मोदी को भावी प्रधानमन्त्री बनाने के लिए प्रचार मुहिम
पूरे देश को फासीवाद की प्रयोगशाला में तब्दील करने की पूँजीपतियों की तैयारी
अरविन्द
अभी कुछ ही दिन पहले नरेन्द्र मोदी गुजरात के ‘विकास’ के गीत गाने के लिए दिल्ली यूनिवर्सिटी के एस.आर.सी.सी. कॉलेज में पधारे। वहाँ तमाम जनवादी छात्र संगठनों और शिक्षकों ने ‘नरेन्द्र मोदी मुर्दाबाद’, ‘फ़ासीवाद मुर्दाबाद’, और ‘नरेन्द्र मोदी वापस जाओ’ सरीखे नारों के साथ उनका स्वागत किया। वहीं पर एक महाशय जो काफ़ी खाये-पीये लग रहे थे; बोले-”मोदी एक आँधी है, तुम लोगों के रोकने से यह नहीं रुकेगी।” इस प्रकार की अभिव्यक्तियाँ अचरज की बात नहीं हैं। आपको बहुत से लोग ऐसे मिल जाएँगे जिनके लिए मोदी एक नायक और एक असली नेता जैसा है। यह बात किसी भी संजीदा व्यक्ति को सोचने के लिए मजबूर करती है कि कैसे सीधे तौर पर एक साम्प्रदायिक छवि वाला व्यक्ति आम लोगों (खासकर निम्न व मध्य मध्यम वर्ग) के लिए एक नायक के तौर पर उभरकर सामने आता है। यह चीज़ एक तरफ़ तो देश में पल रहे फ़ासीवाद की तरफ़ इशारा करती है, दूसरा यह प्रश्न उभरकर सामने आता है कि जब आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक ढाँचा बदलाव की माँग करता है तो क्यों समाज का एक हिस्सा फ़ासीवादी चेहरों में समस्याओं के सही समाधान देखने लगता है? इसकी पड़ताल बेहद जरूरी है।
आर्थिक संकट के बढ़ने के साथ ही फ़ासीवाद के ख़तरे भी बढ़ जाते हैं। आज भारत ही नहीं वरन् पूरी दुनिया में पूँजीवादी व्यवस्था आर्थिक संकट का शिकार है। बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, महँगाई और सामाजिक मदों में कटौती के कारण लगातार लोग सड़कों पर उतर रहे हैं। फ़ासीवादी और धार्मिक कट्टरपंथी उभार भी विभिन्न देशों में अलग-अलग रूपों में देखे जा सकते हैं। अमेरिका की टी पार्टी, जर्मनी के नवनात्सी समूह, मिस्त्र में मुस्लिम ब्रदरहुड से लेकर दुनिया भर में कट्टरपंथी रुझान रखनेवाले राजनीतिक संगठन मौजूद हैं। असल में फ़ासीवाद को ठीक ही ‘पूँजीपतियों की जंजीर में बंधा हुआ कुत्ता’ कहा गया है, जिसे संकट के समय जनता पर छोड़ा जा सके।
फ़ासीवादियों के साथ पूँजीपतियों के काफ़ी “मधुर सम्बन्ध” पाए जाते हैं। आपको ज्ञात हो, हिटलर के सत्ता में आने के दौरान जर्मनी के पूँजीपतियों ने सैकड़ों लाख मार्क जमा किए थे। हिटलर को पैसा देने वालों में वॉश और फाकलेयर जैसी कम्पनियाँ भी शामिल थी। ठीक इसी प्रकार हमारे देश के ही नहीं बल्कि विदेशी पूँजीपति भी मोदी का गुणगान करते हुए नहीं थकते। चुनाव के समय दिया जानेवाला ‘चंदा’ तो आम बात है। असल में यह निवेश का ही एक हिस्सा होता है जिसे सस्ते श्रम, प्राकृतिक संसाधनों की लूट, कर छूट आदि के रूप में सूद समेत प्राप्त कर लिया जाता है, मज़दूरों से निचोड़ा गया मुनाफ़ा अलग से! आर्थिक संकट के दौर में मज़दूर क्रान्तियों से बचने के लिए फासीवाद को अचूक नुस्खे के तौर पर प्रयोग किया जाता है। यही तो कारण है कि 2002 के गुजरात दंगों में खून की होली खेलने वाले मोदी को पूँजीपति काफ़ी सराह रहे हैं।
