अमेरिका की बन्दूक-संस्कृति आदमखोर पूँजीवादी संस्कृति की ही ज़हरीली उपज है
पिछले साल 14 दिसम्बर को अमेरिका के कनेक्टिकट राज्य के सैण्डी हुक प्राथमिक विद्यालय में एक बीस वर्षीय लड़के एडम लांजा ने सत्ताइस लोगों को अपनी गोलियों का निशाना बनाया जिसमें छह वर्ष के आसपास की उम्र के बीस बच्चे शामिल थे। इस नृशंस वारदात के एक घण्टे पहले एडम लांजा ने अपनी माँ को भी गोलियों से भून दिया था। अमेरिकी सपने के सब्ज़बाग दिखाने वालों को यह घटना बेहद हैरतअंगेज़ लगी और वे सिर पीटते हुए यह सवाल पूछते नज़र आये कि भला अमेरिका जैसे विकसित और सभ्य समाज में इस किस्म की बर्बरता कैसे पनप सकती है! परन्तु अमेरिकी समाज की असलियत जानने वालों के लिए यह बर्बर घटना कोई अपवादस्वरूप होने वाली घटना नहीं थी। अमेरिका में हर साल इस किस्म की घटनाएँ किसी न किसी राज्य में घटित होती रहती हैं जिनमें कोई अनजान बन्दूकधारी अन्धाधुंध गोलियाँ चलाकर बेगुनाह लोगों का क़त्ले-ए-आम कर देता है। जब भी ऐसी कोई नृशंस घटना घटती है तो अमेरिकी राष्ट्रपति एक भावुक भाषण देते हैं और भविष्य में ऐसी घटना न होने देने का प्रण लेते हैं। कुछ दिनों तक वह घटना मीडिया की सुखिर्यों में छायी रहती है, तमाम बुद्धिजीवी और विशेषज्ञ कुछ नुस्ख़े सुझाते हैं और फिर धीरे-धीरे यह मसला मीडिया की सुखिर्यों से भी ग़ायब हो जाता है जब तक कि ऐसी कोई घटना फिर से घटित नहीं होती।
सैण्डी हुक की घटना के बाद भी अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत होकर एक बेहद भावुक भाषण दिया और खुद उस विद्यालय का दौरा किया, मृतकों के परिजनों से मिलकर उनका दुख साझा किया और लगातार बढ़ रही बन्दूक-संस्कृति पर लगाम लगाने की कसमें खायीं। पूरे विश्व की मीडिया में ओबामा की इस भावुक प्रतिक्रिया पर उनकी पीठ थपथपायी गयी। भारतीय मीडिया (ख़ासकर इलेक्ट्रॅानिक मीडिया) के प्रतिष्ठित पत्रकार भी ओबामा की “मानवीय संवेदनायुक्त नेतृत्वकारी क्षमता” के आगे नतमस्तक होते नज़र आये। इन पत्रकारों की अमेरिका के प्रति स्वामीभक्ति इस बात से ही ज़ाहिर होती है कि इनमें से किसी ने भी यह पूछना ज़रूरी नहीं समझा कि बराक ओबामा की मानवीय संवेदनाएँ उस समय कहाँ होती हैं जब उनके इशारे पर अमेरिकी सेना इराक़, अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान और अन्य जगहों में आम आबादी पर अंधाधुंध हवाई हमले करती है जिनमें हज़ारों की संख्या में मासूम बच्चों और औरतों सहित बेगुनाह लोग मारे जाते हैं। कुछ पत्रकारों ने तो कुण्ठित होकर यहाँ तक कहा कि काश भारत के प्रधानमन्त्री में भी ओबामा जैसी क्षमता होती तो 16 दिसम्बर की गैंग-रेप की घटना के बाद लोग इतने आन्दोलित नहीं होते। मानो ऐसी लफ्फ़ाजियों से ही पीड़ितों को न्याय मिल जायेगा और ऐसी घटनाओं में कमी आ जायेगी!
