भारतीय लोकतन्त्र और उसमें चुनाव की भूमिका पर चिन्तन विचार मंच, लखनऊ द्वारा परिसंवाद का आयोजन

लखनऊ संवाददाता

20 फ़रवरी को, ‘भारतीय लोकतन्त्र और उसमें चुनाव की भूमिका’ पर परिसंवाद का आयोजन, ‘चिन्तन विचार मंच’ द्वारा अनुराग पुस्तकालय में किया गया। परिसंवाद का विषय प्रवर्तन करते हुए ‘नई दिशा छात्र मंच’ के लालचन्द्र ने कहा कि लोकतन्त्र कोई वर्गविहीन अवधारणा नहीं है। इसी के अनुसार यह देखना ज़रूरी है कि भारतीय लोकतन्त्र की वर्गीय पक्षधरता क्या है? और यह कि भारतीय लोकतन्त्र कितना लोकतान्त्रिक है? अभी पाँच राज्यों में विधान सभा चुनाव हो रहे हैं। 2014 में लोकसभा के चुनाव होने हैं। इसके पहले के भी 1952 से अभी तक जो चुनाव हो चुके हैं उन सभी चुनावों को हम देखें तो यह साफ हो जाता है कि भारतीय जनतन्त्र की चुनावी प्रणाली व्यापक जनता की जीवन स्थितियों में बुनियादी बदलाव लाने में सक्षम नहीं हुई है। ऐसे में क्या वर्तमान चुनाव जनता की जि़न्दगी में बदलाव का कोई समाधान दे सकते हैं, जबकि चुनाव आयोग चुनाव प्रणाली में कई सुधार कर रहा है? मसलन ‘राइट टू रिजेक्ट’ का प्रावधान, प्रत्याशियों पर कई तरह के अंकुश आदि। एक बात पर अभी बहस है जनता को चुने गये प्रत्याशियों को वापस बुलाने की शक्ति देने की जिस पर सभी राजनीतिक दल अपना पुरज़ोर विरोध दर्ज करा रहे हैं।

