फ़्री एवं ओेपेन सोर्स सॉफ़्टवेयर आन्दोलन: कितना ‘फ़्री’ और कितना ‘ओपेन’
आनन्द
बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में पर्सनल कम्प्यूटर और फिर इण्टरनेट के आविष्कार ने मानव सभ्यता के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया। इक्कीसवीं सदी का पहला दशक बीतते-बीतते दुनिया के लगभग हर कोने के लोग इण्टरनेट के माध्यम से एक आभासी जगत से जुड़ गये जिसे साइबर स्पेस भी कहा जाता है। ऐसे में यह लाज़िमी था कि वास्तविक जगत में जारी वर्ग-संघर्ष की अनुगूँजें इस आभासी जगत से भी सुनायी देने लगीं। दरअसल सूचना और संचार प्रौद्योगिकी का विस्तार मरणासन्न पूँजीवादी व्यवस्था की आयु को लम्बा करने के लिए पूँजीपति वर्ग की ज़रूरत भी थी। 1970 के दशक से शुरू हुए भूमण्डलीकरण के दौर में पूँजी को दुनिया के कोने-कोने तक पहुँचाने के लिए सूचना और संचार प्रौद्योगिकी ने एक बेहद कारगर उपकरण की भूमिका निभायी। सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के विकास के बिना फ़ोर्डिस्ट असेम्बली लाइन का विघटन करके समूची दुनिया में अदृश्य वैश्विक असेम्बली लाइन का अस्तित्व में आना सम्भव ही नहीं था। परन्तु सूचना और संचार प्रौद्योगिकी की भूमिका औद्योगिक उत्पादन बढ़ाने में एक सहायक उपकरण तक ही नहीं सीमित रही, बल्कि यह अपने आपमें एक विश्वव्यापी उद्योग बनकर उभरी। पूँजीवाद ने अन्य सार्वजनिक संसाधनों की ही भाँति सूचना को भी एक माल में तब्दील कर मुनाफ़ा कमाने का ज़रिया बना दिया। इस प्रकार न सिर्फ़ कम्प्यूटर हार्डवेयर का कारोबार विकसित हुआ बल्कि उसमें इस्तेमाल होने वाले सॉफ़्टवेयर का भी एक अलग सेक्टर विकसित हुआ जिसे आईटी सेक्टर का नाम दिया गया। माइक्रोसॉफ़्ट, ओरैकल, एडोब जैसे दैत्याकार राष्ट्रपारीय निगम (ट्रांस-नेशनल कारपोरेशन) अस्तित्व में आये जो सिर्फ़ सॉफ़्टवेयर का ही निर्माण एवं उसका व्यापार करते हैं। इन इज़ारेदार निगमों ने जो सॉफ़्टवेयर विकसित किये उनके प्रोग्राम (सोर्स कोड) को कॉपीराइट कराके उनके मुक्त वितरण पर पाबन्दियाँ लगा दीं। परन्तु सॉफ़्टवेयर कारपोरेट घरानों की इज़ारेदारी के बरक्स सॉफ़्टवेयर की दुनिया में एक अन्य प्रवृत्ति भी विकसित हुई जिसने कालान्तर में एक आन्दोलन का रूप ले लिया, जिसे आज ‘फ़्री एण्ड ओपेन सोर्स सॉफ़्टवेयर मूवमेण्ट’ के नाम से जाना जाता है। यह आन्दोलन सॉफ़्टवेयर के प्रोग्राम (सोर्स कोड) को कम्पनियों द्वारा कॉपीराइट कराने का विरोध करता है और सोर्स कोड को सबके लिए खुला करने की वकालत करता है। इस आन्दोलन के तहत तमाम सॉफ़्टवेयर विकसित किये गये हैं जिन्होंने बड़ी-बड़ी कम्पनियों द्वारा बनाये गये प्रोपराइटरी सॉफ़्टवेयरों को ज़बरदस्त चुनौती दी है। एक परिघटना के रूप में निश्चित ही यह एक प्रगतिशील क़दम है जिसका कोई भी प्रगतिशील व्यक्ति समर्थन करेगा, परन्तु इसके कुछ अति-उत्साही समर्थक जोश में आकर इसे अपने आपमें एक कम्युनिस्ट प्रोजेक्ट के तौर पर पेश करते हैं और इसे पूँजीवाद के लिए एक ख़तरनाक चुनौती बताते हैं, जोकि हास्यास्पद है। ऐसे में इस आन्दोलन का द्वन्द्वात्मक मूल्यांकन करना बेहद ज़रूरी हो जाता है।
