भगतसिंह के जन्मदिवस (28 सितम्बर) के अवसर पर
भगतसिंह के लिए एक गद्यात्मक सम्बोध-गीति

कात्यायनी

bhagat-singh1संजीवनी पहचानने के बजाय पूरा पर्वत उठा लाना हमारी पुराण परम्परा है

और ऐसे देश में इतिहास से कुछ भी सीखने की कोशिश

एक जोखिम भरी यात्रा होती है।

इतिहासग्रस्त लोग कभी नहीं सीख पाते इतिहास से।

इतिहास-विच्छिन्न लोगों को समझना होता है जीवन और

सृजन और स्वप्नों और प्रयोगों की

आन्तरिक गतिकी को और अपने अतीत का पुनराविष्कार करना होता है।

‘इतिहास वर्तमान से अतीत का निरन्तर जारी संवाद है’ (ई.एच. कार)

यह एक बहुत पुराना देश है पुरातनता के नशे में जीता हुआ,

पर भीतर ही भीतर आधुनिकता

की चकाचौंध से सम्मोहित, विगत गौरव का मिथ्याभास है

जिसका जीवन-सम्बल।

यहाँ बहुत अधिक होती है जड़ों और स्मृतियों और इतिहास और परम्परा तक

जाने की बातें और यह द्रविण प्राणायाम बचाता है भारत के सुधीजनों को

इस शर्मिन्दगी भरे अहसास से कि वे भविष्य के साथ मुलाक़ात का वक्त

तय करने का काम टाल चुके हैं अनिश्चितकाल के लिए।

इतिहास यहाँ आँधी में उखड़े पेड़ की औंधी जड़ें हैं

या फिर पराजितमना लोगों का अन्तिम शरण्य,

या नियति से एक छलपूर्ण करार

या वहशी फासिस्ट जनसंहारकों और मानवमूल्य आखेटक

बर्बरों का शस्त्रगार।

एक ऐसी शताब्दी में, जब हत्या या लूट या नरसंहार या

इराक़ फ़िलिस्तीन आदि

वस्तुगत यथार्थ नहीं, महज़ पाठ है और भाषा है विचारों का कारागृह,

भारत की एक स्त्री, एक स्त्री कवि, सचमुच तुम्हे याद करना चाहती है भगतसिंह,

एक मशक्कती ज़िन्दगी की तमाम जद्दोजहद और

उम्मीदों और नाउम्मीदियों के बीच,

अपने अन्दर की गीली मिट्टी से आँसुओं, ख़ून और

पसीने के रसायनों को अलगाती हुई,

जन्मशताब्दी समारोहों के घृणित पाखण्डी अनुष्ठानों के बीच,

सम्बोध-गीति के अतिशय गद्यात्मक हो जाने का जोखिम उठाते हुए

लेकिन तर्कणा-निषेधी रोमानी भावुकता से यथासम्भव बचती हुई

और सबसे पहले, सबसे पहले, पूछना चाहती है

कविता की दुनिया से बहिष्कृत

शब्दों को निस्संकोच इस्तेमाल करते हुए यह सवाल कि

किस प्रकार, किस प्रकार

तेज़ की जाती है क्रान्ति की तलवार विचारों की सान पर,

किस तरह से विचार-जनसाधारण के व्यवहार में रूपान्तरित होकर

प्रचण्ड भौतिक शक्ति

बन जाते हैं और किस प्रकार दुनिया को बदलते हुए लोग

स्वयं को बदल लेते हैं।

इन सवालों को पूछने के लिए कविता के भीतर

तोड़नी पड़ रही है कविता की शर्तें

और मैं नहीं हूँ क्षमाप्रार्थी सांस्कृतिक दिग्पालों-देवों-गन्धर्वों-यक्षों के समक्ष

