पाठक मंच

पिछले अंक में शिशिर द्वारा लिखे गये लेख ‘कश्मीर समस्या का समाधान’ को पढ़कर अपनी समझ पर दुख भी हुआ और हँसी भी आयी। मैं अपने आप को एक जागरूक भारतीय और नागरिक मानता हूँ। यद्यपि मैं कार्पोरेट जगत में कार्यरत हूँ लेकिन भारतीय सभ्यता और संस्कृति की बात करता हूँ, जहाँ तक मेरी सुख-सुविधा के दायरे का अतिक्रमण नहीं होता रीति-रिवाज भी मान लेता हूँ। देश, राजनीति और समाज से सरोकार रखने वाली ख़बरें पढ़-सुन कर अपनी टिप्पणियाँ भी दे देता हूँ, लेकिन कश्मीर समस्या के बारे में मेरी जो सोच थी, वह इस लेख को पढ़ने के बाद चकनाचूर हो गयी।

बहुत सारी फिल्में मैने देखी हैं; जो कश्मीर समस्या पर बनी हैं, कुछ ई-मेल भी मिले थे जिनमें भारत के झण्डे को जलाते हुए दिखाया गया था। इन सबसे एक सोच बनी कि कश्मीर में जो आवाम है, वह पाकिस्तान समर्थक भी है और समर्थित भी। वहाँ ज़्यादातर लोग भारत विरोधी हैं और जैसी भारत विरोधी उनकी गतिविधियाँ हैं वहाँ सेना का रहना उचित ही है । लेकिन इस लेख को पढ़ने के बाद समझ आया कि फौजियों की शहादत पर आँसू बहाना और उनके काम के लिए गौरवान्वित होना एक अलग बात है और उनकी संगीनों के साये में रहना एक अलग बात है।

एक और सोच मेरे दिमाग़ में इस लेख को पढ़ने के बाद उत्पन्न हुई कि आज दुनिया का हर तबका और उस तबके का हर आखि़री इंसान भी प्रगति के लिए प्रयासरत है। और अपनी मूलभूत आवश्कताओं के साथ-साथ कुछ सुख-सुविधाएँ भी अर्जित करना चाहता है, लेकिन कश्मीर में ऐसे कोई अवसर नहीं हैं। वहाँ रोल मॉडल वो हैं जो भारत समर्पित सेना और राज्य के खि़लाफ खड़ा हो सके, उसे चुनौती दे सके, उसे छका सके। वहाँ का युवा वही बनना चाहता है। जो स्कूली बच्चे हाथों में पत्थर उठाये सड़को पर घूमते हैं, क्या भविष्य में वे डॉक्टर, इंजीनियर, वकील बनेंगे; मुझे इसमें संशय है।

यदि भारत कश्मीर समस्या का हल वाकई करना चाहता है और यह भी चाहता है कि सेना हटने पर कश्मीरी आवाम पाकिस्तान के साथ न हो जाये तो सरकार को वहाँ की जनता को तरक्‍की के अवसर देने होंगे। वहाँ का युवा बेख़ौफ है, क्योंकि उसके पास खोने के लिए कैरियर है, सामाजिक प्रतिष्ठा है, भोग-उपभोग के साधन है, अर्जित सम्पति है। जब तक वहाँ के युवा को ये सब नहीं दिया जायेगा, तक तक गोली के ज़ोर पर वहाँ की आग राख के नीचे दबे शोलों की तरह धधकती ही रहेगी

इस तरह के गम्भीर मसलों की सच्चाई सामने आना बहुत ज़रूरी है। ख़ासकर तब जब मीडिया और सरकार उसका एकतरफा पहलू ही हमारे सामने रखते हैं। मैं मीडिया द्वारा दी गयी जानकारी को ही सच मानकर बरसों तक कश्मीर के लोगों की दोषी समझता रहा। जब मैंनं यह लेख पढ़ा तो कश्मीर के लोगों का नज़रिया भी मैं जान पाया। मैं आह्वान को उसके इस सफल प्रयास पर बधाई देता हूँ और उम्मीद करता हूँ कि भविष्य में भी आह्वान अपने प्रयास को जारी रखेगा।