1970 के दशक की शुरुआत तक हालाँकि कम्प्यूटर का आविष्कार हो चुका था और वह माल के रूप में बिकने लगा था, परन्तु सॉफ़्टवेयर अभी भी माल के रूप में बेचा और ख़रीदा नहीं जाता था। प्रोग्रामिंग में दिलचस्पी रखने वालों को कम्प्यूटर के प्रोग्राम (सोर्स कोड) आसानी से उपलब्ध हो जाते थे। 1975 में बिल गेट्स, जिन्होंने बेसिक प्रोग्रामिंग लैंग्वेज का एक ट्रांसलेटर विकसित किया था, ने अपने एक सहयोगी पर प्रोग्राम की चोरी का आरोप लगाया। इस प्रकार सॉफ़्टवेयर को एक प्रकार की निजी सम्पत्ति के रूप में सोचने की शुरुआत हुई जिसको कोई चोरी कर सकता है। इस निजी सम्पत्ति की चोरी रोकने का उपाय यह सोचा गया कि इसके सोर्स कोड की सार्वजनिक रूप से उपलब्धता पर पाबन्दी लगा दी जाये। इस क़िस्म के सॉफ़्टवेयर को प्रोपराइटरी सॉफ़्टवेयर कहा जाता है। आगे चलकर बिल गेट्स की कम्पनी माइफ्रोसॉफ़्ट ने विण्डोज़ ऑपरेटिंग सिस्टम जैसा एक प्रोपराइटरी सॉफ़्टवेयर बनाया जो आज अधिकांश पर्सनल कम्प्यूटरों में पाया जाता है।
परन्तु प्रोपराइटरी सॉफ़्टवेयर के मालिकों द्वारा उनके सोर्स कोड के वितरण पर लगायी गयी पाबन्दी के खि़लाफ़ तमाम स्वतन्त्र प्रोग्रामरों और शोधार्थियों में असन्तोष भी फैलने लगा, क्योंकि इससे सॉफ़्टवेयर के क्षेत्र में शोध और अनुसन्धान में बाधा उत्पन्न होने लगी। 1985 में रिचर्ड स्टालमैन नामक एक अमेरिकी शोधार्थी ने एक मुहिम की शुरुआत की, जिसे उन्होंने फ़्री सॉफ़्टवेयर फ़ाउण्डेशन का नाम दिया जो सोर्स कोड की उपलब्धता, उसमें सुधार करने और उसका वितरण करने की आज़ादी की वकालत करती है और सॉफ़्टवेयर जैसे उत्पादों की कॉपीराइट का विरोध करती है। कॉपीराइट के बरक्स इस मुहिम ने कॉपीलेफ़्ट लाइसेंस को प्रचलित किया जिसके तहत पंजीकृत उत्पादों के वितरण पर कोई पाबन्दी नहीं होती है। आमतौर पर लोग फ़्री सॉफ़्टवेयर को मुफ़्त सॉफ़्टवेयर समझते हैं, परन्तु यहाँ ‘फ़्री’ का तात्पर्य ‘फ़्रीडम’ यानी मुक्ति से है न कि मुफ़्त से। स्टालमैन को अभी भी लोगों को फ़्री सॉफ़्टवेयर का वास्तविक अर्थ समझाने में काफ़ी मशक्कत करनी पड़ती है, क्योंकि पूँजीवाद लोगों की चेतना को रुपये-पैसे से आगे बढ़ने ही नहीं देता। इसका वास्तविक अर्थ समझाने के लिए स्टालमैन बार-बार कहते हैं कि जब मैं फ़्री सॉफ़्टवेयर कहूँ तो आप ‘फ़्री स्पीच’ सोचिये न कि ‘फ़्री बीयर’!