क्योंकि ये सवाल एक ऐसे समय में पूछे जा रहे हैं

क्षितिज पर प्रज्वलित एक मशाल से

जब वामपन्थी कविता ने सुगढ़ शलीनता के साथ सीख लिया है,

कुलीन कलावन्तों का

मन मोहने का हुनर और विचार राजकीय मान्यता प्राप्त

वेश्यालयों में प्रवेश दिलाने

वाले पारपत्र बन चुके हैं राजधानियों में।

इस देश में इस नयी सदी की पहली दहाई में पैदा होने वाले

शान्तिप्रिय लोग

सिर्फ़ ईश्वर को आवाज दे सकते हैं,

या हर रोज़ की दिनचर्या यूँ जीते हुए

पाये जा सकते हैं मानों किसी शवयात्रा में शामिल हों

या उदास घण्टियों के जुलूस में या फिर वे किसी एन.जी.ओ. या

सिविल सोसायटी संगठन में

शामिल होकर अपने सामाजिक सरोकारों-चिन्ताओं के हिसाब से कुछ करने,

लोगों का थोड़ा-सा दुःख हरने या इस कठिन समय में बिताते हुए

शापग्रस्त जीवन दूरगामी

बदलाव के लिए थोड़ी-सी जमीन तैयार करने के भ्रम में जीते हुए

बन जाते हैं हत्यारे हाथों के श्वेत-धवल दस्ताने।

और फिर भी मैं इस देश के तमाम व्यग्र-विद्रोही-अपराजित

पथान्वेषी आत्माओं की ओर से

तुमसे बात करना चाहती हूँ भगतसिंह, क्योंकि तुम यहीं जन्मे थे

और उन कारणों को समझा था,

जिनके चलते एक अभागे गुलाम देश को

प्यार किया जा सकता है वास्तव में और

उसके भविष्य के लिए सहर्ष-सगर्व

अपने जीवन, अपने निजी सपनों और

आकांक्षाओं को होम किया जा सकता है।

एक शताब्दी पहले एक गुलाम देश में जन्म लेकर

तुमने इससे बेइन्तहा प्यार किया,

इस अनूठे देश के स्वप्नों-सम्भावनाओं में विश्वास किया अटूट।

तुमसे बात करना चाहती हूँ मैं, क्योंकि मैं भी मानती हूँ

यह असम्भव-सी लगती बात

कि राख के अम्बार के भीतर अभी भी गर्म होगा

इस पुरातन देश का युवा हृदय

और जिन उजरती गुलामों की हड्डियों का चूरा बनाया जाता है

बाज़ार में बेचे जाने के लिए, उनके लिए मुक्ति के बारे में

सोचना अब भी महज़

एक सम्भावना नहीं, बल्कि एक थरथराता हुआ, निरुपाय,

विवश यथार्थ है

और जीवित रहने की एक शर्त।

उनके लिए यह एक ऐसी क्रिया नहीं है जिसका उल्लेख-मात्र

आज के वामपन्थी कवियों की

कविता को या तो बासी बना देता है या फिर महज़ राजनीतिक बयानबाजी

ऐसे लोग हैं, भगतसिंह, अब भी इस देश में जो अपने जीवित

उष्ण हृदय के साथ

और सक्रिय विवेक के साथ तुम्हारी भावनाओं और

तुम्हारे विचारों तक पहुँचना चाहते हैं,

तुमसे संवाद करना चाहते हैं क्योंकि भूमण्डलीकरण की

इस शताब्दी में भी

वे इस देश को प्यार करते हैं एक ख़ास चौहद्दी वाले

भूभाग के रूप में नहीं

और न ही उन लोगों की तरह जिनका राष्ट्रवाद मण्डी में जन्मा है,

उनकी तरह भी नहीं जो देश को किसी नस्ल या धर्म से जोड़ते और

‘सारे जहाँ से अच्छा’ घोषित करते हैं।

वे इस देश को प्यार करते हैं तो यहाँ के उन लोगों को प्यार करते हैं

जिन्होंने इस देश को बनाया है, इसे प्यार, सौन्दर्य और कल्पना के स्थापत्य में

ढाला है अपना हुनर और अपनी कल्पनाशील सर्जना के द्वारा

और जिन्हें छला गया है और लूटा गया है

और जिसके स्वप्न अपहृत करके

निर्यात कर दिये गये हैं रहस्यमय, अज्ञात, बर्बर महादेशों को

और जिनसे छीनकर उनकी स्मृतियाँ, दे दिये गये हैं कुछ मिथ्याभास

और फिर भविष्य-स्वप्नों की जगह रखकर स्मृतियों को,

उन्हें ही बना दिया गया है निर्विकल्प अन्तिम शरण्य।

 

 