मैं मज़दूर हूँ मुझे ग़रीब मत कहो।

मैं मज़दूर हूँ मुझे ग़रीब मत कहो

मेरे ये मैले, कुचैले, खुरदुरे हाथ ही तुम्हारी रेशमी दुनिया के निर्माता हैं

इन हाथों की मेहनत का लावा जब बहता है तो तुम समृद्धि के सागर में हिलौरे मारते हो

तुम्हारी दुनिया इंसान की नहीं ब्राण्ड की कीमत समझती है

मेरे ये हाथ तुम्हारी इस ब्राण्डिड दुनिया के निर्माता हैं

तुम होगे दुनिया चलाने वाले

लेकिन मैं दुनिया बनाने वाला हूँ

तुम भले ही इसका श्रेय लूट लो

लेकिन अपना कद ऊँचा करने के लिए तुम्हें मेरे कन्धों की ज़रूरत पड़ेगी ही

मैं नींव की ईंट हूँ और तुम कंगूरे की

मैं तुम्हारे लिए सदियों अँधेरे में रहा हूँ

लेकिन तुम्हारी सारी चकाचौंध भी मेरे बिना तुम्हे पल भर भी खड़ा नहीं रख सकती।

तुम नये-नये आविष्कार करके अपने मनोरंजन में भी

क्लीयरटी ढूँढ़ते हो

मेरी भूखे पेट से पोषित आँखों को तो

सारी दुनिया ही धुँधली दिखायी देती है

कोई आविष्कार करो कि मेरा शोषण न हो

कोई मशीन बनाओ जो मुझे इंसान का दर्जा दिला सके

मेरे पैदा होने पर तुम उँगली उठा कर कहते हो

एक और पेट का बोझ बढ़ गया तुम पर

लेकिन तुम्हारी तो सारी जमात ही बोझ है मेरी कौम पर

हटा दो मेरे कन्धे से ये बोझ

और मुझे भी दौड़ने दो तरक्‍की की रेस में

तुम हमेशा मेरे पेट की बात करते हो मेरे हाथों की नहीं

शायद इसलिए कि हाथ विरोध कर सकते हैं, लड़ सकते हैं

लेकिन पेट सिर्फ हार सकता है।

तुम मुझे अपनी प्रगति में बाधक मानते हो

अपनी कमजोरियों का कारण ठहराते हो

लेकिन जब मेरे बाज़ू तुम्हें चाहिए तो मैं अपना पेट लेकर कहाँ जाऊँ

तुम पैसे की कमी को ग़रीबी कहते हो

ग़रीबी का मतलब आश्रित होना है

जिसके बाज़ू चलयामान है वो ग़रीब कैसे हो सकता है

वो तो तुम जैसे सैकड़ों निट्ठलों का अन्नदाता है

नीम की विशाल प्रजाति भी गमले में उगने से पौधा ही रह जाता है

तुम वही गमले की चारदीवारी हो और मैं वही पौधा हूँ

लेकिन जिस दिन एक भी जड़ ज़मीन के सम्पर्क में आयेगी

तो ऐसा शक्ति-संचार होगा कि गमले की चारदीवारी

खण्ड-खण्ड हो जायेगी।

तब तुम समझोगे मैं मज़दूर हूँ ग़रीब नहीं।

अशोक शर्मा, करावल नगर, दिल्ली

मकबूल फिदा हुसैन

हलवाहे भाई

गाँव छोड़कर तुम गये

कस्बा छोड़कर गये

तुम वे दो भयभीत प्रेमी

स्कूल छोड़कर

भट्ठा-ईंटवालों के बच्चे।

खदेड़ने वाले कितना ख़ुश हैं

खदेड़े गये देश से

मकबूल फिदा हुसैन

गाँव से तुम

कस्बे से वे दो प्रेमी

स्कूल से

मज़दूरों के बच्चे।

भगाये गये गाँव से तुम

कस्बे से वे दो प्रेमी

स्कूल से

भट्ठा-ईंट वालों के बच्चे

भगाये गये देश से

मकबूल फिदा हुसैन।

ऐसे ही बचेगा गाँव

ऐसे ही बचेगा अब कस्बा

ऐसे ही बचेंगे स्कूल

ऐसे ही बचेगा अब देश

हटाये जाते रहेंगे

इसके जर्रे-जर्रे से

मकबूल फिदा हुसैन।

सुरेश सेन ‘निशान्त’, मण्डी हिमाचल प्रदेश

प्रिय कुणाल और अभिनव जी,

मुझे आपकी पत्रिका की कुछ प्रतियाँ प्राप्त हुईं। भारत के युवाओं को बेहद ज़रूरी सामाजिक परिवर्तन के लिए संगठित करने की दिशा में यह प्रयास सराहनीय है। मुझे भरोसा है कि समय के साथ आपके प्रयास आगे बढ़ेंगे। आपकी ऊर्जा निश्चित तौर पर और भी नौजवानों को सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई से जुड़ने के लिए प्रेरित करेगी। नरेगा की तर्ज पर शहरी बेरोज़गारों के लिए चलाया जा रहा अभियान बेहद प्रासंगिक है। उम्मीद है आपको ‘वैकल्पिक आर्थिक सर्वे’ पर नज़र मारने का मौका मिला होगा। यदि आप इसकी समीक्षा भेजेंगे तो हमें अच्छा लगेगा।

