सोप ऑपेरा या तुच्छता और कूपमण्डूकता के अपरिमित भण्डार

अविनाश 

मौजूदा समाज की बुनियादी सामाजिक इकाई परिवार है। शहरों में मौजूद सामाजिक अलगाव के चलते आम तौर पर परिवार सिर्फ़ अपने में ही सिमटे रहते हैं। तमाम सामाजिक कार्यक्रमों, सांस्कृतिक कार्यवाहियों की जगहें व सामाजिक मेल-मिलाप का समय भी घटता जा रहा है। संस्कृति की बड़ी खुराक टेलीविजन बन गया है। घरों में टीवी ने सामाजिक रूप से समाज के बढ़ते विभाजन को और मजबूत बनाया। केबल चैनल के विस्तार के साथ यह और अधिक बढ़ता चला गया। ख़ुद एक परिवार में बच्चों, महिलाओं और पुरुषों के टीवी देखने का समय भी अलग होता है। शाम के समय टेलीवजन की स्क्रीन महिलाओं की होती है। ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’, ‘कसौटी ज़िन्दगी की’, ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’, ‘दिया और बाती’ आदि कार्यक्रम काफ़ी प्रचलित हैं और इनकी बड़ी दर्शक आबादी महिला है। इन कार्यक्रमों के प्रदर्शन मैराथन होते हैं। कई सीरियल तो 1500 एपिसोड तक प्रदर्शित हो चुके हैं! मतलब ये कार्यक्रम लम्बे समय तक दर्शकों से अपना सम्बन्ध बनाये रखते हैं। क्यों? क्या ये कार्यक्रम मौजूदा समाज का चित्रण हैं? निश्चित रूप से यह समाज का ही चित्रण है। परन्तु यहाँ जो बात बेहद ज़रूरी है वह यह कि इसका दृष्टिकोण क्या है? कलात्मक चित्रण निष्पक्ष नहीं हो सकता है। जिस प्रकार भौतिकी के सापेक्षिकता सिद्धान्त के अनुसार कोई भी ‘निष्पक्ष प्रेक्षक’ नहीं होता है। यहाँ सापेक्ष प्रेक्षकों का प्रेक्षण उनके बीच की गति द्वारा तय होता है। इसी प्रकार कलात्मक चित्रण भी सापेक्षिक होते हैं। यह सापेक्षिकता सामाजिक वर्गों के बीच होती है। हर कलात्मक चित्रण वर्ग दृष्टिकोण से युक्त होता है। इन कार्यक्रमों का चित्रण शासक वर्गों के हिसाब से किया जाता है। ये कार्यक्रम व मीडिया ही आमतौर पर पूँजीवाद के उत्पादन सम्बन्धों के लिए वैधीकरण का पुनरुत्पादन करती है। सोप ऑपेरा, डेली सोप में इस दृष्टिकोण को सबसे आसानी से देखा जा सकता है। हमारे देश में जितने भी सोप ऑपेरा प्रदर्शित हुए हैं, उनका यही मकसद था। चाहे वह दूरदर्शन पर प्रस्तुत कार्यक्रम हों या उदारीकरण-निजीकरण के बाद से प्रदर्शित किये जाने वाले केबल टेलीविज़न के कार्यक्रम हों। मर्डोक का स्टार टीवी इसमें सबसे आगे है। भारत में इन कार्यक्रमों की प्रस्तुति का श्री गणेश दूरदर्शन पर प्रदर्शित कार्यक्रम ‘हम लोग’ से होता है। ‘हम लोग’, ‘बुनियाद’, ‘नुक्कड़’, ‘नीम का पेड़’ आदि कार्यक्रम भारत के आम मध्य वर्ग के आर्थिक बोझ के कारण पैदा हो रही समस्याओं को शान्ति, संयुक्त परिवार और तमाम उपदेशों की झड़ी लगाकर सुलझा रहे थे। इस समय इन कार्यकर्मों में कैमरा निम्न मध्य वर्ग, गाँव की समस्याओं को दिखता था। भारत का ‘मुंगेरीलाल’-रूपी मध्यवर्ग जिन चीज़ों के हसीन सपने देखता वो ‘शान्ति’, ‘जूनून’ और ‘स्वाभिमान’ में सच होने लगे थे। उदारीकरण-निजीकरण के बाद बने कार्यक्रम पूँजीवादी घरानों, व उच्च मध्यवर्ग की ज़िन्दगी को उठाना शुरू कर रहे थे। घरों में टँगी माता की तस्वीर की जगह अब घरों में पूरा मन्दिर आ गया था। यहाँ से विकसित होते हुए और केबल टीवी के व्यापक फैलाव के साथ कई किस्म के कार्यक्रम आये और अब कैमरा बड़े-बड़े घरानों और उच्च मध्य वर्ग के घरों को प्रस्तुत कर रहा था और आज जिस जगह मौजूदा सोप ओपेरा खड़ा है, उसने घरों में महिलाओं और उनके जश्नों, शादियों, उत्सवों और निराशाओं का जश्न मनाना शुरू किया। धर्म और जादू-टोने का मीठा-मीठा ज़हर रामायण, महाभारत, श्री कृष्णा, अलिफ़ लैला, चन्द्रकान्ता जैसे कार्यक्रमों में प्रसारित हो रहा था तो स्टार वार्स, कैप्टन अमेरिका, शज़ैम आदि की कॉपी आर्यमान व कैप्टन व्योम को भी प्रसारित किया जा रहा था।