भगतसिंह! मार्क्स-एंगेल्स, लेनिन और माओ से सीखते हुए

हमारी पीढ़ी के अपराजितों ने ही वास्तव में

किया तुम्हारा पुनरान्वेषण और तुम्हारी स्मृति से प्रेरणा और

विचारों से दिशा लेकर

भविष्य की कविता लिखने की कोशिशों में जुटे,

जो अधकचरी-अधबनी रही

हर नये कवि के आरम्भिक कृतित्व की तरह।

अब उसे पीछे छोड़ जब हम फिर ढूँढ़ रहे हैं भविष्य की कविता

के लिए अधिक सम्पदा का कच्चा माल

और भाषा और शिल्प, तो एक बार फिर नये सिरे से तुमसे

संवाद क़ायम करना चाहते हैं

जिसने बताया था कि लंगर छिछले पानी में नहीं डाला करते

महासमुद्रों के खोजी यात्री।

अब भी मैं शामिल हूँ उन लोगों में जिनका यह दृढ़ विश्वास है

कि इस विस्तीर्ण हिमनद जैसे देश-काल में भी मौजूद है

बेचैन आत्मा और गर्म हृदय वाले

ऐसे युवा जो भाषाई तिलिस्मों से बाहर आकर नयी सच्चाइयों की

पड़ताल के लिए तत्पर हैं, जो न पुरानी क्रान्तियों के परिधान पहनकर

नया नाटक मंचित करना चाहते हैं, न ही अतीत की विफलताओं,

पराजयों, विश्वासघातों से

उद्विग्न होकर, आतंक के सहारे सत्ता ध्वंस करने का

मुगालता पालते हैं,

जो अभी भी तुम्हारी सलाह मान फ़ैक्टरियों और

खेतों के मेहनतकशों तक जाना चाहते हैं

संघर्ष और सृजन की नयी परियोजनाओं के साथ और

जीने के तरीक़े को बदलना ही जिनके जीने का तरीक़ा है।

मात्सिनी की जो पंक्तियाँ तुम्हें प्रिय थीं,

उसी तरह सोचने का समय है यह

कि मत करो प्रतीक्षा किसी नायक की, आम लोग बनाते हैं एक नयी दुनिया

और फिर इतिहास चुनता है अग्रणी सेनाओं में से कुछ नाम

जो प्रतीक चिन्ह बन जाते हैं।

ब्रेष्ट की ही तरह ही सोचा तुमने भी कि अभागा वह देश नहीं होता

जिसका कोई नायक नहीं होता,

बल्कि वह होता है जो नायक की प्रतीक्षा करता है

और आज भी जो सोचते है इस तरह, वही इस देश के आम लोगों को प्यार करते हैं

इसके भविष्य में विश्वास रखते हैं

और विचारों को दफन करके मूर्तियाँ लगाने के बजाय तुमसे

संवाद करना चाहते हैं।

इसलिए भगतसिंह, जितनी कुल उम्र जिये थे तुम,

उसके आस-पास खड़े लोगों से कह दो यह बात दो-टूक कि

लूट और दमन द्वारा नहीं, युद्ध और बमवर्षा द्वारा नहीं,

सौम्य शान्ति, अपार सहनशीलता, सुभाषितों-आप्तवचनों,

गड़रिये जैसे सहज विश्वास,

समझौतों, वायदों और आश्वासनों के हाथों तबाह हुआ है यह देश।

हमारी आत्माओं में रिस रहा है यह अहसास बूँद-बूँद रक्त की तरह

कि जिस युद्ध के जारी रहने की तुमने भविष्यवाणी की थी,

उसके प्रति सजग नहीं रहे

हमारे अग्रज और ठगे गये, पराजित हुए या विपथगामी बने।

एक बार फिर कान देना होगा उस आवाज पर जो आ रही है

पूर्वजों के अरण्य से, पचहत्तर वर्षों से भी अधिक लम्बे अन्तराल को पारकर

और हमें सहसा याद आती है वाल्ट ह्निटमैन की वे पंक्तियाँ जो दर्ज

की थी तुमने अपनी जेल नोटबुक में:

दफन न होते आज़ादी पर मरने वाले

पैदा करते हैं मुक्ति बीज, फिर और बीज पैदा करने को

जिसे ले जाती दूर हवा और फिर बोती है और जिसे

पोषित करते है वर्षाजल और हिम।

देह मुक्त जो हुई आत्मा उसे न कर सके विच्छिन्न

अस्त्र-शस्त्र अत्याचारी के

बल्कि हो अजेय रमती धरती पर, मरमर करती,

बतियाती, चौकस करती।

 

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वहाँ अपने प्रवास के दिनों में मैने जो कुछ देखा, उसके लिए मैं

तैयार नहीं था। उस अपरिचित महाद्वीप की भावना ने हालाँकि मुझे

अभिभूत कर दिया लेकिन वहाँ मेरी ज़िन्दगी इतनी लम्बी और अकेली

थी कि मैं भयंकर निराशा में रहा। कभी ऐसा लगता जैसे मैं किसी

अन्तहीन रंग-बिरंगी तस्वीर में फँस गया हूँ: एक अदभुत फ़िल्म

में, जहाँ से बाहर नहीं आया जा सकता। भारत में मुझे कभी उस

रहस्यमयता का अनुभव नहीं हुआ जिसने कितने ही दक्षिण

अमेरिकियों और दूसरे विदेशियों को राह दिखायी है। जो लोग अपनी

चिन्ताओं के किसी धार्मिक समाधान की खोज में भारत जाते हैं वे

चीजों को और ही तरह से देखते हैं। जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, मुझ

