इस्लामिक स्टेट (आईएस): अमेरिकी साम्राज्यवाद का नया भस्मासुर

आनन्द

ISIS-toyota-680x365इस साल के जून के महीने में यकायक इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक़ एण्ड सीरिया (आईएसआईएस जिसे अब आईएस के नाम से जाना जाता है) नामक एक इस्लामिक कट्टरपन्थी संगठन द्वारा इराक़ में की जाने वाली मध्ययुगीन बर्बर करतूतों की ख़बरें पूरी दुनिया में सुर्खियाँ बटोरने लगीं। आईएस के जेहादी लड़ाके तेज़ी से एक के बाद एक इराक़ के कई मुख्य शहरों पर क़ब्ज़ा करने लगे और यहाँ तक कि वे इराक़ की राजधानी बग़दाद के प्रवेशद्वार तक आ पहुँचे। यही नहीं, इस संगठन के सरगना अबू बक्र अल-बग़दादी ने अपने आपको समूचे इस्लामिक जगत का ख़लीफ़ा तक घोषित कर दिया। पश्चिम एशिया की राजनीति से अनजान लोगों के लिए भले ही आईएसआईएस एक नया नाम हो, परन्तु उस पूरे क्षेत्र की राजनीति एवं वहाँ अमेरिका-नीत साम्राज्यवादी हस्तक्षेप से वाकिफ़ लोग इस संगठन से परिचित थे, हालाँकि पश्चिम एशिया के प्रकाण्ड रणनीतिक विश्लेषकों के लिए भी इसका इराक़ में इतनी तेज़ी से उभार और फैलाव विस्मयकारी था। अभी कुछ महीनों पहले तक आईएसआईएस के जेहादी लड़ाके अमेरिकी, ब्रिटिश, फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों और अरब देशों में उनके टट्टुओं मसलन सउदी अरब, क़तर और कुवैत की शह पर सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद का तख़्तापलट करने के उद्देश्य से वहाँ जारी गृहयुद्ध में भाग ले रहे थे। उस समय अमेरिका की नज़र में वे “अच्छे” जेहादी थे क्योंकि वे अमेरिकी हितों के अनुकूल काम कर रहे थे। लेकिन अब जब वे अमेरिका के हाथों से निकलते दिख रहे हैं तो वे बुरे जेहादी हो गये हैं और उन पर नकेल कसने की कवायदें शुरू हो गयी हैं। दरअसल इस्लामिक स्टेट अल-क़ायदा और तालिबान की तर्ज़ पर अमेरिकी साम्राज्यवाद द्वारा पैदा किया गया और पाला-पोसा गया नया भस्मासुर है जो अब अपने आका को ही शिकार बनाने लगा है।

कौन है यह इस्लामिक स्टेट?

