श्री श्री रविशंकर और बाबागीरी का राजनीतिक अर्थशास्त्र
शिवानी
‘भारत एक कृषि-प्रधान देश है’, यह हम बचपन से किताबों में पढ़ते या फिर सुनते आये हैं (इस कथन की सत्यपरकता आज एक बहस का मुद्दा हो सकता है, लेकिन फिलहाल उस पर नहीं जाते!)। इस कथन से मिलता-जुलता एक अन्य कथन, यदि भारत के परिप्रेक्ष्य में देखें, तो काफी सही बैठता है – ‘भारत एक बाबा-प्रधान देश है!’ यहाँ किसिम-किसिम के बाबा पाये जाते हैं। और हर बाबा के पीछे उनके ‘चेलों’ या ‘भक्तों’ की एक वफ़ादार फौज भी चलती है। चूँकि यहाँ हम एक पूँजीवादी समाज की बात कर रहे हैं, जहाँ हर वस्तु/सेवा एक माल होती है और बाज़ार के लिए पैदा की जाती है। ऐसे में, इस समाज में बाबाओं द्वारा बाँटा गया ‘ज्ञान’ या फिर अपने चेलों-भक्तों के दुखों के निवारण के लिए प्रदान की गई ‘सेवा’ भी एक माल है और इन सभी बाबाओं का भी एक बाज़ार होता है। लेकिन जैसे कि पूँजीवाद में उत्पादित हर माल सबके लिए नहीं होता (जिसकी कूव्वत (यानी कि आर्थिक क्षमता) होती है, वही उसको ख़रीद सकता है, उसका उपभोग कर सकता है), उसी प्रकार बाबाओं द्वारा दी गई ‘सेवा’ भी हर किसी के लिए नहीं होती। सीधे-सपाट शब्दों में कहें तो, बाबाओं का बाज़ार भी वर्ग-विभाजित होता है। भारत में आसाराम बापू, सुधांशु जी महाराज, निर्मल बाबा, रामदेव, श्री श्री रविशंकर सरीखे तरह-तरह के बाबा पाये जाते है। ग़ौर करें कि हम यहाँ उन्हीं बाबाओं का जिक्र कर रहे हैं, जिनकी पहुँच और जिनका नाम, सूचना क्रान्ति के दौर में, केबल टी.वी. के माध्यम से मध्यम वर्ग के एक बड़े हिस्से तक गया है। इनके अलावा भी बाबाओं की एक बहुत बड़ी जमात है जो कि बाबाओं के इस बाज़ार में ‘छोटी पूँजी’ जैसी स्थिति होने के चलते अपना वैसा प्रचार-प्रसार नहीं कर सकती जैसा कि ऊपर गिनाये गये ‘सेलेब्रिटी’ बाबा कर रहे हैं! हां, यह ज़रूर है कि वफादार चेलों-भक्तों की कमी उन्हें भी नहीं है।
पिछले कुछ समय में, इन बाबाओं में से कई सुखि़र्यों में रहे हैं (हालाँकि, ज़्यादातर ग़लत कारणों के लिए, जैसे कि सेक्स स्कैण्डल, यौन उत्पीड़न, धोखाधड़ी, ज़मीन कब्ज़ा, चार सौ बीसी, चोरी, वेश्यावृत्ति, वगैरह!)। इन्हीं में से एक बाबा श्री श्री रविशंकर के एक कथन पर काफी बवाल भी मचा। रविशंकर ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा संचालित आदर्श शिक्षा परिषद् द्वारा राजस्थान में आयोजित एक कार्यक्रम में कहा कि सरकार को स्कूल नहीं चलाने चाहिए। सरकारी स्कूलों में ‘नक्सल-टाइप’ और हिंसात्मक प्रवृत्ति के बच्चे जाते हैं। विरोध प्रदर्शनों के चलते रविशंकर को बाद में अपना यह कथन बदलते हुए कहना पड़ा कि वे सभी सरकारी स्कूलों की बात नहीं कर रहे हैं!