छद्म चेतना यानी आभासी सत्य पर ही फ़ासीवादी और तमाम तरह की साम्प्रदायिक ताकतें अपना ढाँचा खड़ा करती हैं। फासीवादी नेता एक सम्प्रदाय विशेष का नेता होने का दिखावा तो करते हैं, मगर असलियत कुछ और ही होती है। इनका काम केवल यही होता है कि येन-केन-प्रकारेण लोगों का ध्यान उनकी वास्तविक समस्याओं से हटाकर उनका सिरफुटौव्वल करवा दिया जाए। यह बात हिटलर, मुसोलिनी के लिए जितनी सही थी उतनी ही नरेन्द्र मोदी, राज ठाकरे, बाल ठाकरे और भारत में फासीवाद के अन्य प्रतीक पुरुषों के लिए भी सही है। धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा आदि की पहचान की राजनीति के सहारे पिछड़ेपन और अवसरों की कमी का जिम्मेदार अल्पसंख्यकों और प्रवासियों को ठहरा दिया जाता है। जबकि इसका कारण है मुनाफा-केन्द्रित पूँजीवादी व्यवस्था। यही कारण है कि फासीवादियों की मुख्य भर्ती अधिकतर भय और आर्थिक असुरक्षा के शिकार निम्न मध्य वर्ग से ही होती है। मोदी हिन्दुत्व के तहत गुजरात में होने वाले विकास पर फूले नहीं समाते किन्तु गुजरात में 31 प्रतिशत लोग ग़रीबी रेखा से नीचे जी रहे हैं (ग़रीबी रेखा के हास्यास्पद होने के बावजूद), लगभग 50 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। अस्पतालों में 1 लाख आबादी पर महज 58 बिस्तर उपलब्ध हैं। इन सबका कारण यही है कि सरकार जनता के करों से जमा पैसे को पूँजीपतियों पर लुटा रही है। अभी हाल ही में कैग ने गुजरात की सरकार पर यह सवाल उठाया है कि वह ज़मीन, बिजली, पानी आदि पूँजीपतियों को जिस दर पर देती है, उससे सार्वजनिक खज़ाने का नुकसान होता है; ऊपर से मोदी करों आदि में पूँजीपतियों को छूट देने में सबसे आगे है। ऊपर से मज़दूरों के ऊपर पूरे गुजरात में जो आतंक राज कायम है, उससे पूँजीपतियों को सारे नियम-कानून ताक पर रखकर बेहिचक मुनाफा कमाने का पूरा अवसर भी मिलता है। हाल ही में, हीरा कारीगरों के आन्दोलन को मोदी सरकार ने जिस “दृढ़ता” से कुचला, उसी के तो सारे पूँजीपति दीवाने हैं! आम मेहनतकश जनता के शोषण का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले कुछ सालों में सबसे अधिक मज़दूरों के आन्दोलन भी गुजरात में ही हुए हैं। अल्पसंख्यकों पर होनेवाले सरकारी व गैरसरकारी अत्याचारों की तो बात ही क्या की जाए।
मीडिया जिसे पूँजीवादी जनतन्त्र का चौथा खम्भा कहा जाता है, देश में सूचना और संचार तन्त्र का एक पूरा जाल बिछाता है। पूँजीवादी व्यवस्था के तहत मीडिया एक औज़ार होता है। इसके द्वारा पूँजीपति वर्ग जनता के ऊपर अपना वर्चस्व तो स्थापित करता ही है, साथ ही लोगों को भाग्यवादिता, कूपमण्डूकता, रूढ़िवादिता और हर प्रकार की मानसिक रुग्णता का शिकार भी बनाता है। विज्ञान के महती विकास के बावजूद धार्मिक पाखण्डियों और मानसिक विकृत बाबाओं की दुकानदारी खूब फलती-फूलती हुई देखी जा सकती है। आज हम देखते हैं कि तमाम तरह के मुख्य धारा के मीडिया पर भी पूँजीपतियों का ही कब्ज़ा है। जो चौबीसों घण्टे स्याह को सफेद और सफेद को स्याह करने में जुटा रहता है। हिटलर के प्रचार मन्त्री गोयबल्स ने एक बार कहा था कि यदि किसी झूठ को सच में बदलना है तो उसे सौ बार बोलो। जनता के ज़रूरी मुद्दों को छोड़कर ग़ैर-ज़रूरी चीज़ को ही असली मुद्दा बनाकर पेश कर दिया जाता है। हत्यारों को नायकों जैसा सम्मान दिलाने में इस मीडिया का भी बड़ा हाथ है। औपनिवेशिक गुलामी के दौर से लेकर आज तक यह बात सही साबित होती रही है कि वैज्ञानिक और तार्किक विचारों की बजाय सड़ी पुरातन मान्यताओं और पुनरुत्थानवादियों से मानसिक खुराक लेने वाला समाज फासीवादी वृक्ष की बढ़ोत्तरी के लिए अच्छी ज़मीन मुहैया कराता है। 