चार राज्यों में विधानसभा चुनाव के नतीजे और भावी फासीवादी उभार की आहटें

शिशिर

चार राज्यों में हाल में सम्पन्न हुए चुनावों में दिल्ली को छोड़कर सभी जगह भाजपा को बहुमत प्राप्त हुआ। महँगाई, बेरोज़गारी और भूख से त्रस्त देश के लोगों ने कांग्रेस-नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार के प्रति अपने गुस्से का इज़हार किया; आम मेहनतकश आबादी को निश्चित तौर पर यह भ्रम नहीं है कि भाजपा-नीत राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन की सरकार बन जाने से उसकी समस्याओं का कोई समाधान हो जायेगा। वैसे तो लगभग 40 प्रतिशत लोग वोट डालते ही नहीं, लेकिन जो वोट डालते भी हैं वे विकल्पहीनता में दो प्रमुख चुनावी दलों में से एक को वोट तो डालेंगे ही! यह किसी रूप में इस व्यवस्था की जनता के बीच विश्वसनीयता का प्रतिबिम्बन नहीं करता है। टुटपुँजिया वर्ग और मध्यम वर्गों के बीच व्यवस्था का विभ्रम अधिक समय तक बरक़रार रहता है। भाजपा और ‘आप’ के प्रति आकर्षण भी इन्हीं वर्गों में है। ‘आप’ का दिल्ली में अच्छा प्रदर्शन अलग से विश्लेषण का मुद्दा है। लेकिन अन्य तीन राज्यों में कांग्रेस की शर्मनाक पराजय और भाजपा की ज़बर्दस्त जीत के मायने समझने की ज़रूरत है।

देश इस समय आर्थिक संकट के भँवर में उलझा हुआ है। महँगाई चरम पर है और जनता के बीच असन्तोष का एक बड़ा कारण है; बेरोज़गारी और ठेकाकरण के कारण मज़दूरों की विशाल आबादी भयंकर असुरक्षा और अर्द्धभुखमरी में जीने को मजबूर है; कृषि का पूँजीवादी संकट जहाँ एक ओर किसानों को जगह-ज़मीन से उजाड़ रहा है, वहीं मँझोले किसान तक तबाह हो रहे हैं; पूँजीवादी राजनीतिक वर्ग का भ्रष्टाचार अपने चरम पर है और पूँजीवादी राजनीति स्वयं एक ज़बर्दस्त मुनाफ़े वाले धन्धे में तब्दील हो चुकी है; रुपये की कीमत रिकार्ड-तोड़ रफ़्तार से गिर रही है; शिक्षा से लेकर चिकित्सा तक के निजीकरण और ठेकाकरण ने इसे निम्न मध्यवर्ग की पहुँच से भी बाहर पहुँचा दिया है। ऐसे में, पूरे देश में मज़दूरों, ग़रीब किसान आबादी, निम्न मध्य वर्ग और एक हद तक मध्य वर्ग का असन्तोष चरम पर है। कांग्रेस को इसी असन्तोष की कीमत चुकानी पड़ी है। यह वोटरों द्वारा सत्ताधारी पार्टी को दण्डित करने का तरीका ज़्यादा था और भाजपा में यक़ीन जताने का कम। ज़ाहिर है जो वोट डालेगा वह किसी न किसी को तो वोट डालेगा ही!

