चिली के छात्रों के जुझारू संघर्ष को क्रान्तिकारी सलाम!
शिवार्थ
अपने देश की शिक्षा व्यवस्था में बढ़ती असमानता के विरोध में चिली के छात्रों का जुझारू संघर्ष पिछले 6 महीनों से भी अधिक समय से जारी है लेकिन मुख्य धारा के मीडिया द्वारा इसकी बहुत ही कम जानकारी हम तक पहुँचने दी जा रही है। छात्रों के कुछ छोटे समूहों द्वारा शुरू किया गया यह शान्तिपूर्ण प्रदर्शन आज एक व्यापक जन आधार वाले संघर्ष का रूप धारण कर चुका है और चिली की जनता के सभी हिस्सों ने इस संघर्ष में ज़बर्दस्त भागीदारी की है। हाल ही में किये गये एक सर्वेक्षण के अनुसार चिली के 80 प्रतिशत से ज़्यादा लोग छात्रों के इस संघर्ष को जायज़ ठहरा रहे हैं और इसका समर्थन कर रहे हैं। अभी कुछ दिनों पहले चिली के छात्रों की कनफेडेरेशन ने देश के अन्य 70 संगठनों के साथ मिलकर एक बहुत विशाल प्रदर्शन का आयोजन कराया जिसमें लाखों की संख्या में लोगों ने हिस्सेदारी की। इसके अलावा छात्रों ने पिछले लम्बे समय से 100 से अधिक स्कूलों और कॉलेजों पर कब्ज़ा जमा रखा है और उनमें किसी भी तरह का अध्ययन-अध्यापन का काम नहीं हो पा रहा है। ग़ौरतलब है कि 1988 में पिनोशे की तानाशाही के अन्त के बाद से यह पहला मौका है जब लैटिन अमेरिकी देशों में अपेक्षाकृत शान्त और स्थिर माने जाने वाले चिली में जनता के इतने व्यापक हिस्से का असन्तोष सड़कों पर फूट पड़ा है।
इस साल अप्रैल माह में शुरू हुए चिली के छात्रों के इस संघर्ष के पीछे मुख्य वजह 20 सालों के दौरान शिक्षा के बढ़ते निजीकरण के कारण पैदा हुई असमान शिक्षा व्यवस्था से छात्रों के व्यापक हिस्से में उपजा असन्तोष है। पिछले दो दशकों से जारी शिक्षा के निजीकरण और बाज़ारीकरण की वजह से बेहतर शिक्षा प्राप्त करना तेज़ी से महँगा होता गया है, ग़रीब परिवारों से आने वाले छात्रों को प्राप्त शिक्षा की गुणवत्ता में तेज़ी से गिरावट आयी है और ग़रीब तबके से आने वाले छात्र ऋण के जुवे तले पिसते जा रहे हैं। इस प्रकार अच्छी शिक्षा बेहद अमीर घरों के बच्चों तक सिमटती जा रही है। शिक्षा में बढ़ती इस असमानता के कारण पिछले कई वर्षों से व्यवस्था के विरुद्ध छात्रों का रोष बढ़ता जा रहा है। इसी असन्तोष की एक अस्पष्ट अभिव्यक्ति के रूप में पाँच साल पहले अर्थात 2006 में भी हाईस्कूली छात्रों ने एक ज़ोरदार संघर्ष किया था। और इसी कड़ी में विश्वविद्यालय के छात्रों का वर्तमान संघर्ष इस सामाजिक असन्तोष की एक अधिक स्पष्ट और केन्द्रीभूत अभिव्यक्ति के रूप में उभरकर सामने आया। इस साल अप्रैल में चिली के छात्रों की कनफेडेरेशन ने चिली की वर्तमान शिक्षा प्रणाली को पूरी तरह बदलकर इसके पुनर्निर्माण की माँग उठायी। इसके द्वारा उठायी गयी प्रमुख माँगें थीं – सार्वजनिक विश्वविद्यालयों में ज़्यादा सरकारी निवेश, पिछड़े तबकों से आने वाले छात्रों को वर्तमान