बच्चो को बचाओ! सपनों को बचाओ!

गौरव

“बच्चे देश का भविष्य होते हैं।” यह शायद कुछ सबसे ज़्यादा बोले जाने वाले सत्यों में से एक है। लेकिन हमारे देश के बच्चों की हालत देखकर कुछ और ही तस्वीर बनती है। आह्वान के पिछले अंकों (मार्च-अप्रैल 2010 तथा मई-जून 2010) में बच्चों के कुपोषण और भूख से दम तोड़ती उनकी जिन्दगी की रिपोर्टें छपी थीं। बच्चों के जीवन से जुड़े एक और आयाम पर यहाँ चर्चा कर रहा हूँ, वह है बालश्रम। हम अपनी बात की शुरुआत कुछ आँकड़ों से करेंगे। वैसे तो देश में घरेलू और सेवा से जुड़े क्षेत्रों में बाल मज़दूरी पर पाबन्दी-सम्बन्धी कानून पूरे देश में अक्टूबर 2006 से ही लागू है, लेकिन:

• यूनिसेफ के मुताबिक भारत में बच्चों की स्थिति बहुत ही ख़तरनाक है। यहाँ डेढ़ करोड़ बच्चे ऐसे हैं जो बीड़ी, कालीन, कपड़ा उद्योग तथा खनन जैसे खतरनाक उद्योगों में काम करते हैं। उनकी आयु सीमा 5 से 14 वर्ष के बीच की है। इन ख़तरनाक उद्योगों में पैदा होने वाली गर्द, गन्ध, गैसें उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डालती हैं। बीड़ी बनाने, कालीन बुनने, कपड़ों, चूड़ी, काँच के बर्तन आदि की कटाई-रंगाई, खनन, गाड़ियों के ग़ैराज, चाय की दुकानों, ढाबों आदि में बड़े पैमाने पर बच्चों से काम लिया जाता है। हालाँकि ग़ैर-सरकारी संगठनों के मुताबिक यह आँकड़ा ढाई करोड़ तक जाता है।

india-world-day-against-child-labor-2010-6-12-5-4-6

• इन बच्चों में लड़कियों की स्थिति और भी भयावह है। यूनिसेफ के ताज़ा अनुमान के मुताबिक विश्व भर में करीब दस करोड़ लड़कियाँ विभिन्न उद्योगों में कामगार के तौर पर और घरेलू नौकर के रूप में कार्य करती हैं। इनमें से अधिकतर को यौन शोषण की यातना झेलनी पड़ती है। लड़कियों का इस्तेमाल अश्लील फिल्मों, वेश्यावृति आदि के लिए भी किया जाता है।

• बाल श्रमिकों की संख्या में भारत से आगे केवल अफ्रीका ही है। ग़ौरतलब है कि अफ्रीका में हर तीसरे बच्चे को बाल श्रमिक का जीवन बिताने पर मजबूर होना पड़ता है।
800px-Child_Labourer_Wasim 22child5

• विश्व स्तर पर बाल श्रमिक की समस्या ख़तरनाक स्तर पर पहुँच चुकी है। अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की रिपोर्ट बताती है कि 2004 में 15 करोड़ बच्चे ख़तरनाक उद्योगों में काम कर रहे थे, जिससे उनके स्वास्थ्य और सुरक्षा को गम्भीर ख़तरा है।

• रजिस्ट्रार जनरल और जनगणना कमिश्नर की आधिकारिक रिपोर्ट के अनुसार घरेलू और होस्पिटैलिटी क्षेत्र में काम करने वाले बाल श्रमिकों की संख्या 2.56 लाख है। किन्तु ग़ैर सरकारी स्रोतों के अनुसार यह संख्या दो करोड़ से कम नहीं है। दिल्ली में मोटे तौर पर इन दोनों क्षेत्रों में बाल मज़दूरों की संख्या पचास हज़ार है।

यहाँ पर सवाल उठता है, तब सरकार क्या कर रही है?

वैसे तो समय-समय पर सरकारी तथा ग़ैर सरकारी संस्थाओं द्वारा बाल श्रमिकों को मुक्त कराने का और उनका पुनर्वास कराने का काम होता रहता है लेकिन स्थिति ढाक के तीन पात जैसी ही है। आइये कुछ और तथ्यों पर निगाह डालें।