इन विधानसभा चुनावों में भाजपा की विजय को मोदी के असर के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है। मोदी ने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में चुनाव प्रचार के लिए रैलियाँ की थीं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेटवर्क का इस्तेमाल करके भाजपा ने इन रैलियों में ठीक-ठाक भीड़ भी एकत्र की थी। इस समय देश जिस आर्थिक और राजनीतिक संकट से गुज़र रहा है, उसमें देश के पूँजीपति वर्ग को एक अधिक निरंकुश और तानाशाह किस्म की सरकार की ज़रूरत है। कांग्रेस का स्वरूप और प्रकृति और साथ ही पिछले एक दशक में उसके शासन के प्रति लोगों में संचित रोष के कारण अभी वह यह भूमिका नहीं निभा सकती। देश में तमाम जगहों पर मज़दूर असन्तोष फूट रहा है; गुड़गाँव, चेन्नई, पुणे, सूरत आदि में अभी भी छोटे-बड़े मज़दूर आन्दोलन जारी हैं। पूँजीपति वर्ग की समस्या यह है कि संकट के कारण मुनाफ़े की दर गिर रही है और वह इस समय मज़दूर वर्ग की छोटी-मोटी आर्थिक माँगों को भी मानने की स्थिति में नहीं है। पूँजीवादी संकट ने पूँजीपति वर्ग के लिए यह अनिवार्य बना दिया है कि जनता के रहे-सहे आर्थिक और राजनीतिक हक़ों को भी निरस्त किया जाय। इसी स्थिति ने मोदी को कारपोरेट घरानों समेत समूचे पूँजीपति वर्ग का चहेता बना दिया है। पूँजीपतियों के तमाम मंच जैसे कि फिक्की, एसोचैम आदि खुले तौर पर मोदी का समर्थन कर रहे हैं; कारपोरेट मीडिया भी मोदी की लहर पैदा करने में एक अहम भूमिका निभा रहा है। पूँजीपति वर्ग समझ रहा है कि इस समय मोदी अपने राष्ट्रवाद, विकास, निर्णायक और कठोर नेतृत्व की आड़ में परेशानहाल टटपुंजिया वर्गों, मध्यवर्गों और मज़दूर वर्ग के भी एक हिस्से को जीत सकता है। वास्तव में, मोदी यही कर भी रहा है। मनमोहन सिंह की कातर चुप्पी मोदी के लिए वांछित ‘कण्ट्रास्ट’ पैदा कर रही है। राहुल गाँधी को अभी ठीक से भाषण देना भी नहीं आता; ज़ाहिर है, राहुल गाँधी की अक्षमता भी मोदी के लिए एक सकारात्मक की भूमिका अदा कर रही है। यह एक दीगर बात है कि मोदी स्वयं झूठ पर झूठ बोल रहा है, लोकरंजक शैली में इतिहास के विवरणों के बारे में मज़ाकिया बातें बोल रहा है; लेकिन टुटपुँजिया और मध्यवर्गों की राजनीतिक और ऐतिहासिक चेतना के बारे में जितना कम कहा जाये अच्छा होगा! ज़्यादातर टुटपुँजिया मोदी समर्थकों को मोदी द्वारा सिकन्दर को बिहार में हरा देने, तक्षशिला और कन्धार को बिहार पहुँचा देने, जनसंघ के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुखर्जी को विवेकानन्द का मित्र बता देने से कोई फर्क नहीं पड़ता। इस वर्ग में ठोस चिन्तन करने की क्षमता का अभाव होता है और वह मोदी के दावों पर भी कोई ठोस चिन्तन नहीं कर रहा है।

