चुनाव मैच रेफ़री की किसने सुनी!
नितिन
16वें लोकसभा चुनाव में भी, पिछले दिनों सम्पन्न होने वाले विधानसभा चुनावों की तरह, चुनाव आयोग ने जनता को बिस्तरों से खींच ‘पोलिंग बूथ’ तक लाने में अपनी सारी तिकड़में भिड़ा दीं। जहाँ एक तरफ़ चुनाव आयोग जनता को वोट के मायने समझाने के लिए ‘हर वोट मायने रखता है’, ‘वोट हमारा हक़’ व ‘वोट करेंगे’ जैसे नारों को टेलीविजनों, रोडियो व अख़बारों में विज्ञापनों व होर्डिंगों के द्वारा जनता तक पहुँचाता दिखा। वहीं दूसरी तरफ़ तरह-तरह के प्रलोभन देता भी नज़र आया जिसमें चुनाव आयोग द्वारा कुछ दुकानदारों व रेस्टोरेण्ट मालिकों को कमीशन देकर, उँगली का निशान दिखाने वाले व्यक्ति को कुछ प्रतिशत छूट दी गयी। चुनाव आयोग ऐसी कसरतें वैसे हर चुनाव में करता ही है लेकिन ये कसरतें अब काफ़ी पसीना बहा देने वाली हुई हैं! जिसका एक कारण चुनाव में चुनने के लिए सामने साँपनाथ, नागनाथ व बिच्छूप्रसाद का होना, यानी विकल्पहीनता व दूसरा कारण जनता का इस पूँजीवादी चुनाव प्रणाली पर से उठता विश्वास है जिसकी पूर्ति इन नारों व प्रलोभनों से चुनाव आयोग द्वारा की जा रही है। अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद चुनाव आयोग ग़रीब जनता की बड़ी आबादी को इस चुनाव में भी ‘पोलिंग बूथ’ तक लाने में नाकामयाब ही रहा, लेकिन पढ़े-लिखे (परन्तु राजनीतिक रूप से अनपढ़) मध्यवर्ग के एक तबके को प्रभावित करने में कामयाब भी रहा। जोकि उँगली पर निशान दिखाकर फ़ोटो खिंचवाने, रेस्टोरेण्ट में छूट पाने व अपने को ज़िम्मेदार नागरिक साबित करके वाहवाही लूटने के लिए ही ‘पोलिंग बूथ’ तक पहुँचे। इससे वोटिंग प्रतिशत में बढ़ोत्तरी तो हुई, लेकिन इस बढ़ोत्तरी का एक कारण विकल्पहीनता से त्रस्त आम-ग़रीब जनता को अरविन्द केजरीवाल द्वारा भरमाना भी रहा। तो इस पर बुर्जुआ मीडिया कहाँ पीछे रहने वाला था, वह भी वोटिंग प्रतिशत की बढ़ोत्तरी को ‘देश जाग रहा है’ व ‘अब जागेगा इण्डिया’ जैसे नारों के साथ चुनाव आयोग के कन्धे से कन्धा मिलाते हुए इसका श्रेय आयोग द्वारा अपनाये गये सख़्त नियम-क़ानूनों को देने लगा। चुनाव आयोग का काम सिर्फ़ जनता को वोट के मायने समझाना व तमाम प्रलोभन देना ही नहीं है, बल्कि इन चुनावों को ‘स्वतन्त्र व निष्पक्ष’ दिखाकर जनता की आस्था इस मौजूदा चुनाव प्रणाली में बनाये रखना भी है, इसलिए चुनाव आयोग वक़्त-वक़्त पर तमाम चुनावबाज़ पार्टियों के नेताओं को ‘आदर्श चुनाव आचार संहिता’ के दायरे में रहने की चेतावनी देता भी नज़र आया। जनता के सामने एकदम ‘सजग व सक्रिय’ दिखने का ढोंग करने वाला चुनाव आयोग प्रतिबन्धित क्षेत्रों में चुनाव सामग्री बँटवाने, मतदाताओं को पैसा व शराब बँटवाने, समुदाय विशेष के ख़िलाफ़ बयान देने, धार्मिक उन्माद फैलाने व आदर्श