उत्तर प्रदेश में शिक्षामित्रों का जुझारू आन्दोलन

शिवार्थ

14 सितम्बर, मंगलवार को उ.प्र. की राजधानी लखनऊ में करीब 25,000-30,000 शिक्षामित्र शहीद स्मारक पर अपनी सेवा के स्थायीकरण की माँग को लेकर एकजुट हुए थे। आदर्श शिक्षामित्र संघ के नेतृत्व में यह जुटान किया गया था। शिक्षामित्रों ने जुटान-स्थल पर एक शान्तिपूर्ण सभा करने के बाद विधानसभा भवन का घेराव कर अपनी बात सरकार तक पहुँचाने का फैसला किया। इनके सड़क पर उतरते ही पुलिस के जवानों ने लाठीचार्ज शुरू कर दिया। आदर्श शिक्षामित्र वेल्‍फेयर ऐसोसिएशन के अध्यक्ष जितेन्द्र शाही और उ.प्र. प्राथमिक शिक्षामित्र संघ के अध्यक्ष गाज़ी इमाम आला को तुरन्त हिरासत में ले लिया गया। साथ ही प्रदर्शनकारियों के ऊपर आँसू गैस के गोले भी दाग़े गये। इससे मची भगदड़ में करीब दो दर्जन शिक्षामित्र घायल हो गये। कोई रास्ता न सूझते देख शिक्षामित्रों ने भी मोर्चा सँभाला और पुलिसवालों पर जमकर पथराव शुरू कर दिया। शिक्षामित्रों के जुझारू तेवरों के आगे जल्द ही पुलिस बल ने घुटने टेक दिये और तुरन्त प्रभाव से हिरासत में लिये गये दोनों नेताओं को रिहा कर दिया और शिक्षामित्रों को शान्तिपूर्ण ढंग से अपना प्रदर्शन जारी रखने की स्वीकृति दे दी। इसके बाद शिक्षामित्रों का एक छह सदस्यीय प्रतिनिधिमण्डल प्रदेश के बेसिक शिक्षा सचिव से मिला और राज्य सरकार के समक्ष प्रदेश में कार्यरत कुल 1,80,000 शिक्षामित्रों के स्थायीकरण की माँग रखी। इस पर सचिव महोदय के द्वारा शिक्षामित्रों को यह आश्वासन दिया गया कि 16 व 17 सितम्बर को प्रस्तावित मानव संसाधन मन्त्रलय की दिल्ली बैठक में प्रदेश सरकार यह माँग रखेगी। इस आश्वासन के मिलने के बाद प्रस्तावित बैठक का नतीजा आने तक आन्दोलन को स्थगित कर दिया गया।

फौरी तौर पर देखने पर भले ही यह आन्दोलन भी अन्य कई आन्दोलनों की तरह एक आश्वासन के साथ स्थगित हुआ है, लेकिन इसके भीतर भविष्य के संघर्षों की एक झलक देखी जा सकती है। इस बात को स्पष्ट करने के लिए संघर्ष की पृष्ठभूमि पर एक संक्षिप्त चर्चा अनिवार्य है।

‘शिक्षामित्र’ प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर कार्यरत उन शिक्षकों की श्रेणी को कहा जाता है जिन्हें नियमित शिक्षकों के स्थान पर सालभर के ठेके पर नियुक्त किया जाता है। इनको नियुक्त करने की जिम्मेदारी किसी सरकारी महकमे की नहीं, बल्कि ग्राम पंचायतों और नगर-निगमों की होती है, और इन्हें नियमित शिक्षकों के बरक्स बेहद कम वेतनमान पर रखा किया जाता है। साथ ही ठेके पर होने के कारण इन्हें महँगाई भत्ता, पी.एफ. इत्यादि की भी कोई सुविधा नहीं दी जाती है। सालभर बाद इनकी कार्यकुशलता और काम के मूल्यांकन के अनुसार दोबारा ठेके पर रखा जा सकता है। ये लोग महज़़ उ.प्र. में नहीं बल्कि देश के ज़्यादातर राज्यों में अलग-अलग नामों के अन्तर्गत कार्यरत हैं।