Cartoon-new-Narendra-Modi

मिसाल के तौर पर, मोदी को एक ऐसे नेता के रूप में पेश किया जा रहा है जो अपने निर्णायक नेतृत्व और कठोरता से महँगाई, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी आदि जैसी समस्याओं से निजात दिला देगा, जिसमें कातर प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह अक्षम हैं! मध्यवर्गों के मोदी-समर्थक इस बारे में सोचने के लिए तैयार नहीं हैं कि आख़िर ये समस्याएँ पैदा क्यों हो रही हैं? मोदी उनका समाधान कैसे कर देगा? राजग के पहले कार्यकाल में भी तो यही समस्याएँ थीं और राजग की सरकार गिरी भी महँगाई और बेरोज़गारी के कारण ही थी? अगर मोदी के ‘विकास’ का मॉडल इतना सक्षम है तो फिर गुजरात में भुखमरी, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार की ऐसी गम्भीर हालत क्यों है? ऐसे कई और प्रश्न भी खड़े किये जा सकते हैं। लेकिन मोदी का समर्थन करने वाले मध्यवर्गों में उच्च संस्तर से आने वाले लोग हैं, उनका भुखमरी, बेरोज़गारी आदि जैसी समस्याओं से कोई सरोकार ही नहीं है। वे तो मोदी के उस ‘विकास’ पर फिदा हैं जिसमें शॉपिंग मॉलों, आठ लेन की सड़कों, मल्टीप्लेक्सों, फलते-फूलते उद्योग, मनोरंजन पार्कों आदि की भरमार है! जिसमें मज़दूर वह काम उन हालात में कर रहे हैं, जो काम उन्हें उन्हीं हालातों में करना चाहिए! जिनका यक़ीन ‘उपयुक्ततम की उत्तरजीविता’ (सर्वाइवल ऑफ़ द फ़िटेस्ट) में है! इन मध्यम वर्गों के मँझोले और निम्न संस्तरों में मोदी का समर्थन इसलिए है क्योंकि मोदी के ‘विकास’ के मॉडल में हर कोई एक सम्भावित उद्यमी है; भ्रष्टाचार-मुक्त वातावरण में निवेश और वृद्धि (यानी मुनाफ़ा कमाने के अवसर!) हैं। वह एक हद तक महँगाई, असुरक्षा से परेशान है। इनका कोई स्पष्ट कारण उसे समझ में नहीं आता है। इस अज्ञानता के चलते उसमें एक प्रतिक्रिया और दिशाहीन गुस्सा पैदा होता है, जो अन्त में मोदी जैसे तानाशाहों की “निर्णायकता”, “कठोरता” आदि के पक्ष में जाता है, जो न जाने किस तरह से जादू की छड़ी घुमाकर सभी समस्याओं का समाधान कर देगी! मज़दूर वर्ग के कुलीन हिस्सों और लम्पट सर्वहारा में भी मोदी की लहर का असर है। इसे समझने के लिए फासीवाद के इतिहास पर एक नज़र डालने की ज़रूरत है। इसमें से पहले वाले प्रवर्ग में टुटपुँजिया विचारों का प्रभाव होता है। इस प्रभाव के कारण ही यह कुलीन मज़दूर वर्ग कभी सामाजिक-जनवादियों के पक्ष में खड़ा होता है, तो कभी फासीवाद के पक्ष में। मिसाल के तौर पर, इसी कुलीन मज़दूर वर्ग का एक हिस्सा जर्मनी में वाइमार गणराज्य के दौर में सामाजिक-जनवादी पार्टी के पक्ष में खड़ा था, और नात्सी पार्टी के उभार के साथ इसका एक हिस्सा नात्सी पार्टी के पक्ष में जा खड़ा हुआ। इटली में भी ऐसा ही हुआ था। मज़दूर वर्ग का दूसरा हिस्सा, यानी कि लम्पट सर्वहाराओं का हिस्सा, किसी भी प्रकार की सर्वहारा चेतना से महरूम होता है। इसके मस्तिष्क में हम वर्ग चेतना के विघटन को देख सकते हैं। समाजशास्त्रीय तौर पर इसकी स्थिति मज़दूर वर्ग की होती है, लेकिन राजनीतिक तौर पर यह एक ऐसी शक्ति होती है जिसका एक हिस्सा हमेशा ही फासीवाद और अन्य प्रतिक्रियावादी ताक़तों के ‘रिज़र्व’ के तौर पर काम करने के लिए समाज में उपलब्ध रहता है।

