ग़रीबी के बढ़ते समुद्र में अमीरी के द्वीप

आशु

भारत में बढ़ती ग़रीबी की सच्चाई बताने के लिए शायद ही आँकड़ों और रिपोर्टों की ज़रूरत पड़े। देश के नगरों-महानगरों में करोडों की तादाद में गाँव-देहात से उजड़कर आयी ग़रीब आबादी को राह चलते देखा जा सकता है। लेकिन फिर भी शासक वर्ग सूचना तन्त्र के माध्यम से ‘विकास’ के आँकड़े (जैसे – जीडीपी, सेंसेक्स की उछाल) दिखाकर आबादी में भ्रमजाल फैलाने की कोशिश करता है। ज़ाहिरा तौर पर झूठ के इस भ्रमजाल से आम आबादी भी प्रभावित होती है और एक मिथ्याभासी विकास के सपने देखती है। जबकि हकीकतन मुट्ठीभर लोगों के विकास की कीमत इस आम-आबादी को चुकानी पड़ती है।

poor and rich

इसके ताज़ा उदाहरण हाल की दो रिपोर्टें हैं। पहली रिपोर्ट यू.एन.डी.पी. की है जो बताती है कि देश के आठ राज्यों के 42 करोड़ लोग बेहद ग़रीब हैं और दूसरी रिपोर्ट कहती है कि देश में करीब सवा लाख लोगों के पास देश की कुल आय का एक तिहाई है। दोनो रिपोर्टें मिलकर साफ कर देती हैं कि भारत में अमीर-ग़रीब के बीच की खाई लगातार बढ़ रही है। ऐसे में अगर देश में सिर्फ अमीरों के हालात को सुखि़र्यों में रखा जाये तो विकास की एक भ्रामक तस्वीर खींची जा सकती है, क्योंकि इस रिपोर्ट के अनुसार 2018 में अमीरों की संख्या 2008 के मुकाबले तीन गुना बढ़ जायेगी। भारत में अमीरों की संख्या में यह इज़ाफा दुनिया में वियतनाम के बाद दूसरे स्थान पर है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि ये सवा लाख अमीरों की आबादी देश की आबादी की महज़ 0.01 प्रतिशत है। इन आँकड़ों को देखकर कोई कह सकता है कि चलो धीरे-धीरे 99.99 फीसदी आबादी भी सवा लाख अमीरों तक पहुँच जायेगी। लेकिन ऐसा सोचना नादानी होगी। अगर नेशनल सैम्पल सर्वे के 2007-08 के प्रति व्यक्ति माह ख़र्च को आधार बनाकर ग़रीबों को अमीरों तक पहुँचाने का हिसाब लगाया जाये तो शहरी आम-आबादी को इस स्तर तक पहुँचने में 2238 साल लग जायेंगे! और एक औसत ग्रामीण को 3814 साल! अब तस्वीर के दूसरे पहलू की बात करते हैं। भारत के आठ राज्य अफ्रीका के सबसे ग़रीब 26 देशों से भी ज़्यादा ग़रीब हैं। ये राज्य हैं बिहार, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, झारखण्ड, उड़ीसा, राजस्थान और पश्चिम बंगाल। ये आँकड़े यू.एन.डी.पी. के सहयोग से ऑक्सफोर्ड पावर्टी और मानव-विकास पहल की तरफ से बनाये गये बहुआयामी ग़रीबी सूचकांक के आधार पर हैं। ये बताते हैं कि भारत के केवल आठ राज्यों में ग़रीबों की संख्या बयालीस करोड़ से अधिक है जोकि अफ्रीका के सबसे ग़रीब छब्बीस देशों की आबादी इकतालीस करोड़ से कहीं आगे है।

इस सूचकांक का आधार केवल ऊर्जा कैलारी को नहीं बनाया गया है बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मुद्दों को भी शामिल किया गया है जो जीवन को मानवीय बनाते हैं और जो मानव होने की शर्त को पूरा करते हैं।

आगे भारत के सन्दर्भ में रिपोर्ट कहती है कि भारत में 55 फीसदी आबादी ग़रीब है। इस हिसाब से करीब 64.5 करोड़ लोग ग़रीबी रेखा के नीचे आते हैं जोकि योजना आयोग के आँकड़ों से दो गुना ज़्यादा है। आठ राज्यों के अलावा हरियाणा, गुजरात, कर्नाटक जैसे सम्पन्न राज्यों में ग़रीबों की संख्या चालीस प्रतिशत के लगभग है। एम.पी.आई- में अफ्रीका के भुखमरी और अकाल से जूझ रहे कांगो और मध्यप्रदेश की तुलना की गयी है, क्योंकि दोनो की आबादी सात करोड़ है दोनों का एम.पी.आई. भी करीब एक-सा है। राज्यवार दिये गये आँकड़ों से प्रमुख चुनावी पार्टियों की असलियत भी उजागर हो जाती है। आज़ादी के बाद कई दशक से बेशक इनके चुनावी एजेण्डे में अशिक्षा, भुखमरी, बेरोज़गारी और ग़रीबी मिटाने की बात हो लेकिन सभी पार्टियों के आर्थिक एजेण्डे एक हैं: ग़रीबों को लूटो-बरबाद करो और अमीरों को पूजो-आबाद करो!

