विज्ञान विषयक सीरीज़ जारी रखें…

आह्वान के सभी सदस्यों को मेरा सलाम,

पत्र के ज़रिये आह्वान के साथ मैं पहली बार जुड़ रहा हूँ। वैसे आह्वान का मैं पिछले एक साल से नियमित पाठक हूँ। मैं पिछले या किसी अंक विशेष की चर्चा यहाँ नहीं करूँगा, क्योंकि आह्वान का हर अंक अपनी विशेषता को दृढ़ता के साथ दर्शाता है। आह्वान का पहला अंक जब मैंने पाया, उसे पढ़कर मुझे लगा कि निःसन्देह ही यह समाज को नयी दिशा देने की, नयी दुनिया की रचना करने की ओर एक सराहनीय कदम है। आह्वान देश के उन युवाओं के लिए मार्गदर्शक है जोकि खोखले सपने की बुनियाद पर सफलता के आयाम गढ़ना चाहते हैं, जबकि इस देश की पूँजीवादी सरकार/नीति उनकी राहों में रोड़ों की तरह बिखरे पड़े हैं। कम से कम मैंने आपके प्रकाशन के ज़रिये इस बात को आत्मसात किया कि एक सर्वहारा समाज की मुक्ति का सपना, परिवर्तन का सपना सिर्फ आह्वान के ज़रिये ही देखा जा सकता है। आपसे जुड़ने के फलस्वरूप ही मैंने महान क्रान्तिकारी भगतसिंह को करीब से जानने का मौका पाया। आह्वान में प्रकाशित हर लेख को मैं भगतसिंह की जेल डायरी के समकक्ष मानता हूँ। एक-दो पिछले अंक में विज्ञान विषय पर हिग्स बुसौन और बिग बैंग की जो सीरीज़ पढ़ी, उसी तरह की कोई  शृंखला फिर प्रकाशित करें। आपके साथ, आपके लिए सर्वहारा सामाजिक परिवर्तन का एक और स्वप्नद्रष्टा…

गौरव कुमार, बड़ी पाली, नवादा, बिहार

प्रूफ की ग़लतियाँ हमें परेशान करती हैं…

प्रिय सम्पादक महोदय,

आह्वान नवम्बर-दिसम्बर 2010 का अंक मिला। यह देखकर काफ़ी अच्छा लगा कि पत्रिका के विषयों में विविधता बढ़ी है, लेकिन इस अंक का एक पहलू जो काफ़ी परेशान करने वाला रहा – वह था, प्रूफ की ग़लतियाँ। वैसे तो पूरी पत्रिका में ही छोटी-मोटी प्रूफ की ग़लतियाँ हैं लेकिन “जयराम रमेश और उनका पर्यावरण एक्टिविज़्म” लेख में विशेषकर काफ़ी ज़्यादा ग़लतियाँ थीं। जैसे – “इस वजह से विश्वभर में, और वित्तीय मन्त्री के प्रभाव की वजह से…” (पृष्ठ 16, पैरा-3 की अन्तिम पंक्ति) में “वित्तीय मन्त्री” नहीं “वित्तीय मन्दी” होना चाहिए था। उसी पृष्ठ के दाहिने तरफ की अन्तिम पंक्ति – “इस प्रोजेक्ट को अधिग्रहित करने का ठेका जेके पेपर मील्स लिमिटेड के पास…” में “प्रोजेक्ट को अधिग्रहित करने” की जगह “प्रोजेक्ट के लिए भूमि को अधिग्रहित करने” होना चाहिए था। यह बात सही है कि अन्य ज़रूरी कामों में आप लोग काफ़ी व्यस्त रहते हैं लेकिन पत्रिका के हरेक आयाम को बेहतर बनाना भी उतना ही ज़रूरी है। उम्मीद है कि आने वाले अंकों में पत्रिका और भी बेहतर रूप में सामने आयेगी और प्रूफ की ग़लतियों जैसी टेक्निकल ग़लतियाँ भी लगातार कम होती जायेंगी।