2002 में मौत का तांडव रचने वाले मोदी को विकास पुरुष के तौर पर प्रचारित करना मीडिया के बिकाऊ होने का ही एक सबूत है। जबकि गुजरात के कच्छ की खाड़ी में नमक की दलदलों में काम करने वाले मज़दूरों का किसी को पता भी नहीं है जिनको मौत के बाद नमक में ही दफन कर दिया जाता है क्योंकि उनके शरीर में इतना नमक भर जाता है कि वह जल ही नहीं सकता। अलंग के जहाज़ तोड़ने वाले मज़दूरों से लेकर तमाम मेहनतकश अवाम लोहे के बूटों तले जीवन जी रहे हैं, यह किसी को नहीं बताया जाता। इन्हीं सब चीजों से ‘जनतन्त्र के चौथे स्तम्भ’ की असलियत बयान होती है। पूँजीवादी मीडिया हमेशा पूँजीवाद की ज़रूरतों के मुताबिक जनता के बीच सहमति के निर्माण करने का काम करता है। जब पूँजीवाद को कांग्रेस के तथाकथित उदार शासन की ज़रूरत होती है, तो मीडिया उसे उछालता है। आज जब आर्थिक और राजनीतिक संकट जनता के बीच व्यवस्था के प्रति मोहभंग की स्थिति को बढ़ा रहा है, तो पूरा कारपोरेट मीडिया देश की सभी समस्याओं के समाधान के तौर पर एक ‘सशक्त और निर्णायक’ नेता के रूप में मोदी को पेश कर रहा है। यह बात दीगर है कि मोदी जिन आर्थिक नीतियों और श्रम नीतियों को गुजरात में लागू कर रहा है, इस देश में उसका श्रीगणेश करने का काम 1991 में वित्त मन्त्री के तौर पर मनमोहन सिंह ने ही किया था।
संशोधनवादियों की ऐतिहासिक गद्दारी और उनके द्वारा फासीवाद का नपुंसक विरोध भी भारत में फासीवादी ताकतों के मज़बूत होने का एक कारण है। कांग्रेस की केन्द्र सरकार से तो कुछ उम्मीद ही नहीं की जा सकती जो ‘सेक्यूलर-सेक्यूलर’ चिल्लाते हुए आवश्यकतानुसार खुद भी नर्म साम्प्रदायिकता का कार्ड खेल जाती है। आजा़दी के बाद से लगभग कांग्रेस की ही सरकार रही है, मुख्य रूप से 1984 में सिख विरोधी दंगे, 1989 में भागलपुर का दंगा, फिलहाल का असम का दंगा आदि में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कांग्रेस ही जिम्मेदार रही है। क्योंकि सरकारी मशीनरी होते हुए भी साम्प्रदायिक समाजद्रोही तत्वों को न कुचलना भी प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है। संसदीय वामपन्थी साम्प्रदायिकता-विरोध में संसद-विधानसभाओं में ही बैठकर कुर्सी तोड़ते हैं और नपुंसक विर्मश करते है। सिंगुर और नन्दीग्राम जैसी घटनाएं इनके सामजिक फासीवाद का ही रूप हैं। औपनिवेशिक सत्ता से आज़ादी से पहले जनवादी ताकतें कमज़ोर थी और बाद में इनके बड़े हिस्से ने पूँजीवादी व्यवस्था की सुरक्षा पंक्ति बनने का ही काम किया है। असल में जब जनता के सामने समस्याओं के सही कारण खोजकर नहीं रख दिये जाते तभी छद्म चेतना यानी आभासी सत्य काम कर पाता है। भाकपा, माकपा और तमाम भितरघातियों ने एक किस्म से फासीवाद को मदद ही पहुँचाई है। यह ज़रूरी नहीं है कि लोग वही करते जो उन्होने किया। यदि विशिष्ट किस्म के सामाजिक राजनैतिक और विचारधारात्मक आन्दोलन संगठित किये जाते तो यह कत्तई ज़रूरी नहीं था कि जनता फासीवादियों का मोहरा बनती। अन्त में फासीवाद और साम्प्रदायिकता को समझ लेना ही पर्याप्त नहीं होता बल्कि इसे जनता के बीच नंगा करना ज़रूरी होता है। तमाम तरह के कट्टरपंथ की जड़ों को खोदने के लिए एक व्यापक व लम्बा विचारधारात्मक संघर्ष ज़रूरी है। समाज में व्याप्त आर्थिक गै़रबराबरी, बेरोज़गारी, शोषण आदि के सही कारणों को जनता के बीच प्रचारित करना जरूरी है तथा साथ ही पूँजीवादी समाज और व्यवस्था के अन्तर्विरोधों को लोगों के सामने रखते हुए इसके विकल्प पर बात करना बेहद ज़रूरी होता है। बाकी इतिहास गवाह है कि मेहनतकश जनता की वर्गीय एकजुट फौलादी ताकत ही फासीवाद को धूल में मिला सकती है और मिलाएगी भी। भारत के फासीवाद के झण्डाबदारों का भी वही हश्र होना है जो हिटलर और मुसोलिनी का हुआ था।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-जून 2013
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!