बैंककर्मी प्रताप दीक्षित ने बात रखते हुए कहा कि आज जब यह सच्चाई ख़ुद चुनाव आयोग से लेकर मीडिया तक स्वीकार कर चुकी है कि सभी प्रत्याशी बुरे हैं, उन्हीं में से हमें कम बुरे का चुनाव करना है। तो इन चुनावों से जनता को अपनी तकलीफों से निजात नहीं मिलेगी। मुझे तो इससे कोई उम्मीद नहीं है। कवि व अध्यापक चन्द्रेश्वर ने कहा कि यदि मुक्तिबोध के शब्दों में कहा जाय तो सभी ‘रावण के दरबारी’ बन चुके हैं, उनसे कुछ अपेक्षा नहीं की जा सकती। जिन ‘‘पढ़े-लिखे’’ लोगों का कर्तव्य था कि वे जनता से जुड़कर उनकी चेतना को उन्नत बनायें, उन्हें भारतीय जनतन्त्रा की वास्तविकता से परिचित करायें वे आज पद, प्रतिष्ठा व पुरस्कार पाने की अन्धी दौड़ में शामिल हो चुके हैं। ऐसे समय में यहाँ कुछ लोग इन मुद्दों पर बात कर रहे हैं तो आशा है कि आने वाले समय में कुछ ठोस शुरुआत हो सके। जिससे जनता बदलाव के लिए, विकल्प के बारे में सोचने के लिए आगे बढ़े। ‘आह्नान’ पत्रिका के आशीष ने कहा कि मुझे लगता है कि भारतीय जनतन्त्र, धनतन्त्र में व डण्डातन्त्र बन चुका है। चुनावी प्रत्याशियों के लगभग आधों पर आपराधिक आरोप हैं। आधों से अधिक करोड़पति व कुछ अरबपति हैं। ऐसे में 20 रुपये या उससे कम पर गुजर करने वाली 84 करोड़ की आबादी के प्रतिनिधि वास्तव में वे होते ही नहीं। एक सांसद की महीने की तनख्वाह ही 60 हज़ार होती है बाकी अन्य खर्चों की बात ही नहीं कर रहे हैं, जो करोड़ों में होते हैं। दूसरी ओर इस देश में नौ हज़ार बच्चे रोज़ भूख व कुपोषण से मर जाते हैं। ऐसे में चुनाव की वर्तमान प्रक्रिया केवल पूँजीपतियों की सेवा कर रही है। ये चीज़ें इलेक्शन से नहीं बल्कि इंकलाब द्वारा ही बदल सकती हैं। राजनीतिक कार्यकर्ता बृजबिहारी ने कहा कि बदलाव के लिए इंकलाब की बात ठीक है परन्तु वह दूर की बात है, तब तक हमें इस चुनावी प्रक्रिया में शामिल होकर आम जनता के मुद्दों को चिन्हित करना चाहिए। स्टूडेण्ट फेडरेशन ऑफ इण्डिया के प्रवीण ने कहा कि माक्‍सवाद यह बताता है कि राज्यसत्ता ही किसी तन्त्र को चलाने का मुख्य अंग होती है। इसलिए हमें चुनाव में भागीदारी द्वारा बहुमत हासिल करना चाहिए। इससे हम राज्यसत्ता पर अधिकार कर सकते हैं, और जनता के हित में कायदे कानून बना सकते हैं। जहाँ तक आज के पूँजीवादी पार्टियों का सवाल है तो हम भी मानते हैं वह धनबल, बाहुबल का अड्डा है। लेकिन आज जनता भी ग्लैमर के पीछे भाग रही है। अच्छे व्यक्तियों को वोट नहीं करती है। ‘नौजवान भारत सभा’ के लालचन्द्र ने कहा कि चुनाव के माध्यम से जो प्रतिनिधि संसद व विधान सभाओं में जाते हैं असल में वे व्यवस्था का संचालन नहीं करते। वे संसद, विधानसभाओं में देशी-विदेशी पूँजी के हित में, नियम कायदे कानून को, झूठी बहसबाज़ी करके पारित करते हैं जो तमाम आयोगों, फिक्की और ऐसोचैम के चैम्बर्स में बनते हैं। देश का पूरा तन्त्रा यहाँ की नौकरशाही, न्यायतन्त्रा, पुलिस बल व सैन्यबल द्वारा चलता है। राष्ट्रपति शासन लागू होने के समय इसे प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। और इन तीनों तन्त्रों का चुनाव जनता नहीं करती। वास्तव में भारतीय जनतन्त्र मुट्ठीभर लोगों का है बाकी जनता के लिए यह दमन का एक तन्त्र बन गया है। यह एक बहुत बड़ी भूल है कि सरकार और राज्यसत्ता को एक समझ लिया जाये। यह लेनिन की शिक्षा के खि़लाफ़ है। यह संशोधनवादी सिद्धान्त है। अधिवक्ता सुश्री अमृता चक्रवर्ती दास ने अपनी बात रखते हुए कहा यदि आप न्यायतन्त्र को ही देखें तो पायेंगे कि कैसे वह जनता के खि़लाफ़ व पूँजीपतियों के पक्ष में खड़ी है। उन्होंने भोपाल गैस त्रासदी, स्पेशल इकोनॉमिक जोन बनाये जाने, आदिवासियों के भूमि अधिग्रहण आदि की बात करते हुए बताया कि इन मुद्दों पर न्यायालय का रुख़ क्या रहा है, सभी जानते हैं। लखनऊ विश्वविद्यालय की छात्रा शिवा ने कहा कि बाकी सभी ने काफी बातें रखी परन्तु एक और नज़रिए से आप देंखे तो भी आप इस जनतन्त्र की हकीकत जान सकते हैं। उन्होंने कहा कि चुनाव में जो भी प्रत्याशी जीतता है वह कुल पड़े वोटों का केवल 10 से 15 प्रतिशत ही पाता है तो शुद्ध गणित के नियम से ही हम देखें तो जीता प्रत्याशी बाकी के 90 या 85 प्रतिशत लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं करता। ऐसे में जनता के लिए ‘भारतीय जनतन्त्र’ मज़बूरी का है, और इसके अन्तर्गत चुनाव इसे ही मज़बूत बनाने का यंत्न भर है। कार्यक्रम में 35 से अधिक की संख्या में विभिन्न कॉलेजों के छात्र-नौजवान, नौकरीपेशा लोग व वरिष्ठ नागरिक शामिल हुए।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2012

 

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