किस चीज़ का इन्तज़ार है और कब तक?
सम्पादकीय
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को और विशेष रूप से कृषि मन्त्री शरद पवार को ‘’फटकार’‘ लगाते हुए आदेश दिया कि जो करोड़ों टन अनाज गोदामों में सड़ रहा है, उसे ग़रीबों में बाँट दिया जाये। सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर अचरज जताया कि जिस देश में करोड़ों लोग भुखमरी और कुपोषण के शिकार हैं, वहाँ अनाज गोदामों में सड़ जाता है और उसे चूहे खा जाते हैं; मानो, ऐसा पहली बार हो रहा हो! सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय का पढ़े-लिखे शहरी मध्यवर्ग ने प्रशंसा के साथ स्वागत किया। सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर पूँजीवादी व्यवस्था के फ्स्वच्छतम’‘ खम्भे के रूप में अपनी विश्वसनीयता को स्थापित करने का प्रयास किया था। कोई भी पूँजीवादी व्यवस्था अपने वर्चस्व के मैकेनिज़्म के अंग के रूप में चुनाव, न्यायपालिका, मीडिया और शिक्षा व्यवस्था का उपयोग करती है। बल्कि कहना चाहिए कि ये ही उसके प्रमुख वर्चस्वकारी अंग होते हैं। लेकिन वर्चस्वकारी मैकेनिज़्म का काम सिर्फ भ्रम पैदा करना होता है, कोई वास्तविक बदलाव लाना नहीं। इस मामले में भी न्यायालय के फैसले को लेकर प्रसन्नता का माहौल अधिक समय तक बना नहीं रह पाया। अर्थशास्त्री प्रधानमन्त्री और ‘जेण्टलमैन’ माने जाने वाले मनमोहन सिंह ने लगभग-लगभग अन्धेरगर्दी की और न्यायालय को ही डपट दिया! प्रधानमन्त्री ने कहा कि न्यायपालिका अपनी सीमा में रहे और विधायिका और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप न करे। प्रधानमन्त्री महोदय ने अपनी अर्थविद्या का उपयोग करते हुए बताया कि अगर सड़ रहे अनाज को भूखे लोगों में बाँट दिया जायेगा तो किसानों को उत्पादन बढ़ाने की प्रेरणा नहीं मिलेगी! वाह! यह उन तर्कों में से एक है जिनके जवाब में किस प्रकार की प्रतिक्रिया दी जाये, यह तय करना मुश्किल हो जाता है। लेकिन फिर भी यह सवाल बरबस ही ज़ेहन में आता है कि उत्पादन किसके लिए बढ़ाया जाये, अगर उन्हें गोदामों में सड़ना ही हो? या अगर उन्हें खाद्य उत्पादन के क्षेत्र के पूँजीपतियों और व्यापारियों का मुनाफा बढ़ाने के काम आना हो? मनमोहन सिंह अच्छी तरह से जानते हैं कि उत्पादन बढ़ाने की प्रेरणा से अनाज को ग़रीबों में वितरित किये जाने का कोई सम्बन्ध नहीं है। वास्तव में, अगर ये अनाज जनता में वितरित किया जाता है, तो इससे खाद्य उत्पादन से संसाधन तक में लगे दैत्याकार कारपोरेट घरानों, व्यापारियों, दलालों और जमाख़ोरों का मुनाफा मारा जायेगा। यही कारण है कि सरकार को अनाज गोदामों में सड़ाना तो मंजूर है, लेकिन भूखे मरते लोगों में बाँटना मंजूर नहीं है। इसके समर्थन में कोई तर्क नहीं दिया जा सकता। पूँजीवादी व्यवस्था का वास्तविक तर्क मनमोहन सिंह के जवाब में नंगा होकर सामने आ गया। मानवीय जीवन की इस व्यवस्था में कोई कीमत नहीं होती है। अगर किसी चीज़ की कीमत है तो वह है पूँजीपतियों का मुनाफा।
