उम्मीद महज़ एक भावना नहीं है!
सम्पादक
इस रात्रि श्यामला बेला में
आगामी प्रातों की ओस सुगन्धित है।
क्या करूँ कि मुझको ओस कणों में
लाल ज्योति दिखती
मानो वे शत-शत रुधिर–बिन्दु थरथरा रहे
उनकी प्रदीप्त किरनों को गिनने का
यत्न कर रहा हूँ
(मुक्तिबोध)
हमारा यह विश्वास हज़ारों वर्षों के वर्ग-संघर्षों के प्रदीर्घ इतिहास से, सैकड़ों वर्ष के पूँजीवाद के इतिहास से और पूँजीवाद-विरोधी मज़दूर क्रान्तियों के विगत चक्र के सकारात्मक-नकारात्मक अनुभवों से जन्मा है कि पृथ्वी के अरबों आम लोग पूँजी के जुवे तले पिसते हुए यूँ ही अकर्मण्यता और निराशा के अँधेरे दलदल में सिर गड़ाये पड़े नहीं रहेंगे। विश्व-पूँजीवाद की आर्थिक बुनियाद खोखली हो चुकी है। अपनी जड़ता की शक्ति के सहारे यह इतिहास की राह में पूरी ताक़त झोंककर अड़ा हुआ है, लेकिन वह ताक़त लगातार क्षरित हो रही है। इसकी मूल ताक़त यह है कि पराजय की चोट से बिखरी हुई परिवर्तनकामी शक्तियाँ अभी नयी परिस्थितियों की सुसंगत समझदारी बनाकर नये सिरे से एकजुट और लामबन्द नहीं हो सकी हैं। मुक्ति की नयी परियोजनाएँ अभी निर्माणाधीन हैं। निश्चय ही, यह प्रक्रिया लम्बी और श्रमसाध्य होगी। लेकिन उतना ही बड़ा सच यह है कि यह अवश्यम्भावी है।
यह उम्मीद महज़ एक भावना नहीं है। उम्मीदें वास्तविक तभी होती हैं, जब उनका एक विज्ञान होता है। प्लेख़ानोव ने लिखा है कि जनसमुदाय से कटे हुए बुद्धिजीवी हवाई, अतिशयतावादी, गुलाबी उम्मीदों के आदी होते हैं। जनता को क्रान्तिकारी चेतना देने और उसके जीवन से घनिष्ठता के साथ एकरूप होकर उसके राजनीतिक संघर्षों को आगे विकसित करने का प्रदीर्घ, श्रमसाध्य काम उन्हें उबाऊ प्रतीत होता है। ऐसे लोग सामाजिक क्रान्तियों की जटिल समस्याओं को समझे बग़ैर क्रान्तियों की हर विजय पर कोलाहलपूर्ण जयनाद करते हैं और क्रान्तिकारियों की भावविह्वल अभ्यर्थना करते हैं। और जब पराजय और अँधेरे की शक्तियों के पुनरुत्थान के दौर आते हैं तो अँधेरे बन्द कमरों में वे शोकाकुल विलाप करने लगते हैं, क्रान्तिकारियों को कोसने लगते हैं और परिवर्तन के हर प्रयास-प्रयोग की अवश्यम्भावी विफलता की भविष्यवाणी करते हुए रक्तपायी वर्गों के शरणागत होकर जीने लगते हैं। परिवर्तनकामी युवाओं को ऐसे बुद्धिजीवियों की छाया तक से दूर रहना होगा। उन्हें इतिहास-निर्मात्री जनता से सीखना होगा, जनता का आदमी बनना होगा अैर अपनी हिरावल भूमिका की श्रमसाध्य तैयारी करनी होगी। उन्हें हवाई आशावादी नहीं, बल्कि वैज्ञानिक आशावादी बनना होगा।
इस दृष्टि से हम यहाँ भावी क्रान्ति की तैयारी की राह की कुछ बुनियादी बाधाओं, समस्याओं और चुनौतियों की चर्चा करेंगे।
ठहराव और विपर्यय के प्रतिक्रियावादी कालखण्डों में, क्रान्तिकारियों की नयी पीढ़ियों के सामने प्रायः एक समस्या यह आती है कि अतीत की सफ़ल और महान क्रान्तियों की स्मृतियाँ एक तरह की रूढ़िबद्धता और इतिहासग्रस्तता की प्रवृत्ति को जन्म देती हैं। नयी पीढ़ी के क्रान्तिकारी अपने महान पूर्वजों की छाया में चलते हुए भविष्य की मंज़िलें तय करना चाहते हैं, इतिहास से सीखकर वर्तमान का अध्ययन करने और भविष्य के मार्ग का सन्धान करने के बजाय इतिहास का अन्धानुसरण करना चाहते हैं। ऐसा इसलिए होता है कि यह मार्ग सरल-संक्षिप्त प्रतीत होता है और इसलिए भी होता है कि अपरिपक्वता के चलते महान क्रान्तियों के प्रखर आलोक से हमारी आँखें चुँधिया जाती हैं। मुक्ति की नयी परियोजना की तैयारी और व्यवहार के लिए इस अनुकरणवादी मानसिकता से मुक्त होना होगा, और प्रयोगों के दौरान होने वाली स्वाभाविक ग़लतियों का जोखिम मोल लेने के लिए क्रान्तिकामी युवाओं को तैयार होना होगा।
निश्चय ही, इतिहास-निषेधी प्रवृत्ति का शिकार होना भी एक दूसरी अति होगी और यह भी उतनी ही बड़ी ग़लती होगी। हमें परम्परा और परिवर्तन के द्वन्द्वात्मक अन्तर्सम्बन्ध को सही ढंग से समझना होगा। इतिहासग्रस्तता और इतिहास-निषेध की दो अतियों से – यानी जड़सूत्रवाद और “मुक्त चिन्तन”, दोनों से ही बचते हुए, हमें वास्तविक इतिहास-बोध से लैस होना होगा।
बहुत कुछ ऐसा है, जो अतीत की सामाजिक क्रान्तियों और वर्ग-संघर्ष के समूचे इतिहास के अध्ययन के बिना जाना-समझा ही नहीं जा सकता। समाज की बुनियादी आर्थिक संरचना और सामाजिक-सांस्कृतिक-वैचारिक-राजनीतिक-वैधिक ऊपरी ढाँचे की गति के कुछ आम नियम हैं, जो वर्ग-समाज के सम्पूर्ण इतिहास की शिक्षा हैं और ये नियम तब तक प्रभावी बने रहेंगे जब तक वर्ग-समाज मौजूद रहेगा। कुछ सामान्य उदाहरणों से हम बात को स्पष्ट करने की कोशिश करेंगे। (क) अब तक का ज्ञात इतिहास वर्ग-संघर्षों का इतिहास है और जब तक वर्गों का अस्तित्त्व बना रहेगा, वर्ग-संघर्ष ही इतिहास-विकास की कुंजीभूत कड़ी बना रहेगा। (ख) हर शासक-शोषक वर्ग राज्यसत्ता को बल-प्रयोग के केन्द्रीय साधन के रूप में इस्तेमाल करके अपने शोषण-शासन को क़ायम रखता है, हर राज्यसत्ता का एक वर्ग-चरित्र होता है और बल-प्रयोग के इस उपकरण का जनता बल-प्रयोग के द्वारा ही – यानी सामाजिक क्रान्तियों के द्वारा ही ध्वंस कर सकती है। (ग) उत्पादन के सम्बन्ध जब उत्पादक शक्तियों के विकास की राह में बाधा बन जाते हैं तो उत्पादक शक्तियाँ उन्हें नष्ट करके नये, अनुकूल उत्पादन-सम्बन्ध क़ायम करती हैं – यह सामाजिक क्रान्तियों की अपरिहार्यता का मूल सूत्र है। – ये कुछ ऐसे सामान्य विकास के नियम हैं जो वर्ग समाज के सुदूर अतीत से सुदूर भविष्य तक की अतिदीर्घ ऐतिहासिक अवधि पर लागू होते हैं।
