जर्मनी में फ़ासीवाद का उभार और भारत के लिए कुछ ज़रूरी सबक़

शिवानी

पिछले दो आम चुनावों में भारतीय जनता पार्टी-नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की हार के साथ देश भर में बुद्धिजीवियों और प्रबुद्ध मध्यम वर्ग का एक हिस्सा इस बात को लेकर बेहद खुश था कि भारतीय जनता पार्टी के रूप में साम्प्रदायिक फ़ासीवाद की पराजय हुई है और फ़ासीवादी ख़तरा टल गया है। लेकिन 2014 में होने वाले लोकसभा चुनावों में भाजपा द्वारा नरेन्द्र मोदी को प्रधानमन्त्री पद के दावेदार के रूप में पेश करने के साथ ही तमाम प्रबुद्ध हलकों में आसन्न फ़ासीवादी उभार को लेकर ख़ासी चिन्ता है, जो कि ग़ैर-वाजिब भी नहीं है। हालाँकि यहाँ इस बात की ओर भी ध्यानाकर्षण की ज़रूरत है कि चुनावों में फ़ासीवादी ताक़तों की हार को स्वयं फ़ासीवाद की पराजय मानना एक ख़तरनाक खुशफहमी ही हो सकती है। इसलिए फ़ासीवाद के विरुद्ध संघर्ष में निश्चिन्तता का शिकार हो जाना और इसके विरुद्ध वैचारिक, राजनीतिक- सांस्कृतिक प्रत्याक्रमण में ढिलाई बरतना आत्मघाती साबित हो सकता है। भारत में फ़ासीवाद की चुनौती को समझने और उससे लड़ने की तैयारी में फ़ासीवाद के उभार के इतिहास के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक कारणों का विश्लेषण, इन अर्थों में इसलिए बेहद ज़रूरी बन जाता है। इसके मद्देनजर ही, जर्मनी में, जहाँ फ़ासीवाद के उदय, विकास और सुदृढ़ीकरण का सबसे प्रातिनिधिक उदाहरण देखने को मिलता है, फ़ासीवादी उभार की स्थितियों और प्रक्रियाओं पर निगाह डालना उपयोगी होगा।

फ़ासीवाद के भारतीय संस्करण की परिघटना को समझने के लिए जर्मनी में, जहाँ पर फ़ासीवाद सम्भवतः अपने बर्बरतम अवतार में सामने आया, फ़ासीवाद के उभार के कारणों की पड़ताल सबसे महत्वपूर्ण प्रारम्भिक बिन्दु है। आम तौर पर फासीवादियों के विषय में एक मिथक जो काम करता है वह यह है कि वे पागल, असांस्कृतिक, उन्मादी, झक्की होते हैं। लेकिन जर्मनी का उदाहरण यह स्पष्ट रूप से दिखलाता है कि वहाँ फासीवादियों की कतार में पागल या सनकी लोग शुमार नहीं थे। यह एक दीगर बात है कि फ़ासीवादी विचारधारा “दूसरे” (‘अदर’) के मिथकीय भय से पैदा हुई असुरक्षा को आधार बनाकर उन्माद को जन्म देती है और फ़ासीवादी ताकतें सचेतन तौर पर, बेहद ठण्डे और निर्मम तरीके से इस उन्माद को समाज के अलग-अलग हिस्सों में फैलाती हैं। बहरहाल, जर्मनी में, फ़ासीवादी कतारों में बेहद पढ़े-लिखे लोगों की तादाद मौजूद थी जो समानता, जनवाद और आज़ादी के मूल्यों के सचेतन विरोधी थे। जर्मनी में फासीवादियों को तमाम सामाजिक तबकों का समर्थन प्राप्त था। इनमें नौकरशाह वर्ग, कुलीन वर्ग, अकादमिकों, बुद्धिजीवियों (विश्वविद्यालय, कॉलेज, स्कूल के टीचर, लेखक, पत्रकार, वकील, डॉक्टर, वैज्ञानिक आदि) की अच्छी-ख़ासी संख्या शमिल थी।