चुनाव आचार संहिता का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करने आदि को रोक तो नहीं पाया (वैसे रोकने की इनकी कोई चाहत भी नहीं थी), हाँ, लेकिन हाथ में आदर्श चुनाव आचार संहिता का दिखावटी चाबुक लिये आयोग तमाम चुनावबाज़ पार्टियों के नेताओं को आचार संहिता के उल्लंघन पर नोटिस देता ज़रूर नज़र आया। जैसाकि इस बार अमित शाह, वसुन्धरा राजे व आजम खाँ के भड़काऊ भाषणों पर नोटिस हो या ममता बनर्जी का आयोग की बात न मानने पर नोटिस हो आदि। ये नोटिस चुनाव आयोग के दफ़्तर से अपना सफ़र शुरु करते हैं और इन नेताओं के कचरे के डिब्बे में ख़त्म! यही इनकी मंज़िल होती ही है। अगर एक-दो कार्रवाई की भी जाती है तो वह भी ज़रूरी है वरना जनता के सामने इन चुनावों को “स्वतन्त्र व निष्पक्ष” कैसे घोषित किया जायेगा। दरअसल इन चुनावी पार्टियों के नेता टिकट के बँटवारे से लेकर अन्तिम दिन के चुनाव प्रचार तक पैसे पानी की तरह बहाते हैं और चुनाव आयोग व चुनाव आचार संहिता को जूते की नोंक पर रखते हैं और चुनाव आयोग इस जूते की नोंक पर बैले डांस करते हुए चुनावों की निष्पक्षता की दुहाई देता है। पर समय-समय पर इन नेताओं की चुनाव जीतने की हवस व बेवक़ूफ़ी चुनाव आयोग की मुश्किलें बढ़ा देती हैं। जैसे भाजपा सांसद गोपीनाथ मुण्डे का पिछले साल के बयान (जिसमें बताया कि उनका चुनाव प्रचार आठ करोड़ रुपये था जबकि चुनाव आयोग द्वारा तय राशि की सीमा 40 लाख थी) के बाद आयोग ने गहन चिन्तन-मनन किया व इस चुनाव में इसका निवारण चुनाव प्रचार के ख़र्च की राशि 40 लाख से 70 लाख कर देने में निकाला। पिछली बार की तरह इस बार भी नेताओं ने प्रचार में करोड़ों रुपये ही ख़र्च किये होंगे पर शायद अबकी कोई गोपीनाथ मुण्डे जैसे बड़बोला बयान न दे! चुनाव आयोग भली-भाँति जानता है कि किस प्रकार ये नेता मुफ़्त पेट्रोल, खाना-पीना व नक़दी देकर अपना-अपना प्रचार करवाते है, जो भी ज़्यादा ख़र्च करता है उसका प्रचार भी ज़्यादा और जीतने की उम्मीद भी। जनता के सामने वही उम्मीदवार चुनने के लिए आते हैं, जो धनबल व बाहुबल में दूसरे को हराने की हैसियत रखता हो। जिन चुनावों में करोड़ों निवेश होते हों तो वहाँ कोई भी जीते पहले करोड़ों के निवेश की पूर्ति ही करेगा। (तो ऐसे में चुनाव आयोग की भूमिका यह ही बनती है कि कैसे भी तिकड़म भिड़ाकर जनता का विश्वास इसी चुनावी प्रणाली व पूँजीवादी व्यवस्था में बनाये रखे, ताकि जनता इसके विकल्प के बारे में न सोच पाये। मौजूदा पूँजीवादी जनवाद में अन्ततः उसी की विजय होती है जिसके पीछे धनबल और बाहुबल की ताक़त खड़ी होती है; इससे अलग कोई उम्मीद करना नादानी होगी।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-अप्रैल 2014
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