यह आर्तनाद नहीं, एक धधकती हुई पुकार है!
लखनऊ के मोहनलालगंज में 17 जुलाई को एक और युवती भूखे भेड़ियों का शिकार बन गयी। दिल्ली में 16 दिसम्बर 2012 जैसी बर्बरता एक बार फिर दोहरायी गयी। स्त्रियों के विरुद्ध दरिन्दगी की बढ़ती घटनाओं और इसके बावजूद समाज में छायी चुप्पी और ठण्डेपन पर प्रसिद्ध कवियत्री और सामाजिक कार्यकर्ता कात्यायनी ने यह कविता मोहनलालगंज की घटना की ख़बर आने पर लिखी थी। यह पहले ‘मज़दूर बिगुल’ अख़बार में भी प्रकाशित हो चुकी है। – सम्पादक
जागो मृतात्माओ!
बर्बर कभी भी तुम्हारे दरवाज़े पर दस्तक दे सकते हैं।
कायरो! सावधान!!
भागकर अपने घर पहुँचो और देखो
तुम्हारी बेटी कॉलेज से लौट तो आयी है सलामत,
बीवी घर में महफूज़ तो है।
बहन के घर फ़ोन लगाकर उसकी भी खोज-ख़बर ले लो!
कहीं कोई औरत कम तो नहीं हो गयी है
तुम्हारे घर और कुनबे की?
मोहनलालगंज, लखनऊ के निर्जन स्कूल में जिस युवती को
शिकारियों ने निर्वस्त्र दौड़ा-दौड़ाकर मारा 17 जुलाई को,
उसके जिस्म को तार-तार किया
और वह जूझती रही, जूझती रही, जूझती रही—
—अकेले, अन्तिम साँस तक
और मदद को आवाज़ भी देती रही
पर कोई नहीं आया मुर्दों की उस बस्ती से
जो दो सौ मीटर की दूरी पर थी।
उस स्त्री के क्षत-विक्षत निर्वस्त्र शव की शिनाख़्त नहीं हो सकी है।
पर कायरो! निश्चिन्त होकर बैठो
और पालथी मारकर चाय-पकौड़ी खाओ
क्योंकि तुम्हारे घरों की स्त्रियाँ सलामत हैं।
कुछ किस्से गढ़ो, कुछ कल्पना करो, बेशर्मो !
कल दफ्तर में इस घटना को एकदम नये ढंग से पेश करने के लिए।
बर्बर हमेशा कायरों के बीच रहते हैं।
हर कायर के भीतर अक्सर एक बर्बर छिपा बैठा होता है।
चुप्पी भी उतनी ही बेरहम होती है
जितनी गोद-गोदकर, जिस्म में तलवार या रॉड भोंककर
की जाने वाली हत्या।
हत्या और बलात्कार के दर्शक,
स्त्री आखेट के तमाशाई
दुनिया के सबसे रुग्ण मानस लोगों में से एक होते हैं।
16 दिसम्बर 2012 को चुप रहे
उन्हें 17 जुलाई 2014 का इन्तज़ार था
और इसके बीच के काले अँधेरे दिनों में भी
ऐसा ही बहुत कुछ घटता रहा।
कह दो मुलायम सिंह कि ‘लड़कों से तो ग़लती हो ही जाती है,
इस बार कुछ बड़ी ग़लती हो गयी।’
धर्मध्वजाधारी कूपमण्डूको, भाजपाई फासिस्टो,
विहिप, श्रीराम सेने के गुण्डो, नागपुर के हाफ़पैण्टियो,
डाँटो-फटकारो औरतों को
दौड़ाओ डण्डे लेकर
कि क्यों वे इतनी आज़ादी दिखलाती हैं सड़कों पर
कि मर्द जात को मजबूर हो जाना पड़ता है
जंगली कुत्ता और भेड़िया बन जाने के लिए।
मुल्लाओ! कुछ और फ़तवे जारी करो
औरतों को बाड़े में बन्द करने के लिए,
शरिया क़ानून लागू कर दो,
“नये ख़लीफ़ा” अल बगदादी का फ़रमान भी ले आओ,
जल्दी करो, नहीं तो हर औरत
लल द्यद बन जायेगी या तस्लीमा नसरीन की मुरीद हो जायेगी।
बहुत सारी औरतें बिगड़ चुकी हैं
इन्हें संगसार करना है, चमड़ी उधेड़ देनी है इनकी,
ज़िन्दा दफ़न कर देना है
त्रिशूल, तलवार, नैजे, खंजर तेज़ कर लो,
कोड़े उठा लो, बागों में पेड़ों की डालियों से फाँसी के फँदे लटका दो,
तुम्हारी कामाग्नि और प्रतिशोध को एक साथ भड़काती
कितनी सारी, कितनी सारी, मगरूर, बेशर्म औरतें
सड़कों पर निकल आयी हैं बेपर्दा, बदनदिखाऊ कपड़े पहने,
हँसती-खिलखिलाती, नज़रें मिलाकर बात करती,
अपनी ख़्वाहिशें बयान करती!