इस्लामिक स्टेट (आईएस), जिसको आईएसआईएस के नाम से भी जाना जाता है, अल-क़ायदा का ही एक घटक है जिसने हाल ही में दज़ला और फ़रात नदियों के किनारे स्थित उत्तरी सीरिया एवं उत्तरी और मध्य इराक़ के अनेक महत्त्वपूर्ण शहरों, तेलशोधक कारख़ानों और बाँधों पर अपना क़ब्ज़ा जमा लिया है। इस लेख के लिखे जाने तक इराक़ के लगभग एक तिहाई क्षेत्र पर इसका क़ब्ज़ा हो चुका है। इस आतंकवादी संगठन ने इराक़ में 2003 के अमेरिकी हमले (ऑपरेशन शॉक एण्ड ऑ) के बाद वहाँ अपनी जड़ें जमानी शुरू की। ग़ौरतलब है कि इस हमले के पहले तक इराक़ में अल-क़ायदा का नामोनिशान तक नहीं था। सद्दाम हुसैन बेशक एक तानाशाह था जिसने अपने देश की जनता पर अकथनीय ज़ुल्म ढाये, परन्तु उसके शासन में शिया-सुन्नी की संकीर्णतावादी कट्टरपन्थी प्रवृत्तियाँ इराक़ी समाज एवं वहाँ की राजनीति में आम तौर पर अनुपस्थित थीं अथवा हाशिये पर थीं। इराक़ में शिया-सुन्नी में आपस में विवाह आम बात थी। अमेरिकी हमले में सद्दाम हुसैन के सत्ताच्युत होने के बाद इराक़ में घोर अराजकता, पन्थीय और नृजातीय संकीर्णता और इस्लामिक कट्टरपंथियों के पनपने की जमीन तैयार हुई। साथ ही इराक़ में अमेरिकी क़ब्जे़ और सेना की उपस्थिति के ख़िलाफ़ व्यापक जनउभार भी शुरू हो गया। इस जनउभार को काबू में करने के लिए अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने योजनाबद्ध तरीक़े से इराक़ी समाज में शिया-सुन्नी की पन्थीय संकीर्णता एवं उत्तरी इराक़ में रहने वाली कुर्द नृजातीय आबादी में अलगाववादी भावनाओं को हवा देना शुरू किया। “बाँटो और राज करो” की इस साम्राज्यवादी नीति का नतीजा यह हुआ कि इराक़ में एक गृहयुद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न हो गयी। शियाओं एवं सुन्नियों की अलग-अलग मिलीशिया और फ़िदायीं दस्ते बनने लगे जो एक दूसरे के ख़ून के प्यासे हो गये। अमेरिकी साम्राज्यवादियों की शह पर बनने वाली राजनीतिक संरचना में शिया-सुन्नी विवाद को हवा देने के लिए ऐसे प्रावधान डाले गये जिससे वहाँ की राजनीति में बहुसंख्यक शियाओं का दबदबा क़ायम हो सके।

ISIS 1ग़ौरतलब है कि इराक़ में शियाओं की बहुसंख्या होने के बावजूद अमेरिकी हमले से पहले तक वहाँ की राजनीति में शियाओं के वर्चस्व जैसी कोई बात नहीं थी। सद्दाम हुसैन स्वयं अल्पसंख्यक सुन्न्नी समाज से आता था और उसकी बाथ पार्टी में शिया और सुन्नी दोनों ही सदस्य थे। अमेरिकी हमले के बाद इराक़ में जो राजनीतिक संरचना अस्तित्व में आयी उसमें संवैधानिक रूप से यह प्रावधान किया गया कि वहाँ के सबसे रसूख़दार प्रधानमन्त्री के ओहदे पर शिया ही क़ाबिज़ हो सकता है एवं राष्ट्रपति तथा संसद के स्पीकर जैसे कम महत्त्वपूर्ण ओहदे क्रमशः सुन्नियों तथा कुर्दों के लिए सुरक्षित रखे गये। लेबनान मॉडल पर किये गये इस विचित्र संवैधानिक-राजनीतिक प्रबन्ध का नतीजा यह हुआ कि समय बीतने के साथ ही साथ वहाँ की राजनीति एवं अर्थव्यवस्था में शियाओं का दबदबा बढ़ता गया और सुन्नी एवं कुर्द हाशिये पर जाते गये। इसकी वजह से सुन्नियों एवं कुर्दों में अलगाववादी भावना पनपने लगी। अमेरिकी हमले के बाद इराक़ की अर्थव्यवस्था तहस-नहस हो गयी, बेरोज़़गारी और महँगाई आसमान छूने लगी। हालाँकि इस अराजकता का दंश इराक़ की जनता के हर हिस्से ने झेला, लेकिन सुन्नी जो सद्दाम हुसैन के शासनकाल में बेहतर स्थिति में थे, उनकी तो मानो पूरी दुनिया ही तबाह हो गयी।