1990 के दशक में दुनियाभर में इण्टरनेट के प्रचार-प्रसार ने फ़्री सॉफ़्टवेयर आन्दोलन को नया संवेग प्रदान किया। इण्टरनेट की वजह से अनगिनत विश्वव्यापी ऑनलाइन कम्यूनिटीज़ विकसित हो सकीं जिनमें दुनिया के किसी भी कोने में बैठा प्रोग्रामर सदस्य बनकर सामूहिक तरीक़े से किसी सॉफ़्टवेयर को विकसित करने में अपना योगदान दे सकता है। इस प्रकार विश्वव्यापी स्तर पर परस्पर सहकार और सामुदायिकता की भावना से उत्पादन करने की एक अनूठी मिसाल स्थापित हुई। 1990 के दशक में लिनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम का उभरना इसी सहकार और सामुदायिकता का अद्भुत नतीजा था। लिनक्स ने न सिर्फ़ विण्डोज़ जैसे प्रोपराइटरी ऑपरेटिंग सिस्टम के वर्चस्व को चुनौती दी, बल्कि गुणवत्ता और सुरक्षा के मामले में भी यह उससे बीस ही साबित हुआ। इस प्रकार 1990 के दशक में फ़्री सॉफ़्टवेयर प्रोपराइटरी सॉफ़्टवेयर के सम्मुख एक चुनौती बनकर उभरा।
परन्तु 1990 के दशक में ही फ़्री सॉफ़्टवेयर आन्दोलन के भीतर से ही एरिक रेमण्ड के नेतृत्व में एक नयी धारा उभरी, जिसका कहना था कि फ़्री सॉफ़्टवेयर बनाम प्रोपराइटरी सॉफ़्टवेयर को नैतिक बनाम अनैतिक के रूप में पेश करने की बजाय गै़र प्रोपराइटरी सॉफ़्टवेयर को एक बेहतर बिज़नेस मॉडल के रूप में प्रचारित करना चाहिए, ताकि कारपोरेट्स को भी इस आन्दोलन का समर्थक बनाया जा सके। चूँकि फ़्री सॉफ़्टवेयर नाम से ही कारपोरेट बिचक जाते हैं, इसलिए रेमण्ड ने ओपेन सोर्स सॉफ़्टवेयर नाम प्रचारित करने पर ज़ोर दिया। स्टालमैन के विपरीत रेमण्ड का कहना था कि ओपेन सोर्स सॉफ़्टवेयर को उन सॉफ़्टवेयरों में भी इस्तेमाल की इजाज़त देनी चाहिए जिसका कुछ हिस्सा किसी प्रोपराइटरी सॉफ़्टवेयर की मदद से बना हो। इस प्रकार सॉफ़्टवेयर निर्माण में लगी कम्पनियों को उनके प्रोपराइटरी सॉफ़्टवेयर में इस्तेमाल के लिए ओपेन सोर्स को विकल्प भी खुल जायेगा और इसलिए वे भी इस आन्दोलन का समर्थन करने लगेंगी।
रेमण्ड ने अपने लेक्चरों और किताबों के द्वारा ओपेन सोर्स सॉफ़्टवेयर को प्रोपराइटरी सॉफ़्टवेयर के मुक़ाबले एक बेहतर बिज़नेस मॉडल के रूप में बेहद सफलतापूर्वक प्रचारित किया। उनका कहना था कि यह सॉफ़्टवेयर की दुनिया में एक उत्तर-फ़ोर्डिस्ट उत्पादन व्यवस्था है जिसमें वैश्विक पैमाने पर फैले बेहद प्रतिभावान श्रम पूल का इस्तेमाल किया जा सकता है। इस उत्पादन व्यवस्था की ख़ासियत यह है कि इसमें दुनिया के कोने-कोने में बैठे उत्साही और जिज्ञासु प्रोग्रामरों की मानसिक श्रम शक्ति का इस्तेमाल करते हुए बड़े पैमाने पर अन्तरराष्ट्रीय स्तर का ऐसा लचीला श्रम विभाजन किया जा सकता है जो कम्पनी की सीमा में रहकर सॉफ़्टवेयर उत्पादन करने के पारम्परिक तरीक़े के मुकाबले कहीं ज़्यादा कारगर है। इसके अतिरिक्त यह मॉडल उन कारपोरेटों के लिए सहज स्वीकार्य होगा जो सिर्फ़ सॉफ़्टवेयर का बिज़नेस करने की बजाय या तो सॉफ़्टवेयर सर्विसेज़ के बिज़नेस करते हैं या कम्प्यूटर हार्डवेयर और मोबाइल मैन्यूफ़ैक्चरिंग का। यही नहीं स्टालमैन के विपरीत रेमण्ड की धारा द्वारा प्रचारित