इसके अलावा, जो सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है वह यह कि जर्मनी में फ़ासीवाद को बड़े पूँजीपति वर्ग का ज़बर्दस्त समर्थन प्राप्त था। पूँजीपति वर्ग के जिस हिस्से ने हिटलर की राष्ट्रीय समाजवादी मज़दूर पार्टी (नात्सी पार्टी) को सबसे पहले समर्थन दिया था, वह था जर्मन भारी उद्योगों का मालिक पूँजीपति वर्ग। बाद में पूँजीपति वर्ग के दूसरे सबसे बड़े हिस्से निर्यातक पूँजीपति वर्ग ने भी हिटलर को अपना समर्थन दे दिया। और इसके बाद उद्योग जगत के बचे-खुचे हिस्से ने भी नात्सी पार्टी को समर्थन दे दिया।

दूसरे विश्‍वयुद्ध के दौरान फासि‍स्‍ट जर्मनी पर एक प्रसिद्ध कार्टून

दूसरे विश्‍वयुद्ध के दौरान फासि‍स्‍ट जर्मनी पर एक प्रसिद्ध कार्टून

इसके कारण साफ़ थे। जर्मनी की सामाजिक जनवादी पार्टी के नेतृत्व में जर्मनी में एक बहुत शक्तिशाली मज़दूर आन्दोलन था जिसने 1919 से लेकर 1931 तक राज्य से मज़दूरों के लिए बहुत से अधिकार हासिल किये थे। इस दौर में वाइमार गणराज्य अस्तित्व में आया जिसका शासन वास्तव में श्रम और पूँजी की ताक़तों के बीच एक समझौता था। इस सरकार में जर्मन सामाजिक-जनवादियों (यानी, संसदीय वामपंथियों) की अहम भागीदारी थी। हमेशा की तरह संसदीय वामपंथ जर्मनी में भी इस प्रयास में लगा हुआ था कि मज़दूर वर्ग किसी सशस्त्र क्रान्ति की तरफ़ न जाये; इसके लिए पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर ही उन्होंने मज़दूर वर्ग के ऊपरी और मँझोले हिस्सों के लिए कई आर्थिक और राजनीतिक हक़ हासिल किये, जिसमें ट्रेड यूनियन बनाने का अधिकार, अपेक्षाकृत ऊँचे वेतन, भत्ते, सुविधाएँ आदि शामिल थीं। 1929 में वैश्विक पूँजीवादी मन्दी के फूटने के साथ जर्मन पूँजीवाद के लिए मज़दूरों को यह हक़ देना जारी रखना असम्भव था; वाइमार गणराज्य के श्रम और पूँजी के बीच का समझौता पूँजीपति वर्ग के लिए बहुत महँगा साबित हो रहा था। मज़दूर वर्ग के इस शक्तिशाली सुधारवादी आन्दोलन के चलते जर्मन पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े की दर लगातार कम होती जा रही थी, जिसे इतिहासकारों ने लाभ-संकुचन (“प्रॉफिट स्क्वीज़”) का नाम दिया है। 1929 में विश्वव्यापी महामन्दी का प्रभाव जर्मनी की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ा। इसके कारण सबसे पहले छोटा पूँजीपति वर्ग तबाह होना शुरू हुआ। बड़े पूँजीपति वर्ग को भी भारी हानि उठानी पड़ी। इस परिप्रेक्ष्य में, वैश्विक संकट के दौर में, मज़दूर आन्दोलन की शक्ति को खण्डित करके अपनी सबसे प्रतिक्रियावादी, सबसे नग्न और सबसे क्रूर तानाशाही को लागू करने के लिए जर्मनी के बड़े पूँजीपति वर्ग को जिस राजनीतिक समूह की ज़रूरत थी, वह था नात्सी पार्टी। और हिटलर की नात्सी पार्टी ने इस काम को बखूबी अंजाम दिया।

