पाठक मंच

प्रिय अभिनव भाई,

आह्वान का मई-जून 2010 का अंक मिला। अंक भेजने के लिए धन्यवाद। इससे पूर्व आह्वान के पुराने अंक भी देखे। पत्रिका आप लोग काफी मेहनत से निकाल रहे हैं। एक टीमवर्क दिखायी देता है। सामग्री का चयन बहुत सुन्दर है। पत्रिका में स्तरीय और महत्त्वपूर्ण सामग्री पढ़ने को मिल रही है। आप लोग समसामयिक मुद्दों पर सामग्री देने के साथ-साथ विचार-दर्शन पर जो सामग्री दे रहे हैं, वह बहुत उपयोगी है। पत्रिका में अर्थजगत, समाज, विज्ञान, शिक्षा, साहित्य आदि से सम्बन्धित सभी आलेख पठनीय और विचारणीय रहते हैं। विषयवस्तु की गम्भीरता सोचने-विचारने के लिए प्रेरित करती है।

नये अंक में ‘भौतिकवाद के लिए संकट?’ आलेख के अन्तर्गत एल.एच.सी. प्रयोग के बहाने एक महत्त्वपूर्ण विषय को उठाया गया है। यह बहुत ज़रूरी, सुचिन्तित एवं तार्किक आलेख है। इसमें जिन सम्प्रत्ययों को छोड़ा गया है, मुझे लगता है, उन पर आने वाले अंकों में अवश्य बात की जानी चाहिए। भौतिकवाद का इतिहास विस्तार से दिये जाने की आवश्यकता है। इस क्रम को आगे जारी रखियेगा।

फैज़ अहमद फैज़ पर सामग्री देकर अच्छा किया। आगे नागार्जुन, केदार नाथ अग्रवाल तथा शमशेर पर भी कुछ अवश्य दीजियेगा। विशेष रूप से इस कोण से कि क्यों नागार्जुन और केदार को जनकवि कहा जाता है? आखि़र उनके कृतित्व व व्यक्तित्व में वे कौन सी बातें थीं, जिनके चलते उन्हें जनकवि का दर्जा मिला? आशीष भाई ने फैज़ पर मन से लिखा है। अच्छा लगा। निश्चित रूप से फैज़ भारतीय उपमहाद्वीप के एक बड़े शायर हैं। भारत-पाकिस्तान में उनकी बराबर लोकप्रियता बताती है कि ज़मीन को बाँटा जा सकता है, मगर विचार को नहीं। साम्प्रदायिक ताकतें फैज़ को किस देश और किस धर्म का बतायेंगी? वह आज भी प्रासंगिक हैं। उनकी कविता हमारे मन में एक ऊर्जा पैदा करती है। उनकी यह बात कि दाग़-दाग़ उजालों वाली यह आज़ादी वह आज़ादी नहीं है जिसके लिए हम लड़े थे, बिल्कुल सही है। एक सच्चे इन्सान के लिए भूगोल की सीमाएँ कोई मायने नहीं रखती हैं, इस बात के जीते-जागते प्रमाण हैं फैज़। फैज़ का जिक्र करते हुए आशीष भाई ने कविता को लेकर जो बातें कही हैं, मैं उनसे पूरी तरह सहमत हूँ कि गर किसी कविता में महज़ बयान हों, अपने समय का महज़ प्रतिचित्रण हो, जीवितों की उम्मीदें, आशाएँ नदारद हों तो ऐसी कविता किस काम की? वास्तव में ऐसी कविता किसी काम की नहीं। मुझे तो लगता है कविता को मुक्ति का रास्ता भी बताना चाहिए। तभी उसकी सार्थकता है।

