप करा दिया कि मरीज़ को क्या देना है क्या नहीं, यह तुम जानते हो या हम? और बिना परचा देखे ही मरीज़ को इंजेक्शन लगा दिया और तीन घंटे बाद उस मरीज़ की मौत हो गई।

दिल्ली के ही एक नामी-गिरामी आस्पताल में एक बच्चे के लीवर की बायप्सी कराई जानी थी लेकिन डाक्टरों ने लीवर के बजाये किडनी की बायप्सी कर दी। जब बच्चे के पिता ने शिकायत की तो दुबारा बच्चे को बायप्सी के लिए ले जाया गया, लेकिन घटियाई और असंवेदनशीलता की हद तो तब हो गई जब दुबारा बच्चे की बायप्सी लीवर की जगह न करके किसी और जगह की कर दी गई।

अभी कुछ दिनों पहले ही अहमदाबाद के एक अस्पताल में कान के एक मामूली से ऑपरेशन के बाद गलत इंजेक्शन के कारण एक बच्चे की मौत हो गई। जब घरवालों ने शिकायत की तो उसे देखने तक कोई डाक्टर नहीं आया। और अब ये डॉक्टर गलत इंजेक्शन देने वाली उस नर्स को बचाने में लगे हैं।

यह तो सिर्फ़ कुछ बानगियाँ हैं, ‘‘सम्मानित’’ अस्पतालों और महँगे नर्सिंग होमों की। बाकी आम गरीब आबादी के इलाज के लिए कौन से तरीके अपनाये जाते होंगे आप सोच सकते हैं।

रोज-ब-रोज हम ऐसी घटनाएँ देखते और सुनते हैं। कुछ समय तक हमारा गुस्सा उबलता है, हम उस पर बात करते हैं, फ़िर कुछ दिन में सब कुछ भूलकर सामान्य जीवन जीने लगते हैं। क्या हमारी संवेदनाएँ इतनी भोथरी हो गई हैं कि भयंकर से भयंकर हादसे भी हमें झकझोर नहीं पाते? सब कुछ देखकर भी चुप रहना और उसे अपनी नियति मानकर बर्दाश्त करना तो इंसानी गुण नहीं है? ये भावना कहीं हमें रोबोट न बना दे और धीरे-धीरे तिल-तिल कर मरने को ही हम जीना न समझ बैठें।

लेकिन तकलीफ़देह बात तो यह है कि आज युवा ही, जो सबसे ज्यादा संवेदनशील, न्यायप्रिय, जागरुक और गर्म खून वाला जुझारु तेवर का होता है, ठण्डा पड़ा हुआ है। यह व्यवस्था उसे इतना कायर, स्वार्थी और कैरियरवादी बना रही है कि वह अपने अलावा किसी और के बारे में सोच ही नहीं पा रहा है। अपने आस-पास की अमानवीय घटनाओं को देखकर भी वह बगावती तेवर न अपनाकर सिर्फ़ अपने भविष्य के बारे में सोच रहा है कि कल वह क्या बनेगा।

डॉक्टरी की पढ़ाई भी लोग इसलिए नहीं करते कि उन्हें मानवता की सेवा करनी है, बल्कि इसलिए करते हैं कि कैसे मरीज़ों से ज़्यादा से ज़्यादा पैसे ऐंठ लिए जाएँ। डॉक्टरी की पढ़ाई में उनके ऊपर जितना खर्च हुआ है, उस पैसे को असहाय मरीज़ों से वसूल लेना ही अपना कर्त्तव्य समझते हैं। पैसा ही वह केन्द्र-बिन्दु बन गया है जिसके इर्द-गिर्द पूरी दुनिया घूम रही है। इंसानियत हाशिये पर चली गई है।

कितनी भयानक बात है कि पैसे की अंधी हवस सबसे मानवीय कर्म में लगे लोगों को अमानवीय बना रही है। यह व्यवस्था मानवद्रोही हो चुकी है। इसका एक-एक दिन हमारे लिऐ भारी है। इसका नाश हमारे अस्तित्व की शर्त है। और इसके लिए नौजवानों को ही आगे आना होगा क्योंकि नौजवान ही वह प्रेरणाशक्ति है, जिस पर भविष्य की उम्मीदें टिकी हुई हैं, वही मानवता को मुक्ति दिला सकता है, इसलिए हमें, अपने छिछले स्वार्थ और निजी कैरियवाद की खोल से बाहर आना होगा और एक बेहतर समाज की नींव डालनी होगी।

 

आह्वान कैम्‍पस टाइम्‍स, जुलाई-सितम्‍बर 2005

'आह्वान' की सदस्‍यता लें!

 

ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीआर्डर के लिए पताः बी-100, मुकुन्द विहार, करावल नगर, दिल्ली बैंक खाते का विवरणः प्रति – muktikami chhatron ka aahwan Bank of Baroda, Badli New Delhi Saving Account 21360100010629 IFSC Code: BARB0TRDBAD

आर्थिक सहयोग भी करें!

 

दोस्तों, “आह्वान” सारे देश में चल रहे वैकल्पिक मीडिया के प्रयासों की एक कड़ी है। हम सत्ता प्रतिष्ठानों, फ़ण्डिंग एजेंसियों, पूँजीवादी घरानों एवं चुनावी राजनीतिक दलों से किसी भी रूप में आर्थिक सहयोग लेना घोर अनर्थकारी मानते हैं। हमारी दृढ़ मान्यता है कि जनता का वैकल्पिक मीडिया सिर्फ जन संसाधनों के बूते खड़ा किया जाना चाहिए। एक लम्बे समय से बिना किसी किस्म का समझौता किये “आह्वान” सतत प्रचारित-प्रकाशित हो रही है। आपको मालूम हो कि विगत कई अंकों से पत्रिका आर्थिक संकट का सामना कर रही है। ऐसे में “आह्वान” अपने तमाम पाठकों, सहयोगियों से सहयोग की अपेक्षा करती है। हम आप सभी सहयोगियों, शुभचिन्तकों से अपील करते हैं कि वे अपनी ओर से अधिकतम सम्भव आर्थिक सहयोग भेजकर परिवर्तन के इस हथियार को मज़बूती प्रदान करें। सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग करने के लिए नीचे दिये गए Donate बटन पर क्लिक करें।