ये वो हालात थे जिनमें सुन्नी इस्लामिक कट्टरपन्थी अल-क़ायदा ने इराक़ में पैर जमाना शुरू किया। इसका शुरुआती नाम ‘अल-क़ायदा इन मेसोपोटामिया’ था जिसकी स्थापना इराक़ के ताल अफ़ार नामक शहर में हुई थी। शुरुआत में इसका नेतृत्व जार्डनी आतंकवादी अबू मुसब अल-ज़रकावी के हाथों में था जिसे ओसामा बिन लादेन तक ने अत्यधिक हिंसक और संकीर्ण माना था। यही संगठन 2006 में इस्लामिक स्टेट आफ इराक़ (आईएसआई) के नाम से जाना जाने लगा जो बाद में आईएसआईएस या सिर्फ़ आईएस के नाम से प्रचलित हुआ। इसका मौजूदा मुखिया अबूबक्र अल-बग़दादी है जो 2003 तक एक छुटभैया चोर-उचक्का था। इराक़ में अमेरिकी हमले के बाद अमेरिकी डिटेंशन सेण्टर में प्रताड़ना झेलने के बाद वह आतंकवाद की दिशा में बढ़ा और आईएस जैसे आतंकवादी संगठन का मुखिया बन बैठा। इस संगठन ने मुक़्तदा अल-सद्र की महदी शिया सेना और बद्र एवं सलाम ब्रिगेड जैसी शिया मिलीशिया से भी लोहा लिया था। लेकिन यह अभी भी महज़ एक छोटा सा जेहादी समूह भर था जिसके पास इतनी ताक़त हरगिज़ नहीं थी कि वह इराक़ के किसी शहर पर क़ब्ज़ा करने की सोच भी सकता था। आईएसआईएस की ताक़त में इज़ाफ़ा होना तब शुरू हुआ जब 2011 के बाद से सीरिया में जारी गृहयुद्ध में इसने विद्रोहियों की तरफ़ से शिरकत करनी शुरू की।

आईएस की बढ़ती ताक़त की वजह

ISIS 22011 में ट्यूनिशिया एवं मिस्र में जनविद्रोहों के बाद अरब के तमाम देशों की तरह सीरिया में भी निरंकुश शासन एवं आर्थिक संकट के विरोध में व्यापक जनउभार देखने को आया। अमेरिकी एवं पश्चिमी यूरोपीय साम्राज्यवादियों को इस जनउभार में सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद (जिसकी क़रीबी रूस और इरान से है) का तख़्तापलट करने की सम्भावना दिखी। साम्राज्यवादियों की मंशा यह थी कि जिस प्रकार वे लीबिया में इस्लामिक कट्टरपन्थी विद्रोहियों को सैन्य एवं वित्तीय मदद देकर क़द्दाफ़ी का तख़्तापलट करने में क़ामयाब रहे (यह बात दीग़र है कि लीबिया में अभी भी राजनीतिक अस्थिरता एवं अराजकता का माहौल व्याप्त है), उसी प्रकार सीरिया में भी बशर अल-सद्र का भी तख़्तापलट किया जा सकता है और वहाँ एक कठपुतली सरकार बनवाई जा सकती है। इसके लिए उन्होंने सीरिया में सुन्नी कट्टरपंन्थी विद्रोहियों को बढ़ावा दिया जाये। असद सरकार के ख़िलाफ़ जेहाद का एलान करने वाले लड़ाकों को मुद्रा, हथियार एवं सैन्य प्रशिक्षण देने के काम में उनकी मदद सउदी अरब, कतर एवं कुवैत के शेखों और शाहों के साथ ही साथ तुर्की की सरकार ने की। आईएस के अतिरिक्त सीरिया में जेहाद का एलान करने वाले लड़ाकों में एक अन्य इस्लामिक कट्टरपन्थी संगठन जबत अल-नूसरा भी है जिसको अल-क़ायदा की सीरिया शाखा कहा जाता है।