वैसे भी इस रिपोर्ट ने फिर एक बार साबित कर दिया है कि जिस चमकते, उभरते भारत की तस्वीर वैश्विक मंच पर पेश की जाती है वह ग़रीब अफ्रीकी देशों के सामने भी नहीं टिक पा रहा है। तभी आज़ादी के छह दशक में सबसे अमीर और सबसे ग़रीब के बीच चौदह लाख गुना का फर्क है।

इस हालात को देखकर पन्द्रह साल पुरानी एक घटना याद आती है। जब 1995 में ‘आर्थिक सुधारों’ के कट्टर पैरोकार वित्तमन्त्री पी. चिन्दबरम ने ‘द वीक’ में कहा था कि “भारत में 90 करोड़ की आबादी में से 30 करोड़ को बढ़िया काम, बढ़िया स्कूल और सुख-सन्तोष भरी जिन्दगी हासिल है, दूसरे 30 करोड़ ने ढेरों उम्मीदें लगा रखी है, पर उन्हें घटिया काम, घटिया स्कूल ही सुलभ है, बाकी 30 करोड़ को न तो कोई काम हासिल, न कोई स्कूल। इन्हें इस व्यवस्था से कोई उम्मीद नहीं है, आर्थिक सुधारों से इन्हें कोई फायदा नहीं होने वाला है।” इस कथन से साफ है कि इस व्यवस्था में आम आबादी के सपने, उम्मीदें पूरी नहीं हो सकतीं। इसलिए हमें व्यवस्था परिवर्तन के संघर्ष में जी-जान से लगना होगा। तभी हम सब की और हमारी आनेवाली पीढ़ी की मुक्ति निश्चित हो सकती है।

बहरहाल, यह रिपोर्ट ‘विकास पुरुष’ मनमोहन सिंह, चिदम्बरम-मोण्टेक के ‘ट्रिकल डाउन थ्योरी’ के दावे की भी पोल खोलती है जिसमें कहा गया था कि जब समाज के शिखर पर समृद्धि आयेगी तो वह रिस-रिसकर नीचे तक पहँुच जायेगी। लेकिन हकीकत इन दावों के एकदम उल्टी दिखायी देती है। आँकड़े बोल रहे हैं, तथ्य आईना दिखा रहे हैं, फिर भी पूँजीपतियों के मुनीम-हकीम ‘विकास’ की जुगाली करने से बाज नहीं आ रहे।

एक बात और। जब भी ग़रीबी के लिए इस पूँजीवादी व्यवस्था पर सवाल उठाया जाता है तो इसके पैरोकार झूठ का अम्बार खड़ा करते हुए ग़रीबी बढ़ने का एकमात्र कारण बढ़ती जनसंख्या बताते हैं। आइये तथ्यों के आईने में हकीकत को जानें।

क्या बढ़ती ग़रीबी का कारण जनसंख्या विस्फोट है?: धारणाएँ और हकीकत

धारणा: देश में जनसंख्या विस्फोट हो गया है।

हकीकत: आबादी बढ़ने की रफ्तार लगातार कम हो रही है। 1991-2001 में सबसे ज़्यादा कमी देखी गयी।

1951 में एक माँ के औसतन छह बच्चे होते थे। अब तीन होते हैं।

धारणा: आबादी इसलिए बढ़ रही है क्योंकि ग़रीब परिवारों में बच्चे ज़्यादा होते हैं?

हकीकत: ग़रीब-अमीर, ग्रामीण-शहरी हर वर्ग में परिवार छोटे होते जा रहे हैं। तीस साल पहले की तुलना में शहरी और ग्रामीण माँ के बच्चों की संख्या में समान रूप से कमी आयी है।

धारणा: ग़रीब लोग छोटे परिवार के फायदे समझ नहीं पाते।

हकीकत: ग़रीब लोग भी परिवार छोटे रखना चाहते हैं, लेकिन उन्हें साधन मुहैया नहीं हैं। कई राज्यों में साधनों की यह कमी 25 फीसदी तक है।

धारणा: आज़ादी के बाद से आबादी बढ़ने की रफ्तार अनाज उत्पादन की दर से ज़्यादा हो गयी है।

हकीकत: अनाज उत्पादन चार गुना बढ़ा है (1951 में 5 करोड़ टन, 2001 में 20 करोड़ टन से ज़्यादा) जबकि आबादी करीब तीन गुना बढ़ी है। (1951 में 36 करोड़ 2001 में 102 करोड़)।

धारणा: बड़ी आबादी के कारण संसाधनों की कमी पैदा हो गयी है।

हकीकत: देश में ज़मीन, पानी व अन्य संसाधनों की कोई कमी नहीं है। हम समान बँटवारा करे, ऐसी वितरण प्रणाली चाहिए।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अक्‍टूबर 2010

 

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