मुक्तिबोध की एक बेहद प्रासंगिक कविता
भूल-ग़लती
भूल-ग़लती
आज बैठी है जिरहबख़्तर पहनकर
तख़्त पर दिल के;
चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक,
आँखें चिलकती हैं नुकीले तेज़ पत्थर-सी,
खड़ी हैं सिर झुकाये
सब कतारें
बेजुबाँ बेबस सलाम में,
अनगिनत खम्भों व मेहराबों थमे।
दरबारे आम में।
सामने
बेचैन घावों की अजब तिरछी लकीरों से कटा
चेहरा
कि जिस पर काँप
दिल की भाफ उठती है…
पहने हथकड़ी वह एक ऊँचा कद,
समूचे जिस्म पर लत्तर,
झलकते लाल लम्बे दाग
बहते ख़ून के।
वह क़ैद कर लाया गया ईमान—
सुलतानी निगाहों में निगाहें डालता,
बेख़ौफ़ नीली बिजलियों को फेंकता
ख़ामोश!
सब ख़ामोश
मनसबदार,
शायर और सूफ़ी,
अलगज़ाली, इब्ने सिन्ना, अलबरूनी,
आलिमो फ़ाज़िल सिपहसालार, सब सरदार
हैं ख़ामोश!
नामंज़ूर,
उसको ज़िन्दगी को शर्म की-सी शर्त
नामंज़ूर,
हठ इन्कार का सिर तान— ख़ुद मुख़्तार।
कोई सोचता उस वक़्त –
छाये जा रहे हैं सल्तनत पर घने साये स्याह,
सुलतानी जिरहबख़्तर बना है सिर्फ़ मिट्टी का,
वो – रेत का सा ढेर – शाहंशाह,
शाही धाक का अब सिर्फ़ सन्नाटा!
(लेकिन, ना
ज़माना साँप का काटा)
भूल (आलमगीर)
मेरी आपकी कमज़ोरियों के स्याह
लोहे का जिरहबख़्तर पहन, ख़ूँखार
हाँ, खूँखार आलीजाह;
वो आँखें सचाई की निकाले डालता,
सब बस्तियाँ दिल की उजाड़े डालता,
करता, हमें वह घेर,
बेबुनियाद, बेसिर-पैर—
हर सब क़ैद हैं उसके चमकते ताम-झाम में,
शाही मुकाम में!
इतने में, हमीं में से
अजीब कराह-सा कोई निकल भागा,
भरे दरबारे आम में मैं भी
सँभल जागा!
कतारों में खड़े ख़ुदगर्ज़ बा-हथियार
बख़्तरबन्द समझौते
वहमकर रह गये;
दिल में अलग जबड़ा, अलग दाढ़ी लिये,
दुमुँहेपन के सौ तजुर्बो की बुज़ुर्गी से भरे,
दढ़ियल सिपहसालार संजीदा
सहमकर रह गये!
लेकिन, उधर उस ओर,
कोई, बुर्ज के उस तरफ जा पहुँचा,
अँधेरी घाटियों के गोल टीलों, घने पेड़ों में
कहीं पर खो गया,
महसूस होता है कि वह बेनाम
बेमालूम दर्रों के इलाक़े में
(सचाई के सुनहले तेज़ अक्सों के धुँधलके में)
मुहैया कर रहा लश्कर;
हमारी हार का बदला चुकाने आयेगा
संकल्प-धर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर,
हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर
प्रकट होकर विकट हो जायेगा!
(सम्भावित रचनाकाल 1963। राजनाँदगाँव। कल्पना, अप्रैल 1964, में प्रकाशित। ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ में संकलित)
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2014
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