इसी प्रकार कुछ ऐसे नियम हैं जिनकी प्रासंगिकता तब तक बनी रहेगी जब तक पूँजीवाद किसी न किसी रूप में धरती पर मौजूद रहेगा। (क) पूँजीवाद का ख़ात्मा केवल सर्वहारा वर्ग और उसके नेतृत्व में सम्पन्न सर्वहारा क्रान्ति के द्वारा ही सम्भव होगा। (ख) हर तरह का पूँजीवादी जनवाद पूँजीपति वर्ग का अधिनायकत्व होता है और इसका एकमात्र ऐतिहासिक विकल्प समाजवादी जनवाद होता है जो सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व होता है (ग) सर्वहारा क्रान्ति सर्वहारा वर्ग की एकीकृत पार्टी के नेतृत्व में ही सम्भव है और इस पार्टी के ढाँचे और कार्यप्रणाली के कुछ आम नियम हैं जो अतीत के मज़दूर संघर्षों से पैदा हुए हैं तथा मज़दूर क्रान्तियों के प्रयोगों से सत्यापित और समृद्ध हुए हैं। (घ) सर्वहारा वर्ग का ऐतिहासिक मिशन पूँजीवाद के नाश के साथ ही वर्ग समाज के इतिहास से वर्गविहीन समाज में संक्रमण का हरावल बनना भी है, यह इतिहास का अन्तिम और सर्वाधिक प्रगतिशील वर्ग है तथा सर्वहारा क्रान्तियाँ इतिहास की प्रथम और अन्तिम सचेतन संगठित क्रान्तियाँ हैं। (ङ) समाजवाद वर्ग-समाज से वर्गविहीन समाज में संक्रमण की, हार–जीत से भरी हुई एक सुदीर्घ ऐतिहासिक अवधि है, कम्युनिज़्म में संक्रमण की उन्नत अवस्था में वर्गों के विलोपन के साथ ही राज्यसत्ता के विलोपन की भी प्रक्रिया घटित होगी। – ये कुछ ऐेसे सामान्य सूत्र हैं जो उस समय तक प्रासंगिक बने रहेंगे, जब तक पूँजीवाद का अस्तित्व बना रहेगा (समाजवादी संक्रमण के दौरान भी)।
कुछ ऐसे आम नियम हैं जो साम्राज्यवाद और सर्वहारा क्रान्तियों के पूरे वर्तमान युग के जारी रहने तक प्रासंगिक बने रहेंगे। साम्राज्यवाद पूँजीवाद की चरम अवस्था है। उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी के सन्धि-स्थल पर उत्पादन की पूँजीवादी प्रणाली में कई महत्त्वपूर्ण बुनियादी, संरचनागत बदलाव आये, जिन्होंने पूरी दुनिया की राजनीति में काफ़ी कुछ बदल डाला। उत्पादक शक्तियों के विकास के क्षेत्र में, उत्पादन के संकेन्द्रण के उच्च स्तर ने पूँजीवादी इज़ारेदारियों (एकाधिकारियों) को जन्म दिया और उत्पादन-सम्बन्धों के क्षेत्र में इन इज़ारेदारियों के प्रभुत्व की स्थापना हुई। “साम्राज्यवाद, पूँजीवाद के विकास की वह अवस्था है, जिसमें पहुँचकर इज़ारेदारियों और वित्त पूँजी का प्रभुत्व दृढ़ रूप से स्थापित हो चुका है, जिसमें पूँजी का निर्यात अत्यधिक महत्त्व ग्रहण कर चुका है, जिसमें अन्तरराष्ट्रीय ट्रस्टों के बीच दुनिया का बँटवारा प्रारम्भ हो गया है, जिसमें सबसे बड़ी पूँजीवादी ताक़तों के बीच पृथ्वी के समस्त क्षेत्रों का बँटवारा प्रारम्भ हो चुका है” (लेनिन)। अर्थव्यवस्था की इज़ारेदारी की प्रवृत्ति पूँजीवाद के विकास की सबसे ऊँची और अन्तिम अवस्था के रूप में, गतिरुद्ध, परजीवी और मरणोन्मुख पूँजीवाद के रूप में, साम्राज्यवाद का ऐतिहासिक स्थान निर्धारित करती है। असमान विकास, अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतियोगिता और बीच-बीच में युद्धों के रूप में उसका विस्फ़ोट, बुर्जुआ जनवाद का क्षरण-विघटन, अर्थव्यवस्था का सैन्यीकरण आदि परिघटनाएँ साम्राज्यवादी युग की कुछ आम अभिलाक्षणिकताएँ हैं। इज़ारेदारी के फ़लस्वरूप उत्पादन का अधिकाधिक समाजीकरण होता चला जाता है और पूँजीवाद के भीतर समाजवाद का पूर्वाधार तैयार होता चला जाता है। पूँजी और श्रम के बीच ध्रुवीकरण बढ़ता चला जाता है और वर्ग-अन्तरविरोधों की उग्रता बढ़ती चली जाती है।
आज भी हम साम्राज्यवाद के युग में ही जी रहे हैं। लेकिन विगत एक शताब्दी के दौरान साम्राज्यवाद, यथावत, उसी रूप में मौजूद नहीं बना रहा है। उत्पादन की प्रणाली, शासन की प्रणाली और अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों में ऐसे कई महत्त्वपूर्ण बदलाव आये हैं, जिनके चलते मज़दूर क्रान्तियों के अगले चक्र की रणनीति और आम रणकौशलों में, विश्व सर्वहारा क्रान्ति की आम दिशा और स्वरूप में लाज़िमी तौर पर कुछ परिवर्तन होने ही हैं।