लेकिन बशर अल-असद की सरकार क़द्दाफ़ी की सरकार जितनी कमज़ोर न थी, उसकी सैन्य क्षमता एवं सामाजिक आधार कहीं ज़्यादा व्यापक थे। नतीजतन साम्राज्यवादियों को सीरिया में बशर अल-असद का तख़्तापलट करने में अभी तक कोई ख़ास क़ामयाबी नहीं हासिल हुई है। सीरिया में विद्रोही जिहादियों ने महज़ कुछ ही शहरों को अपने कब्जे़ में लेने में क़ामयाबी हासिल की है। लेकिन इस प्रक्रिया में आईएस जैसे खूँख़ार जेहादी लड़ाकों को अकूत धनसामग्री एवं अत्याधुनिक हथियार (ख़ासकर टोयोटा ट्रक और हॉविटज़र बन्दूकें) ज़रूर मिल गये जिससे उनकी ताक़त में ज़बर्दस्त इज़ाफ़ा हुआ।

पिछले साल के अन्त में आईएसआईएस ने सीरिया-इराक़ की सीमा को पार कर इराक़ में एक बार फिर से नयी ताक़त के साथ प्रवेश किया। इस साल जनवरी में उसने इराक़ के अनबार प्रदेश के रमादी एवं फलूजा शहरों पर क़ब्ज़ा कर लिया। जून में उसने समारा, मोसुल, निनेवेह एवं सद्दाम हुसैन के गृह शहर तिकरित पर क़ब्ज़ा कर लिया। जून के अन्त तक इराक़ की सीरिया एवं जार्डन की सीमा पर आईएस का क़ब्ज़ा हो चुका था और उसके जेहादी लड़ाके बग़दाद के प्रवेशद्वार तक पहुँच चुके थे।

सीरिया में प्राप्त मुद्रा, हथियारों एवं सैन्य प्रशिक्षण के अतिरिक्त आईएस की बढ़ती ताक़त का एक अन्य प्रमुख कारण सद्दाम हुसैन की बाथ पार्टी से जुड़े सेना के जनरलों एवं नौकरशाहों के साथ उसका गठबंधन रहा। ग़ौरतलब है कि 2003 के अमेरिकी हमले के बाद से अमेरिका के निर्देश पर सुनियोजित रूप से वहाँ विबाथीकरण (डीबाथीफिकेशन) की मुहिम चलायी गयी जिसकी वजह से बाथ पार्टी से जुड़े सैना के अधिकारी और नौकरशाह बेरोज़़गार होकर वस्तुतः सड़क पर आ गये। सैन्य अधिकारियों ने ‘मिलिटरी काउंसिल’ नाम से एक संगठन बनाया जो इस वक़्त आईएस के लड़ाकों को रणनीतिक मार्गदर्शन कर रहा है। आईएस के दूसरे सहयोगी नक़्शबन्दी आन्दोलन से जुड़े लड़ाके हैं जिनका नेतृत्व सद्दाम हुसैन की सरकार में उपराष्ट्रपति एवं पूर्व बाथ पार्टी का सदस्य इज्ज़त अल-दौरी कर रहा है। हालाँकि नक़्शबन्दी आन्दोलन इस्लाम की सूफ़ी परम्परा से प्रेरित है, लेकिन उसने आईएस जैसे कट्टरपन्थी संगठन से एक अवसरवादी गठजोड़ बना लिया है जिससे आईएस की ताक़त में ज़बर्दस्त इज़ाफ़ा हुआ है।