ऊँची दरों वाली ऋण व्यवस्था के बजाय निःशुल्क शिक्षा मुहैया करवाना और शिक्षा व्यवस्था के सुधार व विकास के स्थान पर मुनाफ़ा कमाने को प्राथमिकता देने वाले निजी विश्वविद्यालयों को बन्द किया जाना। इस कनफेडेरेशन ने अपना लक्ष्य – एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था का निर्माण करना जिसमें संवैधानिक रूप से प्रत्येक स्तर पर सभी को निःशुल्क व समान शिक्षा उपलब्ध हो और ऐसे ज्ञान के निर्माण को बढ़ावा देना जिससे चिली में एक समानतामूलक विकास हो और जो चिली के लोगों की ज़रूरतों को पूरा कर सके – घोषित किया है।
विश्वविद्यालय के छात्रों के साथ ही सैकेण्डरी स्कूल के छात्रों ने भी संघर्ष का झण्डा उठा लिया और पूरे चिली में एक समान स्कूली व्यवस्था की माँग के समर्थन में सड़कों पर उतर पड़े। ध्यान देने योग्य बात है कि इस समय चिली के स्कूलों का लगभग 55 प्रतिशत हिस्सा निजी हाथों में है। 2009 में OECD (ऑर्गेनाईजेशन फॉर इकॉनोमिक कॉपरेशन एण्ड डेवेलपमेण्ट) की PISA (प्रोग्राम फॉर इन्टरनेशनल स्टूडेण्ट असेसमेण्ट, OECD द्वारा चलाया जाने वाला प्रोग्राम) वरीयता में शामिल अन्य लैटिन अमेरिकी देशों से चिली आगे है और इस पूरे क्षेत्र में चिली की शिक्षा को सबसे बेहतरीन माना जाता है। लेकिन दूसरी ओर अगर इस बेहतरीन शिक्षा के चिली समाज के विभिन्न स्तरों तक पहुँच की बात की जाये तो इस लिहाज़ से चिली का स्थान पीसा परीक्षा में भाग लेने वाले 65 देशों में 64वें नम्बर पर आता है। इस मामले में केवल पेरू ही चिली से निचले स्थान पर है। शिक्षा की समाज के विभिन्न हिस्सों में पहुँच में इतना भारी अन्तर होने के बावजूद भी चिली की सरकार शिक्षा पर होने वाला सरकारी निवेश लगातार कम करती जा रही है। इस समय यह निवेश चिली के कुल सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 4 प्रतिशत ही है। साफ है इन सभी कारणों से स्तरीय शिक्षा चिली की बहुसंख्यक छात्र आबादी से दूर होती जा रही है और इस वजह से इनका इस शिक्षा व्यवस्था के प्रति गुस्सा लगातार बढ़ता जा रहा है। और ये गुस्सा ही छात्रों के वर्तमान संघर्ष के जुझारू चरित्र का एक प्रमुख कारण था।
इस संघर्ष के दौरान छात्रों ने अपने लड़ाकूपन की कई बेहतरीन मिसालें पेश कीं। साथ ही अपनी उन्नत राजनीतिक चेतना का भी परिचय दिया। छात्रों के दबाव में आकर पहले तो राष्ट्रपति सिबेस्टीयन पिनेरा ने शिक्षा मन्त्री जोएक्विन लाविन को हटा दिया और शिक्षा पर और अधिक सरकारी व्यय करने की घोषणा की। लेकिन पिनेरा ने शिक्षा को पूरी तरह सार्वजनिक क्षेत्र के अधीन लाने से साफ मना कर दिया। इस वजह से छात्रों ने राष्ट्रपति के इस प्रस्ताव को ख़ारिज कर दिया। फिर पिनेरा मन्त्रीमण्डल ने मिलकर 1 अगस्त को 21 सूत्री नया प्रस्ताव पेश किया जिसमें छात्रों की छात्रवृत्ति बढ़ाने, सभी को बेहतर शिक्षा की