अतीत के वर्ग-संघर्षों के समूचे इतिहास, सभी सर्वहारा आन्दोलनों और सभी सर्वहारा क्रान्तियों के अनुभवों के सारतत्व का आम सूत्रीकरण विचारधारा के रूप में संघटित होता है जो प्रत्येक क्रान्ति के मार्गदर्शक सिद्धान्त का काम करता है। जहाँ तक ठोस रूप में किसी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल का प्रश्न है, उनका निर्धारण प्रत्येक देश और काल की ठोस परिस्थितियों के अध्ययन के हिसाब से होता है। परिस्थितियाँ सतत परिवर्तनशील होती हैं। इतिहास के एक ही काल में अलग-अलग देशों में सामाजिक आर्थिक विकास के स्तर के हिसाब से अलग-अलग श्रेणियों के देशों में क्रान्ति की मंज़िलें और रणनीतियाँ अलग-अलग होती हैं। यहाँ तक कि समान श्रेणी और क्रान्ति की समान मंज़िल वाले देशों में भी क्रान्ति की रणनीति में आंशिक, मात्रात्मक भिन्नताएँ और रणकौशलों के स्तर पर महत्त्वपूर्ण भिन्नताएँ अनिवार्यतः होती हैं। सामाजिक-आर्थिक संरचना के स्तर पर समानता रखने वाले देशों में भी क्रान्तियों की आम दिशा समान हो सकती है, लेकिन फ़िर भी ऐसी कोई एक क्रान्ति दूसरी क्रान्ति की कार्बन–कॉपी नहीं हो सकती।
यदि समाज-इतिहास की और उसकी विकास-प्रक्रिया की हमारी समझ कमज़ोर होगी, यदि क्रान्ति के विज्ञान की हमारी जानकारी ग़लत, उथली या अधूरी होगी, यदि हमारे अन्दर ठोस परिस्थितियों के ठोस विश्लेषण के श्रमसाध्य काम से बचने की प्रवृत्ति होगी, तो अतीत की क्रान्तियों से सीखने की क्षमता भी हमारे भीतर नहीं होगी। तब एक सरल-संक्षिप्त राह हम यह चुनेंगे कि परिस्थितिगत परिवर्तनों की अनदेखी करके अतीत की महान क्रान्तियों का अन्धानुकरण करेंगे, प्रासंगिक-अप्रासंगिक के बीच भेद नहीं करेंगे और जड़सूत्रवादी बन जायेंगे। तब हम सम्पन्न क्रान्तियों की रणनीति एवं आम रणकौशल को भी विचारधारा या आम सिद्धान्त बना देंगे।
यह चर्चा हम यहाँ महज़ आम सिद्धान्त-निरूपण के रूप में नहीं कर रहे हैं। यह हमारे समय की एक ठोस समस्या है। क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिए सक्रिय लोग, चाहे वे मज़दूरों-किसानों को संगठित करने के काम में लगे हों या छात्रों-युवाओं के मोर्चे पर काम कर रहे हों या किसी और मोर्चे पर, उनके बीच आज यह आम समस्या मौजूद है कि समाज में क्रान्तिकारी बदलाव की परियोजना पर सोचते और अमल करते समय वे गत शताब्दी की क्रान्तियों के अन्धानुकरण की प्रवृत्ति से कमोबेश ग्रस्त दिखायी देते हैं। निस्सन्देह, विभ्रम पैदा करने वाले कुछ निठल्ले “मुक्त चिन्तक” भी मौजूद हैं, लेकिन निठल्ले काम करने वालों को तभी प्रभावित करते हैं, जब उनकी वैचारिक समझ कमज़ोर हो। हमारी यह चर्चा क्रान्तिकारी परिवर्तन की भावना से लैस युवा साथियों को कुछ बोझिल ज़रूर लग रही होगी, लेकिन इन मसलों पर एक सुनिश्चित समझ बनाना अनिवार्य है। दिशाहीन विद्रोहों-आन्दोलनों में जी-जान से लगे रहने पर भी समाज नहीं बदल सकता। क्रान्ति एक वैज्ञानिक क्रिया है। छात्र-युवा आन्दोलन समग्र सामाजिक क्रान्ति का एक हिस्सा है। छात्र-युवा जिस समाज में रहते हैं, उसके ढाँचे एवं कार्यप्रणाली को उन्हें समझना होगा। किन वर्गों का हित क्रान्ति में हैं, किन वर्गों का हित इस व्यवस्था में है, किन–किन तरीक़ों से उत्पादन होता है और उस दौरान किस प्रकार शोषण होता है, राजनीति-संविधान–क़ानून व्यवस्था और सैन्य तन्त्र किस प्रकार शोषण की पूरी व्यवस्था की हिफ़ाज़त करते हैं, देशी लुटेरों के विदेशी लुटेरों से आर्थिक-राजनीतिक सम्बन्धों की प्रकृति क्या है, आम जनता की जीवन–स्थिति और चेतना का धरातल क्या है – इन सभी चीज़ों को भली-भाँति जाने-समझे बग़ैर न तो छात्र-युवा आन्दोलन को सही दिशा दी जा सकती है, न ही उसे व्यापक मेहनतकश जनता के क्रान्तिकारी संघर्षों से जोड़ा जा सकता है और न ही कोई युवा साथी मेहनतकश आबादी के किसी हिस्से के बीच जाकर उसे जागृत और संगठित करने के काम को ही सफ़लतापूर्वक अंजाम दे सकता है।
चुनावी राजनीति के द्वारा इसी व्यवस्था में सुधार और पैबन्द लगाने की कोशिश करने वालों तथा फ़ैशनेबुल वाग्विलासी “क्रान्तिकारियों” से अलग, कई क्रान्तिकारी धाराएँ और प्रवृत्तियाँ देश की परिस्थितियों और क्रान्ति की रणनीति एवं आम रणकौशलों के बारे में अलग-अलग समझ के साथ मौजूद हैं। एक सही समझ ही अन्ततोगत्वा सफ़लता की मंज़िल तक पहुँचा सकती है। आँख मूँदकर, या महज़ इस आनुभविक प्रेक्षण के आधार पर कि कौन अधिक जुझारू, ताक़तवर या सफ़ल दीख रहा है, या किसके द्वारा प्रस्तुत योजना-परियोजना अधिक सुगम एवं आकर्षक है, छात्रों-युवाओं का क्रान्तिकारी राजनीति की किसी एक धारा से जुटना एकदम ग़लत होगा। सही मार्ग प्रायः सुगम-संक्षिप्त नहीं होता और सफ़लता कभी भी मौलिक प्रयोगों एवं विफलता के बग़ैर हासिल नहीं होती। इसलिए छात्र-युवा साथियों को क्रान्तियों के विश्व इतिहास और भारतीय इतिहास का अपने तईं अध्ययन करना होगा, सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक परिस्थितियों का अध्ययन करना होगा तथा अपने सामने मौजूद सभी क्रान्तिकारी कार्यक्रमों का अध्ययन करके निर्णय लेना होगा कि कौन–सा विकल्प सापेक्षतः अधिक तर्कसंगत, अधिक वैज्ञानिक और सामाजिक सच्चाइयों के अधिक अनुरूप प्रतीत हो रहा है। साथ ही, उन्हें छात्रों-युवाओं को संगठित करने और आन्दोलनों में भागीदारी के अनुभव अर्जित करने होंगे तथा समय निकालकर मेहनतकश आम आबादी के बीच भी जाना होगा, उनके जीवन को समझना होगा, उनका अपना आदमी बनना होगा, उनकी सेवा करनी होगी, उनसे सीखना होगा, फ़िर उन्हें सिखाना होगा, उन्हें राजनीतिक शिक्षा देनी होगी और यथासम्भव उनके संघर्षों-आन्दोलनों में भी शिरकत करनी होगी। इस सूत्र को कभी नहीं भूला जाना चाहिए कि ‘चीज़़ों को बदलने के लिए चीज़़ों को समझना होगा और चीज़ों को बदलने की प्रक्रिया में ही स्वयं को बदलना होगा।’