हम अपने इस लेख में मौजूदा धारावाहिकों की अन्तर्वस्तु पर बात करेंगे व इनके मौजूदा सामाजिक यथार्थ पर बात करेंगे। आज केबल टीवी, सेटेलाइट, डायरेक्ट टू होम टीवी का युग है।

1991 की निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों के बाद भारत जल्द ही 24 घण्टे चलने वाले चैनलों का गढ़ बन गया। जहाँ 1995 तक सिर्फ़ एक चैनल दूरदर्शन था। 1995-2007 के बीच 300 से ज़्यादा सैटेलाइट चैनल आ गये। मौजूदा समय में 60 करोड़ दर्शक, 14.6 करोड़ घरों में टीवी पर करीब 800 चैनल देखते हैं। यह मार्केट विश्व का तीसरा सबसे बड़ा मार्केट है (यूएसए और चीन के बाद)। अगर इस मार्केट को ग़ौर से देखें तो पता चलेगा इसका बहुत बड़ा हिस्सा यहाँ के सामान्य मनोरंजक हिन्दी चैनल हैं (मार्केट शेयर का 27.4 प्रतिशत, 2009) जो अपनी कमाई और दर्शकों को बढ़ाने के लिए रोज़ प्रसारित होने वाले धारावाहिकों पर निर्भर करते हैं।

