शहादत दिवस (27 फरवरी 1931) के अवसर पर
चन्द्रशेखर आज़ाद – ग़रीब मेहनतकश जनता की क्रान्ति-चेतना के प्रतीक
“दुश्मनों की गोलियों का हम
सामना करेंगे
आज़ाद ही रहे हैं
आज़ाद ही रहेंगे।”
अपने साथियों के एक जमावड़े के बीच किसी प्रसंग में चन्द्रशेखर आज़ाद ने ये पंक्तियाँ सुनायी थीं। कविता की ये साधारण पंक्तियाँ नहीं थीं। आजाद का अपने साथियों से यह वादा था, जिसे उन्होंने 27 फरवरी 1931 को पूरा कर दिखाया। गोरे दुश्मनों की गोलियों का सामना करते हुए वे शहीद हो गये। जीते-जी अंग्रेज उनको हाथ तक नहीं लगा सके। आज 81 वर्षों बाद भी उनकी गौरवशाली शहादत की याद मेहनतकश जनता की सच्ची आज़ादी के लिए लड़ने वाले नौजवानों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी हुई है।
हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लकन एसोसियेशन (एच.एस.आर.ए.) के कमाण्डर-इन-चीफ चन्द्रशेखर आज़ाद के सांगठनिक कौशल, व्यावहारिक सूझ-बूझ और अदम्य साहस के बारे में बताने की ज़रूरत नहीं। काकोरी काण्ड के बाद क्रान्तिकारी संगठन के बिखरे हुए सूत्रों को जोड़कर उसके पुनर्गठन का काम उन्हीं के नेतृत्व में हुआ था। उन्होंने अत्यन्त कुशलता, त्याग और साहस के साथ नौजवान क्रान्तिकारियों की टीम को संगठित, प्रेरित और सक्रिय किया। यह तो सभी जानते हैं, लेकिन चन्द्रशेखर आज़ाद के व्यक्तित्व के इस पहलू के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं कि वे अत्यन्त कम पढ़े-लिखे होने के बावजूद एक दृढ़, विचारवान क्रान्तिकारी थे। किसी भी तर्कपूर्ण और नये विचार के प्रति वे सदा खुले रहते थे तथा पुराने रूढ़ विश्वासों और विचारों को त्यागने में वे पल भर भी देर नहीं करते थे।
आज़ाद के जीवन पर एक नज़र डालने से ही पता चल जायेगा कि एक कट्टर ब्राह्मण परिवार में पैदा होने से लेकर समाजवाद में आस्था रखने वाले एक विचारवान क्रान्तिकारी की यात्रा उन्होंने किस रफ्तार से तय की ।
आज़ाद का जन्म बेहद गरीबी, अशिक्षा और धार्मिक कट्टरता में हुआ था। भगतसिंह आदि से उम्र में वे केवल एक-दो साल ही बड़े थे। वे पुस्तकों को पढ़कर नहीं, राजनीतिक संघर्ष और जीवन संघर्ष में अपने सक्रिय अनुभवों से सीखते हुए ही उस क्रान्तिकारी दल के नेता बने जिसका लक्ष्य था भारत में धर्मनिरपेक्ष वर्गविहीन समाजवादी प्रजातंत्र की स्थापना करना। आज़ाद भगतसिंह की तरह नास्तिक तो नहीं थे, लेकिन वे शचीन्द्र नाथ सान्याल जैसे वेदान्ती या आध्यात्मिक भी नहीं थे। धर्म को निजी विश्वास की चीज़ मानते थे और सच्चे धर्मनिरपेक्षवादी की तरह उनका यहा पक्का विश्वास था कि राज्य को पूरी तरह धर्म से अलग किया जाना चाहिए।
यह सही है कि भगतसिंह और भगवती चरण वोहरा जैसे मध्यवर्ग के खाते-पीते घरों के शिक्षित और बौद्धिक युवाओं के एच.एस.आर.ए. में भर्ती के बाद क्रान्तिकारी दल का तेज़ी के साथ वैचारिक विकास हुआ लेकिन ऐसा नहीं था कि आज़ाद उनके विचारों को आँखें मूँद कर स्वीकारते थे। आज़ाद के क्रान्तिकारी साथियों शिव वर्मा, भगवान दास माहौर, सदाशिव मलकापुरकर आदि के संस्मरणों से पता चलता है कि आज़ाद सभी दस्तावेज़ों, बयानों, परचों आदि पर ध्यानपूर्वक चर्चा करते थे और उनकी सहमति से ही वे जारी किये जाते थे। गम्भीर वैचारिक पुस्तकें साथियों से पढ़वाकर सुनते थे और उन पर चर्चा करते थे। फिरोज शाह कोटला मैदान में सम्पन्न हुई उस ऐतिहासिक बैठक में आज़ाद शमिल नहीं हो पाये थे जिसमें हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसियेशन का नाम बदल कर हिन्दुस्तान सोशेलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन किया गया था और समाजवाद को संगठन के लक्ष्य के तौर पर स्वीकार किया गया। लेकिन इस मुद्दे पर साथियों से उन्होंने पूरी चर्चा के बाद सहमति पहले ही दे दी थी। आज़ाद के क्रान्तिकारी साथी भगवान दास माहौर ने ‘यश की धरोहर’ में बिल्कुल ठीक लिखा है कि उनका जीवन और नाम “अशिक्षा, अन्धविश्वास, धार्मिक कट्टरता में पड़ी भारतीय जनता की क्रान्ति चेतना का प्रतीक” बन गया है।
आज साम्राज्यवादी-पूँजीवादी शोषण-उत्पीड़न की बेड़ियों में जकड़ी देश की मेहनतकश जनता के दिलों तक आज़ाद के अधूरे सपनों को पहुँचाना और उनकी महान शहादत से प्रेरणा लेते हुए उन सपनों को पूरा करने का संकल्प लेना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-जून 2013
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