अमेरिका में, जैसा कि हर ऐसी घटना के बाद होता है, सैण्डी हुक की घटना के बाद भी इस परिघटना की तहों तक जाने की बजाय बहस महज़ इस बात पर केन्द्रित रही कि बन्दूक-सम्बन्धी कानूनों को और कड़ा बनाया जाये अथवा उन्हें और लचीला बनाया जाये। इस बहस में डेमोक्रेटिक पार्टी से सहानुभूति रखने वाले उदारपंथी पक्ष का यह कहना होता है कि अमेरिकी समाज में इस किस्म की घटनाएँ इसलिए बढ़ रही हैं क्योंकि वहाँ बन्दूक-सम्बन्धी कानून बहुत लचीले हैं जिनकी वजह से कोई भी नागरिक बड़ी आसानी से बन्दूक ख़रीद सकता है। ग़ौरतलब है कि अमेरिका की तीस करोड़ की आबादी में रजिस्टर्ड बन्दूकों की संख्या 31 करोड़ है! दुनिया में बन्दूकों से लैस सबसे अधिक जनसंख्या अमेरिका में ही है। इसलिए उदारपंथी पक्ष यह तर्क प्रस्तुत करता है कि इस ख़तरनाक बन्दूक संस्कृति पर लगाम लगाने के लिए बन्दूक सम्बन्धी कानूनों को और कड़ा बनाया जाना चाहिए जिससे बन्दूक आसानी से उपलब्ध न हो। इस पक्ष का यह भी कहना होता है कि अमेरिका में नेशनल राइफ़ल एसोसियेशन जैसी बन्दूक लॉबियों पर लगाम कसने की ज़रूरत है। परन्तु यह पक्ष इस सच्चाई को ज़ाहिर करने से कतराता है कि इस किस्म की लॉबिंग सिर्फ रिपब्लिकन पार्टी के साथ ही नहीं की जाती। डेमोक्रेटिक पार्टी इसमें किसी भी तरीके सें पीछे नहीं रहती। ग़ौरतलब है कि हालिया राष्ट्रपति चुनाव में नेशनल राइफ़ल एसोसियेशन ने रोमनी और ओबामा दोनों को ही फ़ण्ड दिया था।
बहस में रिपब्लिकन पार्टी से सहानुभूति रखने वाले रूढ़िवादी पक्ष का तर्क यह होता है कि अमेरिका में इस किस्म की घटनाएँ इसलिए बढ़ रही हैं क्योंकि अभी भी सभी लोगों के पास अपनी आत्मरक्षा के लिए पर्याप्त संख्या में शॉटगन और राइफ़लें नहीं है। इस पक्ष का यह मानना है कि हर नागरिक को आत्मरक्षा का अधिकार है और चूँकि राज्य द्वारा हर नागरिक को सुरक्षा मुहैया कराना असम्भव है, इसलिए नागरिकों को अपनी सुरक्षा के लिए राज्य पर निर्भर होने की बजाय खुद ही अपनी रक्षा करनी चाहिए। अतः इस पक्ष का समाधान यह होता है कि ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए बन्दूक-कानूनों को और लचीला बनाया जाना चाहिए ताकि ज़्यादा से ज़्यादा संख्या में लोगों के पास बन्दूक हो जिससे वे उस वक़्त अपनी रक्षा कर पाएँ जब कोई हमलावर उन पर हमला करता है। अपने तर्क के समर्थन में यह पक्ष अक्सर अमेरिकी संविधान के दूसरे संशोधन का हवाला देता है जो सभी नागरिकों को आत्मरक्षा का अधिकार प्रदान करता है।
इन पक्षों के तर्क दरअसल समस्या की मूल वजह तक जाने की बजाय उसके लक्षणों पर ही बात करते हुए वक़्त ज़ाया करते हैं। दोनों में से कोई भी पक्ष ईमानदारी से इस बात पर विमर्श नहीं करता कि आखिर बन्दूक तो क़त्ल करने का उपकरण भर है, उपकरण अपने आप काम नहीं करता, उसको चलाने वाला कोई अभिकर्ता होना चाहिए। असली सवाल तो यह है कि अमेरिकी समाज में ऐसी मानसिकता वाले लोग तेज़ी से पनप ही क्यों रहे हैं जिनको बेगुनाहों और मासूमों का कत्ल करने में एक उन्मादी खुशी मिलती है। ये दोनों ही पक्ष यह बुनियादी सवाल नहीं उठाते क्योंकि यदि ईमानदारी से यह सवाल उठाया जायेगा तो समूचे पूँजीवादी ढाँचे और उससे पनपने वाली मानवद्रोही संस्कृति को कठघरे में रखना होगा जिसके वे स्वयं अभिन्न अंग हैं।