wallpaper_Serials_Jhilmil-Si_1362377654जहाँ उदारीकरण की नीतियों के लागू होने से पहले कार्यक्रमों में मुख्यतः एक निम्न मध्य वर्ग की रोज़ की ज़िन्दगी की जद्दोजहद आती थ अब यहाँ पर उच्च मध्य वर्ग और पूँजीपति घरानों की ज़िन्दगी का प्रस्तुतिकरण शुरू हो गया है। इसके साथ ही यह समाज की सारी कुरीतियों और कूड़े-कबाड़े को भी प्रस्तुत करने लगा है। व्यभिचार और नाजायज़ औलादें आजकल के कार्यक्रमों की एक आम थीम है। इसके बाद भी भारतीय संस्कृति की महानता को सिद्ध करने के लिए स्त्री को ज़िन्दगीभर पतिव्रता और बच्चों की पालनकर्ता के रूप में दिखाया गया है। अगर कहीं महिला स्वतन्त्र होकर रहती भी है तो वह किसी पुरुष को साबित करके दिखाने के लिए और ‘पवित्र बन्धन’, ‘विवाह’ तथा ‘हिन्दू संस्कृति’ की सबसे बड़ी रक्षक के रूप में स्थापित होती है। दूसरी ओर  ‘वैम्प’ के चरित्र का भी निर्माण हुआ है जो ‘कोमोलिका’, ‘रमोला’, ‘मीना’ जैसा चरित्र होता है और जो इतनी बुरी होती है कि शैतान को भी शर्म आ जाये। दरअसल यह उस महिला का चित्रण होता है जो अपने पति-परमेश्वर, सास की सेवा न कर स्वतन्त्र खड़ी होती है। ‘बाला जी’ की एकता कपूर ने महँगे सेट, साड़ियों और तमाम साज-सज्जा से बाज़ार को काफ़ी फ़ायदा कराया है। इनके कार्यक्रम विज्ञापन ज़्यादा लगते हैं। धारावाहिकों में होता क्या है? पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुज़रती जाती है, एक-दो चरित्र प्लास्टिक सर्जरी कराते हैं, बलात्कार, ख़ून और व्यभिचार, नाजायज़ औलादें, सम्पत्तियों का घपला इन कार्यक्रमों में रोमांच भरने का काम करता है। इसीलिए ही कैमरे के साथ सोप ऑपेरा के डायरेक्टर एक ही डायलॉग तीन-चार बार दोहराते हैं और छोटी-छोटी बातों पर चेहरों पर अनोखे भाव लाये जाते हैं। इसे मेलोड्रामा न कहकर फ़ूहड़ ड्रामा कहें तो ज़्यादा बेहतर होगा। ये कार्यक्रम समाज का ऐसा दायरा चुनते हैं, जिसमें इस तरह के छिछले अतिरेक घुसाने ही पड़ते हैं। और जहाँ इन कार्यक्रमों में आम घरों की तस्वीरों को दिखाया जाता है तो वह एक टूर होता है, एक उदारवादी टूर। चरित्र अगर ग़रीब हो भी जाये तो लगातार अपने प्यार की बात करते हुए भी क़िस्मत द्वारा और अपनी मेहनत द्वारा वापस बड़े घराने बन ही जाते हैं। इन कार्यक्रमों ने धार्मिक अन्धविश्वास का ग़ज़ब जश्न पैदा कराया है। दिल्ली में अब हर वे त्यौहार मनाये जाने लगे हैं, जिनका कि यहाँ की संस्कृति से ताल्लुक नहीं है। गुजराती मध्य वर्गीय संस्कृति, बंगाली संस्कृति के मध्य वर्गीय कर्मकाण्डों का जश्न मनाया जाता है। शादी तो इन कार्यक्रमों की ख़ुशी की पराकाष्ठा होती है।

 हम कुछ कार्यक्रमों की संक्षिप्त व्याख्या करेंगे जिससे ऊपर पेश की गयी व्याख्या और साफ़ हो सके।

19C_balika-vadhu‘बालिका वधू’ देखें तो, आनन्दी जिसकी शादी महज़ आठ साल की उम्र में हो जाती है, वह अपने जीवन के अलग-अलग पड़ावों में दुःख झेलती है। पहले बालिका वधू का शिक्षा के लिए लड़ना, जवानी में तलाक, आज़ाद महिला के रूप में खड़ा होना, फिर प्रेम होना और शादी कर फिर से पतिव्रता बन जाना। इसी कार्यक्रम में गंगा एक और मुख्य किरदार है जिसके साथ भी पति द्वारा अत्याचार, मारना-पीटना, घर में बन्द करना, बच्चे का छीना जाना, तलाक, प्रेम का होना और अन्त में वही पतिव्रता स्त्री बन जाना। यह धारावाहिक आनन्दी और गंगा जैसे किरदारों के सहारे सामन्ती समाज की बुराइयाँ जैसे छूत-अछूत, भ्रूण हत्या आदि दिखाता है और अन्त में उनकी मुक्ति एक अच्छे पति की प्राप्ति में करता है। साथ ही यह महज़ किरदारों के वैयक्तिक अन्तरविरोधों को उठाता है। लेखक राजेश दूबे और उनकी टीम इन बुराइयों को दर्शाती है, उन पर चोट या न्यायसंगत विद्रोह तक नहीं ले जाती। अगर हम ‘संस्कार’ देखें तो बस इसका नाम संस्कार है वैसे यह दिखाता ‘वैचारिक असंस्कार’ है। यह कहानी गुजरात के संयुक्त परिवार की कहानी पर आधारित है। हम इसका एक दृश्य उठाकर देखते हैं – जय अपनी पत्नी भूमि के साथ केशवगढ़ पहुँचता है। अंशुबा (जय की माँ) उनकी शादी को नहीं मानती है। ज़िद करने पर वे लोग घर में रहने लगते हैं, पर भूमि को तब तक बहू का दर्जा नही मिलता जब तक वह 11 परीक्षाओं में सफल नहीं हो जाती। इन परीक्षाओं में खाना बनाना, पूजा करना, गायत्री मन्त्र आदि याद होना शामिल है। ‘पवित्र बन्धन’ और ‘सरस्वती चन्द्र’ जैसे धारावाहिक देखें तो ये सब भी संयुक्त परिवार की कहानी पर आधारित हैं। ये दोनों धारावाहिक दूरदर्शन पर दिखाये जाते हैं और निम्न मध्य वर्ग तथा मज़दूर वर्ग में ख़ासे चर्चित हैं। ये भी औरतों और मर्दों के बीच मौजूद पार्थक्य को स्थापित करते हैं और स्त्रियों की सीमाओं को तय करते हैं। बकौल इनके एक आदर्श महिला वह है जो दुनिया से कटकर घर में रहती है, घरवालों की देखभाल करती है, गहने पहनती है, घूंघट करती है।