ओपेन सोर्स सॉफ़्टवेयर की अवधारणा में कम्पनियों को यह भी छूट रहती है कि वे किसी ओपेन सोर्स सॉफ़्टवेयर में कुछ बदलाव करके नये उत्पाद को अपने नाम से कॉपीराइट करा सकती हैं। रेमण्ड अपने इस बिज़नेस मॉडल को कारपोरेटों को बेचने में सफल रहे इसका अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज आई बी एम, ओरैकल, गूगल, फ़ेसबुक और ट्विटर जैसे तमाम बहुराष्ट्रीय दैत्य ओपेन सोर्स सॉफ़्टवेयर को फ़ण्ड करते हैं। गूगल, फ़ेसबुक और ट्विटर जैसी कम्पनियों के मुनाफ़े का मुख्य स्रोत विज्ञापन है, इसलिए उन्हें ओपेन सोर्स सॉफ़्टवेयर से कोई परहेज़ नहीं है, उल्टे उन्हें इससे फ़ायदा है क्योंकि उन्हें सस्ते दाम पर बेहतर सॉफ़्टवेयर मिल जाते हैं जिनकी मदद से वे अकूत मुनाफ़ा कमाती हैं। इसके अतिरिक्त ओपेन सोर्स सॉफ़्टवेयर को बढ़ावा देने वाले नामों में रेड हैट और सूज़ा जैसी कम्पनियाँ भी शामिल हैं जो सॉफ़्टवेयर तो मुफ़्त में वितरित करती हैं, परन्तु उनकी तमाम सर्विसेज़ (जैसे कि इंस्टॉलेशन, मेण्टिनेंस, सपोर्ट और डॉक्युमेण्टेशन) के लिए तगड़ी रक़म वसूलती हैं।
बावजूद इसके कि फ़्री एवं ओपेन सोर्स सॉफ़्टवेयर के विचार को अब कारपोरेट्स का समर्थन मिल रहा है, एक विचार के तौर पर यह अपने आप में एक प्रगतिशील अवधारणा है, क्योंकि यह ज्ञान के एकाधिकार की पूँजीवादी सोच पर कुठाराघात करती है। सॉफ़्टवेयर उत्पादन का यह सहकारितापूर्ण और सामूहिकतापूर्ण तरीक़ा निश्चित ही इस समाजवादी सोच को पुष्ट करता है कि मनुष्य सिर्फ़ भौतिक प्रोत्साहनों और निजी फ़ायदे के लालच में आकर ही श्रम प्रक्रिया में भाग नहीं लेता बल्कि श्रम उसकी नैसर्गिक आभिलाक्षणिकता है। परन्तु फ़्री एवं ओपेन सोर्स सॉफ़्टवेयर आन्दोलन के कुछ अति-उत्साही समर्थक इस तर्क को खींचकर यहाँ तक कहने लगते हैं कि यह एक कम्युनिस्ट प्रोजेक्ट है और यह इतना ‘सबवर्सिव’ है कि साइबर स्पेस में पूँजीवादी उत्पादन-सम्बन्धों को छिन्न-भिन्न कर देगा।
अव्वलन तो यह सोच अपने आपमें यूटोपियन (काल्पनिक) है कि समाज में मूल उत्पादन सम्बन्धों के पूँजीवादी रहते हुए अर्थव्यवस्था के किसी एक सेक्टर विशेष में समाजवादी उत्पादन सम्बन्ध क़ायम किये जा सकते हैं। यह तर्क कि यदि सारे सॉफ़्टवेयरों के सोर्स कोड ओपेन कर दिये जायें तो सॉफ़्टवेयर उद्योग में उत्पादन के साधनों पर प्रत्यक्ष उत्पादक का प्रत्यक्ष नियन्त्रण हो जायेगा और इस प्रकार उत्पादकों का अलगाव दूर हो जायेगा और इस उद्योग में समाजवादी उत्पादन सम्बन्ध क़ायम हो जायेंगे, समाजवादी उत्पादन सम्बन्धों की सतही समझ का परिचायक है। पूँजीवाद द्वारा विकसित किसी भी अन्य माल के विपरीत सॉफ़्टवेयर की यह विशिष्ट प्रकृति होती है कि इसका कच्चा माल यानी सोर्स कोड सॉफ़्टवेयर के इस्तेमाल होने के बावजूद घिसता नहीं है और उसका इस्तेमाल किसी अन्य सॉफ़्टवेयर को बनाने में आसानी से किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त सॉफ़्टवेयर की कई कॉपियाँ बनाकर उसे वितरित करना बेहद आसान और सस्ता होता है। दुनियाभर में इण्टरनेट के प्रचार-प्रसार ने इसे और आसान और सस्ता बना दिया है। सॉफ़्टवेयर जैसे माल की इस विशिष्ट प्रकृति ने ही ओपेन सोर्स सॉफ़्टवेयर जैसी मुहिम को सम्भव बनाया है, जो प्रथमदृष्टया पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों का निषेध प्रतीत होती है। परन्तु ओपेन सोर्स सॉफ़्टवेयर बनने की पूरी प्रक्रिया को और गहराई से समझने की ज़रूरत है।