भावी क्रान्ति की तैयारियों की राह की आज एक बुनियादी समस्या यह है कि ज़्यादातर उन्हें पुरानी क्रान्तियों के साँचे में ही ढालने की कोशिश की जा रही है। जीवन की नयी सच्चाइयाँ यदि एकदम आँखों में घूरने लगती हैं तो उन्हें काट-पीटकर पुराने चौखटे में ही फि़ट कर देने की कोशिश की जाती है, या फ़िर पूरे चौखटे को बदलने के बजाय उसे थोड़ा खींच-तानकर और काट-पीटकर नयी सच्चाइयों को समायोजित कर लेने की विफल कोशिशें, जनकार्रवाइयों और छोटे-मोटे आन्दोलनों की रुटीनी कवायदों के साथ, जारी रहती हैं।
वर्तमान परिस्थितियों और इतिहास के अपने अध्ययन के आधार पर और सीमित व्यावहारिक अनुभवों के आधार पर हमारी यह पक्की धारणा है कि पूरी दुनिया और भारत देश के स्तर पर आज परिस्थितियों में कुछ ऐसे बदलाव आ चुके हैं कि भावी क्रान्तियों की आम दिशा, रणनीति एवं आम रणकौशल पिछली शताब्दी की मज़दूर क्रान्तियों से भिन्न होंगे। निस्सन्देह अतीत की क्रान्तियों की आम दिशा और रणनीति एवं आम रणकौशल से सीखे बग़ैर हम आगे बढ़ नहीं सकते। उनमें काफ़ी कुछ सीखने को है और क्रान्तियों के इतिहास का गहन अध्ययन ज़रूरी है, लेकिन वर्तमान सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक स्थितियों का भी नये सिरे से अध्ययन करना होगा, क्योंकि इनमें हुए कई परिवर्तन बुनियादी प्रकृति के हैं। पुरानी क्रान्तियों का कार्यक्रमपरक चौखटा आज के लिए पुराना पड़ चुका है। इसकी विस्तृत चर्चा तो यहाँ सम्भव नहीं है, लेकिन कुछ संक्षिप्त-सूत्रवत चर्चा के बग़ैर बात स्पष्ट भी नहीं हो पायेगी।
यह सही है कि आज भी हम साम्राज्यवाद के युग में ही जी रहे हैं और मज़दूर क्रान्ति के प्रथम संस्करणों की विफलता के बावजूद, विश्व-अर्थव्यवस्था का अध्ययन हमें इसी नतीजे पर पहुँचाता है कि उत्पादन के पूर्वापेक्षा कई गुना अधिक समाजीकरण की बदौलत समाजवाद का वस्तुगत आधार आज पहले से भी अधिक व्यापक एवं दृढ़ रूप में तैयार हो रहा है। यानी यह सूत्रीकरण आज की दुनिया पर भी लागू होता है कि साम्राज्यवाद सर्वहारा क्रान्ति की पूर्वबेला है। एक परिवर्तन आज यह हुआ है कि विश्वव्यापी मन्दी और ठहराव का जो संकट पहले आवर्ती चक्रीय क्रम में आता रहता था और पूँजीवाद को सताता रहता था, वह आज दीर्घकालिक ढाँचागत संकट का रूप ले चुका है और यह ऐतिहासिक सच्चाई आज पूर्वापेक्षा अधिक मूर्त और बोधगम्य रूप में हमारे सामने है कि साम्राज्यवाद मरणोन्मुख और परभक्षी पूँजीवाद है। इतिहास की एक नयी शिक्षा यह है कि पूँजीवाद के बुढ़ापे या मरणोन्मुखता के वर्ष इसके यौवन के वर्षों से काफ़ी अधिक लम्बे हैं।
साम्राज्यवाद की आम बुनियादी अभिलाक्षणिकताओं की आज भी मौजूदगी के बावजूद इसकी कार्यप्रणाली में और पूँजीवादी विश्व की संरचना में आज कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण बदलाव आये हैं, जिनके चलते क्रान्तिकारी वस्तुगत परिस्थितियों वाले देशों में सर्वहारा क्रान्ति की मंज़िल, उसकी रणनीति और आम रणकौशल में मूलभूत परिवर्तन आ गये हैं। पूँजीवादी वैश्विक इज़ारेदारियों के, पुराने ट्रस्टों और सिण्डीकेटों की जगह, नये-नये रूप पैदा हुए हैं। दैत्याकार राष्ट्रपारीय निगम दुनियाभर के देशों में इस प्रकार फ़ैल गये हैं कि लगता है मानो उनका कोई राष्ट्रीय मूल ही नहीं है। लेकिन विश्व-बाज़ार में इन निगमों के हितों का प्रतिनिधित्व इनके मूल देशों की राज्यसत्ताएँ ही मुख्यतः करती हैं। वित्तीय पूँजी का भूमण्डलीय निर्बन्ध आवागमन पहले की अपेक्षा अत्यधिक निर्बन्ध और क्षिप्र हो गया है। आर्थिक उत्पादन के विकास की कारगरता एवं दर-वृद्धि करने तथा मशीनों की उत्पादकता बढ़ाकर मज़दूरों से अतिलाभ निचोड़ने की प्रक्रिया को अभूतपूर्व ऊँचाइयों तक पहुँचाने के साथ ही वैज्ञानिक-तकनीकी क्रान्ति ने, और विशेषकर स्वचालन के नये स्तर एवं संचार क्रान्ति ने, वित्तीय पूँजी के भूमण्डलीय प्रवाह की गति तेज़ करने में एक अहम भूमिका निभायी है। जिसे आज भूमण्डलीकरण कहा जा रहा है, वह वस्तुतः वित्तीय पूँजी का भूमण्डलीकरण है, क्योंकि श्रम के मुक्त भूमण्डलीय आवागमन की राह में तो पहले से भी अधिक बाधाएँ खड़ी कर दी गयी हैं।