पर समाजशास्त्रीय परिस्थितियों का गहरा असर हुआ – विशाल

निश्शस्त्र राष्ट्र, बेहद सुरक्षाहीन, अपने शाही जुवे में जकड़ा हुआ।

यहाँ तक कि अंग्रेजी संस्कृति भी, जिससे मुझे ख़ासा अनुराग था,

वहाँ घिनौनी लगी, क्योंकि उसने उस समय के कितने ही हिन्दुओं

को बौद्धिक गुलामी के लिए विवश कर दिया था।

(पाब्लो नेरूदा: एक साक्षात्कार में भारत प्रवास के बारे में)

 

आज भी निश्शस्त्र है इस विशाल देश की एक अरब आबादी

परिवर्तन की दिशा की समझ, भविष्य स्वप्नों और

सेनानियों की हरावल पंक्ति के बिना,

भाषा जितनी पंगु है और विचार मानसिक उपनिवेश के शिकार,

विकास-दर के शाही जुए में जकड़े हुए बौद्धिक जहाँ

महाशक्ति बनने की मृग-मरीचिका के पीछे भाग रहे हैं

और चौरासी करोड़ लोगों का जीवन जहाँ मृतकों के कारागार में

घुट रहा है,

जहाँ सुरक्षित भविष्य वाले युवा पीले बीमार चेहरों को

गर्व से दिखला रहे हैं

अपनी आत्मा यह बताते हुए कि यह इम्पोर्टेड है

और संचार के नये माध्यमों के सहारे अपना वर्चस्व मजबूत बना रही हैं

पुरानी बेवक़ूफ़ियाँ तर्कणा को चाटती हुई टिड्डी दलों की तरह।

कविता की दुनिया में भयंकर संकट पर गहन विचार-विमर्श कर रहे हैं

दुर्दान्त विद्वत्जन इण्डिया इण्टरनेशनल सेण्टर में जारी संगोष्ठी में

और नन्दीग्राम में सत्ता का ताण्डव और नंन्दन में

फ़िल्म समारोह चल रहा है।

दुनिया के सबसे धनी सौ लोगों में शामिल हो चुके हैं

इस देश के कई धनी

और दुनिया की सबसे सुन्दर स्त्रियों में इस देश की कई स्त्रियाँ।

जी.डी.पी. की विकास दर में यह देश ऊपर से दूसरे नम्बर पर है,

इसलिए राष्ट्रीय गौरव के साथ जीने का आदेश दे दिया गया है

बीस रुपया रोज़ाना की कमाई पर जीने वाले चौरासी करोड़ लोगों को

बीस करोड़ बेरोज़गारों को और छब्बीस करोड़

आधा पेट खाने वाले लोगों को।

निर्देश है कि स्त्रियों को जलाये जाने से पहले, किसानों को

आत्महत्या करने के पहले, गाँव के ग़रीबों, बाँध क्षेत्रों के विस्थापितों

और जंगल-पहाड के लोगों को दर-बदर होने से पहले

और शहर के फुटपाथों पर सो रहे लोगों को कुचल दिये जाने से पहले

कम-से-कम एक बार राष्ट्रीय गौरव का स्वाद चखना होगा

और संविधान, न्यायपालिका और तिरंगे की अवमानना

किसी भी हालत में नहीं करनी होगी

और नित्यप्रति रामदेव का प्रवचन सुनना होगा और प्राणायाम करना होगा

संविधान, जिसे इस देश के पन्द्रह प्रतिशत महामहिमों के प्रतिनिधियों ने

पारित किया था सत्तावन वर्षों पहले दुनिया के सबसे पवित्र-पावन

सम्पत्ति के अधिकार की सुरक्षा की गारण्टी के साथ

और न्यायपालिका जिसे घुसाती रही उजरती गुलामों के

दिमाग़ों में हथौड़े मार-मारकर।

तिरंगा, जिसे मेजों पर गाड़कर दुनिया के सबसे व्यभिचारी

और अत्याचारी समझौते किये जाते रहे।

अगर भूगोल की चौहद्दियों से अलग एक देश की परिभाषा में

कहीं शामिल है ज़िन्दगी की बुनियादी ज़रूरत की चीजें

उपजाने-बनाने वाले लोग भी

तो सचमुच यह देश आज कितना अरक्षित है और किस कदर जकड़ा है

प्रगति और गौरव के आत्मसम्मोहनकारी मिथ्याभासों में।

 