महेश पुनेठा, पिथौरागढ़

साथियो,

‘‘आह्वान’‘ के ताज़ा अंक का बण्डल मिला। राशि भेज रहा हूँ। मुखौटों में पूँजीवाद के घिनौने चेहरों के आतंकी मानवहन्ता उद्देश्यों की शल्यक्रिया करती इस पत्रिका के साथ इन्‍कलाब होने का इन्तज़ार बेसर्बी से रहता है। पूँजीवाद जो आज अपने अनेक छद्म रूपों में मृगतृष्णा बना, आम आदमी के शोषण, दमन और उत्पीड़न का एक नया बदनुमा इतिहास रचने को तत्पर है, के खि़लाफ यह पत्रिका क्रान्ति का हरावल दस्ता है, यह तमाम मेहनतकशों को, उनके नारकीय जीवन से उबारने की गहराती चिन्ता है। – आयें, हम तमाम इसकी गूँजती आवाज़ को, अपनी रक्त वाहिनियों से होकर गुज़रने दें। ये पत्रिका कम, हम तमाम आम जनता के भविष्य की चिन्ता अधिक है। – इस पत्रिका के पढ़ने के बाद, जो दर्द सिहरकर उभरते हैं, वे निम्न हैं –

लगता है,

इस देश के लोकतन्त्र में,

आम आदमी की जगह

रही ही नहीं,

अर्थहीन हैं अब वे।

देश की बातों में

उन्हें तो गँवानी पड़ी जाती हैं

सारी उम्र

सिर पर एक छप्पर की आस में

दो जून की रोटियों की तलाश में

तथा बिटिया की शादी की चिन्ता में,

फिर कहीं पड़ गया बीमार

तो काल कवलित हो जाता है

अस्पताल के बरामदे पर ही

दवा के अभाव में,

फिर भी निकालनी होगी फुर्सत,

लगानी होगी आवाज़,

खड़ा हो

बोलने वालों की कतार में

क्योंकि कभी भी कोई

तुम्हारे लिये न बोलेगा

तुम्हें अपनी उपस्थिति

ख़ुद दर्ज़ करनी होगी

अपने होने का अर्थ कहने को।

डॉ. गिरिजा शंकर मोदी
शब्द-सदन’, भागलपुर (बिहार)

आदरणीय अभिनव जी, सादर नमन!

आह्वान का मार्च-अप्रैल अंक देखा, पढ़ा। वैकल्पिक पाठों के साथ इसमें सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक जकड़नों से मुक्ति की चाहत दिखी। ख़ुशी और आश्वस्ति की बात है कि इसके अभियान से प्रबुद्ध छात्र और युवा जुड़े हैं जिनमें समझ, साहस और सक्रियता की कोई कमी नहीं है।

स्वयं की शिक्षा और प्रशिक्षण का महत्त्व तभी है, जब वह दूसरों को भी शिक्षित और प्रशिक्षित करने के काम आये। आपकी टीम ने इस महत्त्व को समझा है। आज के समय में तो सूचना सम्पन्न तो कोई भी हो सकता है लेकिन ज़रूरत तो यथार्थ की गहरी समझ की है। व्यावसायिक पत्रिकाएँ तो चमकीली-भड़कीली सूचनाओं तक ही सीमित रहती हैं जो युवाओं को दिग्भ्रमित करने का कार्य करती हैं। जनसामान्य की भाषा में तगड़े तर्क और गहरे विश्लेषण के ज़रिये उनके छद्म को उद्घाटित करना और विकल्प रखना, ये काम तो जनप्रतिबद्ध लघु पत्रिकाएँ ही कर सकती हैं। जनोन्मुखी प्रखर विचारशक्ति के साथ आह्वान के पास स्थानीय चिन्ताएँ और एक सही विश्वदृष्टि भी है जो समस्याओं को उसके सम्पूर्ण परिप्रेक्ष्य में देखती है।

पाठक मंच भी आपका अच्छा है। इसमें प्रकाशित शकील ‘प्रेम’ से कहना है कि हर धर्म एक ज़हर है, सिर्फ रामचरितमानस वाला ही नहीं। अमेरिकी अश्वेत कवि लैंग्सटन की कविता बहुत अच्छी है। यह अमेरिका को आत्मालोचन के लिए विवश करती है। इसमें पीड़ितों के प्रति गहरी संवेदना है। यह बहुत सहजता से साधारणीकरण स्थापित करती है। इसके अनुवादक स्व. रामकृष्ण पाण्डेय को मेरी श्रद्धांजलि! उनके द्वारा अनूदित लैंग्सटन की कविताओं का संकलन शीघ्र छपकर आये, यही कामना है। मेरी एक कविता प्रकाशनार्थ भेज रहा हूँ।