कमल नयन काबरा, मयूर विहार, दिल्ली

प्रिय सम्पादक महोदय,

‘आह्वान’ का जुलाई-अक्टूबर 2010 अंक पढ़ा। यूँ तो मैं आह्वान का नियमित पाठक हूँ पर पहली बार पत्र लिख रहा हूँ। जब मेरे एक साथी ने पहली बार मुझे आह्वान पढ़ने को दी तो मुझे लगा कि अन्य हिन्दी पत्रिकाओं जैसी यह भी कोई पत्रिका होगी, जिसमें कुछ लेख होंगे, करेण्ट अफेयर्स की बातें होंगी और कुछ कविताएँ वग़ैरह होंगी; परन्तु इसे पढ़ने के बाद मेरे सारे पूर्वाग्रह दूर हो गये। समाज स्तम्भ में अन्तरा जी का लेख ‘’बिल गेट्स और वारेन बुफे की चैरिटी: जनता की सेवा या पूँजीवाद की सेवा’‘ पढ़कर ‘कारपोरेट सोशल रिस्पॉन्सबिल्टी’ के बारे में सारे भ्रम दूर हो गये। मुझे भी पहले यही लगता था कि जनता के दुःख-दर्द को देखकर बड़े-बड़े उद्योगपति अरबों रुपये दान देते हैं, ताकि समाज का उद्धार हो सके। परन्तु अब मुझे समझ में आया यह सब तो एक छलावा मात्र है, ताकि जनता में भ्रम पैदा हो सके और इस तरह पूँजीवादी व्यवस्था के खि़लाफ जनता में जो क्रोध व्याप्त है उसे कम किया जा सके। विज्ञान स्तम्भ का लेख ‘‘कृत्रिम कोशिका का प्रयोग और नैतिकता’‘ काफी ज्ञानवर्धक था। कवि नागार्जुन की जन्मशताब्दी पर प्रकाशित उनकी कविता ‘‘26 जनवरी, 15 अगस्त’‘ पढ़कर देश की आज़ादी की एक तस्वीर मेरी आँखों के सामने उभरकर साफ हो गयी। भविष्य में भी आह्वान निरन्तरता के साथ अपना काम जारी रखेगा।

शुभकामनाओं सहित,

अभिषेक मिश्रा
लाल बहादुर शास्त्री छात्रवास, लखनऊ वि.वि., लखनऊ

आदरणीय सम्पादक,

‘आह्वान’ का जुलाई-अक्टूबर 2010 का अंक मिला। पत्रिका में आप सबकी मेहनत, तत्परता और टीमवर्क साफ दिखती है। पत्रिका में ‘‘जनता की सेवा या पूँजीवाद की सेवा’‘, ‘’पूँजीपतियों के लिए सुशासन जनता के लिए भ्रष्ट प्रशासन’‘, ‘‘कृत्रिम कोशिका का प्रयोग और नैतिकता’‘ आदि लेख बहुत अच्छे लगे। पत्रिका पढ़ने पर मन में बहुत सारे सवाल उठे। सभी सवाल तो नहीं, पर कुछ अवश्य आपसे साझा करूँगा। सत्या जी द्वारा लिखित ‘‘पूँजीपतियों के—- जनता के— प्रशासन’‘ में बिहार का वही पुराना रूप देखकर बहुत प्रश्न आये। ‘‘क्‍या हम हमेशा ही हर चीज़ के नकारात्मक पहलु को ही देखेंगे?’‘ हो सकता है कि सत्या जी के आँकड़े सही हों परन्तु बिहार का यह रूप सच में ऐसा नहीं है। सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर रहते हैं, दवाइयाँ भी मिलती हैं। कई जिले ऐसे हैं जहाँ पोलियो के मरीजों की संख्या शून्य है। कई विद्यालय जो पिछले 20 सालों में केवल रजिस्टरों और अंकों में चल रहे थे, आज बच्चों की शिक्षा के प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। आज बिहार में बिजली, पानी, सड़कों आदि का विस्तार हो रहा है। स्वास्थ्य सुविधाओं, शिक्षा सुविधाओं में आये सुधार वहाँ की जनता को बहुत हद तक सन्तुष्ट कर रहे हैं। आज बिहार कोचिंग और शिक्षण केन्द्रों का केन्द्र बना हुआ है। मेरे कहने का अर्थ यह है कि घर को छोड़ने में ज़्यादा समय नहीं लगता, परन्तु उसे बनाने में, समझ मेहनत और एकता की बहुत आवश्यकता होती है। अर्थात पिछले 15-20 सालों में बिहार का जो शोषण हुआ है, उससे उभरने में इस राज्य को समय तो लगेगा ही। हम भी देखेंगे, आने वाले भविष्य में बिहार का रूप।

विक्रम
लाल बहादुर शास्त्री छात्रवास, लखनऊ वि.वि., लखनऊ

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,नवम्‍बर-दिसम्‍बर 2010

 

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