प्रशान्त, मुम्बई

साथी प्रशान्त,

आपने एक महत्त्वपूर्ण ग़लती की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है। हम आगे निश्चित रूप से प्रूफ की ग़लतियों पर विशेष रूप से ध्यान देंगे और इस कमी को जल्द से जल्द दूर करेंगे।                               – सम्पादक

आह्वान का प्रयास आश्वस्तकारी है।

प्रिय अभिनव व समूह के साथी,

क्रान्तिकारी अभिवादन।

‘आह्वान’ का अंक 4 और 5 पुराने पते पर मिले थे। उसके बाद आशीष का फ़ोन आया तो उसे ऊपर लिखा नया पता दर्ज करा दिया था। आगे से ‘आह्वान’ इसी पते पर भेजें। यह अंक विचारोत्तेजक और विविधतापूर्ण है। मुझे लगता है कि इसे अधिकांश युवाओं ने ही तैयार किया है। यदि ऐसा है तो यह बहुत आश्वस्तकारी भी है।

हमने व्यवस्था को इसके अधुनातन अन्तर्विरोधों में देखना छोड़ दिया है। साथ ही उसका वैश्विक परिप्रेक्ष्य भी कई बार खोया रहता है। “आह्वान” में ये दोनों ही पक्ष विश्लेषण के साथ मौजूद हैं। यद्यपि इसके निष्कर्ष में कुछ जल्दबाज़ी या सरलीकरण हो सकता है। साथी अरविन्द स्मृति संवाद में भारत का असंगठित श्रमिक क्षेत्र लगभग नेपथ्य में है। जबकि उसकी तादाद बहुत बड़ी है। बेशक, उसे मुद्दों पर संगठित करना चुनौती भरा काम है। ‘मीमांसा’ का नया अंक भेज रहे हैं।

शुभकामनाओं सहित,

राजाराम भादू
समान्तर, 71/17, श्योपुर रोड, प्रताप नगर, जयपुर-33

आबादी: एक समस्या’ जैसे सामयिक मुद्दों पर लेखों की कड़ी जारी रखें…

प्रति सम्पादक आह्वान,

आह्वान का नवम्बर-दिसम्बर 2010 अंक हमने पढ़ा। हर बार की तरह पत्रिका ने समाज के उन मुद्दों को चुना जिन पर हम छात्र-छात्राओं की राय एक जैसी या यूँ कह लें कि वही राय बनती है जो उन मुद्दों को ज़िन्दा रखने वाले चाहते हैं। पत्रिका में इस बार मनाली चक्रवर्ती द्वारा लिखित लेख ‘आबादी: एक समस्या’ पढ़ा। लेख को पढ़ने के पूर्व, मैं तो यही मानता था कि हमारे देश की आबादी हमारे देश के विकास का सबसे बड़ा रोड़ा है। स्कूलों और कॉंलेजों में तो ‘आबादी’ निबन्ध तथा वाद-विवाद प्रतियोगिता का एक महत्त्वपूर्ण विषय बन गयी है।

दरअसल, असल बात तो यह है कि व्यवस्था के हितैषी मीडिया रूपी औज़ार का इस्तेमाल कर लोगों को जिसमें छात्र-छात्राएँ भी शामिल हैं, यह दर्शाने में लगी हैं कि भारत की आबादी इतनी अधिक है कि लोगों तक उनके बुनियादी हक़ों को पहुँचाना भी मुमकिन नहीं है। ऐसा प्रचार करने के पीछे एकमात्र यही मंशा है कि सरकार अथवा तमाम चुनावी पार्टियाँ आबादी का हवाला देकर अपने कर्तव्यों से मुँह मोड़ना चाहती हैं। मनाली जी ने पूरे लेख को बेहद व्यवस्थित तरीक़े से प्रस्तुत किया है जिसके लिए वह बधाई की पात्र हैं।