व्यवस्था करने को सरकार की एक संवैधानिक बाध्यता घोषित करने, छात्रों को विश्वविद्यालय के संचालन में भागीदार बनाने आदि माँगों को तो माना गया लेकिन शिक्षा के निजीकरण के खि़लाफ़ फिर कोई निर्णय नहीं लिया। छात्रों ने इस प्रस्ताव में शिक्षा के बाज़ारीकरण द्वारा मुनाफ़ा कमाने की प्रवृत्ति को एक आपराधिक गतिविधि न घोषित किये जाने, उच्च शिक्षा में निःशुल्क और समान शिक्षा की उपलब्धता की व्यवस्था करने का प्रस्ताव न होने के कारण अस्वीकार कर दिया। छात्रों ने इसे “बैण्ड-एड सल्यूशन” बताया। इसके बाद छात्रों ने 4 अगस्त को एक राष्ट्रव्यापी हड़ताल की घोषणा की। इस हड़ताल में कई जगह छात्रों की पुलिस के साथ हिंसक झड़पें हुईं। पुलिस ने 874 लोगों को गिरफ्तार किया और कई जगह छात्रों को तितर-बितर करने के लिए आँसू गैस और पानी की तेज़ बौछार का उपयोग किया। लेकिन पुलिस की इस दमनात्मक कार्यवाही के बाद छात्रों का आन्दोलन और तेज़ हो गया। उनकी एकता और दृढ़संकल्प और अधिक बढ़ गया और चिली की जनता के अन्य हिस्सों से भी छात्रों के संघर्ष का समर्थन बढ़ता गया। स्कूल और विश्वविद्यालय के छात्रों के साथ शिक्षक, मज़दूर, वयोवृद्ध नागरिक आदि भी छात्रों के समर्थन में सड़कों पर उतर पड़े। 21 अगस्त को 1 लाख से लेकर 10 लाख लोगों तक ने प्रदर्शनों में भागीदारी की। 24 व 25 को अगस्त राष्ट्रव्यापी हड़ताल का आयोजन किया गया जिसमें लगभग 6 लाख से भी अधिक लोगों ने भागीदारी की। इस हड़ताल के दौरान पुलिस ने फिर दमनात्मक कदम उठाये, यहाँ तक की पुलिस ने फायरिंग तक कर दी जिसमें एक 16 वर्षीय छात्र की मौत हो गयी। इससे लोग और भड़क उठे और पुलिस को अपने कदम वापस खींचने पड़े। 1988 में पिनोशे की तानाशाही के अन्त और लोकतन्त्र बहाली के बाद से यह चिली की अब तक की सबसे बड़ी और उग्र हड़ताल थी। इसके बाद छात्रों ने 11 सितम्बर को राजधानी सान टियागो में सोशलिस्ट राष्ट्रपति सलवाडोर अलेन्दे की अमेरिकी पिट्ठू पिनोशे द्वारा की गयी हत्या की 38वीं बरसी पर लोगों ने एक विशाल जुलूस निकाला जो कि चिली के संविधान के अनुसार गै़र-कानूनी था। इस दौरान प्रदर्शनकारियों की फिर पुलिस के साथ हिंसक झड़पें हुईं और कई जगहों पर छात्रों ने बैरिकेड बाँधकर पुलिस से मोर्चा लिया। उप आन्तरिक मन्त्री रोडरिगो उबीला के बयान के अनुसार उस दिन “350 से भी अधिक जगहों पर बैरिकेड लगाये गये और गलियों को जाम कर दिया गया। 1,30,000 से भी अधिक घरों में बिजली कट चुकी थी।” इसके बाद अक्टूबर माह में फिर सरकार की तरफ़ से नए शिक्षा मन्त्री फेलिग बुलनेस ने समझौते के लिए छात्र प्रतिनिधियों को वार्ता के लिए बुलाया लेकिन वार्ता के बाद छात्रों ने सरकार पर ‘राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी’ और ‘देश के बहुसंख्या की माँगों को पूरा करने के सामर्थ्य’ के अभाव का आरोप लगाया और