कैम्पेन अगेंस्ट चाइल्ड लेबर (सीएसीएल) तथा कैम्पेन अगेंस्ट चाइल्ड ट्र्रैफिकिंग (सीएसीटी) नामक अभियान ने तीस से ज़्यादा ग़ैर सरकारी संगठनों के साथ मिलकर देश के बारह राज्यों आन्ध्रप्रदेश, बिहार, दिल्ली, गोवा, गुजरात, झारखण्ड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओड़िसा, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में बाल मज़दूरी पर एक सोशल आडिट किया। इसमें नतीजे निकले कि बाल मज़दूरी ख़त्म करने की कोशिशों में प्रशासनिक स्तर पर कोई तेज़ी नहीं आयी है। इसके चलते कानून होते हुए भी देश में बाल मज़दूरी नासूर बनता जा रहा है। स्वयं अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक भारत में बाल मज़दूरी को ख़त्म करने के लिए बनाये गये कानूनों को लागू करने में स्थानीय प्रशासन की दिलचस्पी नहीं होती। एक सार्वजनिक सुनवाई करने वाली ज्यूरी, जिसमें सैयद अहमद (योजना आयोग के सदस्य) आर.के. राघवन (भूतपूर्व निदेशक सीबीआई), विमला रामचन्द्रन, (शिक्षाविद), अशोक अरोड़ा (उच्चतम न्यायालय के एक वरिष्ठतम वकील) और अरविन्द केजरीवाल, (सूचना के अधिकार के एक्टिविस्ट और मैग्सेसे पुरस्कार विजेता) शामिल थे, ने घरेलू और हास्पिटैलिटी क्षेत्र में बाल-श्रम पर प्रतिबन्ध को सर्वसम्मति से “एक विफलता” करार दिया है। इस ज्यूरी के अनुसार “यह साफ है कि बच्चे इन कामों को करने के लिए बाध्य हो जाते हैं क्योंकि उनके घर की आर्थिक दशा ज़्यादा ख़राब होती है। इनमें से अधिकांश पढ़ाई-लिखाई करना चाहते हैं लेकिन काम करके जीविका कमाने और शेष परिवार को सहारा देने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं होता है।” इसके पीछे बड़ी वजह है ग़रीबी। जिस देश में करीब अड़तालीस फीसद बच्चे कुपोषण का शिकार हैं, जिस देश की 84 करोड़ आबादी 20 रुपये से भी कम पर गुज़ारा करती है, वहाँ बड़े पैमाने पर बाल श्रम की मौजूदगी को समझा जा सकता है। ग़रीब माँ-बाप जानते हैं कि पढ़-लिखकर उनकी माली हालत नहीं बदल सकती, इसलिए उन्हें बचपन से ही गाड़ियाँ ठीक करने, कालीन बुनने, कपड़ों की रंगाई करने, काँच के उद्योग आदि में काम सीखने भेज देते हैं। इतने ग़रीब परिवार भी हैं जो दिनरात ईंट के भट्ठों पर खनन, कचरा बीनने के काम में बच्चों समेत लगे रहते हैं ताकि उनके घर का चूल्हा जल सके।

कोई अन्धा भी महसूस कर सकता है कि बाल मज़दूरी का असली कारण यह पूँजीवादी व्यवस्था है, जिसमें मानव श्रम मात्र एक बिकाऊ माल के रूप में बाज़ार में बिकता है। पूँजीवादी व्यवस्था के केन्द्र में महज़़ मुनाफा होता है, इन्सान नहीं। पूँजीपति को महज़़ मुनाफे से मतलब होता है। उत्पादन, राजकाज और सामाजिक ढाँचे पर उसका ही कब्ज़ा होता है। वही नीति-नियन्ता होता है। बाल श्रमिक को कम दाम देकर ज़्यादा से ज़्यादा काम कराया जाता है। क्योंकि वह एकजुट होकर यूनियन नहीं बना सकता। डाँट-फटकार और मार-पीट कर काम कराना आसान होता है। बुनाई उद्योग में व्यापक तौर पर बाल श्रमिक रखे जाते हैं क्योंकि उनकी कुशलता वयस्क की कुशलता से अधिक होती है। बच्चों के छोटे-छोटे हाथ और पतली उँगलियाँ कई उद्योगों के लिए महत्त्वपूर्ण श्रम संसाधन हैं। महज़ मौजूदा कानूनों को कड़ा बनाकर और नये कानून बनाने से यह समस्या कभी भी हल नहीं हो सकती है क्योंकि इस समस्या की जड़ ही है ग़रीबी और असमानता। जब तक इस देश में व्यापक मेहनतकश आबादी उत्पादन, राजकाज और समाज के ढाँचे पर कब्ज़ा नहीं जमा लेती है, तब तक अन्य कोई भी उपाय सार्थक नहीं हो सकता।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अक्‍टूबर 2010

 

'आह्वान' की सदस्‍यता लें!

 

ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीआर्डर के लिए पताः बी-100, मुकुन्द विहार, करावल नगर, दिल्ली बैंक खाते का विवरणः प्रति – muktikami chhatron ka aahwan Bank of Baroda, Badli New Delhi Saving Account 21360100010629 IFSC Code: BARB0TRDBAD

आर्थिक सहयोग भी करें!

 

दोस्तों, “आह्वान” सारे देश में चल रहे वैकल्पिक मीडिया के प्रयासों की एक कड़ी है। हम सत्ता प्रतिष्ठानों, फ़ण्डिंग एजेंसियों, पूँजीवादी घरानों एवं चुनावी राजनीतिक दलों से किसी भी रूप में आर्थिक सहयोग लेना घोर अनर्थकारी मानते हैं। हमारी दृढ़ मान्यता है कि जनता का वैकल्पिक मीडिया सिर्फ जन संसाधनों के बूते खड़ा किया जाना चाहिए। एक लम्बे समय से बिना किसी किस्म का समझौता किये “आह्वान” सतत प्रचारित-प्रकाशित हो रही है। आपको मालूम हो कि विगत कई अंकों से पत्रिका आर्थिक संकट का सामना कर रही है। ऐसे में “आह्वान” अपने तमाम पाठकों, सहयोगियों से सहयोग की अपेक्षा करती है। हम आप सभी सहयोगियों, शुभचिन्तकों से अपील करते हैं कि वे अपनी ओर से अधिकतम सम्भव आर्थिक सहयोग भेजकर परिवर्तन के इस हथियार को मज़बूती प्रदान करें। सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग करने के लिए नीचे दिये गए Donate बटन पर क्लिक करें।