अमेरिकी समाज में इस किस्म की मानसिकता क्यों पनप रही है, इस सवाल का उत्तर जानने के लिए हमें अमेरिका में पूँजीवादी विकास और उसके साथ अभिन्न रूप से जुड़ी हिंसक संस्कृति के इतिहास पर एक नज़र दौड़ानी होगी। दरअसल आधुनिक अमेरिकी समाज की नींव यूरोपीय उपनिवेशवादियों ने वहाँ के मूल निवासी आदिवासियों का सफ़ाया करके उनकी कब्रों पर रखी थी। उसके बाद लाखों की संख्या में यूरोपीय लोगों का अमेरिका की ओर पलायन हुआ। अमेरिका में बस जाने वाले लोगों के औपनिवेशिक सत्ता से अन्तरविरोध की परिणति 1776 में अमेरिकी क्रान्ति के रूप में हुई। परन्तु क्रान्ति के बाद सत्तारूढ़ शासक वर्ग के खि़लाफ़ अफ़्रीकी अश्वेत दासों का संघर्ष भी शुरू हो चुका था। अश्वेत दासों के विद्रोहों से निपटने के लिए तत्कालीन अमेरिकी शासक वर्ग ने संविधान के दूसरे संशोधन का सहारा लेते हुए नये कानून बनाये जिनमें श्वेत कुलीन नागरिकों को अश्वेत विद्रोहियों से आत्मरक्षा के लिए आसानी से बन्दूकें उपलब्ध कराने के प्रावधान थे। इन कानूनों का दूसरा पहलू यह था कि उनमें अश्वेत दासों को बन्दूकें मिलना उतना ही कठिन बना दिया गया था। यानी ये कानून एक ओर श्वेतों का सशस्त्रीकरण सुनिश्चित करते थे वहीं दूसरी ओर अश्वेतों का निरस्त्रीकरण भी इनका लक्ष्य था। ज़ाहिरा तौर पर इन कानूनों को पारित करवाने में अमेरिका के नवोदित हथियार उद्योगों की एक प्रमुख भूमिका रही थी। अमेरिकी गृह युद्ध और उसके बाद के दौर से बन्दूक अमेरिका की संस्कृति का अभिन्न अंग बन गयी। इसके बाद अमेरिकी हथियार उद्योग ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करता चला गया। पूँजीवाद के संरचनात्मक संकट और तद्जनित विश्वयुद्धों ने इस उद्योग में चार चाँद लगा दिये और इसका मुनाफ़ा अपनी पुरानी सारी हदें पार कर गया।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यूरोप में भारी मात्रा में बन्दूकों और अन्य हथियारों का अम्बार लग गया था। चूँकि यूरोप उस समय तबाह हो चुका था और वहाँ के बन्दूक कानून लचीले नहीं थे, इसलिए समृद्ध पूँजीवादी देशों में अमेरिका ही एक ऐसा देश बचा था जहाँ उन बन्दूकों को आसानी से बेचकर बेहिसाब मुनाफ़ा कमाया जा सकता था। इस प्रकार द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के वर्षों में अमेरिकी समाज में हथियारों की कम्पनियों और उनकी लॉबियों ने वहाँ पहले से ही मौजूद हिंस्र संस्कृति को और बढ़ावा दिया। टीवी, अखबारों और रेडियो में ऐसे विज्ञापनों की बाढ़-सी आ गयी जो बन्दूक रखने को शान, प्रतिष्ठा और मर्दानगी से जोड़ते थे और ऐसे लोगों को हेय दृष्टि से देखते थे जो बन्दूक नहीं रखते थे और अपनी रक्षा के लिए राज्य पर निर्भर रहते थे। मिसाल के तौर पर एक विज्ञापन कहता था, “मोर फ़न, विद योर गन, द इयर एराउण्ड! (ज़्यादा मज़ा, आपकी बन्दूक के साथ, पूरे साल!)”