बुनियादी आवश्यकता की चीज़ों और सेवाओं का उत्पादन करने वाली वास्तविक अर्थव्यवस्था पर आज विश्व स्तर पर इज़ारेदार घरानों का एक अत्यन्त छोटा हिस्सा क़ाबिज़ है। यह वास्तविक अर्थव्यवस्था अतिलाभ निचोड़ने के साथ ही नीचे की आबादी की आय पर एक निश्चित सीमा बाँध देती है। इससे चीज़ों के उत्पादन की क्षमता बढ़ाकर लाभ कमाने की गुंजाइश कम हो जाती है और एकाधिकारी घराने वित्तीय गतिविधियों में पूँजी लगाना शुरू कर देते हैं। 1970 के दशक में विश्व अर्थव्यवस्था में ठहराव आने पर यही हुआ। परम्परागत वित्तीय गतिविधियाँ भी चूँकि ठहराव के इस दौर में धीमी पड़ गयी थीं, इसलिए वित्तीय संचालक ज़्यादा से ज़्यादा सट्टेबाज़ी की गिरफ़्त में फ़ँसते चले गये। अर्थव्यवस्था में ऋण की भूमिका पूर्वापेक्षा बहुत अधिक बढ़ गयी थी। ऋण की आसमान छूती माँग के दबाव में मुद्रा-बाज़ारों का अभूतपूर्व विस्तार हुआ और सट्टेबाज़ी के लिए दरवाज़े पूरी तरह से खुल गये। गत शताब्दी के अन्तिम दशक तक स्थिति यह हो गयी कि चीज़ों और सेवाओं का उत्पादन करने वाली वास्तविक अर्थव्यवस्था में लगी हुई पूँजी के मुक़ाबले वित्तीय पूँजी का अनुपात कई गुना अधिक हो गया। वास्तविक उत्पादन की प्रक्रिया से स्वतन्त्र वित्तीय पूँजी, और गुब्बारे की तरह फ़ूलता हुआ तथा पारे की तरह अस्थिर वित्तीय तन्त्र अस्तित्व में आया। गत साम्राज्यवादी शताब्दी के पचहत्तर वर्षों तक सट्टेबाज़ी यदि वास्तविक उत्पादन की लहर पर बुलबुले के समान थी तो अब वास्तविक उत्पादन सट्टेबाज़ी की लहर पर बुलबुले के समान हो गया है। पहली बार ऐसा हुआ है कि पूँजी संचय पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का बुनियादी कारक-संकेतक नहीं रह गया है। वास्तविक उत्पादन क्षेत्र की सतत मन्दी की स्थिति में, मुनाफ़े की वृद्धि दर को तेज़ करते जाने की अन्धी प्रतियोगिता में पूँजी विभिन्न देशों के सट्टा-बाज़ारों में निवेशित होकर अर्थव्यवस्था की मज़बूती एवं विकास का भ्रम रचती है और फ़िर बेहतर विकल्प दिखायी पड़ते ही वहाँ से ‘उड़नछू’ हो जाती है। नतीजतन वे अर्थव्यवस्थाएँ ध्वस्त हो जाती हैं। मुनाफ़े की अन्धी होड़ के चलते, दुनिया के पिछड़े देशों में वास्तविक प्रतिस्पर्धी आनन–फ़ानन में एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में वित्तीय बाज़ार में निवेश को ही प्राथमिकता देते हैं।
यूँ तो बीसवीं शताब्दी के शुरुआती दशकों में, इज़ारेदारियों के प्रभुत्व और वित्तीय पूँजी के प्रभुत्व के साथ ही, बुर्जुआ जनवाद का प्रतिक्रियावादी पहलू प्रधान बन गया था और उसके भीतर फ़ासीवादी धाराओं का उभार होने लगा था। अब आज वित्तीय पूँजी के ‘चरम वर्चस्व’ की स्थिति ने बुर्जुआ जनवाद के क्षरण-विघटन को विश्व स्तर पर उस मुक़ाम पर ला खड़ा किया है कि बुर्जुआ जनवाद और फ़ासीवाद के बीच की विभाजक रेखाएँ ही धूमिल पड़ने लगी हैं। साम्राज्यवाद ने पिछली शताब्दी के पहले दशकों तक उत्पादन की विकास-दर और मज़दूरों का शोषण बढ़ाने तथा पूँजी और श्रम के तीखे होते अन्तरविरोध की गति मद्धम करने के लिए राजकीय इज़ारेदारी का इस्तेमाल किया था। लेकिन शताब्दी के अन्तिम दशकों में बुनियादी पूँजीवादी अन्तरविरोध के तात्कालिक समाधान का यह उपकरण स्वयं ही अन्तरविरोध को उग्र बनाने लगा और अर्थव्यवस्था के ठहराव को बढ़ाने लगा। यह स्थिति एक बार फ़िर निजी इज़ारेदारी पूँजीवाद के विस्तार का एक अहम कारण बनी। तथाकथित ‘कल्याणकारी’ राज्यों का दौर समाप्त हो गया और सब कुछ बाज़ार की निर्बन्ध शक्तियों के हवाले कर देने की प्रक्रिया तेज़ गति से आगे बढ़ी।
अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा गलाकाटू रूप में आज भी जारी है। व्यापार–युद्ध के नये-नये तरीक़े और रणनीतियाँ विकसित हुई हैं। लेकिन अतीत की क्रान्तियों से सबक़ लेकर, आज साम्राज्यवादी लुटेरे अपनी-अपनी आर्थिक शक्ति के हिसाब से विश्व स्तर पर निचोड़े गये अधिशेष में अपना-अपना हिस्सा लेने का काम लम्बे समय तक करते रहते हैं, विरोधी के हर संकट का लाभ उठाने के लिए घात लगाये रहते हैं और शक्ति-सन्तुलन को बदलने के लिए परस्पर–विरोधी गुटों-गठबन्धनों में बँधते और फ़िर टूटते रहते हैं। अन्तरसाम्राज्यवादी अन्तरविरोध दुनिया के विभिन्न कोनों में जारी क्षेत्रीय युद्धों के पीछे बुनियादी या गौण रूप में मौजूद रहते हैं, लेकिन विश्वयुद्ध के रूप में उनके विस्फ़ोट की सम्भावना अब बहुत कम हो गयी है, हालाँकि पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है। इसका एक बुनियादी कारण यह भी है कि विश्व बाज़ार के बड़े-से-बड़े भाग पर क़ब्ज़े और वर्चस्व की लड़ाई आज उपनिवेशों के क़ब्ज़े बँटवारे के रूप में नहीं हो रही है। मुख्यतः अतीत की क्रान्तियों और वर्ग-संघर्षों के दबाव के चलते उपनिवेशों और ज़्यादातर नवउपनिवेशों का भी आज अस्तित्व नहीं रह गया है। उपनिवेशवाद और नवउपनिवेशबाद के दौर से दुनिया आगे निकल आयी है। सभी देशों के बाज़ारों में सभी साम्राज्यवादियों का प्रवेश, थोड़ी-बहुत बन्दिशों के बावजूद, आज सम्भव है।