इसी घटना के साथ एक और घटना घटित हुई। संसद की कार्रवाई को नेताओं ने ठप्प कर दिया। कारण इस देश में 84 करोड़ लोगों का 20 रुपये पर जीना, 56 प्रतिशत महिलाओं का एनिमिक होना, 46 प्रतिशत बच्चों का कुपोषित होना, 36 करोड़ लोगों का बेघर होना या 9000 बच्चों का रोज़ भूख और कुपोषण से दम तोड़ना नहीं था। ये माननीय सांसद अपने वेतन को 80,001 रुपये किये जाने की माँग कर रहे थे। यह बढ़कर 65,000 रुपये हो भी गया। और यह तो सिर्फ मासिक वेतन है। सांसदों के परिवार की शिक्षा, चिकित्सा, आवास, यात्रा, संचार और हर प्रकार के बुनियादी ख़र्चों को सरकारी ख़ज़ाने से पूरा किया जाता है। यानी, जनता की मेहनत की कमाई से। इसके बाद विकास के मद में आने वाली करोड़ों की रकम का भी ये जनप्रतिनिधि कितना सदुपयोग करते हैं, ये सभी जानते हैं। इसके बाद पूँजीपतियों और ठेकेदारों की ओर से अपनी सेवा के बदले मिलने वाली लाखों-लाख की रकम भी उनकी आमदनी में चार चाँद लगाती है। स्विस बैंकों में भारतीयों के 1456 अरब डॉलर यूँ ही थोड़े ही जमा हैं! ये हमारे नेता-मन्त्रियों की मेहनत की गाढ़ी कमाई है! जो इन्हें पूँजीपति वर्ग के मामलों की देखरेख करने वाली मैनेजिंग कमेटी के सदस्य के रूप में प्राप्त होती है। ज़रा सोचिये, ये सबकुछ उस देश में होता है जिसमें 80 फीसदी लोग बस एक वक़्त खाना खा पाने लायक कमा पाते हैं, चिकित्सा, शिक्षा और आवास जैसे अधिकारों की तो बात ही छोड़ दीजिये। ये सांसद पिछले 63 वर्षों में देश को यहाँ तक पहुँचा देने का मेहनताना माँग रहे हैं! और उन्हें मिल भी रहा है!
ये दोनों घटनाएँ भारतीय पूँजीवादी व्यवस्था की नंगई को उघाड़कर हमारे सामने रख देती हैं। पूरा देश एक राजनीतिक और आर्थिक संकट से गुज़र रहा है। महँगाई की मार अभूतपूर्व रूप से जनता को ग़रीबी और बदहाली में धकेल रही है। पिछले 30 वर्षों में देश की जनता ने ऐसी महँगाई नहीं देखी है। बेरोज़गारी की स्थिति चिन्ताजनक है और बेरोज़गारों और अर्द्धबेरोज़गारों की आबादी को जोड़ दें तो यह 28 करोड़ के करीब बैठती है। ग़रीबी के बारे में सरकारी आँकड़ों की लफ्फाज़ी के बावजूद तमाम अन्तरराष्ट्रीय से लेकर देशी एजेंसियों के आँकड़े तक इस बात को सिद्ध कर चुके हैं कि भारत की ग़रीबी की तुलना कुछ सबसहारा के देशों से ही की जा सकती है। कुपोषण के मामले में तो भारत दुनिया के निर्धनतम अफ्रीकी देशों से भी आगे निकल गया है। देश की जनता में महँगाई, बेरोज़गारी, ग़रीबी और कुपोषण के खि़लाफ असन्तोष सुलग रहा है। आर्थिक संकट के दौर में अपने मुनाफे की दर को बरकरार रखने के लिए सरकार मौजूदा श्रम कानूनों में संशोधन और उनके अकार्यान्वयन से लेकर प्राकृतिक संसाधन का अभूतपूर्व दोहन कर रही है जिसकी प्रतिक्रिया में जगह-जगह मज़दूरों का असन्तोष फूट रहा है और झारखण्ड, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र के आदिवासी