सामयिकी कॉंलम में ही ‘ओबामा की भारत यात्रा के निहितार्थ’ तथा ‘क्या विकीलीक्स से कुछ बदलेगा’, आदि लेखों ने आई-ओपनर का कार्य किया है। आह्वान का समसामयिक घटनाक्रमों पर प्रकाश डालना अत्यन्त सराहनीय है। आज छात्र-छात्राओं के बीच तथा आम लोगों के बीच यह सन्देश जाने की ज़रूरत है। हम उम्मीद करते हैं, आह्वान का तमाम ज़िन्दा लोगों का आह्वान करने का सफल प्रयास भविष्य में भी जारी रहेगा।

अंकित तिवारी
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी

प्रिय सम्पादक महोदय

आह्वान के पिछले अंक में मैंने आशीष द्वारा लिखा गया लेख “शिवसेना की ‘नज़र’ में एक और किताब ‘ख़राब’ है!” पढ़ा, उस लेख में जो कारण-मीमांसा की गयी है वह मोटे तौर पर तो सही है, किन्तु उसमें महाराष्ट्र की राजनीति की बारीकी समझ का अभाव है। रोहिंगटन मिस्त्री की किताब के जो वाक्य उद्धृत किये गये हैं उन पर मुझे भी आपत्ति है लेकिन उस पर संजीदगी से बहस होनी चाहिए, न कि उसे इस तरीक़े से प्रतिबन्धित करना चाहिए। ख़ैर, शिवसेना का अपना राजनीतिक एजेण्डा है और राजनीतिक पार्टियों से अधिक उम्मीद रखना मूर्खता होगी।

उस लेख में एक राजनीतिक आकलन यह किया गया है कि शायद कांग्रेस शिवसेना को समर्थन इसलिए कर रही है ताकि वह मनसे के उभार को काट सके। लेकिन महाराष्ट्र की राजनीतिक इसके उलट है। दरअसल कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस मनसे को बढ़ावा देती हैं ताकि शिवसेना का सामाजिक आधार घटे और इसी के फलस्वरूप पिछले दस वर्षों में कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस की सरकार निठल्ली होने के बावजूद सत्ता में बनी रही। मनसे की लोकप्रियता के कारण ही पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनावों में कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस गठबन्धन को सबसे अधिक वोट मिले। लोकसभा चुनाव में मुम्बई व उपनगर के सभी 6 जगहों से कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस इसी कारण जीत पायी। आह्वान के एक अंक में सम्भाजी ब्रिगेड को शिवसेना की एक शाखा बताया गया था, जबकि सम्भाजी ब्रिगेड शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस से सम्बद्ध है (हालाँकि वह खुले तौर पर स्वीकार नहीं करती)। सम्भाजी ब्रिगेड मराठा जाति का प्रतिनिधित्व करने वाला संगठन है जिसने ब्राह्मणों के विरुद्ध एक मुहिम छेड़ रखी है। भण्डारकर प्राच्य विद्या संशोधन केन्द्र पर जो हमला किया गया था वह इसलिए किया गया था क्योंकि जेम्स लेन की पुस्तक “शिवाजी: ए हिन्दू किंग इन इस्लामिक इण्डिया” के लेखन के दौरान भण्डारकर केन्द्र के इतिहासकारों ने मदद की थी और वे ब्राह्मण थे। इस संगठन का बौद्धिक दीवालियापन इसी से झलकता है कि जब वे भण्डारकर केन्द्र में धमाचौकड़ी मचा रहे थे, उस समय उन्हें इस बात का भी ध्यान नहीं रहा कि वे छत्रपति शिवाजी महाराज की प्रतिमा भी गिरा रहे हैं।