1930 के दशक की महामन्दी का असर सिर्फ पूँजीपति वर्ग पर नहीं पड़ा। इसकी असली क़ीमत तो जनता के आम हिस्सों ने चुकाई। जर्मनी में भी इस दौर में बेरोज़गारी बड़े पैमाने पर बढ़ी। शहरी वेतनभोगी निम्न मध्यवर्ग में भी बेकारी तेज़ी से बढ़ने लगी। जिनके पास काम था, उनके सिर पर भी हर समय छँटनी की तलवार लटक रही थी। पूँजीवाद से पैदा हुए इसी सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा के माहौल ने निम्न पूँजीपति वर्गों, मध्य वर्गों और मज़दूर वर्ग के एक हिस्से के भीतर प्रतिक्रिया की ज़मीन तैयार की। समाज में निम्न पूँजीपति वर्ग, मध्य वर्गों और कुलीन मज़दूर वर्ग और लम्पट सर्वहारा वर्ग के एक हिस्से के बीच इस अनिश्चितता और असुरक्षा के कारण एक हताशा जन्म लेती है, जो कि जल्द ही प्रतिक्रियावाद की ज़मीन में तब्दील हो जाती है। या तो इस अनिश्चितता और असुरक्षा के दौर में क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट ताक़तें जनता के मेहनतकश वर्गों के सामने क्रान्ति का एक ठोस कार्यक्रम पेश कर, जनान्दोलनों को नेतृत्व देते हुए उन्हें पूँजीवाद के दायरे के आगे ले जा सकती है, अन्यथा प्रतिक्रियावादी ताक़तें, जैसे कि नात्सी पार्टी उन्हें इस समूची अनिश्चितता और असुरक्षा से निजात दिलाने के लिए एक प्रतिक्रियावादी कार्यक्रम की ओर ले जा सकती हैं। जर्मनी में यही हुआ। जनता को विकल्प चाहिये होता है। यह विकल्प वास्तविक, यथार्थवादी, प्रगतिशील और क्रान्तिकारी हो सकता है; या फिर यह विकल्प मिथकीय, काल्पनिक, पश्चगामी और प्रतिक्रियावादी हो सकता है। फासीवाद हमेशा संकट के लिए किसी अल्पसंख्यक समुदाय (धार्मिक, नस्लीय, प्रवासी, आदि) और क्रान्तिकारी राजनीतिक ताक़तों को ज़िम्मेदार ठहराते हैं, देश की समस्त समस्याओं का समाधान करने के लिए “कठोर नेतृत्व”, “निर्णायकता”, “विकास”, आदि जैसे कुछ जुमले उछालते हैं और दावा करते हैं कि सभी समस्याओं का निदान एक ऐसे “निर्णायक, नायकत्वपूर्ण और कठोर नेतृत्व” के ज़रिये कर दिया जायेगा; इसके लिए वे कोई ठोस कार्यक्रम नहीं बताते; सबकुछ जुमलों के धरातल पर होता है। इन जुमलों को और बल देने के लिए “राष्ट्र के अतीत गौरव” का आविष्कार किया जाता है, पितृभूमि के खोए गौरव को लौटाने के लिए आह्वान किये जाते हैं और एक तानाशाह को इन सभी कार्यों को पूरा करने के लिए मुफीद नायक के रूप में पेश किया जाता है। ठीक उसी प्रकार जैसे आज मोदी को “भारत माँ का शेर”, “विकास पुरुष”, “लौह पुरुष”, आदि जैसे नामों से नवाज़ा जा रहा है और “नमो नमः” जैसे नारे उछाले जा रहे हैं। राजनीतिक चेतना की कमी से पीड़ित टुटपुँजिया वर्ग सबसे पहले इस प्रकार के प्रतिक्रियावादी, अतर्कपरक और अवैज्ञानिक प्रचार से प्रभावित होता है। यह इस वर्ग की वर्ग प्रकृति ही है! साथ ही कुलीन मज़दूर वर्ग भी राजनीतिक-आर्थिक तौर पर काफ़ी-कुछ टुटपुँजिया वर्ग जैसा ही हो जाता है, और इसीलिए वह भी इस प्रकार के फासीवादी प्रचार के असर में आता है। इसके अलावा लम्पट टुटपुँजिया वर्ग और लम्पट सर्वहारा वर्ग जिनका तय पेशा नहीं होता और आम तौर पर वे आर्थिक ‘हण्टर एण्ड गैदरर’ के रूप में कभी किसी पेशे तो कभी किसी पेशे में, कभी एक जगह तो कभी दूसरी जगह घूमते रहते हैं। यह वर्ग संस्कृति और राजनीतिक चेतना की कमी से पहचाना जा सकता है और अपनी जड़ों से कटा हुआ होता है। जर्मनी में इन्हीं वर्गों के बीच नात्सी पार्टी ने अपनी जड़ें जमायीं।

