किसे चाहिए अमेरिकी शैली की स्वास्थ्य सेवा?
विराट
विगत जुलाई को योजना आयोग ने बारहवीं पंचवर्षीय योजना के अर्न्तगत स्वास्थ्य सेवाओं और व्यवस्था पर एक मसविदा प्रस्तुत किया। इसमें भारत में कई देशों में प्रचलित स्वास्थ्य सेवाओं की तरह ‘मैनेज्ड केयर’ का प्रस्ताव रखा गया है जिसमें बुनियादी बात ये है कि इस व्यवस्था के अन्तर्गत सरकार की भूमिका स्वास्थ्य सेवा प्रदाता की न रहकर स्वास्थ्य सेवाओं के ख़रीददार की होगी। इस मसविदे में योजना आयोग ने ‘मैनेज्ड केयर’ के पक्ष में तथा भारत में स्वास्थ्य सेवा के ढाँचे को बदलने के लिए काफी कुछ पेश किया है। हम यहाँ पर एक-एक बात की तफसील से चर्चा करेंगे कि यह मसविदा (जो फिलहाल आयोग और सरकार के आपसी विरोध के चलते पुनर्विचार के लिये वापस ले लिया गया है) किस तरह सरकार की स्वास्थ्य सेवाएँ देने की जिम्मेदारी से पलायन है तथा यह जन स्वास्थ्य को किस तरह बाजार की अन्धी ताकतों के हवाले करता है तथा वैश्विक स्तर पर इस तरह की व्यवस्था के क्या अनुभव रहे हैं?
‘मैनेज्ड केयर’ क्या है?
स्वास्थ्य सेवाओं के लिए ‘मैनेज्ड केयर’ व्यवस्था अमेरिका सहित कई देशों में प्रचलित है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत पब्लिक, प्राईवेट और कॉरपोरेट स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं का एक नेटवर्क खड़ा किया जायेगा। यह नेटवर्क प्रति व्यक्ति भुगतान की पद्धति पर काम करेगा। इसमें हर कोई एक निश्चित राशि इस नेटवर्क को पंजीकृत/बीमाकृत होने के लिए अग्रिम भुगतान के तौर पर देगा। सेवा प्रदाता का चुनाव व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करता है। सरकार इस नेटवर्क से प्राप्त कुल धन राशि को सेवा प्रदाताओं को (चाहे वह पब्लिक, प्राईवेट या कॉरपोरेट हो) इस अनुपात के आधार पर भुगतान करेगी कि अमुक सेवा प्रदाता के यहाँ कितने व्यक्ति पंजीकृत/बीमाकृत है तथा उनसे प्राप्त होने वाली धनराशि क्या है ? इस व्यवस्था के अन्तर्गत पब्लिक सेक्टर के स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के वित्तीय पोषण की जिम्मेदारी भी सरकार की नहीं रह जायेगी।
इसके बाद इस नेटवर्क में पंजीकृत प्रत्येक व्यक्ति को एक ‘आवश्यक स्वास्थ्य पैकेज’ (EHP-Essential Health Package) दिया जायेगा। लेकिन इस ‘आवश्यक स्वास्थ्य सेवा पैकेज’ का विस्तार केवल हल्की और कम ख़र्चीले इलाज वाली बीमारियों तक ही सीमित रहेगा। इसके बाद पंजीकृत व्यक्ति या परिवार के पास प्रीमियम भरकर एक टॉप-अप पैकेज लेने का प्रावधान होगा। इस टॉप-अप पैकेज का विस्तार इस बात पर निर्भर करेगा कि प्रीमियम के तौर पर कितनी धनराशि का भुगतान किया गया है यानी की गम्भीर और महँगे इलाज वाली बीमारियों के लिए ज़्यादा से ज़्यादा प्रीमियम भरना होगा। अब ये सवाल तो जे़हन में उठना ही है कि भारत में 84 करोड़ से ज़्यादा आबादी जो 20 रुपये रोज़ाना या इससे भी कम पर गुज़र-बसर करती है उनमें से कितने लोग इस तरह का प्रीमियम भर सकते हैं।
संक्षेप मे यह व्यवस्था तीन स्तरों पर बँटी होगी; प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च स्तर। प्राथमिक स्तर पर (जिसके अन्तर्गत “आवश्यक स्वास्थ्य पैकेज’ देने का प्रावधान है) सामान्य रोगों का इलाज किया जायेगा। इसके बाद गम्भीर तथा ख़र्चीले इलाज वाली बीमारियों के लिए प्रीमियम भर कर टॉप-अप पैकेज लेकर माध्यमिक या उच्च स्तर का इलाज किया जायेगा। मोटे तौर पर ‘मैनेज्ड केयर’ की यह व्यवस्था इस तरीके से काम करेगी। इसके साथ ही जुलाई मसविदे में सरकार के 2007 से जारी राष्ट्रीय सुरक्षा बीमा योजना(RSBY) जो मुख्यतः बीपीएल परिवारों तक सीमित थी तथा बाद में इसे निर्माण कार्य में लगे कामगारों तक विस्तारित किया गया, ताकि ज्यादा से ज्यादा आबादी को राष्ट्रीय सुरक्षा बीमा योजना के तहत पंजीकृत/बीमाकृत किया जा सके। इसका मकसद यह है कि इस योजना के तहत बीमाकृत आबादी को ‘मैनेज्ड केयर’ नेटवर्क से जोड़ा जाये।
व्यवहार में कैसे काम करेगी ‘मैनेज्ड केयर’ व्यवस्था?