आपसी प्रतिस्पर्धा के बावजूद पिछड़े देशों की जनता और शासक पूँजीपतियों पर आम सहमति की अपनी नीतियाँ थोपने के लिए साम्राज्यवादी देश आज वक़्ती तौर पर एकजुट हैं और विश्व बैंक-आई.एम.एफ़-विश्व व्यापार संगठन जैसी अन्तरराष्ट्रीय एजेंसियाँ शोषण में ऋण एवं अनुदान की ज़्यादा से ज़्यादा प्रभावी भूमिका बनाकर, पिछड़े देशों के राष्ट्रीय बाज़ारों में प्रवेश को ज़्यादा से ज़्यादा निर्बन्ध बनाकर तथा मनमानी व्यापार–शर्तों को थोपने में मददगार बनकर साम्राज्यवादियों की आम सहमति की नीतियों को विश्व स्तर पर लागू करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं।
साम्राज्यवाद के वर्तमान दौर का एक और महत्त्वपूर्ण परिवर्तन ग़ौरतलब है। मुनाफ़े की वृद्धि दर को बढ़ाने के लिए देशी-विदेशी कम्पनियाँ किसी एक ही चीज़ के उत्पादन की पूरी प्रक्रिया को कई देशों में, और एक देश के भीतर कई जगहों पर बिखरा देती है। एक ही संयन्त्र पर असेम्बली लाइन पर जो चीज़ बनती थी, अब वह प्रक्रिया कई संयन्त्रों में विभाजित कर दी गयी है। इसे बुद्धिजीवी लोगों ने ‘ग्लोबल असेम्बली लाइन’ की नयी परिघटना का नाम दिया है। जहाँ जिस तरह की सस्ती श्रम-शक्ति मौजूद है, और जहाँ जिस तरह का कच्चा माल सस्ता और आसानी से उपलब्ध है, वहाँ-वहाँ अलग-अलग किस्म के वैसे हिस्से बनाये जाते हैं और फ़िर उन्हें एक अलग संयन्त्र में जोड़कर उत्पाद को अन्तिम रूप दिया जाता है। जैसे उन्नत देश की कोई कम्पनी किसी एक पिछड़े देश से सस्ते कच्चे माल और सस्ती श्रमशक्ति की ख़रीद से एक पुर्जा बनाती है, दूसरे में दूसरा पुर्जा बनाती है, तीसरे देश में तीसरा और फ़िर उन्हें जोड़कर किसी चौथे देश में उत्पाद अन्तिम तौर पर तैयार किया जाता है और उसे उन देशों के बाज़ारों में बेचने को भेज दिया है जहाँ उसकी माँग हो और ख़रीदने वाले बेहतर क़ीमत देने की क्षमता रखते हों। इससे मुनाफ़े की दर बढ़ाकर अतिलाभ निचोड़ने के साथ ही साम्राज्यवादियों को कई लाभ मिलते हैं। एक तो एक ही कारख़ाने की चौहद्दी में काम करने वाले मज़दूरों की बहुसंख्या को कई जगह बिखरा देने से उनकी दबाव बनाने की ताक़त फि़लहाल कम हो गयी है। पिछड़े देशों के मज़दूरों के आने से साम्राज्यवादी देशों के भीतर जो सामाजिक संकट पैदा हो रहा था, उससे भी कुछ हद तक निजात मिल जा रही है और मज़दूरों के अर्जित अधिकारों को छीनने, उनके आन्दोलनों को तोड़ने तथा ज़्यादा काम ठेका मज़दूरों या अस्थायी मज़दूरों से करा लेना अधिक सुगम हो गया है। उत्पादन-प्रक्रिया के इस ‘भूमण्डलीकरण’ से फि़लहाली तौर पर साम्राज्यवादियों को भले ही लाभ मिल रहा हो और मज़दूर आन्दोलन के समक्ष भले ही कुछ नयी समस्याएँ उत्पन्न हो रही हों, लेकिन उत्पादन का और अधिक ऊँचे धरातल का यह समाजीकरण दूरगामी तौर पर समाजवाद का और अधिक व्यापक वस्तुगत पूर्वाधार तैयार कर रहा है। यह कई देशों के मज़दूरों को एक साथ जोड़ रहा है। क्रान्तिकारी शक्तियों के प्रचार और संघर्षों से अर्जित उन्नत चेतना के आधार पर मज़दूर वर्ग जब इस सच्चाई को समझ जायेगा तो दूरस्थ मज़दूरों के ऐक्यबद्ध संघर्ष पूँजीवादी व्यवस्था को पंगु बना देने का काम अब पूर्वापेक्षा अधिक प्रभावी ढंग से कर सकेंगे।
एशिया-अफ़्रीका-लातिन अमेरिका के जो देश पहले उपनिवेश थे, राजनीतिक स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद वहाँ देशी पूँजीपति वर्ग सत्तारूढ़ हुए। उनमें से कुछ ने अपने देश में पूँजीवाद के विकास के लिए साम्राज्यवादी देशों से पूँजी और तकनोलॉजी की मदद पर अधिक बल दिया। वे अधिक साम्राज्यवादी दबाव में रहे और उनकी राजनीतिक आज़ादी भी उसी अनुपात में संकुचित होती गयी। कुछ देशों ने समाजवादी शिविर और अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा का लाभ उठाकर साम्राज्यवादी मदद की शर्तों के दबाव को कम किया तथा साथ ही राजकीय पूँजीवादी ढाँचा खड़ा करके करों और जनता की बचत आदि के माध्यम से जनता से धन उगाहकर पूँजी की अपनी ज़रूरत एक हद तक पूरी की। लेकिन साम्राज्यवाद के एकीकृत विश्व अर्थतन्त्र के इस युग में इस रास्ते की एक सीमा थी और उसे सन्तृप्त होते देर न लगी। अब पूँजीवादी विकास को आगे ले जाने के लिए, धीरे-धीरे करके अर्थव्यवस्था के दरवाज़ों को विदेशी पूँजी के लिए पूरी तरह खोल देने और राजकीय इज़ारेदारियों को कौड़ियों के मोल देशी और विदेशी पूँजीपतियों को बेच देना इन पिछड़े देशों के पूँजीवाद की अपनी ज़रूरत थी और बाध्यता भी थी। इन देशों के पूँजीपति वर्ग का कोई भी हिस्सा आज राष्ट्रीय या साम्राज्यवाद-विरोधी नहीं रह गया है। यह स्वेच्छा से साम्राज्यवादियों का ‘जूनियर पार्टनर’ बन गया है। अधिशेष-विनियोजन में अपना हिस्सा बढ़ाने-बचाने के सवाल पर साम्राज्यवादियों से उसके अन्तरविरोध लगातार तीखे-मद्धम रूपों में चलते रहते हैं, लेकिन अब वह जनता के साथ खड़ा होकर साम्राज्यवाद से नहीं लड़ सकता। वह व्यापक जनता को लूटने में बड़े लुटेरों के साथ भागीदार है। जनता जब उसके विरुद्ध लड़ती है तो साम्राज्यवादी उसके पक्ष में दृढ़ता से खड़े होते हैं। और जनता जब साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ती है तो वह साम्राज्यवाद के पक्ष में दृढ़ता से खड़ा होता है।