तुम्हें इस सभ्यता को बचाना है
तमाम बेशर्म-बेग़ैरत-आज़ादख़्याल औरतों को सबक़ सिखाना है।
हर 16 दिसम्बर, हर 17 जुलाई
देवताओं का कोप है
ख़ुदा का कहर है
बर्बर बलात्कारी हत्यारे हैं देवदूत
जो आज़ाद होने का पाप कर रही औरतों को
सज़ाएँ दे रहे हैं इसी धरती पर
और नर्क से भी भयंकर यन्त्रणा के नये-नये तरीके आज़माकर
देवताओं को ख़ुश कर रहे हैं।
बहनो! साथियो!!
डरना और दुबकना नहीं है किसी भी बर्बरता के आगे।
बकने दो मुलायम सिंह, बाबूलाल गौर और तमाम ऐसे
मानवद्रोहियों को, जो उसी पूँजी की सत्ता के
राजनीतिक चाकर हैं, जिसकी रुग्ण-बीमार संस्कृति
के बजबजाते गटर में बसते हैं वे सूअर
जो स्त्री को मात्र एक शरीर के रूप में देखते हैं।
इसी पूँजी के सामाजिक भीटों बाँबियों-झाड़ियों में
वे भेड़िये और लकड़बग्घे पलते हैं
जो पहले रात को, लेकिन अब दिन-दहाड़े
हमें अपना शिकार बनाते हैं।
क़ानून-व्यवस्था को चाक-चौबन्द करने से भला क्या होगा
जब खाकी वर्दी में भी भेड़िये घूमते हों
और लकड़बग्घे तरह-तरह की टोपियाँ पहनकर
संसद में बैठे हों?
मोमबत्तियाँ जलाने और सोग मनाने से भी कुछ नहीं होगा।
अपने हृदय की गहराइयों में धधकती आग को
ज्वालामुखी के लावे की तरह सड़कों पर बहने देना होगा।
निर्बन्ध कर देना होगा विद्रोह के प्रबल वेगवाही ज्वार को।
मुट्ठियाँ ताने एक साथ, हथौड़े और मूसल लिए हाथों में निकलना होगा
16 दिसम्बर और 17 जुलाई के ख़ून जिन जबड़ों पर दीखें,
उन पर सड़क पर ही फैसला सुनाकर
सड़क पर ही उसे तामील कर देना होगा।
बहनो! साथियो!!
मुट्ठियाँ तानकर अपनी आज़ादी और अधिकारों का
घोषणापत्र एक बार फिर जारी करो,
धर्मध्वजाधारी प्रेतों और पूँजी के पाण्डुर पिशाचों के खि़लाफ़।
मृत परम्पराओं की सड़ी-गली बास मारती लाशों के
अन्तिम संस्कार की घोषणा कर दो।
चुनौती दो ताकि बौखलाये बर्बर बाहर आयें खुले में।
जो शिकार करते थे, उनका शिकार करना होगा।
बहनो! साथियो!!
बस्तियों-मोहल्लों में चौकसी दस्ते बनाओ!
धावा मारो नशे और अपराध के अड्डों पर!
घेर लो स्त्री-विरोधी बकवास करने वाले नेताओं-धर्मगुरुओं को सड़कों पर
अपराधियों को लोक पंचायत बुलाकर दण्डित करो!
अगर तुम्हे बर्बर मर्दवाद का शिकार होने से बचना है
और बचाना है अपनी बच्चियों को
तो यही एक राह है, और कुछ नहीं, कोई भी नहीं।
बहनो! साथियो!!
सभी मर्द नहीं हैं मर्दवादी।
जिनके पास वास्तव में सपना है समतामूलक समाज का
वे स्त्रियों को मानते हैं बराबर का साथी,
जीवन और युद्ध में।
वे हमारे साथ होंगे हमारी बग़ावत में, यकीन करो!
श्रम-आखेटक समाज ही स्त्री आखेट का खेल रचता है।
हमारी मुक्ति की लड़ाई है उस पूँजीवादी बर्बरता से
मुक्ति की लड़ाई की ही कड़ी,
जो निचुड़ी हुई हड्डियों की बुनियाद पर खड़ा है।
इसलिए बहनो! साथियो!!
कड़ी से कड़ी जोड़ो! मुट्ठियों से मुट्ठियाँ!
सपनों से सपने! संकल्पों से संकल्प!
दस्तों से दस्ते!
और आगे बढ़ो बर्बरों के अड्डों की ओर!
18 जुलाई 2014
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2014
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