पाठक मंच
आनन्द, गुड़गाँव
प्रिय साथी,
‘आह्वान’ पत्रिका को मैं लम्बे समय से पढ़ रहा हूँ और यह पत्रिका मुझे लगातार प्रेरित करती रही है, न्याय व संवेदना के नये मूल्य दे रही है। आज पूरे विश्व में आर्थिक संकट जिस दर से बढ़ रहा है, मन्दी व महँगाई की मार से जनता की बहुत बड़ी संख्या बेरोज़गारों की फौज में शामिल होने को मजबूर है, भुखमरी और कुपोषण झेलने को मजबूर है। ऐसे में तमाम फासीवादी ताक़तें जनता को बरगलाने और नफ़रत के बीज बोने में कामयाब हो रही हैं। दुनिया के तमाम देशों में फासीवादी उभार हो रहा है। अपने देश में भी हर किस्म के धार्मिक कट्टरपन्थी समुदायों एवं संगठनों चाहे वह शिवसेना हो, आरएसएस हो या भाजपा हो या सारे ग़ैर सरकारी संगठन, सब मिलकर मज़दूर वर्ग को जाति, धर्म, क्षेत्र के नाम पर बाँटकर रखने में कामयाब हो रहे हैं। अपने देश में मज़दूर वर्ग की तरफ से ऐसी कोई पार्टी या संगठित ताक़त नहीं दिखायी पड़ रही जो इन फासीवादियों को मुँहतोड़ जवाब दे सके।
ऐसे समय में ‘आह्वान’ पत्रिका रूढ़िवादी विचारों से बहुत ही जुझारू संघर्ष कर रही है और छात्रों-नौजवानों को क्रान्तिकारी विचारों से लैस कर रही है। मेरी पूरी कोशिश यही रहती है कि ‘आह्वान’ के विचारों को समझकर अपने दोस्तों व साथियों को सही क्रान्तिकारी विचारों से अवगत कराऊँ। सितम्बर-दिसम्बर 2013 का फासीवाद-विरोधी अंक मुझे बहुत पसन्द आया। मैंने इस अंक के सारे लेख बहुत ही लगन से पढ़े और मेरी यह धारणा बनी कि सही क्रान्तिकारी विचार मुझे इस पत्रिका से ही मिल सकते हैं।
साथी, मैं एक मज़दूर हूँ और गुड़गाँव की एक कम्पनी में नौकरी करता हूँ। आज के समय में संकट और बेरोज़गारी जो कि दिन-प्रतिदिन मेरी आँखों के सामने नंगी सच्चाई की तरह उपस्थित है, इसे मैंने कविता के रूप में व्यक्त किया है। उम्मीद करता हूँ कि ये विचार ‘आह्वान’ के लायक होंगे!
काम की तलाश में घूम रहे हैं लोग
एक मौका पाने को तरस रहे हैं लोग
फैक्ट्रियों, दुकानों, कारख़ानों में
हर जगह पूछ रहे हैं लोग
क्या कोई जगह ख़ाली है?
सड़कों, चौराहों, गलियों में घूमते हुए मिल जाते हैं लोग
काम की तलाश में बेहाल परेशान लोग।
समझ में नही आता कि इतनी बड़ी मज़दूर आबादी
का ही भाग्य क्यों मारा जाता है?
भगवान इन्हीं से क्यों नाराज़ रहता है?
एकबारगी तो मन बग़ावत करके कहता है –
कोई भगवान नहीं होता है
हैरान-परेशान लोग
एक दूसरे की जाति और धर्म को दोष देते लोग
रिश्तेदारों और बुज़ुर्गों को दोष देते लोग
‘ऐसा होता, ऐसा न होता
तो बहुत अच्छा होता’ में फँसे लोग।
यही तो हैं वे लोग
जिन तक पहुँचाना है, लेकर जाना है
इन विचारों को, कि
यह व्यवस्था ही जड़ है सारी परेशानियों की
लूट, मुनाफ़ा और गलाकाटू होड़ की व्यवस्था है
जल्द से जल्द बदल डालो इस व्यवस्था को
नहीं तो यूँ ही हैरान-परेशान रहेंगे लोग!
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2014
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!