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जब गतिरोध की स्थिति लोगों को अपने शिकंजे में जकड़ लेती है

तो किसी भी प्रकार की तब्दीली से वे हिचकिचाते हैं। इस जड़ता और

निष्क्रियता को तोड़ने के लिए एक क्रान्तिकारी स्पिरिट पैदा करने की

ज़रूरत होती है, अन्यथा पतन और बरबादी का वातावरण छा जाता

है। लोगों को गुमराह करने वाली प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ जनता को

ग़लत रास्ते पर ले जाने में सफल हो जाती है। इससे इंसान की

प्रगति रुक जाती है और उसमें गतिरोध आ जाता है। इस परिस्थिति

को बदलने के लिए यह ज़रूरी है कि क्रान्ति की स्पिरिट ताजा की

जाये, ताकि इंसानियत की रूह में हरकत पैदा हो। (भगतसिंह)

 

सबसे ख़तरनाक वह गतिरोध होता है जो गतिमानता का आभास देता है।

सबसे कठिन तब होती है एक नयी शुरुआत जब सुधी कलावन्त

जीवन की असह्य यन्त्रणाओं से गढ़ते हैं अत्यन्त सुन्दर काव्य-रूपक और बिम्ब

और विज्ञजन उनका विश्लेषण करते हैं और सत्ता

उन्हें पुरस्कृत करती है।

सबसे दुष्कर उस भ्रम को तोड़ना होता है जो आम लोगों को सुखी लोगों के

सपने दिखाता है और बीच में खड़े लोगों को

ऊपर के लोगों के साथ तदनुभूति के पाठ पढ़ाता है।

सबसे ख़तरनाक वह अँधेरा होता है जो कालिख की तरह

स्मृतियों पर छा जाता है

और इतिहास की मान्य पहचानों के बारे में विभ्रम पैदा कर देता है।

सबसे ख़तरनाक वह हमला होता है जब हमलावर

कहीं बाहर से नहीं आये होते हैं

बल्कि हमारे बीच से ही गिरोहबन्दी होती है सर्वाधिक मानवद्रोही आत्मा

और अपने आसपास की अल्पसंख्यक आबादी को ‘अन्य’ और

बाहरी घोषित कर देती है,

उनकी बस्तियों को जलाकर राख कर देती हैं

और बलात्कार और नरसंहार का ताण्डव रचती हैं

और इन सबके विरोध में राजधानी की किसी सुरक्षित रौशन सड़क पर

सिर्फ़ कुछ मोमबत्तियाँ जलाई जाती हैं।

अँधेरा तब सबसे अधिक गहरा होता है

किसी आतताई आक्रान्ता की तरह

हमारे मानवीय विवेक को रौंदता-कुचलता, क्षत-विक्षत करता हुआ।

लेकिन यही अँधेरा हमें उकसाता भी है,

चुनौती देता है, ललकारता है

कि क्रान्ति की स्पिरिट पैदा की जाये इंसानियत की रूह में

हरकत पैदा करने के लिए

और तब, भगतसिंह, बेहद ईमानदारी, बेचैनी और शिद्दत के साथ

हम तुम्हें याद करते हैं और गहन जिजिविषा और

युयुत्सा के साथ

सोचते हैं अपने समय के बारे में ठीक उसी तरह

जैसा लेनिन की एकमात्र कविता की ये पंक्तियाँ बताती हैं

प्रतिक्रिया के अँधेरे समय के बारे में:

 

पैरों से रौंदे गये आज़ादी के फूल

आज नष्ट हो गये हैं

अँधेरे के स्वामी

रौशनी की दुनिया का खौफ देख खुश हैं

मगर उस फूल के फल ने

पनाह ली है जन्म देने वाली मिट्टी में,

माँ के गर्भ में,

आँखों से ओझल गहरे रहस्य में

विचित्र उस कण ने अपने को जिला रखा है

मिट्टी उसे ताक़त देगी, मिट्टी उसे गर्मी देगी

उगेगा वह एक नया जन्म लेकर

एक नयी आज़ादी का बीज वह लायेगा

फाड़ डालेगा बर्फ़ की चादर वह विशाल वृक्ष

लाल पत्तों को फैलाकर वह उठेगा

दुनिया को रौशन करेगा

सारी दुनिया को, जनता को

अपनी छाँह में इकट्ठा करेगा।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्‍त 2014

 

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