बहुल इलाकों में अतिवामपन्थी दुस्साहसवादी नेतृत्व में आदिवासी प्रतिरोध युद्ध लड़ रहे हैं। आम किसान आबादी सरकार के विकास के पूँजीवादी मॉडल को नकार चुकी है और अन्यायपूर्ण भूमि अधिग्रहण के खि़लाफ जगह-जगह जुझारू आन्दोलन कर रही है। इसका नेतृत्व निश्चित तौर पर अभी कुलक-फार्मर लॉबियों के हाथ में है, लेकिन यह अविकल्प की स्थिति है, तार्किक चयन की नहीं। कुल मिलाकर, पूरा देश 1990 के बाद एक बार फिर से अभूतपूर्व बहुआयामी आर्थिक और राजनीतिक संकट से गुज़र रहा है। और यह हमारे देश की पूँजीवादी व्यवस्था का ही संकट नहीं है। अब यह संकट ‘तीसरी दुनिया’ के तमाम देशों से भिनता हुआ पूँजीवादी विश्व के ‘मेट्रोपोलिस’ के दरवाज़ों पर भी दस्तक देने लगा है। अमेरिका में बेरोज़गारी अभूतपूर्व सीमा तक पहुँच चुका है, सारे स्टिम्युलस पैकेज बेकार हो चुके हैं और जनता जब-तब सड़कों पर उतर रही है; यही हालत यूरोप की है और सम्प्रभु ऋण संकट से उबरने से पहले ही पूरी अर्थव्यवस्था फिर से मन्दी के दलदल में फँसने लगी है; फ्रांस छात्र-युवा और मज़दूर आन्दोलन से दहक रहा है और यूनान, पुर्तगाल और स्पेन में भी असन्तोष सुलग रहा है; चीन में भी श्रम नियन्त्रण की तमाम रणनीतियों के बावजूद माओ के वास्तविक अनुसरणकर्ताओं के नेतृत्व में और स्वतःस्फूर्त रूप से भी मज़दूर और ग़रीब किसान ‘बाज़ार समाजवाद’ के विनाशकारी परिणामों के विरुद्ध संघर्ष की शुरुआत करने लगे हैं; कुल मिलाकर पूरा पूँजीवादी विश्व एक बार फिर अपने अन्तकारी संकट का शिकार है। इसी सच्चाई की एक अभिव्यक्ति हम अपने देश में भी देख रहे हैं। देश का शासक वर्ग विलासिता और बेशर्मी की सारी सीमाएँ लाँघ चुका है और जनता की बदहाली भी सारी सीमाएँ लाँघने लगी हैं।
इतिहास कुण्डलाकार गति करते हुए जटिल शब्दावली और शब्द चातुर्य के दौर से गुज़रते हुए एक बार फिर एक ऐसी मंजिल में पहुँच गया है, जहाँ कुछ सच्चाइयों को सीधे-सीधे स्पष्ट भाषा में बोल दिया जाये।
आज पूरी पूँजीवादी व्यवस्था भयंकर संकट का शिकार है। इसके पास प्रगति की कोई सम्भावना-सम्पन्नता नहीं रह गयी है। वस्तुओं के व्यापक विश्व का सृजन करके भी यह बहुसंख्यक जनता को नर्क-सा जीवन दे रही है क्योंकि इसका मकसद बहुसंख्यक जनता का कल्याण, न्याय और समानता है ही नहीं। इसका एकमात्र लक्ष्य है लाभ! मुनाफा! किसी भी कीमत पर! इस मुनाफे की ख़ातिर पूरी दुनिया को साम्राज्यवादी युद्धों में धकेल दिया जाता है; अनाज को भूखे मरते लोगों के सामने गोदामों में सड़ा दिया जाता है; बच्चों और स्त्रियों का श्रम मण्डी में मिट्टी के मोल बिकता है; मज़दूरों का जीवन नर्क से बदतर होता जाता है; ग़रीब किसान उजड़ते हुए मुफलिसों की कतार में शामिल होते जाते हैं। यही वे नेमतें हैं जो पूँजीवाद आज हमें दे सकता है। और इसके साथ वह बेशर्मी से यह एलान करता रहता है कि वह ‘इतिहास का अन्त’ है! मानव जाति जो सर्वोत्तम प्राप्त कर सकती थी, वह पूँजीवाद है!