‘मैनेज्ड केयर’ व्यवस्था, जो प्रति व्यक्ति भुगतान पर आधारित है, से एक बात तो स्पष्ट है ही कि इस नेटवर्क से जुड़े सेवा प्रदाता का पूरा फोकस इस बात पर रहेगा कि वह ज्यादा ख़र्चीले इलाज वाली बीमारियों के लोगों को ज़्यादा से ज़्यादा अपने नेटवर्क से जोड़े। चूँकि इस पूरी व्यवस्था में आवश्यक स्वास्थ्य पैकेज एक प्राथमिक स्तर के इलाज को ही सम्भव बनाता है तो ऐसे में जो लोग गम्भीर और जटिल व ख़र्चीले इलाज वाली बीमारियों से पीड़ित है उनके सामने दो विकल्प बचते हैं कि या तो वे प्रीमियम भरकर टॉप-अप पैकेज ले कर अपना इलाज करायें या अगर वे प्रीमियम भरने में समर्थ नहीं है तो फिर बीमारी से पीड़ित रहने को अभिशप्त रहें। अब ग़ौर करने की बात है कि भारत की 77 प्रतिशत आबादी जो 20 रुपये रोज़ाना पर गुज़र-बसर करती है और इस आबादी का खून-पसीना दो जून रोटी के जुगाड़ में ही बह जाता है तो ऐसे में वह प्रीमियम भरकर अपना इलाज कैसे करा पायेगी? इस व्यवस्था में तो पब्लिक सेक्टर के स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के वित्तपोषण की जिम्मेदारी भी सरकार की नहीं रह जायेगी! तो इस बहुसंख्यक आबादी के स्वास्थ्य की जिम्मेदारी किसकी रहेगी? जवाब यही है कि यदि पैसा नहीं तो इलाज नहीं। दूसरी बात जो इस ‘मैनेज्ड केयर’ व्यवस्था का परिणाम होगी वह है स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण। आज स्वास्थ्य सेवा के पब्लिक सेक्टर की कार्यपद्धति स्पष्ट है। सरकारी अस्पतालों के हाल भी सामने हैं जहाँ एक बेड पर कई-कई मरीजों को ठूँसा जाता है। इलाज का स्तर क्या है, तकनीकी सुविधाएँ क्या हैं यह भी किसी से छुपा नहीं है। ऐसे में जब स्वास्थ्य सेवाओं के सरकारी ढाँचे के वित्तपोषण की जिम्मेदारी भी सरकार की नहीं रह जायेगी तो इस नेटवर्क की प्रतियोगिता में पब्लिक सेक्टर का टिक पाना नामुमकिन है। इसलिए कॉरपोरट स्वास्थ्य सेवा पहले पब्लिक सेक्टर को निगल जायेगी फिर छोटे निजी सेक्टरों को। किन्तु यह स्वास्थ्य सेवाओं में इज़ारेदारी को नये सिरे से और अधिक बड़े स्तर पर पैदा करेगा। यह बात भी किसी से छुपी नहीं है कि कॉरपोरेट व्यवस्था का निर्धारक बिन्दु एक ही होता है और वह है मुनाफा। ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़े की होड़ में ये सेवा प्रदाता ऐसी बीमारियों के इलाज में दिलचस्पी लेंगे जिनमें मुनाफा ज़्यादा हो और चूँकि यह नेटवर्क प्रति व्यक्ति भुगतान पर आधारित होगा और चूँकि वास्तविक मुनाफा टॉप-अप प्रीमियम से ही होगा तो ऐसे में पूरा नेटवर्क कुछ ख़ास लोगों के इलाज पर ही ध्यान केन्द्रित करेगा, जो प्रीमियम भर सकते हैं। और आबादी के बड़े हिस्से को, जो कि बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी है, उसके हाल पर ही छोड़ दिया जायेगा। मुनाफ़े की इस अन्धी दौड़ में दुनिया के लिए सारा सुख-साधन, ऐश्वर्य पैदा करने वाली बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी का स्वास्थ्य इन कॉरपोरेट सौदागरों के लिये कोई मायने नहीं रखेगा क्योंकि वो प्रीमियम नहीं भर सकेंगे, यानी कि वे मुनाफा नहीं दे सकेंगे।
ज़ाहिर सी बात है यह पूरी व्यवस्था देश की बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी के स्वास्थ्य से कोई सरोकार नहीं रखती । यह व्यवस्था स्वास्थ्य सेवाओं के चरणबद्ध और सुनियोजित सम्पूर्ण निजीकरण की ओर उठाया गया कदम है जो जनस्वास्थ्य को बाजार की अन्धी ताक़तों के हवाले कर देगा और इस बाज़ार में वही स्वस्थ रह पायेगा जिसके पास पैसा हो, ‘जिसका इलाज मुनाफा पैदा कर सके।’