रविशंकर का यह कथन किसी भी तरह से अप्रत्याशित या फिर ताज्जुब पैदा करने वाला नहीं है। वह यही बोल सकता था। एक कॉरपोरेट ब्राण्ड बाबा होने के नाते उसकी वर्गीय पक्षधरता तो साफ़ ही है। यहाँ हमारे कहने का मतलब यह नहीं है कि जिन बाबाओं का आधार अपेक्षतया गरीब निम्न-मध्यवर्गीय आबादी में होता है, वे किसी भी रूप में, आम ग़रीब जनता के हिमायती होते है। हाँ, लेकिन वे इतनी नंगई से यह बात नहीं कह सकते जितनी नंगई से रविशंकर ने यह कहा, वरना उनका आधार ही ख़त्म हो जायेगा। इतना तो रविशंकर भी जानते ही होंगे कि सरकारी स्कूलों में उन धन्ना-सेठों और कॉरपोरेट सी.ई.ओ. के बच्चे नहीं जाते जो उनके ‘आर्ट ऑफ लिविंग फाउण्डेशन’ के कोर्स में शिरकत करते हैं। अमीरों के इस बाबा को सरकार का शिक्षा जैसे बुनियादी अधिकार पर इतना ख़र्च करना भी अखर रहा है। और इसलिए वह शिक्षा के क्षेत्र को पूरी तरह से निजी हाथों में सौंपने की पेशकश कर रहा है। यह एक दीगर बात है कि सरकार शिक्षा पर उतना भी ख़र्च नहीं करती जितना कि वह वायदा करती है। नवीनतम बजट में स्कूली शिक्षा के लिए जो कुल राशि आबण्टित की गयी है वह मुश्किल से 0.5 प्रतिशत है। यहाँ यह भी रेखांकित करने की ज़रूरत नहीं है कि हमारे देश में सरकार द्वारा चलाये जा रहे स्कूलों की स्थिति क्या है। लेकिन इन सबके बावजूद यह किसी भी सरकार के सबसे ज़रूरी दायित्वों में से एक है कि वह अपने देश के बच्चों को निःशुल्क, समान और गुणवत्ता वाली शिक्षा मुहैया कराये। एक ऐसे देश में जहां 16 करोड़ से भी ज्यादा बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ने जाते हैं वहाँ सरकारी स्कूलों को ही बन्द कर देने की बात को किस श्रेणी में रखा जाये?
जहाँ तक सरकारी स्कूलों में ‘नक्सल किस्म’ के या फिर हिंसात्मक प्रवृत्ति के बच्चों के जाने की बात है तो लगता है कि श्री श्री रविशंकर ‘आर्ट ऑफ लिविंग’ का कोर्स कराते-कराते आध्यात्मिकता में इतना खो गये हैं कि वास्तविक भौतिक यथार्थ से उनका सम्बन्ध-विच्छेद ही हो गया है। आज बड़े-बड़े कॉरपोरेटों और खनन कम्पनियों की शह पर सरकारें अपने-अपने राज्यों की निर्धनतम आबादी को उनके जल-जंगल-ज़मीन से खदेड़ रही है। इसका प्रतिकार करने और अपने अस्तित्व की शर्त को बनाए रखने के लिए अगर इन इलाकों में बच्चे तक बन्दूक उठाने को मजबूर होते हैं और नक्सल वामपंथी दुस्साहसवाद के साथ खड़े होते हैं तो क्या इसमें कोई आश्चर्य की बात है? वे किसी भी ऐसी ताक़त के साथ खड़े होते जो सरकार द्वारा फैलाये जा रहे आतंकवाद का विरोध लड़ाकू तरीके से करती! अपनी ग़लत समझदारी और वामपंथी दुस्साहसवाद के साथ छत्तीसगढ़, झारखण्ड, आदि जैसी जगहों में यह काम नक्सलवादी कर रहे हैं, इसलिए अपनी आजीविका और सम्मान के आखि़री साधनों से भी मरहूम कर दिये गये लोग हथियार उठाकर उनके साथ खड़े हैं। जिन परिवारों को आजीविका के बुनियादी साधनों से भी वंचित कर दिया जायेगा, जहाँ पुलिस, सुरक्षा बल और सलवा जुडूम जैसी ताक़तें मनचाहे ढंग से औरतों का बलात्कार करेंगी और बच्चों को यतीम बनायेंगी, अगर उन परिवारों के बच्चे नक्सली हिंसा का रास्ता चुनते हैं तो इसका कारण यह नहीं कि वे सरकारी स्कूल जाते हैं; बल्कि इसका कारण यह है कि उनके जीवन और मृत्यु के बीच की बारीक रेखा भी राज्य आतंकवाद के अत्याचार धूमिल कर देते हैं। लड़ना ही उनके जीने की शर्त बन जाता है। श्री श्री रविशंकर जीवन की कला के बारे में कई सिद्धान्त और दर्शन बघार सकते है, लेकिन वास्तविक जीवन होता क्या है, यह उनकी समझ से परे है।