समाज के विभिन्न तबक़ों में पनपने वाली इसी प्रतिक्रिया का इस्तेमाल करके ही 1933 में हिटलर के नेतृव में नात्सी पार्टी सत्ता में पहुँच गयी, और इसके बाद मज़दूरों, कम्युनिस्टों, ट्रेड यूनियनवादियों और यहूदियों के क़त्लेआम का जो ताण्डव उसने रचा वह आज भी दिल दहला देता है। जर्मनी में नात्सी पार्टी ने नस्लीय अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से यहूदियों, मज़दूरों व ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं और कम्युनिस्टों को इस प्रतिक्रिया का निशाना बनाया था और इन्हीं को आर्थिक असुरक्षा के लिए ज़िम्मेदार ठहराया था। यह इसी बात का द्योतक है कि अगर समाज में वर्ग अन्तरविरोध साफ़ नहीं होते और जनता में वर्ग चेतना की कमी होती है तो किसी विशेष धर्म या सम्प्रदाय या नस्ल के लोगों के प्रति अतार्किक प्रतिक्रियावादी गुस्सा भरना आसान हो जाता है और लोगों को इस भ्रम का शिकार बनाया जा सकता है कि उनकी दिक्कतों और तकलीफ़ों का कारण उस विशेष सम्प्रदाय, जाति, धर्म या नस्ल के लोग हैं। जर्मनी में फ़ासीवाद का उभार यही दर्शाता है।

जर्मनी का पूँजीवाद में संक्रमण किसी पूँजीवादी क्रान्ति के ज़रिये नहीं हुआ था। जर्मनी में उद्योगीकरण की प्रक्रिया बहुत देर से शुरू हुई। इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रान्ति की शुरुआत 1780 के दशक में हो गयी थी। फ्रांस में 1860 तक आते-आते औद्योगिक क्रान्ति का एक दौर पूरा हो चुका था। दूसरी तरफ़, इस समय तक जर्मनी एक एकीकृत देश के रूप में सामने तक नहीं आ पाया था। जर्मन एकीकरण के बाद एक जर्मन राष्ट्र राज्य अस्तित्व में आया। बिस्मार्क के नेतृत्व में पूँजीवादी विकास की शुरूआत हुई। जर्मनी में राष्ट्रीय पैमाने पर पूँजीवाद का विकास ही तब शुरू हुआ जब विश्व पैमाने पर पूँजीवाद साम्राज्यवाद, यानी कि एकाधिकारी पूँजीवाद के दौर में प्रवेश कर चुका था। एकाधिकारी पूँजीवाद प्रकृति और चरित्र से ही जनवाद-विरोधी होता है। जर्मनी में पूँजीवादी विकास बैंकों की पूँजी की मदद से शुरू हुआ और उसका चरित्र शुरू से ही एकाधिकारी पूँजीवाद का था। नतीजतन, जर्मनी में पूँजीवाद का विकास 1880 के दशक से ही इतनी तेज़ गति से हुआ कि 1914 आते-आते वह यूरोप का सबसे अधिक आर्थिक वृद्धि दर वाला देश बन गया जिसका औद्योगिक उत्पादन अमेरिका के बाद सबसे अधिक था। लेकिन किसी जनवादी क्रान्ति के रास्ते से पूँजीवाद के न आने के कारण समाज में जनवाद की ज़मीन हमेशा से ही कमज़ोर थी। यही कारण है कि ऐसे समाजों में जहाँ पूँजीवादी विकास क्रान्तिकारी प्रक्रिया के ज़रिये नहीं हुआ, जहाँ पूँजीवादी विकास की प्रक्रिया इतिहास के एक लम्बे दौर में फैली हुई प्रक्रिया के रूप में नहीं मौजूद थी, बल्कि एक असमान, अधूरी और अजीब तरीक़े से द्रुत, अराजक प्रक्रिया के रूप में घटित हुई, वहाँ के समाजों में फ़ासीवाद का सामाजिक आधार पैदा हुआ।