तीसरी दुनिया के देशों में देशी पूँजीपति वर्गों के शासन के दौरान एक क्रमिक प्रक्रिया में, उद्योगों के अतिरिक्त गाँवों में भी पूँजीवादी विकास हुआ है और विविध रूपों में सामन्ती या प्राक्पूँजीवादी अवशेषों की मौजूदगी के बावजूद पूँजीवादी उत्पादन-सम्बन्ध प्रधान बन गये हैं, राष्ट्रीय बाज़ार संघटित हुए हैं और खेती-बाड़ी के क्षेत्र में भी बाज़ार के लिए उत्पादन की प्रवृत्ति प्रधान हो गयी है। इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप इन समाजों की वर्गीय संरचना में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आये हैं। कुछ देशों को छोड़कर आज तीसरी दुनिया के अधिकांश देश पिछड़े हुए पूँजीवादी देश बन चुके हैं।
हम मानते हैं कि आज भी दुनिया के पिछड़े देश ही साम्राज्यवाद की कमज़ोर कड़ी और भावी क्रान्तियों के तूफ़ानों के सम्भावनासम्पन्न केन्द्र हैं, लेकिन इन झंझा केन्द्रों की वर्गीय संरचना में और तदनुसार क्रान्ति की प्रकृति में बुनियादी परिवर्तन आये हैं। यह साम्राज्यवाद का ही युग है, लेकिन यह दौर उपनिवेशवाद और नवउपनिवेशवाद का नहीं बल्कि आर्थिक नवउपनिवेशवाद का है। और ज़्यादातर देशों में आज साम्राज्यवाद-सामन्तवाद विरोधी राष्ट्रीय जनवादी क्रान्तियाँ नहीं, बल्कि साम्राज्यवाद व देशी पूँजीवाद विरोधी, नये प्रकार की समाजवादी क्रान्तियाँ होंगी।
अपने ही देश को एक प्रतिनिधि उदाहरण के तौर पर लें। विगत आधी सदी में न केवल उद्योगों और शहरों का अत्यधिक विस्तार हुआ है, बल्कि खेती-बाड़ी का भी मशीनीकरण हुआ है तथा गाँवों में कृषि-आधारित एवं सम्बद्ध उद्योग-धन्धों का विराट संजाल विकसित हुआ है। देशी पूँजीपति वर्ग ने अपने उत्पादों को बेचने और सस्ती से सस्ती दर पर श्रमशक्ति को ख़रीदने के लिए तथा खेती-बाड़ी में मशीनों-उर्वरकों-उन्नत बीजों आदि का नया बाज़ार तैयार करने के लिए सामन्ती भूमि-सम्बन्धों को तोड़कर काश्तकारों को मालिक बनाने और श्रम को मुक्त करने के काम को एक क्रमिक प्रक्रिया में अंजाम दिया है। मालिकाना मिलने के बाद बड़े मालिक किसान अब पूँजी लगाकर बाज़ार के लिए पैदा कर रहे हैं और अपने खेतों में उजरती मज़दूरों की श्रमशक्ति निचोड़ रहे हैं। सामन्ती ज़मींदारों का एक हिस्सा भी अपने तौर–तरीक़ों को बदलकर पूँजीवादी भूस्वामी बन गया है। छोटे-मँझोले मालिक किसानों का बड़ा से बड़ा हिस्सा पूँजी की मार से उजड़कर सर्वहारा की क़तारों में शामिल हो रहा है और गाँवों-शहरों की सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी आज लगभग कुल आबादी की आधी तक पहुँच रही है।
यह एक विस्तृत चर्चा का विषय है। लेकिन इतनी चर्चा से भी यह बात समझ में आ जाती है कि भारत कुल मिलाकर एक पूँजीवादी देश बन चुका है। यह स्वतन्त्र पूँजीवादी देश नहीं है, यहाँ का शासक पूँजीपति, साम्राज्यवादियों का जूनियर पार्टनर है और यह एक ऐसा पिछड़ा हुआ पूँजीवादी देश है जहाँ अभी भी सामन्ती अवशेष मौजूद हैं। भारत और तीसरी दुनिया के अधिकांश पिछड़े देशों में आज एक नये प्रकार की समाजवादी क्रान्ति ही सम्भव है। सामन्तवाद अवशेष मात्र के रूप में रह गया है। मुख्य अन्तरविरोध श्रम और पूँजी के बीच का अन्तरविरोध है।
बीसवीं शताब्दी में, 1917 की रूसी समाजवादी क्रान्ति के बाद विश्व पूँजीवाद के विरुद्ध विश्व सर्वहारा क्रान्ति का ज्वार जब आगे बढ़ा तो क्रान्तिकारी तूफ़ानों का केन्द्र वे देश बने जो उपनिवेश या अर्द्धउपनिवेश थे। वहीं लूट और शोषण का दबाव अधिक था और इन्हीं कमज़ोर कड़ियों को टूटना था। इन सभी देशों में राष्ट्रीय मुक्ति का प्रश्न तब केन्द्रीय प्रश्न था और पूँजीपतियों का एक हिस्सा भी तब साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष में उतरने के लिए तैयार था क्योंकि राजनीतिक आज़ादी के बिना वह अपने विकास की कोई सम्भावना नहीं देख रहा था। उपनिवेशों-अर्द्धउपनिवेशों के पिछड़े कृषि-प्रधान समाजों में दूसरा प्रधान प्रश्न था सामन्ती भूमि-सम्बन्धों के ख़ात्मे का, जो समूची किसान आबादी का सवाल था। सामन्ती भूस्वामी ही विदेशी सत्ता के मुख्य सामाजिक अवलम्ब थे। इसलिए सामन्तवाद-विरोध और साम्राज्यवाद-विरोध के ये दोनों अन्तरविरोध परस्पर गुँथे-बुने थे। 1970 के आसपास तक अधिकांश उपनिवेश राजनीतिक स्वतन्त्रता हासिल कर चुके थे और वहाँ पूँजीवादी विकास का काम आगे बढ़ चुका था। नवें दशक तक उपनिवेशों की स्थिति में काफ़ी परिवर्तन आ चुके थे और सैनिक तानाशाहियों की जगह वहाँ सीमित जनवाद की बहाली हो चुकी थी। जैसाकि हमने ऊपर चर्चा की है ये भूतपूर्व उपनिवेश और नवउपनिवेश आज भी क्रान्तियों के तूफ़ानों के केन्द्र हैं, पर इनकी वर्गीय सामाजिक संरचना बदल चुकी है।
