हरियाणा के नरवाना में निर्माण मज़दूरों ने संघर्ष के दम पर हासिल की जीत
हरियाणा के ज़िला जीन्द की तहसील नरवाना शहरीकरण की तरफ़ बढ़ती हुई जगह है। यहाँ की आबादी करीब 62,000 है। शहर में मज़दूर-मेहनतकश व ग़रीब किसान आबादी का ही प्रतिशत सबसे ज़्यादा है, किन्तु ख़ुशहाल किसान, नौकरीशुदा खाता-पीता मध्यवर्ग और पुस्तैनी रूप से रह रहे व्यापारी-दुकानदार भी काफ़ी तादाद में हैं। चूँकि नरवाना तहसील है तो आस-पास के गाँव से भी लोग यहीं पर ख़रीदारी आदि करने के लिए आते हैं। नरवाना में एक बड़ी अनाज मण्डी भी है, जो गाँवों से व्यापक किसान आबादी को भी अपने साथ जोड़ती है। शहर में बड़ी संख्या में आस-पास के गाँवों से मज़दूर दिहाड़ी-रोज़गार के लिए आते हैं। ये मज़दूर विभिन्न जातियों से होते हैं, किन्तु भूमिहीन दलित इनमें बड़ी संख्या में होते हैं। कृषि में हो रहे पूँजीवादी विकास और किसानों के विभेदीकरण के फलस्वरूप किसान आबादी भी मज़दूरों में शामिल हो रही है और इससे हरियाणा के बन्द लगने वाले समाज में जाति-भेद के टूटने में भी मदद मिल रही है, जो एक सकारात्मक बात भी है। ये मज़दूर दूकानों, अनाज मण्डी, छोटे-मोटे वर्कशॉपों और भवन निर्माण के क्षेत्र में काम करते हैं। मज़दूरों के हालात बेहद दयनीय हैं। इन्हें बेहद कम मज़दूरी मिलती है और हरियाणा सरकार द्वारा तय न्यूनतम मज़दूरी ही – जो पहले ही कम है (अकुशल – 5341 व कुशल – 5861) इनके लिए बहुत दूर की कोड़ी है। श्रम क़ानूनों का अधिकतर मज़दूरों को कुछ पता ही नहीं है। मज़दूरी पूरी तरह से मालिकों के रहमो-करम पर तय होती है। इण्टक जो पूरी तरह से कांग्रेस की पूँछ है, और संशोधनवादी पार्टी सी.पी.एम. से जुड़ी सीटू से सम्बद्ध कई यूनियनें संगठित मज़दूरों के बीच काम करती हैं। आमतौर पर इनका काम अपनी पार्टियों के लिए वोट बैंक जुटाना और कुछ अर्थवादी कवायदें करना ही होता है। शहर में काम कर रहे असंगठित क्षेत्र से जुड़े मज़दूरों से इन्हें कोई मतलब नहीं है। मज़दूरों के अन्दर इन हालातों के कारण गुस्सा और क्षोभ तो होता है किन्तु ये संगठित न होने के कारण कुछ कर नहीं पाते। ख़ासकर भवन निर्माण से जुड़े मज़दूरों के हालात तो और भी दयनीय हैं क्योंकि एक तो कार्यस्थिति बेहद खराब होती है, धूल-धक्कड़ में और बिना किसी सुरक्षा के ही काम करना पड़ता है ऊपर से मज़दूरी बेहद कम मिलती है। हर रोज़ काम मिलने की भी कोई गारण्टी नहीं होती। अक्सर ही ऐसे मज़दूर काफ़ी संख्या में होते हैं जो किराया लगाकार शहर में आते हैं और पूरे दिन काम का इन्तज़ार करने के बाद बिना कोई काम किये ही ख़ाली हाथ घर लौट जाते हैं। एक तरफ़ लगातार बढ़ती मँहगाई ने और दूसरी तरफ़ बेहद कम मज़दूरी ने मज़दूरों का जीना मुहाल करके रख दिया है।
अभी पिछले अप्रैल माह की 15 तारीख़ को भवन निर्माण क्षेत्र से जुड़े कुछ मज़दूरों ने अपनी मज़दूरी बढ़वाने के लिए नौजवान भारत सभा और बिगुल मज़दूर दस्ता से जुड़े कार्यकत्ताओं से सलाह-मशविरा किया। इन मज़दूरों का काम ट्राली-ट्रक इत्यादि से सीमेण्ट, बजरी, रेती आदि उतारने और लादने का होता है। मज़दूरी बेहद कम और पीस रेट के हिसाब से मिलती है। ज्ञात हो कि नौजवान भारत सभा और बिगुल मज़दूर दस्ता पिछले लगभग दो साल से हरियाणा में सक्रिय हैं। युवाओं से जुड़े तथा विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर प्रचार आदि के कारण और पिछले दिनों चले मारुति सुजुकी मज़दूर आन्दोलन में भागीदारी के कारण इन संगठनों की इलाक़े में पहचान है। बिगुल और नौभास के कार्यकर्ताओं ने निर्माण क्षेत्र से जुड़े मज़दूरों की तुरन्त यूनियन बनाने और यूनियन के तहत ही संगठित रूप से हड़ताल करने का सुझाव दिया। 