इसके साथ ही जर्मनी में भूमि सुधार क्रान्तिकारी तरीक़े से नहीं हुए, जिसमें जोतने वाले को ही ज़मीन का मालिक बना दिया गया हो। वहाँ प्रशियाई रास्ते से भूमि सुधार हुए जिसमें सामन्ती भूस्वामियों को ही पूँजीवादी कुलकों और फ़ार्मरों में तब्दील हो जाने का मौका दिया गया। यह वर्ग भयंकर प्रतिक्रियावादी वर्ग था। इसके अलावा अधूरे भूमि सुधारों से धनी काश्तकारों का एक वर्ग पैदा हुआ। ये वर्ग पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के साथ गहराई से जुड़े थे और अन्दर से धुर जनवाद-विरोधी थे। पूँजीवादी व्यवस्था के संकट के कारण पैदा हुई प्रतिक्रिया का एक अहम हिस्सा यही वर्ग थे।

हम पहले ही बता चुके हैं कि जर्मनी में फ़ासीवाद के उभार से पहले एक शक्तिशाली मज़दूर आन्दोलन मौजूद था। लेकिन सामाजिक जनवादियों के नेतृत्व में मज़दूर आन्दोलन बस मिली हुई रियायतों और सहूलियों से चिपके रहना चाहता था, उससे आगे नहीं जाना चाहता था। या यूँ कहें कि सामाजिक जनवादी नेतृत्व ने उसे पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर मिले सुधारों से आगे बढ़ने के बजाय उन्हें बचाये रखने को प्रेरित किया। सामाजिक जनवाद ने मज़दूर आन्दोलन को सुधारवाद की गलियों में ही घुमाते रहने का काम किया। उसने पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं दिया। उसका कुल लक्ष्य था पूँजीवादी जनवाद के भीतर रहते हुए वेतन-भत्ता बढ़वाते रहना और जो मिल गया है उससे चिपके रहना।

जर्मनी में फासीवाद के उदय के लिए अगर कोई एक कारक सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण था तो वह वास्तव में सामाजिक जनवादियों की ग़द्दारी ही थी। क्योंकि प्रतिक्रियावाद जिस संकट की पैदावार होता है, वही संकट क्रान्तियों को भी जन्म देता है, बशर्ते की क्रान्ति का कोई हिरावल मौजूद हो, और वह अपनी भूमिका निभाने के लिए तैयार हो। संकट के इस दौर में यदि कोई क्रान्तिकारी नेतृत्व मज़दूर आन्दोलन को मौजूदा व्यवस्था से बाहर ले जाने की ओर आगे बढ़ा पाता तो तस्वीर कुछ और होती। ऐसे किसी नेतृत्व के अभाव के चलते ही फ़ासीवाद का प्रतिरोध्य उभार अप्रतिरोध्य बन गया।

जर्मनी में जो कुछ हुआ वह आज भारत में हरेक प्रगतिशील व्यक्ति के लिए बेहद प्रासंगिक है। भारत में भी आर्थिक संकट अपने पूरे ज़ोर के साथ इस दशक ही आने वाला है। अभी भी स्थिति कोई बेहतर नहीं है और मन्दी जारी है, लेकिन कुछ वर्षों में ही यह मन्दी एक गम्भीर संकट में तब्दील होने वाली है। फासीवादी ताक़तें उस समय के मुताबिक अपनी तैयारियाँ कर रही हैं। क्रान्तिकारी ताक़तों को भी मज़दूर वर्ग को आधार बनाते हुए इस फासीवादी उभार का मुकाबला करने की तैयारियाँ आज से ही शुरू कर देनी चाहिए। वहीं दूसरी ओर क्रान्तिकारी शक्तियों को लगातार निम्न और मँझोले मध्यवर्ग में भी क्रान्तिकारी राजनीतिक प्रचार करना चाहिए और उन्हें इस बात का अहसास कराना चाहिए कि मौजूदा संकट, अनिश्चितता और असुरक्षा के लिए समूची पूँजीवादी व्यवस्था ज़िम्मेदार है; क्रान्तिकारी हिरावल को संगठित करना और पूँजीवाद का एक वैज्ञानिक-व्यावहारिक विकल्प पेश करनाः यही आज का सबसे अहम कार्यभार है। इस कार्यभार को पूरा करने में युवाओं और छात्रों की विशेष और पहलकारी भूमिका की ज़रूरत है। क्या हम इतिहास के इस आह्वान का जवाब नहीं देंगे?

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्‍बर-दिसम्‍बर 2013

 

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