ऊपरी तौर पर देखने पर किसी को ऐसा भ्रम हो सकता है कि फ़्री एवं ओपेन सोर्स सॉफ़्टवेयर बनाने वाले प्रोग्रामर पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों से मुक्त हैं क्योंकि ये प्रोग्रामर अपने कम्प्यूटर के ज़रिये ऑनलाइन कम्यूनिटीज़ के सदस्य बनकर सॉफ़्टवेयर विकसित करते हैं। परन्तु थोड़ा और गहराई से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वे पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों के तहत ही सॉफ़्टवेयर का उत्पादन करते हैं। ओपने सोर्स सॉफ़्टवेयर विकसित करना सॉफ़्टवेयर उद्योग में एक प्रतिष्ठा का काम माना जाता है। जो प्रोग्रामर इस काम में महारत हासिल कर लेते हैं उन्हें आसानी से किसी प्रतिष्ठित कम्पनी में नौकरी मिल जाती है। कुछ ओपने सोर्स सॉफ़्टवेयर तो ऐसे होते हैं जिन्हें सीधे कारपोरेट्स ही फ़ण्ड करते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे प्रोग्रामर फ़्रीलांसिंग का काम करते हैं और कुछ ऐसे होते हैं जो कालान्तर में अपनी ख़ुद की कम्पनी खोल लेते हैं।
ग़ौर करने वाली बात यह भी है कि फ़्री एवं ओपेन सोर्स सॉफ़्टवेयर की रीढ़ इण्टरनेट है जो विश्वव्यापी ऑनलाइन कम्युनिटीज़ को सम्भव बनाता है और इण्टरनेट के माध्यम पर अलग-अलग देशों के पूँजीपति वर्ग और उनकी राज्यसत्ताओं का क़ब्ज़ा है। पूँजीपति वर्ग साइबर स्पेस में खुलापन सिर्फ़ उस हद तक ही बर्दाश्त करता है, जब तक उसके हित सधते हैं। हम ऊपर देख चुके हैं कि किस प्रकार तमाम कारपोरेट्स भी फ़्री एवं ओपेन सोर्स सॉफ़्टवेयर में विश्वव्यापी प्रतिभासम्पन्न श्रम शक्ति का दोहन करके अपना मुनाफ़ा बढ़ाने की प्रचुर सम्भावनाएँ देखकर उसके समर्थन में कूद पड़े हैं। इसको समझने के लिए हम सैमसंग जैसी कम्पनी का उदाहरण ले सकते हैं, जिसके स्मार्टफोंस में एैण्ड्रॉयड ऑपरेटिंग सिस्टम का इस्तेमाल होता है, जोकि ओपेन सोर्स है। सैमसंग जैसी मोबाइल कम्पनियाँ स्मार्टफोंस के लिए मोबाइल एप्लीकेशन (जैसे कि मोबाइल गेम्स) विकसित करने के लिए इण्टरनेट पर प्रतियोगिता आयोजित करती हैं और इस तरह के मोबाइल एप्स बनाने वालों को पुरस्कृत भी करती हैं। यदि यही मोबाइल एप्लीकेशन सैमसंग अपनी कम्पनी के भीतर विकसित करना हो तो यह बेहद ख़र्चीले होगा, परन्तु इस प्रकार की प्रतियोगिता आयोजित करके यह काम बहुत ही सस्ते में हो जाता है।