आईएस की गुरिल्ला फौज में इराक़ और अरब जगत के इस्लामिक कट्टरपंथियों के अतिरिक्त चेचेन्या, पाकिस्तान एवं यूरोपीय देशों के इस्लामिक कट्टरपन्थी लड़ाके हैं। भारत से भी कुछ मुस्लिम युवाओं के आईएस में शामिल होने की ख़बरें आयी हैं। इराक़ में इतनी तेज़ी से आईएस के प्रभुत्व के बढ़ने के पीछे एक अन्य कारण अमेरिकी हमले के बाद से इराक़ी सेना के मनोबल में भारी गिरावट भी रहा जिसकी वजह से वे आईएस से लड़ने में फिसड्डी साबित हुए। आईएस ने जिन शहरों पर क़ब्ज़ा किया वहाँ भारी मात्रा में इराक़ी सेना के हथियारों और लूटपाट से अर्जित अकूत धनदौलत से भी आईएस की ताक़त में इज़ाफ़ा हुआ। इसके अतिरिक्त मोसुल और किरकुक जैसे स्थानों में स्थित तेलों के कुओं पर कब्ज़े से भी उनकी आर्थिक ताक़त बढ़ी। लेकिन जितनी तेज़ी से इसकी ताक़त बढ़ी उतनी ही तेज़ी से अरब जगत की आम जनता के बीच इसके प्रतिक्रियावादी चरित्र का खुलासा भी हुआ। जब यह इराक़ में एक के बाद एक शहरों पर क़ब्ज़ा करने में व्यस्त था था उसी दौरान जॉयनवादी इज़रायल गाज़ा की जनता पर अकथनीय क़हर बरपा रहा था। लेकिन पूरी दुनिया में इस्लामिक राज्य का स्थापित करने का दावा करने वाले इस आतंकवादी संगठन के पास फ़िलस्तीन की जनता के शानदार और बहादुराना संघर्ष में भाग लेना तो दूर उनके समर्थन में एक शब्द तक नहीं बोले।

पश्चिम एशिया में अमेरिकी साम्राज्यवाद की इस्लामिक कट्टरपन्थ से गलबहियों का लम्बा इतिहास

isis-oh-isisआईएस जैसे बर्बर इस्लामिक कट्टरपन्थी संगठन की अमेरिकी साम्राज्यवादी नीतियों द्वारा पैदाइश और उनका पालन-पोषण कोई नयी बात नहीं है। दरअसल द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से ही कम्युनिज़्म और धर्मनिरपेक्ष अरब राष्ट्रवाद को मात देने के लिए अमेरिका इस्लामिक दक्षिणपन्थ के साथ गठजोड़ बनाता आया है जिसकी वजह से समय-समय पर वहाँ ऐसे इस्लामिक कट्टरपन्थी संगठन उभरते रहे हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले तक अरब और समूचे मध्यपूर्व में तेल के कुओं की खोज हो चुकी थी। इस युद्ध से पहले ही सउदी अरब के सुल्तान इबू बिन सउद के साथ अमेरिका के घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो चुके थे। सउदी अरब में 1938 में तेल की खोज हो जाने के बाद से ये सम्बन्ध और प्रगाढ़ होते गये। ग़ौरतलब है कि पूरी दुनिया में वहाबी-सलाफ़ी-तकफ़ीरी नामक इस्लामिक कट्टरपन्थी धाराओं को फैलाने का काम सउदी अरब से ही संचालित होता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के ठीक बाद प्रस्तुत की गयी “ट्रूमैन डॉक्ट्रिन” के तहत अमेरिका ने इस्लामिक दक्षिणपन्थ की हवा बहाने की नीति को औपचारिक जामा पहनाया गया। इसके तहत अरब के शाहों एवं शेखों की सत्ताओं को अपना सहयोगी घोषित किया गया। अमेरिकी राष्ट्रपति आइज़ेनहावर ने इसी नीति के तहत मुस्लिम ब्रदरहुड को व्हाइट हाउस के हॉल में आमंत्रित किया।