शिक्षा व्यवस्था पर खुले जनमत संग्रह की माँग के साथ भविष्य में समझौता वार्ताएँ करने से मना कर दिया। इसके बाद भी सरकार द्वारा इस माँग पर कोई कदम न उठाने के कारण छात्रों ने सरकार पर दबाव बनाने के जनमत संग्रह की माँग करते हुए चिली की सीनेट की कार्यवाही को कई घण्टों तक बाधित रखा। तीन छात्र तो ‘खुले जनमत संग्रह’ की माँग का बैनर लेकर मन्त्रियों के सामने रखी टेबल पर ही चढ़ गये और जनमत संग्रह की माँग के माने जाने के बाद ही छात्रों ने सीनेट को खाली किया। छात्रों का कहना है देश के लोगों को कैसी शिक्षा व्यवस्था चाहिए यह निर्णय करने का अधिकार उन्हीं के हाथों में होना चाहिए। लेकिन पिनेरा ने भी शिक्षा को पूर्णतः सार्वजनिक क्षेत्र के एकाधिकार में लाने और सभी के लिए पूरी शिक्षा निःशुल्क किये जाने से मना कर दिया है। यह लेख लिखे जाने तक सरकार और छात्रों के बीच कोई समझौता न हो सका था और छात्रों का संघर्ष लगातार जारी था। इस प्रकार साफ़ है कि चिली के छात्रों ने अपने लड़ाकूपन और सामाजिक असमानता के प्रति नफ़रत की अद्भुत मिसाल पेश की है। इन्हीं माँगों को लेकर कुछ समय पहले ब्रिटेन और फ़ांस के छात्रों के संघर्ष भी हुए थे लेकिन चिली के छात्रों का यह आन्दोलन अपने चरित्र में उनसे गुणात्मक रूप से काप़फ़ी भिन्न और राजनीतिक रूप से काफ़ी उन्नत है। जहाँ ब्रिटेन और फ़्रांस के छात्रों का संघर्ष कुछ समय बाद ठण्डा पड़ गया था वहीं चिली के छात्रों का दृढ़ निश्चय दिन-पर-दिन बढ़ता ही जा रहा है। इन्होंने अपनी माँगों के पूरा न होने तक स्कूल व कॉलेजों की पढ़ाई शुरू न करने का निश्चय किया है चाहे इसके लिए इन्हें ये साल फिर दोहराना ही क्यों न पड़े!
वास्तव में चिली के छात्रों का यह संघर्ष केवल शिक्षा व्यवस्था की असमानता को ही नहीं बल्कि पिछले 20 वर्षों के दौरान नवउदारवाद की नीतियों के उग्र रूप से लागू होने के कारण चिली समाज में समग्र रूप से अमीरी और ग़रीबी के बीच बढ़ी खाई के कारण पैदा हुए व्यापक सामाजिक असन्तोष को प्रतिबिम्बित करता है। चिली में आये दिन मज़दूरों, छात्रों, किसानों के संघर्ष होते रहते हैं। छात्रों के इस संघर्ष की शुरुआत भी पैटागोनिया क्षेत्र में विशाल हाइड्रो-इलेक्ट्रिक प्लाण्ट बनाये जाने का विरोध कर रहे लोगों के संघर्ष के कुछ समय बाद ही हुई थी और वह विरोध भी छात्रों के इस संघर्ष के साथ मिलकर एक हो गया था। इसके अलावा कुछ ही समय पहले रोज़गार सुरक्षा को लेकर ट्रांसपोर्ट वर्कर्स का संघर्ष, कॉपर खनन के मज़दूरों का संघर्ष, 2006 में हाई स्कूली छात्रों का संघर्ष आदि ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो चिली की जनता में बढ़ते असन्तोष को दिखाते हैं।