दरअसल इन सारे धारावाहिकों की राजनीति एक जैसी ही है, सभी पितृसत्तात्मक सोच, सड़-गल चुकी सभ्यता के अवशेष और मुनाफ़े पर टिकी इस व्यवस्था को खाद-पानी देते हैं। ये सारे धारावाहिक श्रम को अलग एक हवाई वस्तु समझते हैं। इनके चरित्र कोई भी हो – पति, बेटा, पिता या कोई और, ये सभी सुबह काम पर जाते हैं, शाम को वापस आ जाते हैं। जिस फ़ैक्ट्री या उद्योग के मालिक ये किरदार होते हैं, वहाँ किस तरह मज़दूर काम करते हैं, उनका वेतन क्या है, वे कौन से उत्पाद किस स्थिति में बनाते हैं या फिर मुनाफ़ा कमाने के लिए क्या-क्या हथकण्डे अपनाये जाते हैं, ये सारे पहलू धारावाहिकों से नदारद रहते हैं। इन धारावाहिकों से मज़दूर वर्ग पूरी तरह से अनुपस्थित है। ज़्यादा से ज़्यादा आम मध्यवर्ग के जीवन पर केन्द्रित कुछ धारावाहिक कार्यक्रम आते हैं, मगर ज़्यादा से ज़्यादा कार्यक्रम उच्च मध्यवर्ग या फिर पूँजीपति वर्ग के जीवन पर केन्द्रित होते हैं और उनके जीवन को इस रूप में पेश करते हैं कि निम्न मध्यवर्ग और आम ग़रीब आबादी के दर्शक उसी जीवन का सपना देखने लगते हैं। उनके जीवन के चित्रण में धार्मिकता, अन्धविश्वास, सड़ी-गली परम्पराएँ, आस्थाएँ भरी होती हैं। ये सारे मूल्य निम्न मध्य वर्ग की आबादी का विराजनीतिकीकरण करते हैं, उनके मानसिक-आत्मिक विश्व को तुच्छ दृष्टि देते हैं, हर प्रकार के मानवीय और उदात्त मूल्यों को समाप्त करते हैं, विसंवेदीकरण करते हैं और ‘पारिवारिक मूल्यों’ के नाम पर आत्म-केन्द्रित, असंवेदनशील, अमानवीय बनाते हैं और साथ ही उनमें हर प्रकार के न्यायबोध को समाप्त करते हैं।

एक अन्य बात जो ग़ौर करने वाली है वह यह कि ज़्यादातर धारावाहिकों के केन्द्र में या तो व्यापारिक परिवार होते हैं या फिर उद्योगपतियों के परिवार। इन परिवारों के चित्रण करते हुए ये धारावाहिक निजी सम्पत्ति और मुनाफ़े को भी वैधता प्रदान करते हैं। निजी मुनाफ़े और स्वार्थ की सोच का सामान्यीकरण और नैसर्गिकीकरण कर दिया जाता है। इस प्रकार ये तमाम सोप ऑपेरा वास्तव में पूँजीवादी समाज की संस्कृति, विचारधारा और मूल्यों का सतत पुनरुत्पादन करने का काम करते हैं; लोगों के विश्व दृष्टिकोण को तुच्छ, स्वार्थी, कूपमण्डूक, दुनियादार और असंवेदनशील बनाते हैं; हर प्रकार की व्यापकता और उदात्तता की हत्या कर दी जाती है। और इस प्रकार भारत के अजीबो-ग़रीब मध्यवर्ग पर मानसिक और मनोवैज्ञानिक नियन्त्रण क़ायम किया जाता है।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-अप्रैल 2014

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