अमेरिका में ‘मैनेज्ड केयर’ के अनुभव
स्वास्थ्य सेवा की यह प्रणाली संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रचलित है। अब देखते हैं कि पूँजीवाद के “स्वर्ग” में इस प्रणाली के तहत आम आबादी की क्या स्थिति हुई है।
अमेरिका की कुल आबादी के करीब 28 प्रतिशत लोगों का इस नेटवर्क में कोई बीमा नहीं है और उन्हें कोई स्वास्थ्य सेवा इस नेटवर्क से प्राप्त नहीं होती। 34 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जो इस नेटवर्क में पंजीकृत तो हैं, परन्तु यदि उन्हे कोई गम्भीर रोग हो जाये तो इस नेटवर्क से उन्हें कोई उपचार नहीं मिल पायेगा क्योंकि वे कोई प्रीमियम भरने में असमर्थ हैं। केवल 38 प्रतिशत लोग ही ऐसे है जो कि इस नेटवर्क से स्वास्थ्य लाभ उठा सकते हैं।
इससे हम यह साफ़ देख सकते हैं कि अमेरिका में अमीरी-ग़रीबी के बीच की खाई कितनी गहरी है। वह अमेरिका जिसने पूरे विश्व में “लोकतंत्र” स्थापित करने का जिम्मा अपने सिर पर उठा रखा है उसके भीतर किस तरह का लोकतंत्र है, जहाँ लोगों के स्वास्थ्य को भी बाज़ार की अन्धी ताकतों के हाथों में छोड़ दिया गया है। अमेरिका में स्वास्थ्य सेवा पर होने वाल ख़र्च उसके सकल घरेलू उत्पादन का 15 प्रतिशत है जिसमें से 7.26 प्रतिशत पब्लिक सेक्टर पर ख़र्च होता है। स्वास्थ्य सेवा पर ख़र्च बढ़ने के बावजूद वास्तविक तौर पर जनता के स्वास्थ्य का स्तर लगातार गिर रहा है।
कोलम्बिया और मेक्सिको में ‘मैनेज्ड केयर’ का अनुभव और भी कड़वा रहा है। कोलम्बिया में 1990-1995 में स्वास्थ्य सेवा पर खर्च सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 3 प्रतिशत था। ‘मैनेज्ड केयर’ प्रणाली लागू करने पर 1997 तक यह ख़र्च सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 5.5 प्रतिशत हो गया, लेकिन वास्तविकता में लोगों के स्वास्थ्य का स्तर गिरता गया और देश की 55 प्रतिशत आबादी को भी स्वास्थ्य सेवा मुहैया नहीं कराई जा सकी।
इससे हम यह देख सके हैं कि जनता के स्वास्थ्य पर ख़र्च तो इस प्रणाली में बढ़ता है परन्तु लोगों को स्वास्थ्य सेवा के नाम पर कुछ भी नहीं मिलता और वास्तव में वह ख़र्च आम जनता पर कम और अमीरों पर ज़्यादा होता है। वैश्विक अनुभवों से यह बात साफ़ नज़र आती है कि सरकार को स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने में अधिक स्वास्थ्य सेवा खरीदना ज़्यादा महँगा पड़ता है। लेकिन यह ख़र्च जनता उठाती है और उससे पैदा होने वाला मुनाफा स्वास्थ्य देखरेख कम्पनियों की तिजोरियों में जाता है।
निष्कर्ष
सरकार जिस तरह से जनता की स्वास्थ्य सेवा से हाथ पीछे खींच रही है, उससे सरकार का मानवद्रोही चरित्र साफ़ सामने आता है। स्वास्थ्य का अधिकार जनता का बुनियादी अधिकार है। भारत में स्वास्थ्य का स्तर सर्वविदित है। जिस देश में पहले से ही 55 प्रतिशत महिलाएँ रक्त की कमी का शिकार हों, जहाँ 46 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हों, वहाँ स्वास्थ्य सेवा को बाज़ार की ताकतों के हवाले करने के कितने भयावह परिणाम हो सकते हैं, इसे आसानी से समझा जा सकता है। सरकार के इस प्रस्तावित कदम से भी यह साफ़ हो जाता है कि ऐसी व्यवस्था के भीतर जहाँ हर वस्तु माल होती है, वहाँ जनता की स्वास्थ्य सेवा भी बिकाऊ माल ही है। जिस व्यवस्था का केन्द्र बिन्दु मुनाफा हो उससे आप और कोई उम्मीद भी नहीं रख सकते हैं।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-जून 2013
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