दरअसल, यह पूरे देश में पिछले बीस वर्षों से जारी विभिन्न सेवाओं के अनौपचारिकीकरण या कैजुअलाइज़ेशन का ही हिस्सा है, जिसके अन्तर्गत सरकार लगातार शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास जैसी बुनियादी सुविधाओं से अपने हाथ पीछे खींच रही है और संसाधनों की कमी का हवाला देकर नियमित नियुक्तिओं को या तो बिल्कुल ही ख़त्म कर रही है या बड़े तौर पर नियन्त्रित कर रही है। इसकी शुरुआत हमारे देश में 90 के दशक में वर्ल्ड बैंक द्वारा प्रस्तावित डिस्ट्रिक्ट प्राइमरी एजुकेशन प्रोग्राम (DPEP) के अन्तर्गत हुई। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत सरकार द्वारा यह प्रस्ताव पारित किया गया कि प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर स्थायी शिक्षकों के बजाय ग्राम पंचायतों एवं नगर-निगमों द्वारा अनियमित तौर पर शिक्षकों की भर्ती की जायेगी। सालभर के लिए इन्हें ठेके पर नियुक्त किया जायेगा, और इनकी कार्यकुशलता के अनुसार इन्हें दोबारा नियुक्त किया जायेगा। सरकार ने उस वक़्त यह तर्क दिया था कि जहाँ एक तरफ ये अनियमित शिक्षक छात्रों की बढ़ती संख्या के अनुपात में नियमित शिक्षकों की कमी को पूरा करेंगे, वहीं दूसरी ओर ये पढ़े-लिखे बेरोज़गारों को रोज़गार के अवसर प्रदान करेगा। प्रथमदृष्टया यह तर्क प्रभावी लग सकता है, लेकिन सवाल यह उठता है कि क्यों आखि़र नियमित शिक्षकों जितना या कई बार उनसे ज़्यादा काम करने के बावजूद इन्हें बेहद कम वेतन दिया जायेगा? क्या यह संविधान के नीति-निर्देशक तत्त्वों में, व्याख्यायित ‘समान काम के लिए समान वेतन’ की नीति की अवहेलना नहीं है? दूसरे, पूँजीपतियों को समय-समय पर करोड़ों रुपये के ‘बेल-आउट पैकेज’ देने वाली सरकार आखि़र क्यों इन शिक्षकों को योग्य मानने के बावजूद नियमित तौर पर भर्ती नहीं कर सकती? आये दिन ‘सर्व शिक्षा अभियान’ और ‘शिक्षा के अधिकार’ कानून की दुहाई देने वाली सरकार शिक्षा सम्बन्धी बिना किसी प्रशिक्षण प्राप्त किये इन शिक्षकों को पढ़ाने की जिम्मेदारी सौंपकर प्राथमिक स्तर पर सरकारी विद्यालयों में दाखि़ला लेने वाले छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं कर रही है? और क्या शुरुआती स्तर से ही प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों के मद्देनज़र इनके साथ दोयम दर्जे का बर्ताव नहीं कर रही है?

आज की वस्तुस्थिति यह है कि ज़्यादातर प्रदेशों में प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर नियमित शिक्षकों की भर्ती बेहद ही कम कर दी गयी है, और मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में बिल्कुल ही समाप्त कर दी गयी है। नये शिक्षकों को सिर्फ ठेके पर ही भर्ती किया जा रहा है। सिर्फ उ.प्र. में ही वर्तमान में कुल 1,80,000 अस्थायी शिक्षक हैं और पूरे देश में करीब 5 लाख अस्थायी शिक्षक हैं। दूसरी तरफ विभिन्न राज्यों में कुल 7 लाख नियमित शिक्षकों के पद ख़ाली हैं।

ऐसे में अस्थायी शिक्षकों के स्थायीकरण की माँग बिल्कुल जायज़ है, और यह बात आज ये स्थायी शिक्षक और देश की आम जनता भी अच्छी तरह समझती है। यही कारण है कि पिछले दिनों अस्थायी शिक्षकों द्वारा उ.प्र. जैसा ही आन्दोलन पश्चिम बंगाल में भी किया गया। भविष्य में अगर किसी क्रान्तिकारी नेतृत्व के हाथ में इस आन्दोलन की बागडोर आती है, तो यह एक देशव्यापी आन्दोलन बनने की क्षमता रखता है और पूरी व्यवस्था के समक्ष प्रश्नचिह्न खड़ा कर सकता है। यही इस आन्दोलन का दूरगामी महत्त्व है, और शायद ही इस ख़तरे को भाँपते हुए 16-17 सितम्बर को दिल्ली में आयोजित मानव संसाधन मन्त्रलय में विभिन्न शिक्षा सचिवों की बैठक में जल्द ही अस्थायी शिक्षकों के पारिश्रमिक को 3,500 से बढ़ाकर 10,000 रुपये तक किये जाने का प्रस्ताव पारित किया गया है। उम्मीद है यह आंशिक सफलता शिक्षकों को उनके स्थायीकरण के भावी संघर्ष के लिए हौसला-अफज़ाई करेगी।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अक्‍टूबर 2010

 

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