जो तथाकथित प्रगतिशील और वामपंथी विश्लेषक इस समय चार विधानसभा चुनावों में भाजपा की विजय में मोदी की लहर के असर से इंकार कर रहे हैं, वह सच्चाई को साफ़ तौर पर देख नहीं पा रहे हैं। इस बहस में पड़ते ही, कि इस जीत में मोदी का योगदान है या नहीं, आप बहस हार चुके होते हैं। निश्चित तौर पर देश में जिस प्रकार का फासीवादी उभार अपने भ्रूण रूप में दिखलायी पड़ रहा है, उसमें मोदी की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है। फासीवादी उभार हमेशा ही किसी न किसी किस्म के ‘फ़्हूरर’ या ‘ड्यूस’ के कल्ट पर सवार होकर आता है। भारत में यह कल्ट ‘नमो नमः’ के नारे पर सवार होकर आ रहा है। मुम्बई में एक रईसों के होटल ने मोदी की मोम की प्रतिमा का अनावरण मोदी द्वारा ही करवाया है। इसी प्रकार की कवायदें मोदी समर्थक देश भर में कर रहे हैं। ‘फ़्यूहरर’ कल्ट का भारतीय संस्करण हमारे सामने है। निश्चित तौर पर यह अभी नहीं कहा जा सकता है कि चार विधानसभा चुनावों के नतीजे लोकसभा चुनावों के नतीजों में परिवर्तित हो जायेंगे। लेकिन उतने ही ज़ोर के साथ यह भी कहा जा सकता है कि इस सम्भावना से इंकार भी नहीं किया जा सकता है। जर्मनी या इटली की तरह भारत में फासीवादी उभार होगा, इसकी सम्भावना कम है। वास्तव में, उस प्रकार का फासीवादी उभार भूमण्डलीकरण के दौर में कहीं भी सम्भव नहीं है। इतिहास अपने आपको दुहराता नहीं है। लेकिन एक नये रूप में, नये कलर-फ़्लेवर में दुनिया के कई देशों में अपनी-अपनी विशिष्टताओं के साथ फासीवादी ताक़तें सिर उठा रही हैं। विश्व पूँजीवाद जिस अन्तहीन संकट के भँवर में फँसा है, उसमें वह अधिक से अधिक निरंकुश होता ही जायेगा। पूँजीवाद के दायरे के भीतर किसी भी किस्म का कल्याणवाद अब सम्भव नहीं है। पूँजीवादी शासक वर्ग ज़्यादा कट्टरता के साथ दुनिया के हर देश में नवउदारवादी नीतियों को अपना रहे हैं और अपनाते रहेंगे। यह आर्थिक कट्टरवाद नैसर्गिक तौर पर राजनीतिक कट्टरवाद की ज़रूरत को पैदा कर रहा है। ऐसे में, दुनिया में हर जगह पर ही शासक वर्गों को अधिक से अधिक निरंकुश, नग्न, बर्बर और अमानवीय तौर पर पूँजी की तानाशाही को लागू करने वाली निरंकुश ताक़तों की सत्ता में ज़रूरत है, चाहे वह फासीवादी ताक़तें हों या अन्य प्रतिक्रियावादी ताक़तें।

चूँकि पूँजीवादी चुनाव स्वयं एक सट्टेबाज़ किस्म का ‘स्पेक्टेकल’ बन चुके हैं, इसलिए कई विश्लेषक हालिया विधानसभा चुनावों के नतीजों के पीछे काम कर रही पूँजीवादी व्यवस्था की इस व्यापक गतिकी को नहीं समझ पा रहे हैं, और राजनीतिक विश्लेषण छोड़कर चुनाव विश्लेषण (सैफोलॉजी) में लग गये हैं। लेकिन क्रान्तिकारी शक्तियों को समय के चिन्हों को पहचानना चाहिए और हर जगह पूरी ताक़त के साथ फासीवादी ताक़तों और साथ ही पूरी की पूरी पूँजीवादी व्यवस्था की सच्चाई को जनता के सामने बेपर्द करना चाहिए।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्‍बर-दिसम्‍बर 2013

 

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