15 तारीख़ को ही निर्माण मज़दूर यूनियन की तरफ़ से पर्चा लिखकर छपवा दिया गया और सभी मज़दूरों को एकजुट करके हड़ताल करने का निर्णय लिया गया। उसी दिन यूनियन की 11 सदस्यीय कार्यकारी कमेटी का चुनाव भी कर लिया गया। पहले दिन काम बन्द करवाने को लेकर कई मालिकों के साथ कहा-सुनी और झगड़ा भी हुआ, किन्तु अपनी एकजुटता के बल पर यूनियन ने हर जगह काम बन्द करवा दिया। 16 तारीख़ को यूनियन ने नौभास और बिगुल मज़दूर दस्ता की मदद से पूरे शहर में परचा वितरण और हड़ताल का प्रचार किया। मज़दूरों के संघर्ष और जुझारू एकजुटता के सामने 16 तारीख़ के ही दिन में मालिकों यानी भवन निर्माण से जुड़ी सामग्री बेचने वाले दुकानदारों ने हाथ खड़े कर दिये। मज़दूरी में किसी सामग्री में 100 तो किसी में 50 प्रतिशत तक की बढ़ोत्तरी हुई। जैसे पहले सीमेण्ट का एक कट्टा 1.25 से 1.50 रुपये तक में उतारा और लादा जाता था, हड़ताल के बाद इसका रेट न्यूनतम 2.50 रुपये तय हुआ। रेती की ट्राली उतारने और लादने का रेट 60-70 से बढ़कर 130 रुपये न्यूनतम तय हुआ। इसी प्रकार विभिन्न प्रकार की भवन निर्माण सामग्री के उतारने और लादने के रेटों में बढ़ोत्तरी हुई। जीत हासिल होने पर मज़दूर बेहद उत्साह में थे और मालिक मनमानी न चलने और आगे से अधिक मज़दूरी देने को लेकर खिसियाये हुए दिखे। इसके बाद 17 तारीख़ को ही यूनियन की तरफ़ से इस आन्दोलन की जीत का परचा निकाला गया और विभिन्न मज़दूरों के बीच इसे बाँटा गया। यूनियन की कार्यकारिणी की बैठक में यह फ़ैसला हुआ कि अब औपचारिक रूप से यूनियन की सदस्यता दी जानी चाहिए। इसके साथ ही रसीद-बुक आदि से यूनियन की औपचारिक सदस्यता का काम शुरू हो चुका है तथा यूनियन अपना एक सदस्यता शिविर लगा भी चुकी है, जिसमें करीब 90 मज़दूरों ने यूनियन की सदस्यता ग्रहण की। जैसे ही गेहूँ की कटाई का सीजन ख़त्म होगा, क्योंकि बहुत से मज़दूर कटाई के काम में भी लगे हैं, फिर से सदस्यता शिविर लगाये जायेंगे। इस पूरे संघर्ष ने दिखला दिया है कि संघर्ष के सही तरीक़े और एकजुटता के बल पर ही अपने हक़-अधिकारों की लड़ाई जीती जा सकती है। मज़दूरों की एकजुटता और नौजवान भारत सभा जैसे जन संगठन और बिगुल मज़दूर दस्ता की सक्रिय भागीदारी और दबाव के कारण पुलिस-प्रशासन चाहकर भी मालिकों की मदद नहीं कर सका। विभिन्न मौक़ों पर मालिकों को ही झुकना पड़ा; और तो और पुलिस थाने में भी मालिकों को मज़दूरों से माफ़ी माँगनी पड़ी। यूनियन के सचिव रमेश खटकड़ ने बताया कि निर्माण मज़दूर यूनियन की लड़ाई भले ही छोटी लड़ाई थी, किन्तु इसी प्रकार से ही यानी संघर्ष की सही दिशा और एकजुटता के बल पर ही हम पूरे देश के स्तर पर बड़े संघर्षों को भी जीत सकते हैं। और आज यह समय की ज़रूरत है कि तमाम ग़द्दार ट्रेड यूनियनों को खदेड़ बाहर किया जाये और एक नये ट्रेड यूनियन आन्दोलन की शुरुआत को और भी तेज़ कर दिया जाये, ताकि मेहनतकश आबादी एकजुट हो और अपने हक़-हुक़ूक को हासिल करे।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-अप्रैल 2014
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