लेकिन दुनिया का कोई तर्कपरक, वैज्ञानिक दृष्टि रखने वाला, संवेदनशील, न्यायप्रिय इन्सान इस बात को नहीं मान सकता है। यह स्पष्ट होता जा रहा है कि अपनी तमाम सैन्य शक्तिमत्ता के बावजूद विश्व पूँजीवाद असाध्य संकट का शिकार है और अन्दर से खोखला हो चुका है। जॉर्ज सोरोस जैसे एक ठिगने सट्टेबाज़ की सट्टेबाज़ी या महज़ एक वित्तीय संस्थान का ढहना पूरे विश्व में मन्दी पैदा कर देता है और अर्थव्यवस्थाएँ मुँह के बल गिरने लगती हैं। क्या यह अपने आपमें इस व्यवस्था के खोखलेपन को नहीं दिखलाता? फिर भी यह व्यवस्था आज टिकी हुई है तो इसका कारण इसकी अपनी शक्ति नहीं है। इसका कारण यह है कि आज दुनिया भर में क्रान्ति की ताकतें विपर्यय और पराजय का दौर झेल रही हैं। क्रान्तिकारी सिद्धान्त पर राख-अन्धेरे की एक परत चढ़ा दी गयी है; क्रान्तिकारी सिद्धान्तों की रोशनी के अभाव में क्रान्तिकारी आन्दोलन दुस्साहसवाद, संसदवाद या “मुक्त-चिन्तन’‘ के भटकाव का शिकार हो रहा है; नतीजतन, उनके पास कोई दुरुस्त कार्यक्रम मौजूद नहीं है और वे लकीर की फकीरी कर रहे हैं और भविष्य का कोई कार्यक्रम न होने के कारण अतीत के ही कार्यक्रम को भविष्य का कार्यक्रम बना बैठे हैं; क्रान्तिकारी आन्दोलन के संकट के कारण आम जन के समक्ष कोई क्रान्तिकारी आकल्प उपस्थित नहीं किया जा पा रहा है। और इसका नतीजा यह है कि मज़दूरों, आम नौजवानों और किसानों, आम मेहनतकश आबादी के समक्ष एक निराशा की स्थिति है। इस निराशा के कारण जगह-जगह स्वतःस्फूर्त बग़ावतें तो फूट रही हैं, लेकिन कोई संगठित और एकीकृत क्रान्तिकारी आन्दोलन जो सही वैज्ञानिक क्रान्तिकारी सिद्धान्त और कार्यक्रम से लैस हो, आज पूरी दुनिया में अनुपस्थित दिखता है।
ऐसे में तमाम ऐसे नौजवानों के सामने क्या रास्ता है जो सिर्फ अपना कैरियर सँवारने, पैसा कमाने, मशहूर हो जाने, ‘उपयुक्ततम की उत्तरजीविता’ के सिद्धान्त के अवैज्ञानिक पूँजीवादी उपयोग के अनुसार ‘‘उपयुक्ततम’‘ बन जाने की कुत्तादौड़ में नहीं दौड़ रहे हैं? जो उस समाज से कटकर नहीं रह सकते जिसमें वे जीते हैं? जो अन्याय से आँख मूँदकर और भूखे मरते लोगों की ओर पीठ कर प्रतियोगात्मक परीक्षाओं की किताबें नहीं पढ़ सकते? क्या रास्ता है ऐसे नौजवानों के सामने? ऐसे नौजवानों के सामने सिर्फ एक रास्ता है – शहीदे-आज़म भगतसिंह का रास्ता। आज ऐसे नौजवानों को क्रान्ति के विज्ञान को गहराई से समझना होगा; आम ग़रीब जनता के बीच जाना होगा; उन्हें गोलबन्द और संगठित कर अपने अधिकारों के लिए लड़ना और इस संघर्ष से व्यवस्था परिवर्तन के संघर्ष की ओर आगे बढ़ना सिखाना होगा; उन्हें आने वाली पुश्तों के लिए एक बेहतर दुनिया का निर्माण करने के लिए अपने जीवन को झोंक देना होगा; भगतसिंह के ही शब्दों में ‘उन्हें पॉलिटिक्स का ज्ञान हासिल करना होगा’ और ‘गाँव की जर्जर झोंपड़ियों से लेकर खेतो-खलिहानों और कल-कारख़ानों तक जाना होगा’ और ‘जनता के बीच क्रान्ति की स्पिरिट पैदा करनी होगी।’ क्रान्ति के दर्शन को समझना, जनता से जुड़ना और बग़ावत करना! यही हमारा आज का कार्यभार है! और एक हज़ार एक कारण है कि हम बग़ावत करें और उनमें से एक ही काफी है कि हम शुरुआत कर दें। जर्मन क्रान्तिकारी कवि बेर्टोल्ट ब्रेष्ट के शब्दों में –
‘किस चीज़ की इन्तज़ार है
और कब तक?
दुनिया को तुम्हारी ज़रूरत है!’
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अक्टूबर 2010
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