चौधरी

समाज का

जो सबसे संवेदनशील

व्यक्ति था

अफसोस है कि

उसने फाँसी लगा ली

भरी जवानी में

समाज का

जो सबसे क्रूर

और बेहया आदमी है

वह आज भी

बना बैठा है चौधरी

अपनी कुटिल मुस्कान के साथ

इसी का हाथ

रहा है

समाज के सबसे संवेदनशील

व्यक्ति की आत्महत्या में

कई हत्याओं के अतिरिक्त

केशव शरण
एस 2/564 सिकरौल, वाराणसी कैण्ट, वाराणसी-2
मोबाइल: 09415295137

प्रिय सम्पादक आह्वान,

मई-जून, 2010 का ‘आह्वान’ पढ़कर मन परेशान हो उठा तो लिखना ज़रूरी समझा। पाठक मंच कॉलम में साथी रोहित जी के ‘‘आखि़र शिक्षा का सही मुकाम कहाँ है’‘ विचार तथा सकर्मक-विमर्श में साथी मनीष तोमर के विचारों को जानकर हैरानी भी हुई। दरअसल यह भारत का दुर्भाग्य है कि इसके नागरिकों को वह जानकारी दी नहीं गयी जिसकी उन्हें ज़रूरत है। इतिहास गवाह है कि भारत वर्ष में किस प्रकार अन्धविश्वासों, कुरीतियों, असमानताओं तथा कुलीन वंशों की शिक्षा का ही प्रचलन रहा है। हमें विज्ञान के विकास तथा पूँजीवाद की शुरुआती क्रान्तिकारी देनों को नज़रअन्दाज़़ नहीं करना चाहिए। औद्योगिक विकास की बदौलत ही आज हम प्रकृति के रहस्यों को काफी हद तक समझ पाये हैं। तथापि भारतवर्ष में आधुनिक विज्ञान की जानकारियाँ केवल सूचना प्रौद्योगिकी तथा वैश्वीकरण के ही फलस्वरूप हुई हैं। भारत के ऊपर अंग्रेज़ी हुकूमत के दौरान किस तरह से अन्धविश्वासों तथा कुरीतियों का भण्डाफोड़ हुआ था, यह सभी को विदित है। इसी प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय शिक्षा पद्धति को अभी बहुत सुधार की ज़रूरत है। स्कूलों, कॉलेजों में जो कुछ भी पढ़ाया जाता है, वह किसी भी स्तर का नहीं है। न ही उससे सर्वहारा वर्ग का भला होने वाला है। यह पूरा शैक्षिक ढाँचा पूँजीवादी फरेब के अलावा कुछ नहीं है। पूँजीपति शासक वर्ग वही शिक्षा देना चाहता है जो उसका शासन बरकरार रखने में मददगार हो। भारत के कॉलेज व विश्वविद्यालय वो पढ़ाते हैं जो पूँजीपति शासक वर्ग पढ़वाना चाहता है यानी धर्म, जाति, वर्ग विभाजन आदि-आदि।

आज के बुर्जुआ राज्य के विश्वविद्यालयों में ऊबाऊ व बेकार थोथे भारतीय साहित्य के अलावा और कुछ मिलने की आशा करना फिजूल है। विदेशी विश्वविद्यालय के आने से भले ही शुरुआत में हमें कुछ फर्क नज़र न आये, लेकिन कुछ वर्षों बाद यूरोपीय वैज्ञानिकता वाली शिक्षा पद्धति ज़रूर नज़र आयेगी। तथा आज हम लोग जिस पढ़ने लायक सामग्री के लिए दर-बदर भटकते है, वो आम हो जायेगा। भारत में मार्क्स व एंगेल्स की कितनी मूल किताबें मयस्सर है? समाजवादी साहित्य बड़े-बड़े शहरों की बामुश्किल एकाध दुकान पर ढूँढ़ने से मिलता है। जब हमें वो साहित्य पढ़ने को ही नहीं मिलेगा, तो हमारी समझ में कैसे आयेगा कि समाज में दो ही वर्ग हैं शोषक व शोषित और इसके अलावा समाज का न कोई धर्म होता है, न जाति, न देश।

