विचारोत्तेजक है आह्नान
प्रिय सम्पादक,
‘आह्नान’ पहले हमेशा से अधिक विचारोत्तेजक रूप में निकल रही है। इसके लिए पूरी आह्नान टीम बधाई की पात्र है। पिछले अंक में अण्णा हज़ारे और उनके आन्दोलन के चरित्र के बारे में जो सम्पादकीय आया वह पूरी तस्वीर को साफ़ कर देता है। इसके पहले भी दो हिस्सों में अण्णा हज़ारे के आन्दोलन की विचारधारा और राजनीति पर जो लम्बा लेख प्रकाशित हुआ वह काफ़ी विस्तार से इस भ्रष्टाचार-विरोध के चरित्र को साप़फ़ कर देता है। ब्रिटेन में हुए छात्र आन्दोलन के बारे में आयी टिप्पणी भी अच्छी लगी। नार्वे के जनसंहार के बारे में प्रमुख अखबारों आदि में आयी सामग्री काफ़ी सीमित थी। ऐसे में आह्नान में प्रकाशित टिप्पणी ने कई ऐसी जानकारियाँ दीं जो और कहीं उपलब्ध नहीं थीं।
अमेरिकी आर्थिक संकट के बारे में आया लेख भी काफी सूचनापरक और विश्लेषणात्मक था। साहित्य के कॉलम में सामग्री को थोड़ा और बढ़ाएं। विज्ञान के स्तम्भ में पिछली बार कुछ नहीं आया जबकि उसका बेसब्री से इन्तज़ार था। कृपया इस स्तम्भ को जारी रखें।
तीसरी अरविन्द स्मृति संगोष्ठी की रपट पढ़कर लगा कि उसमें न जाने से कुछ छूट गया। जनवादी और नागरिक अधिकारों का प्रश्न सत्ता के अधिक से अधिक तानाशाह होते जाने से आज के समय में और भी ज़्यादा प्रासंगिक हो गया है। उम्मीद करता हूँ अगली अरविन्द स्मृति संगोष्ठी में अवश्य शामिल हो पाऊँगा।
साहित्य के स्तम्भ में समकालीन रचनाकारों के साथ कुछ पुराने कवियों जैसे मुक्तिबोध, त्रिलोचन, निराला आदि की कविताएँ भी दें तो अच्छा रहेगा। आह्नान अपनी मुहिम जारी रखे, इसके लिए जो भी सहयोग बन पड़ेगा वह करता रहूँगा। आपके प्रयास के लिए एक बारे फिर बधाई। नियमितता बनाये रखें।
अनुज, लखनऊ
पाठक सम्मेलन का विचार स्वागत-योग्य है
पिछले अंक में आह्नान के प्रथम पाठक सम्मेलन के विषय में जानकर हर्ष हुआ। कहना होगा कि इस कार्यक्रम का लम्बे समय से इन्तज़ार भी था और ज़रूरत भी। लेकिन दो दशकों के सफ़र के बाद इसे किया जा रहा है। फिर भी, देर से सही, एक सही कदम उठाया गया है। उम्मीद है मैं भी इस कार्यक्रम में शिरकत कर पाऊँगा।
आह्नान के नियमित पाठक के तौर पर कह सकता हूँ कि पिछले दो वर्षों से पत्रिका ने जो नियमितता बनायी है उससे इसके प्रभाविता निश्चित तौर पर बढ़ी है। उम्मीद करता हूँ कि इस नियमितता में आगे कोई कमी नहीं आयेगी।
पिछले अंकों में अण्णा हज़ारे और उनके आन्दोलन के बारे में नियमित तौर पर आयी सामग्री और विशेषकर पिछले अंक के सम्पादकीय ने इस पूरी परिघटना को समझने में काफ़ी सहायता की। कई मायनों में जो बातें आह्नान के पन्नों पर कहीं गयीं, वे आगे चलकर सही साबित हुई हैं।
गद्दाफ़ी की सत्ता के पतन और लीबिया के घटनाक्रम पर आयी सामग्री काप़फ़ी बढ़िया था। यहाँ रहते हुए लीबिया जैसे देशों के बारे में जान पाना वैसे भी मुश्किल होता है। ऐसे में आह्नान ने अपने चिर-परिचित विश्लेषणात्मक अन्दाज़ और ऐतिहासिक नज़रिये से जो सामग्री दी वह सराहनीय है। मर्डोक के घपले पर आई टिप्पणी भी अच्छी थी। मेरा आह्नान को सहयोग जारी रहेगा।
आशुतोष, दिल्ली
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्बर-अक्टूबर 2011
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