यदि तर्क के लिए यह मान भी लिया जाये कि सॉफ़्टवेयर प्रोग्रामरों का विशेषाधिकार प्राप्त छोटा सा तबका साइबर स्पेस में ‘क्रियेटिव कॉमन्स’ बनाकर ‘नेटीजंस’ का समाजवादी टापू विकसित भी कर लेता है (हालाँकि पूँजीवाद के रहते यह सम्भव नहीं है) तो भी ऐसे समाजवाद से व्यापक आम मेहनतकश आबादी की मुक्ति भला कैसे होगी, जो कल-कारख़ानों और खेत-खलिहानों में पूँजी की गुलामी करने को मजबूर है? रिचर्ड स्टालमैन और उनके उत्साही समर्थकों से यह पूछना चाहिए कि उनकी नैतिकता का दायरा सॉफ़्टवेयर के उत्पादन तक ही क्यों सीमित है? यदि वे वाक़ई कारपोरेट्स द्वारा ज्ञान के हस्तगतीकरण करने का ख़ात्मा चाहते हैं तो सबसे पहले उन्हें साइबर स्पेस की आभासी दुनिया के सीमित दायरे से निकलकर वास्तविक दुनिया में पूँजीवाद के खि़लाफ़ लड़ाई से अपनी लड़ाई को जोड़ना होगा। यदि उनकी लड़ाई साइबर स्पेस तक ही सीमित रहेगी तो पूँजीपति वर्ग उनके द्वारा बनाये गये फ़्री एवं ओपेन सोर्स सॉफ़्टवेयर का इस्तेमाल भी मेहनतकशों के शोषण की चक्की को चुस्त-दुरुस्त करने में ही करेगा और नैतिकता की अतिसीमित परिभाषा के अनुसार वे उन्हें अनैतिक भी न कह पायेंगे। अभी हाल ही में अंग्रेज़ी के एक दैनिक में एक ख़बर आयी थी कि किस प्रकार मोबाइल में इस्तेमाल होने वाले एक फ़्री एवं ओपेन सोर्स सॉफ़्टवेयर ‘व्हाट्सअप’ बनारसी साड़ी उद्योग के बुनकरों की कंगाली में आटा गीला करने का काम कर रहा है। ‘व्हाट्सअप’ का इस्तेमाल करके बनारस के व्यापारी बुनकरों द्वारा महीनों में तैयार की गयी साड़ियों के डिज़ाइन की तस्वीर उतारकर मिनटों में सूरत के साड़ी उद्योग के व्यापारियों तक भेज देते हैं, जो वहाँ की उन्नत मशीनरी की मदद से फ़टाफट साड़ी तैयार करवा लेते हैं। इस प्रकार ‘व्हाट्सअप’ जैसा फ़्री एवं ओपेन सोर्स सॉफ़्टवेयर बनारस के बुनकरों की तबाही और बर्बादी का कारण बन रहा है। फ़्री एवं ओपेन सोर्स सॉफ़्टवेयर आन्दोलन द्वारा प्रचारित नैतिकता के सीमित मापदण्ड के हिसाब से इस प्रक्रिया का विरोध नहीं किया जा सकता, क्योंकि आखि़र यहाँ जो सॉफ़्टवेयर इस्तेमाल हुआ था वह फ़्री एवं ओपेन सोर्स था!
अन्त में निचोड़ के तौर पर यह कहा जा सकता है कि प्रोपराइटरी सॉफ़्टवेयर के मुक़ाबले फ़्री एवं ओपने सोर्स सॉफ़्टवेयर निश्चित रूप से एक प्रगतिशील क़दम है जिसका समर्थन किया जाना चाहिए। परन्तु यह सोच कि फ़्री एवं ओपन सोर्स सॉफ़्टवेयर आन्दोलन अपने आप साइबर स्पेस में पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों को समाप्त कर कम्युनिज़्म ला देगा, तो यह सच्चाई से उतनी ही दूर है जितनी कि साइबर स्पेस की दुनिया वास्तविक दुनिया से। समाज की मुख्य उत्पादन प्रणाली और आम मेहनतकश जनता की ज़िन्दगी से कटे लोग ही इस क़िस्म के हवाई किले बनाते हैं और ऐसे अलगावग्रस्त लोग ही इस बड़बोलेपन को हक़ीक़त समझ वास्तविक दुनिया में जारी वर्ग-संघर्ष से अपने आपको काटकर साइबर स्पेस की आभासी दुनिया में ही क्रान्ति-क्रान्ति खेलते रहते हैं। सच तो यह है कि वास्तविक दुनिया में क्रान्ति आम मेहनतकश आबादी की संगठित ताक़त द्वारा राज्यसत्ता पर क़ब्ज़े के बग़ैर नहीं सम्पन्न हो सकती। हाँ इतना ज़रूर है कि इस वास्तविक क्रान्ति की प्रक्रिया में फ़्री एवं ओपने सोर्स सॉफ़्टवेयर जैसी तकनीक निश्चित ही मददगार साबित होगी।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-अप्रैल 2014
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