चिली की जनता के लड़ाकूपन का एक दूसरा कारण लैटिन अमेरिका के अन्य देशों की भाँति चिली में भी क्रान्तिकारी संघर्षों और बलिदानों से भरे हुए गौरवमयी इतिहास की प्रेरणा शक्ति है। पिनोशे की तानाशाही के अन्त के बाद पैदा हुई और पली बढ़ी चिली की वर्तमान युवा पीढ़ी, जो कि इस संघर्ष में मुख्य रूप से नेतृत्व कर रही है, ने भी अपने संघर्षमयी इतिहास को भुलाया नहीं है। सिमोन बोलीवार, सलवाडोर अलेन्दे, चे गुवेरा आज भी यहाँ के युवाओं के आदर्श और प्रेरणा स्रोत हैं।
साफ है कि चिली के छात्रों के इस संघर्ष ने पूरे विश्व के युवाओं और हमारे देश के युवाओं के समक्ष भी अन्याय और असमानता के विरुद्ध संघर्ष का एक शानदार उदाहरण प्रस्तुत किया है। चिली के युवाओं ने विश्व के अन्य देशों के युवाओं से दो कदम आगे बढ़ कर शिक्षा के निजीकरण के खि़लाफ़ समझौताविहीन संघर्ष चलाया है, अभी तक पुलिसिया दमन और सरकारी दाँव-पेंचों के सामने अपने हथियार नहीं डाले हैं और इसके के लिए वे तहे-दिल से क्रान्तिकारी अभिवादन के पात्र हैं। लेकिन यहाँ कुछ और महत्वपूर्ण बातों को भी ध्यान में रखना ज़रूरी हैं जिससे हम इस संघर्ष को लेकर कोई झूठा भ्रम न पालें।
इस शताब्दी के पहले दशक में ही यह साफ हो गया है कि विश्व पूँजीवादी व्यवस्था अपने अन्तकारी संकट से बुरी तरह ग्रस्त है। इसके द्वारा पैदा किये गये आर्थिक-सामाजिक संकटों के कारण विश्व के हरेक भाग में लोग सड़कों पर उतर रहे हैं और जुझारू संघर्षों की ढ़ेरों मिसालें सामने आ रही हैं। लेकिन ये संघर्ष तब तक एक मुकम्मिल सफलता नहीं हासिल कर सकेंगे जब तक इन संघर्षों को मुनाफ़े पर टिकी इस पूरी अन्यायपूर्ण अराजक व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की क्रान्तिकारी परियोजना से नहीं जोड़ा जायेगा। पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद इतिहास की एक पीछे छूट चुकी अवस्था है और आज समाजवादी व्यवस्था के निर्माण के लिए संघर्ष ही इस मानवद्रोही व्यवस्था का विकल्प हो सकता है। लेकिन इसके लिए इन अंसगठित बिखरे हुए स्वतःस्फूर्त संघर्षों से आगे बढ़ने की ज़रूरत है। हमें पिछली शताब्दी के क्रान्तिकारी प्रयोगों का समाहार करना होगा और वैश्विक व देश के पैमाने पर परिस्थितियों में आये बदलावों का खुले दिमाग़ से अध्ययन करना होगा। इसके साथ ही जनता के अगुआ हिस्से को सामाजिक परिवर्तन के संघर्ष की दिशा तथा इस मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था के एक विकल्प की एक सुस्पष्ट एवं सुसंगत तस्वीर पेश करनी होगी। साथ ही नये सिरे से जनता को संगठित करने के काम में जुट जाना होगा। हमें ध्यान रखना होगा कि यह व्यवस्था अपनी जड़ता की ताकत से टिकी हुई है और अपने आप ही समाप्त नहीं हो जायेगी। केवल जनता के व्यापक हिस्से के संगठित एवं सचेत प्रयास द्वारा ही इसे उखाड़ फेंकना सम्भव हो सकेगा।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्बर-अक्टूबर 2011
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