पुरानी क्रान्तियों के अन्धानुकरण और कठमुल्लेपन के शिकार लोग कहते हैं कि चूँकि हम आज भी साम्राज्यवाद के युग में ही जी रहे हैं, इसलिए हमारी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल आज भी वही होंगे जो 1920 में, 1940 में या 1960 में होते। वे कहते हैं कि बीसवीं शताब्दी की महान क्रान्तियों के नेतृत्व ने यही कहा था कि एशिया-अफ़्रीका-लातिन अमेरिका के देशों में राष्ट्रीय जनवादी क्रान्तियाँ और यूरोप-अमेरिका में समाजवादी क्रान्तियाँ – विश्व क्रान्ति के ये दो संघटक अवयव होंगे। हमारा कहना है कि यह क्रान्ति का मार्गदर्शक सिद्धान्त नहीं, बल्कि मौजूद परिस्थितियों का मूल्यांकन है। इससे बँधना जूते के हिसाब से पैर काटने के समान होगा। परिस्थितियाँ बदल चुकी हैं। साम्राज्यवाद का युग मौजूद है, लेकिन उपनिवेशवाद-नवउपनिवेशवाद का दौर बीत चुका है। पूँजीपति वर्ग का कोई भी हिस्सा आज क्रान्तिकारी नहीं रह गया है। अपनी ज़रूरत और बाध्यता के दबाव में वह साम्राज्यवादियों का जूनियर पार्टनर बन चुका है। इन देशों के भीतर भूमि-सम्बन्ध भी बदल चुके हैं। सामन्ती तत्व महज़ अवशेष के रूप में शोषण और शासन में साम्राज्यवादियों और देशी पूँजीपतियों के साथ छोटे हिस्सेदार बन चुके हैं। वे लड़ रहे हैं तो लूट में अपनी भागीदारी बढ़ाने के लिए। उनका संकट शोषण के छोटे हिस्सेदार का संकट है। अब इन देशों में भी मुक्ति की परियोजना एक समाजवादी परियोजना ही हो सकती है।
साथ ही, हमारा यह भी कहना है कि इन देशों की समाजवादी क्रान्तियाँ वैसी भी नहीं होंगी जैसी रूस में हुई थी। यहाँ पूँजीवाद का विकास रूस से भिन्न रास्ते से हुआ है। इस भिन्नता का एक मूल कारण औपनिवेशिक अतीत के चलते है और दूसरा मूल कारण इस नाते है कि आज की दुनिया 1917 के समय की दुनिया से काफ़ी भिन्न है। रूस विकसित पश्चिम और पिछड़े पूरब के सन्धिबिन्दु पर खड़ा देश था। दूसरे, प्रथम विश्वयुद्ध के चलते भी वहाँ अपवादस्वरूप, क्रान्ति की अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गयी थीं। तीसरे, ज़ारशाही के पतन के बाद क़ायम पूँजीवादी सत्ता न तो स्थिर हो पायी थी, न ही अपनी जड़ों को मजबूत बना पायी थी। उसका सामाजिक आधार भी काफ़ी संकुचित था। रूस पर साम्राज्यवादी दबाव तो था, पर वहाँ का शासक वर्ग साम्राज्यवाद से उस तरह नत्थी नहीं था, जैसी आज भारत के पूँजीवाद की स्थिति है। भारत के पूँजीवाद का सामाजिक आधार काफ़ी विस्तृत है। धनी किसानों और नौकरशाही तन्त्र से जुड़े उच्च मध्य वर्ग व अन्य परजीवी वर्गों के रूप में इसका शक्तिशाली सामाजिक अवलम्ब मौजूद है। पूँजीवादी विकास के चलते यातायात-संचार का तन्त्र काफ़ी विकसित है और राज्यसत्ता की पकड़ सुदूर क्षेत्रों तक काफ़ी व्यापक है। यह केवल राजधानी और बड़े शहरों तक सिकुड़ी-सिमटी नहीं है। इसके चलते रणकौशलों और भावी क्रान्ति के रास्ते को लेकर रूस से काफ़ी भिन्नताएँ पैदा हो चुकी हैं। यह अलग से एक विस्तृत चर्चा का विषय है, लेकिन आम नतीजे के तौर पर, यह समझना कठिन नहीं है कि अब जो साम्राज्यवाद-विरोधी पूँजीवाद-विरोधी समाजवादी क्रान्तियाँ होंगी, वे नये प्रकार की समाजवादी क्रान्तियाँ होंगी।
इन परिवर्तनों की अनदेखी करके और विगत क्रान्तियों के पदचिद्दों का अन्धानुकरण करके नयी क्रान्तियों की तैयारी नहीं की जा सकती। अतीत की क्रान्तियों का अध्ययन करके उनसे समानता और भिन्नता के मुद्दों को जानना होगा और ज़रूरी सबक़ लेने होंगे, लेकिन ठोस परिस्थितियों का ठोस अध्ययन करके यह समझना आज का प्रमुख कार्यभार है कि आज की नयी क्रान्तियों में नया क्या है? क्रान्तिकारियों की युवा पीढ़ी को नयी राह बनाने की चुनौतियाँ स्वीकारनी ही होंगी। पुरानी क्रान्तियों के आम निष्कर्षों को कुछ फ़ार्मूलों के रूप में अपनाकर कुछ रुटीनी कवायद करते रहने की प्रवृत्ति को, अतीत की महान क्रान्तियों का अन्धानुकरण करने की प्रवृत्ति को हम क्रान्ति के रास्ते की एक प्रमुख बाधा के रूप में देखते हैं क्योंकि यह प्रवृत्ति आज हावी है। यह क्रान्ति के विज्ञान को समझने और विकसित करने से जी चुराना है और महज़ क्रान्तिकारी आशावाद और उत्साह के सहारे क्रान्ति कर लेने की ख़ामख़याली में जीना है।
इसीलिए हम ज़ोर देकर यह कहते हैं कि उम्मीद को महज़ एक भावना के रूप में ज़िन्दा रखना काफ़ी नहीं है। आशावाद को एक वैज्ञानिक आधार देना होगा। जड़सूत्रवाद से बचने के लिए क्रान्ति के विज्ञान को समझना होगा और अपनी वैज्ञानिक समझ के सहारे अपने देश-काल की परिस्थितियों को समझकर नयी क्रान्तियों की राह निकालनी होगी।
यह क्रान्तिकारियों की युवा पीढ़ी का सर्वोपरि ऐतिहासिक कार्यभार है!
‘आह्वान कैंपस टाइम्स’, जनवरी-मार्च 2004
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!