एक और बात जिसकी तरफ इशारा करना यहाँ प्रासंगिक होगा वह यह कि रविशंकर का यह बयान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा संचालित एक संगठन के मंच से आया। जहाँ एक तरफ रविशंकर सरकारी स्कूलों को बन्द करने के पक्ष में हैं, वहीं दूसरी ओर वे चाहते है कि संघ द्वारा चलाए जा रहे आदर्श विद्या मन्दिरों का जाल पूरे देश में फैले! विद्या भारती और आदर्श शिक्षा परिषद् द्वारा चलाए जा रहे ये विद्यालय नन्हे बाल मस्तिष्कों में किस किस्म का साम्प्रदायिक विष घोलने का काम करते रहे है और आज भी कर रहे हैं यह किसी से छिपा नहीं है। ऐसे में रविशंकर द्वारा इन विद्यालयों की पैरोकारी उनका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हितैषी होने के तमाम दावों को पुख़्ता करती है। हाँ, इतना अवश्य है कि उनके ब्राण्ड की आध्यात्मिकता – जो पूँजीवादी आधुनिकता के साथ मिलकर एक विचित्र घोल-मट्ठा तैयार करती है – कभी भी खुले तौर पर साम्प्रदायिक या अल्पसंख्यक-विरोधी नहीं होगी। लेकिन इस आध्यात्मिकता का अन्तर्य हमेशा से हिन्दुत्ववादी ही रहा है।
श्री श्री रविशंकर मात्र कारपोरेट ब्राण्ड गुरु नहीं है। वे स्वयं एक कारपोरेट पूँजीपति भी है। इनके द्वारा चलाया जा रहा ‘आर्ट ऑफ लिविंग’ फाण्डेशन करीबन 152 देशों में एक व्यवसाय के तौर पर काम कर रहा है। जुलाई 2007 तक आर्ट ऑफ लिविंग फाण्डेशन की कुल परिसम्पत्ति 77 लाख डॉलर थी। जुलाई 2006 से जून 2007 तक इसकी कुल आय 55 लाख डॉलर थी जिसमें से 35 लाख डॉलर कोर्स की फीस के रूप में और 17 लाख डॉलर ‘जन समर्थन’ के रूप में प्राप्त हुई। इस साल इसके द्वारा किया गया खर्च 36 लाख डॉलर था, यानी सीधे-सीधे 19 लाख डॉलर का शुद्ध मुनाफा! इसलिए कॉरपोरेटों के बाबा और खुद एक कॉरपोरेट पूँजीपति होने के नाते रविशंकर के कथन में कहीं कोई विसंगति नज़र नहीं आती। स्वयं एक पूँजीपति होने के नाते पूँजीवाद के वर्तमान दौर में, उन्हें शिक्षा जैसे क्षेत्र में भी राज्य का हस्तक्षेप गैर-ज़रूरी लग रहा है। वे तो चाहेंगे ही शिक्षा की इस मण्डी को निजी मुनाफे की लूट के लिए खुला छोड़ दिया जाए। इसलिए उनके इस बयान पर हाय-तौबा वही मचा सकते है जिन्हें उनसे किसी और चीज़ की उम्मीद हो।
अमीरी और विलासिता की चर्बी पर तैरने वाले इन बाबाओं का असली चाल-चरित्र-चेहरा वास्तव में यही होता है-पूँजीवाद और पूँजीवाद की भी सबसे घिनौनी किस्म, यानी, फासीवादी पूँजीवाद का समर्थन करना और उसके पक्ष में आध्यात्मिकता और धर्म का इस्तेमाल करके समर्थन पैदा करवाना।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2012
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