। इन सबके फ़लस्वरूप वहाँ के समाज में बन्दूक रखना और बन्दूक चलाना आम बात हो गयी। किशोरावस्था से ही पर्स, कंघी, घड़ी आदि की तरह बन्दूक भी एक ज़रूरी समान हो गया। इसके साथ ही साथ हिंसा का जश्न मनाते मानवद्रोही वीडियो गेम्स, टीवी सीरियल, फिल्मों इत्यादि ने अमेरिकी समाज में हिंसक मानसिकता को पालने पोसने में खाद-पानी का काम किया। पूँजीवादी विकास और तद्जनित अलगाव के फ़लस्वरूप अमेरिका के युवाओं में घोर निराशा, हताशा और अवसाद के साथ ही साथ वीभत्स किस्म की मानवद्रोही दुस्साहसिक मानसिकता भी व्याप्त है जिसकी चरम परिणति सैण्डी हुक जैसी घटनाओं के रूप में सामने आती है। यही नहीं पूँजीवादी संकट के दौर में अमेरिका में भाँति-भाँति के नव-नात्सीवादी, नव-पफ़ासीवादी और धुर दक्षिणपंथी समूह पनप रहे हैं जो अश्वेतों के खि़लाफ़, मुस्लिमों के खि़लाफ़ और प्रवासी नागरिकों के खि़लाफ़ नफ़रत का ज़हर उगलते रहते हैं और खुलेआम हिंसा का आह्नान करते हैं। अभी पिछले ही साल विसकांसिन राज्य के ओक क्रीक में ऐसे ही समूह के एक सदस्य वेड माइकल पेज ने एक गुरुद्वारे पर अंधाधुंध गोलीबारी करके सिखों का क़त्ल-ए-आम किया था।
अमेरिकी समाज पूँजीवादी विकास द्वारा जनित व्यक्तिवादी, स्वकेन्द्रित और परमाणवीय समाज का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। इस किस्म के सामाजिक विकास की प्रक्रिया में लोगों को एक समुदाय का हिस्सा न बताकर एक दूसरे से स्वतन्त्र एक व्यक्ति के रूप में देखने की आदत डाली जाती है। ऐसे में हर समस्या को सामूहिक रूप से निपटने की बजाय व्यक्तिगत स्तर पर सुलझाने के लिए आग्रह किया जाता है। आत्मरक्षा की समस्या के लिए सबके पास बन्दूक रखने का समाधान ऐसे ही आग्रह का उदाहरण है।
अमेरिकी समाज की हिंसक संस्कृति के इस संक्षिप्त इतिहास से यह बात स्पष्ट है कि समस्या कहीं ज़्यादा गहरी और ढाँचागत है और उसके समाधान के रूप में जो क़वायदें की जा रही हैं वह मूल समस्या के आस-पास भी नहीं फटकतीं। जो लोग बन्दूक कानूनों में सख़्ती लाने की बात करते हैं वे इस जटिल और गम्भीर समस्या का सतही समाधान ही प्रस्तुत करते हैं और निहायत ही बचकाने ढंग से ऐसी घटनाओं के लिए बन्दूक के उपकरण को जिम्मेदार मानते हैं। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है जब बन्दूक कानूनों में सख़्ती लाने की कवायदें की जा रही हैं। पहले भी इस किस्म के नियन्त्रण लाने की बातें होती रही हैं। कुछ कानूनी बदलाव भी होते रहे हैं, परन्तु इन नियन्त्रणों का कुल परिणाम यह होता है कि अश्वेतों और अल्पसंख्यकों का निरस्त्रीकरण होता है जबकि कुलीन श्वेत अमेरिकी धड़ल्ले से बन्दूक लेकर घूमते हैं और उनमें से ही कुछ लोग सैण्डी हुक जैसे नरसंहार अंजाम देते हैं।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-जून 2013
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