आपके प्रयास सराहनीय है। वक़्त इज़ाजत नहीं दे रहा! आशा करता हूँ कि अगले अंक के लिए समय रहते लेख तैयार रखूँगा।

शुभकामनाओं के साथ।

सी.एस. गोस्वामी
मेकेनिकल इंजीनियरिंग डिपार्टमेण्ट, आई.आई.टी.
कानपुर, उत्तर प्रदेश

आदरणीय गोस्वामी जी,

आपका पत्र मिला। यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आई.आई.टी. कानपुर जैसे पेशेवर पाठ्यक्रमों को संचालित करने वाले कुलीन संस्थानों में भी आप जैसे जनपक्षधर लोग मौजूद हैं। आपके पत्र में उठाए गए एक महत्वपूर्ण प्रश्न पर कुछ विचार तत्काल ही ज़ेहन में आ गये इसलिए आपसे उन्हें साझा करना चाहता हूँ।

अब जिस किस्म के विदेशी विश्वविद्यालय और विदेशी  शिक्षा हमें मयस्सर होने वाली है, उससे मार्क्स और एंगेल्स की रचनाएँ और विचार सहज उपलब्ध हो जाएँगे, इसकी उम्मीद कम ही है। ज़्यादा सम्भावना इस बात की है कि ये विदेशी विश्वविद्यालय विज्ञान की शिक्षा के मामले में एकदम पेशेवर तकनीकी पाठ्यक्रमों को संचालित करेंगे, जिनमें से समाज और जनता अनुपस्थित होगी। और जहाँ तक सामाजिक विज्ञानों का प्रश्न है, अधिकांश पाठ्यक्रम बुर्जुआ सिद्धान्तों के प्रचार का ज़रिया बनेंगे, जैसे कि वेबर से लेकर दुख़ीर्म, देरीदा, फूको, स्पिवाक, बॉद्रील्यार्द, आदि। मार्क्स और एंगेल्स को तो ‘‘पुराना पड़ चुका दर्शन’‘ या फिर आर्थिक निर्धारणवादी या वर्ग अपचयनवादी कहकर किनारे लगा दिया जाएगा। ये पाठ्यक्रम अस्मितावादी एन.जी.ओ. राजनीति के पौधे में भी पानी और खाद डालने का काम करेंगे।

सम्पादक

प्रिय सम्पादक,

मैं रविवार की एक बहुत ही शान्त सुबह बिता रही थी कि तभी आपके कुछ वॉलण्टियर मेरे घर पर संगठन का सन्देश लेकर आये। यद्यपि मैंने यह समझ लिया था कि इस अभियान का मुख्य मकसद आपके संगठन के ख़र्चों के लिए कुछ सहयोग एकत्र करना था, परन्तु ऐसा करते हुए उन्होंने आपके संगठन द्वारा एक समाजवादी व्यवस्था के निर्माण के लक्ष्य को भी समझाने का प्रयास किया। अफसोस कि मैं आपकी महिला ब्रिगेड की किसी भी सदस्य का नाम नहीं जान पायी; मैं उनकी मेहनत और साहस की प्रशंसा करती हूँ।

आपके वॉलण्टियर से मिलकर मैं अपने छात्र जीवन के दिनों में और जिनके हम साक्षी बने, वह कुछ सीमा तक जो हमने यद्यपि बहुत कम अपनी यूनिवर्सिटी में किये, को याद कर सकती हूँ। मैंने अपनी पढ़ाई 2002 में पूरी की थी और यह पहली बार था, जब मैंने आपके संगठन के बारे में सुना। मैं आपकी पत्रिका को देख रही थी और समाज में बदलाव लाने के आप लोगों के दृढ़ विश्वास का अहसास कर सकती थी। हमारे देश व पूरे विश्व में अनेक घटनाएँ घटती रहती हैं, जो आदर्श नहीं होती और नौजवानों की यह जिम्मेदारी है कि वे उनको सही करे। इस समय समाज में जो बदलाव अभीष्ट हैं, वे क्रान्ति की माँग करते हैं। क्रान्ति की बात करते हुए यह सम्भव नहीं कि मैं भगतसिंह के नाम को भूल जाऊँ। भगतसिंह और उनके साथियों ने जिस समाज व्यवस्था का सपना देखा था, वह आज कहीं खो गया है। वह केवल किसी उग्रवादी नेता के तौर पर याद किये जाते हैं, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने फाँसी दे दी थी, क्योंकि उन्होंने कुछ ब्रिटिश अफसरों की हत्या कर दी थी। और उन्होंने भारत की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष किया था। इस पूरे दल की विचारधारा के बारे में न तो बात ही की जाती है और न ही उनके बारे में कोई पता ही लगाया जाता है। हम इस उपेक्षा के लिए किसी और को नहीं बस ख़ुद को ही दोषी ठहरा सकते हैं। आम आदमी का ध्यान मुख्य बात से पूरी तरह हट गया और एक शहीद की परिकथा में जैसे खोकर रह गया है।