1967 के अरब-इज़रायल युद्ध के बाद अरब के देशों में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद की धारा कमज़ोर पड़ने लगी और दक्षिणपन्थी इस्लामिक कट्टरपन्थी धारा समूचे मध्यपूर्व में अपना दबदबा बनाने में क़ामयाब हुई। 1979 में इरान में इस्लामिक क्रान्ति के बाद से शिया कट्टरपन्थ की धारा भी मजबूती से उभरी। 1979 में ही उदारवादी माने जाने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर के दौर में अफ़गानिस्तान की वामपन्थी सरकार का तख़्तापलट करने के लिए एवं सोवियत साम्राज्यवादी हस्तक्षेप का मुक़ाबला करने के लिए मुजाहिद्दीनों को हथियारों और मुद्रा की सप्लाई की गयी। कार्टर के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेंस्की ने अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान की सीमा से लगे खैबर दर्रे का दौरा किया और एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में बन्दूक लेकर वहाँ के जेहादियों को सम्बोधित करते हुए कहा कि अब यही उन्हें काफ़िरों से मुक्ति दिला सकते हैं। यही नहीं पाकिस्तान के तानाशाह जियाउल हक़ और वहाँ की खु़फ़िया एजेंसी आईएसआई के इस्लामीकरण की परियोजना को अफ़गानी मुजाहिद्दीनों के जेहाद से जोड़कर अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान में इस्लामिक कट्टरपन्थ की ज़मीन पुख़्ता की गयी। हद तो तब हो गयी जब अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने अफ़गानी मुजाहिद्दीनों को व्हाइट हाउस में ससम्मान आमंत्रित किया और उनको सम्बोधित करते हुए कहा कि वे नैतिक रूप से अमेरिका की स्थापना करने वाले वाशिंगटन और जैफ़रसन जैसे नेताओं के समतुल्य हैं। रीगन ने मुजाहिद्दीनों के जेहाद को इतना महत्त्वपूर्ण माना कि उस समय लांच होने वाले अमेरिकी अन्तरिक्षयान कोलंबिया को अफ़गानियों के संघर्ष के नाम समर्पित कर डाला।

यह बात अब किसी से छिपी नहीं है कि अल-क़ायदा, तालिबान और ओसामा बिन लादेन अफ़गानिस्तान में अमेरिका द्वारा पोषित भस्मासुर थे जो बाद में अपने आका को ही अपना निशाना बनाने लगे। यहाँ तक कि सद्दाम हुसैन को भी अमेरिका ने इराक़-इरान युद्ध में सहयोग दिया। बाद में सद्दाम हुसैन भी अमेरिका का दुश्मन हो गया क्योंकि वह कुवैत के तेल के कुओं से अमेरिकी पिट्ठुयों का नियन्त्रण हटाकर उनको अपने क़ब्जे़ में करना चाहता था।

2003 में इराक़ में अमेरिकी हमले के वक़्त अमेरिका के नव-रूढ़िवादियों की दीर्घकालिक योजना यह थी कि संकीर्ण पन्थों के कट्टरपंथियों को भड़काकर इराक़ सहित समूचे अरब जगत के नक़्शे को अपनी सहूलियत से पुनः खींचा जाये। उनकी योजना इराक़ में सत्ता परिवर्तन के बाद सीरिया और इरान के नक्शे को भी बदलने की थी। जैसा कि मध्यपूर्व क्षेत्र के विश्लेषक एजाज़ अहमद ने इंगित किया है कि उनकी 30 साल की उस योजना में अभी मात्र 11 वर्ष हुए हैं। यह बात दीग़र है कि कभी-कभी हालात साम्राज्यवादियों के काबू से बाहर हो जाते हैं, वे अपने ही रचे तिलिस्म में फँस जाते हैं और योजनाबद्ध तरीक़े से पैदा किये गये भस्मासुर अपने आका को ही काट खाने दौड़ने लगते हैं।