इसी सिलसिले में मैं महाराष्ट्र की जातीय राजनीति पर टिप्पणी करने की चेष्टा रखता हूँ। महाराष्ट्र की राजनीति में राष्ट्रवादी कांग्रेस और शिवसेना सबसे बड़े खिलाड़ी हैं। राष्ट्रवादी कांग्रेस का मुख्य सामाजिक आधार बहुसंख्यक मराठा जाति का है जोकि महाराष्ट्र की प्रमुख क्षत्रिय जाति है। कांग्रेस में भी मराठा जाति का ही प्राबल्य है। यही कारण है कि आजतक जितने भी मुख्यमन्त्री महाराष्ट्र में हुए हैं उनमें से सिर्फ दो ग़ैर-मराठा रहे हैं। महाराष्ट्र में शिवसेना के उभार में ओ.बी.सी. तबके का बहुत बड़ा हाथ है। छगन भुजबल ने जब शिवसेना छोड़ी तब उसके साथ माली समाज, जो जनसंख्या की दृष्टि से दूसरे नम्बर पर है, शिवसेना से दूर चला गया। लेकिन छगन भुजबल की टक्कर के कई नेता अभी भी शिवसेना के पास थे। भाजपा का जनाधार ब्राह्मणों के आलावा अन्य जातियों में भी है जिसका मुख्य कारण प्रमोद महाजन और गोपीनाथ मुण्डे रहे हैं। मुण्डे भी वंज़ारी नामक एक ओ.बी.सी. जाति से आता है। महाराष्ट्र के सत्ता संघर्ष में शिवसेना द्वारा ओ.बी.सी. जातियों को दिये गये अवसर की वजह से ही 1995 में वह सत्ता में आ सकी। जहाँ तक दलित वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली रिपब्लिकन पार्टी की बात है तो वह कई गुटों में बँटी है जो शिवसेना, कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस इत्यादि से गठजोड़ बनाये हुए हैं। मनसे का ऐसा कोई जातीय समीकरण तो नहीं है लेकिन उसने मुख्यतः शिवसेना के वोट बैंक में सेंध लगायी है। हाल ही में कल्याण-डोंबिवली (जो भाजपा का गढ़ रहा है) महानगर पालिका चुनाव में मनसे ने जीत हासिल की, जिसमें ब्राह्मण समाज ने भी उसका समर्थन किया।

तुषार अभ्यंकर, पूणे, महाराष्ट्र

प्रिय साथी तुषार,

पिछले अंक में प्रकाशित आशीष के लेख में मनसे के उभार को काटने के लिए शिवसेना के इस्तेमाल की बात को एक प्रश्न के रूप में रखा गया है। यह कोई निश्चयपूर्ण दावा नहीं है। वैसे, आपकी यह बात बिल्कुल सही है कि कांग्रेस शिवसेना के आधार को नुकसान पहुँचाने के लिए मनसे के प्रति तुष्टिकरण की नीति अपनाती है। लेकिन, यह कांग्रेस के लिए सिद्धान्त का प्रश्न नहीं है। वह वक़्त के साथ इन दोनों में से कभी भी किसी भी एक को दूसरे को प्रति-सन्तुलित (काउण्टर बैलेंस) करने के लिए इस्तेमाल कर सकती है। वास्तव में, कांग्रेस का महाराष्ट्र में भविष्य इन दोनों ताकतों को आपस में प्रति-सन्तुलित करते रहने पर ही निर्भर करता है। यह आज का सच है कि कांग्रेस अभी मनसे का इस्तेमाल शिवसेना का पत्ता साफ करने के लिए कर रही है। जहाँ तक सम्भाजी ब्रिगेड का प्रश्न है, आपकी बात बिल्कुल सही है कि यह राष्ट्रवादी कांग्रेस का अनुषंगिक संगठन है और जेम्स लेन की किताब पर सबसे पहले हंगामा इसी ने मचाया था, लेकिन बाद में शिवसेना इस मुद्दे को पूरे ज़ोर के साथ उठाने लगी थी। राष्ट्रीय मीडिया के द्वारा देश के अन्य हिस्सों में जनता के समक्ष यही छवि प्रस्तुत हुई कि इस मुद्दे पर मुख्य रूप से शिवसेना सक्रिय थी।

बहरहाल, आपने जिन बिन्दुओं की ओर ध्यान खींचा है, वे ज़रूरी मुद्दे थे और लेख में इन मुद्दों पर और साफ तौर पर बात आनी चाहिए थी। आगे निश्चित रूप से तथ्यात्मक सटीकता पर हम विशेष रूप से ध्यान देंगे। उम्मीद है, आगे भी आप पत्रिका को और बेहतर बनाने के लिए अपना सहयोग जारी रखेंगे।

– सम्पादक

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2011

 

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