हम जानते हैं कि छात्र जीवन में तो जब हम इन विचारों को सुनते थे तो हम इनसे प्रभावित होते थे और उनके लिए लड़ने को बेचैन हो जाते थे, लेकिन जैसे ही हम दुनियादारी में फँस जाते हैं वैसे ही समय की धारा में सब चीज़ें हवा हो जाती हैं। अधिक से अधिक पैसा कमाने की होड़ के प्रभाव को छात्रों में उस समय भी देखा जा सकता है, जब वे कॉलेजों में होते हैं। ये विचारधाराएँ पैसा कमाने की दौड़ में स्वाहा कर दी जाती हैं। मैं पिछले 6 सालों से कॉरपोरेट जगत में काम कर रही हूँ और उन नौजवानों की दशा को मैंने बहुत करीब से देखा है, जो कॉलेजों से आते हैं और इन बड़ी कम्पनियों में नौकरी करते हैं। यद्यपि उनमें से कुछ अपनी इच्छाओं को पूरा करने में सफल हो जाते हैं, लेकिन वे भी समाज और परिवार की जिम्मेदारियों की चक्की में पिसकर रह जाते हैं। जबकि अधिकांश छात्र इन सब में लगे रह जाते हैं, कुछ अपनी लड़ाई को लड़ने में सक्षम हो जाते हैं और आपके संगठन जैसे संगठनों से जुड़ जाते हैं। लेकिन निष्कपटता से कहा जाये तो वास्तव में ऐसे लोग ज़्यादा नहीं हैं। यहां तक कि ऐसे छात्रों की यह छोटी संख्या भी अपने और अपने परिवार का पेट भरने व उनको सँभालने में काफी हद तक खप जाती है। युवाओं के इन दो खेमों में एक खायी बन गयी है, जो कि कम होती हुई नहीं दिख रही है।

लेकिन यहाँ बात कॉरपोरेट जगत के इन नौजवानों को उनकी ड्यूटी से हटाने की नहीं है, बल्कि इन विचारधाराओं से उनको परिचित करवाने के लिए रास्ते तलाशने की है। इस कॉरपोरेट जगत को चलाने वाले मस्तिष्क अद्भुत हैं और अगर उनको मोड़कर सही काम में लगा दिया जाये तो चमत्कार देखे जा सकते हैं। ये कॉरपोरेट घराने कुछ नीतियों पर काम करते हैं और उनकी अपनी विचारधाराएँ होती हैं। ये नीतियाँ कहीं बाहर से नहीं आती हैं बल्कि ख़ुद हमारे समाज से उन लोगों के ज़रिये आती हैं जो उनमें काम करते हैं। इनको मैन-पावर की लगातार ज़रूरत होती है जो कि युवा होते हैं। और अगर इन घरानों में जाने वाले युवा समाजवादी माइण्डसेट के साथ वहाँ जायें और लगातार सही तरीके और सही विचारधारा से विकसित किये जायें तो भविष्य बेहतर होगा। तभी सही तर्क और समझदारी से लैस लोग नीतियों को बनाने वाले बनेंगे। मैं यहाँ यह जोड़ना चाहूँगी कि अब ज़रूरी है कि क्रान्ति विश्वविद्यालय कैम्पसों से बाहर निकले और हमारी युवा ताकत के साथ हर जगह फैल जाये। जब विचारों से प्रेरित छात्रों के समूह समाज के सुविधा-सम्पन्न हिस्से में पूरे फैल जायेंगे तो हमारी नज़रिये में एक नया आयाम जुड़ जायेगा। हम सबको एक होकर काम करने की ज़रूरत है न कि अलग-अलग रहकर। इस क्रान्ति में यह ज़रूरी है कि समाज के किसी खास हिस्से के खि़लाफ लड़ने के बजाय उनको भी सही तरीकों से इस विचारधारा से हम परिचित करायें। यह सब बहुत ही रचनात्मक तरीके से किये जाने की ज़रूरत है ताकि इस बाहरी चमक-दमक से अन्धे हो चुके लोगों को भी इसकी तरफ आकर्षित किया जा सके। यह जानकर सही में काफी ख़ुशी होगी कि एक तथाकथित उच्च वर्ग से आने वाला नौजवान अपनी शाम को एक जनसभा में बिताना पसन्द करे, न कि किसी पब में।