हालिया घटनाक्रम

अगस्त के महीने में आईएस के लड़ाके उत्तरी इराक़ के कुर्दिस्तान क्षेत्र की ओर तेज़ी से बढ़ने लगे। कुर्दिस्तान इराक़ के तेल संसाधन सम्पन्न क्षेत्रों में से एक है जहाँ एक्सान मोबिल और शेवरान जैसी अमेरिकी तेल कम्पनियाँ तेल के कुओं से तेल निकालकर अकूत मुनाफ़ा कमाती हैं। कुर्दिस्तान की राजधानी इरबिल में इन तमाम तेल कम्पनियों के क्षेत्रीय कार्यालय हैं। अमेरिका का दूतावास भी इरबिल में स्थित है और इसके अलावा यह अमेरिका के सैन्य और खुफ़िया अधिकारियों का गढ़ भी है। इरबिल में आईएस के क़ब्जे़ की सम्भावना से अमेरिका सकते में आ गया। आनन-फानन में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा, जो अब तक आईएस को एक छोटा-मोटा संगठन बताते थे, ने कुर्दिस्तान में आईएस के क़ब्जे़ वाले क्षेत्रों में अमेरिकी वायुसेना को हवाई हमले का आदेश दे दिया। दुनिया भर की पूँजीवादी मीडिया में यह प्रचारित किया गया कि अमेरिका ने आईएस के डर से सिंजर पहाड़ों में छिपे यज़ीदी समुदाय के लोगों को बचाने के लिए यह हमला किया था। लेकिन सच्चाई यह थी कि यह हमला आईएस को इरबिल से दूर हटाने के लिए किया गया था। इस हमले की दूसरा मक़सद मोसुल बाँध पर से आईएस के कब्ज़े से छुड़ाना था जिससे इराक़ के बड़े हिस्से में बिजली और पानी भेजी जाती है। यज़ीदी समुदाय के लोगों को बचाने का काम दरअसल सीरिया स्थित वाईपीजी और तुर्की की पीकेके (कुर्दिश वर्कर्स पार्टी) के जमीनी लड़ाकों ने किया था। ग़ौरतलब है कि अमेरिका ने पीकेके को आतंकवादी संगठन घोषित कर रखा है। कुर्दिस्तान के पेशमेर्गा लड़ाके आईएस का अकेले सामना कर पाने में पूरी तरह विफल रहे। अब अमेरिका और यूरापीय देश पेशमेर्गा को और आधुनिक हथियारों की सप्लाई की बात कर रहे हैं।

अगस्त के अन्त में आईएस ने बगदाद, किरकुक और इरबिल जैसे इराक़ के प्रमुख शहरों पर एक साथ बमबारी शुरू कर दी जिसमें सैकड़ों लोग मारे गये। इसके अलावा दो अमेरिकी पत्रकारों जैकब फोली और स्टीवेन सॉटलॉफ की आईएस ने गला काटकर हत्या कर दी और इस बर्बर कृत्य का वीडियो सोशल मीडिया पर अपलोड कर दिया जिसके बाद से अमेरिका की घरेलू राजनीति में इराक़ में पुनः सेना भेजने का सैन्य कार्रवाई की माँग और तेज़ हो गयी है। इसके पहले ओबामा सरकार ने इराक़ के प्रधानमन्त्री नूरी अल-मलीकी को बलि का बकरा बनाते हुए उसकी जगह हैदर अल-अबादी को प्रधानमन्त्री बनाया। अमेरिका को यह उम्मीद है कि पश्चिम में शिक्षित होने की वजह से अल-अबादी अमेरिका के हाथों की कठपुतली का काम अल-मलीकी से बेहतर ढंग से कर पायेगा। ग़ौरतलब है कि अल-अबादी को इरान का भी समर्थन प्राप्त है। चूँकि इरान की सीमा के काफ़ी निकट तक आईएस का कब्ज़ा हो चुका है इसलिए इरान भी आईएस को एक बड़े ख़तरे के रूप में देख रहा है। इसी तरह सीरिया ने भी आईएस के प्रभाव को कम करने के लिए अपने क्षेत्र को अमेरिकी हवाई बमबारी के लिए अनुमति देने के संकेत दे दिये हैं। इसे साम्राज्यवादी राजनीति की विडम्बना ही कही जायेगी कि अभी कुछ समय पहले तक अमेरिका के कट्टर दुश्मनों इरान और सीरिया से मदद लेकर आईएस पर नकेल कसने की बातें अमेरिकी रणनीतिक हलकों में अब आम हो गयी हैं। 11 सितम्बर के आतंकवादी हमले की 13 वीं बरसी पर ओबामा ने सीरिया में आईएस के ठिकानों पर हवाई बमबारी एवं इराक़ में 500 अतिरिक्त सैन्य सलाहकारों को भेजने की घोषणा की। साथ ही सीरियाई विद्रोहियों के नरमपन्थी हिस्सों को हथियारों की सप्लाई एवं सैन्य प्रशिक्षण की योजना का भी खुलासा किया गया।

पिछले चन्द महीनों में पश्चिम एशिया की राजनीति में तेज़ी से हुए इन बदलावों से यह स्पष्ट है कि अमेरिकी साम्राज्यवादी अपने ही बनाये तिलिस्म में ज़्यादा से ज़्यादा फ़ँसते जा रहे हैं। विपक्षी रिपब्लिकन पार्टी ओबामा पर इराक़ में एक बार फिर से सेना भेजने के लिए दबाव बना रही है। सीरिया में असद सरकार का तख़्ता पलट करने की योजना टालकर अब आईएस के ख़तरे को निपटना अमेरिकी विदेशी नीति की प्राथमिकता बन गयी है। सीरिया और इरान के साथ ही साथ तुर्की की सरकार एवं अरब के शेख और शाहों की सत्तायें भी आईएस की बढ़ती ताक़त से सकते में आ गये हैं और पारस्परिक सहयोग की बातें सुनने में आ रही हैं। हालाँकि इनमें आपस में ज़बर्दस्त अन्तर्विरोध हैं। तुर्की, सीरिया और इरान को डर है कि अमेरिका द्वारा इराक़ में कुर्दिस्तान की स्वतन्त्रता देने से इन देशों में रहने वाले कुर्द भी स्वतन्त्रता की माँग उठाने लगेंगे। ग़ौरतलब है कि इराक़ में लगभग 50 लाख कुर्द रहते हैं जबकि तुर्की में लगभग 2 करोड़ कुर्द रहते हैं। इसी तरह सीरिया और इरान में भी अच्छी-ख़ासी संख्या में कुर्द रहते हैं। अमेरिका ने भले ही इराक़ में प्रधानमन्त्री बदल दिया है, लेकिन नया प्रधानमन्त्री अल-अबादी की नज़दीकी इरान से भी है और साथ ही साथ इराक़ के बद्र और सलाम ब्रिगेड जैसे शिया मिलीशिया पर भी इरान का ही नियन्त्रण है। सउदी अरब और तुर्की हालाँकि अल-बगदादी के ख़लीफ़ा बनने की घोषणा करने के बाद से आईएस पर नकेल कसने के पक्षधर हैं लेकिन उन्हें यह भी डर है कि इस प्रक्रिया में इरान, इराक़ और सीरिया में शियाओं की ताक़त और ज़्यादा बढ़ जायेगी। इस जटिल परिस्थिति में इतना तो तय है कि आने वाले दिनों में यह पूरा क्षेत्र भयंकर पन्थीय हिंसा और गृहयुद्धों की चपेट में रहेगा। लेकिन इसी प्रक्रिया में साम्राज्यवादी और उनके पिट्ठू निरंकुश अरब शासक भी वहाँ की जनता की निगाहों में ज़्यादा से ज़्यादा नंगे होते जायेंगे। गाज़ा में इज़रायली हमले के दौरान उनके रुख से पहले ही समूचे अरब क्षेत्र की जनता में वहाँ के शासकों के प्रति भारी असन्तोष दिखा। यह असन्तोष भविष्य में व्यापक जनविद्रोहों की शक्ल अख़्तियार करेगा।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्‍त 2014

 

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