तनुज चक्रवर्ती
(अंग्रेज़़ी से अनुवाद, ब्लॉग से प्राप्त)

प्रिय साथी,

क्रान्तिकारी विचारों को समाज के अलग-अलग हिस्सों तक पहुँचाने की आपकी चिन्ता जायज़ है। निश्चित रूप से कारपोरेट जगत में काम करने वाले नौजवानों का बड़ा हिस्सा भी एक दूसरे धरातल पर शोषण का शिकार है और उसके अतिरिक्त श्रम का भी उसी नियम के तहत शोषण होता है जिस नियम के तहत एक कारखाना मज़दूर का। इसमें भी कोई सन्देह नहीं है कि क्रान्तिकारी आन्दोलन के विकास की प्रक्रिया में कारपोरेट जगत का नया, युवा, चेतना-सम्पन्न, उन्नत मज़दूर भी हमसे एक हद तक जुड़ेगा। लेकिन समाज के अपेक्षाकृत समृद्ध वर्गों में विचारधारा के तमाम प्रचार के बावजूद उनके बीच से क्रान्ति के सफर के हमराही मिलने की गति, सम्भावना और दर सीमित ही रहेगी।

मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन और हमारे देश में शहीदे-आज़म भगतसिंह जैसे क्रान्तिकारी चिन्तकों ने क्रान्ति के विज्ञान को विकसित करते हुए हमें बताया है कि पूँजीवादी समाज को वे बदलेंगे जिनका इस सामाजिक-आर्थिक ढाँचे में कोई भविष्य नहीं है। क्रान्तिकारी सेनाओं की कतारों में मेहनतकशों और निम्न मध्यवर्ग के घरों के बेटे-बेटियाँ मौजूद होंगे। इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि अपेक्षाकृत समृद्ध वर्गों से हमें अपने हमराही नहीं मिलेंगे। निश्चित रूप से मिलेंगे। लेकिन उन वर्गों के मुकाबले कहीं कम, जो नग्नतम और बर्बरतम पूँजीवादी शोषण के शिकार हैं। यानी, इस देश के करीब 60 करोड़ सर्वहारा और ग़रीब किसान और 25 करोड़ आम निम्न मध्यवर्ग के लोग। यही इस देश की आबादी के करीब 80 फीसदी हैं और यही वे हैं जो किसी विकल्प की ज़रूरत को सबसे शिद्दत के साथ महसूस करते हैं। कारपोरेट जगत में काम करने वाले संवेदनशील नौजवान भी हमारे साथ आएँगे और कारपोरेट जगत के नौजवानों के बीच भी क्रान्तिकारी विचारधारा के प्रचार की आज बेहद आवश्यकता है। लेकिन हमें अपनी सीमित ताक़तों का उपयोग एक सही प्राथमिकता के साथ करना होगा और आज की प्राथमिकता इस देश के उन 80 फीसदी लोगों के बीच जाना है जिनका हमने ऊपर

जिक्र किया है। आपसे आगे संवाद जारी रखने की उम्मीद के साथ…

सम्पादक

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अक्‍टूबर 2010

 

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