और अब ‘एम्स’ की बारी…

योगेश

यूपीए की अध्यक्षता में बनी केन्द्र सरकार और उनके मन्त्रीगण ग़रीब आबादी के हित में अलग-अलग मंचों से जो बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, वे लफ्फाज़ी या झुनझुना से ज़्यादा कुछ नहीं होता। और ऐसा करने वालों में छोटे से लेकर बड़े सभी नेता शामिल हैं; चाहे वे प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह हो या सांसद राहुल गाँधी या कोई और। क्योंकि जब किसी योजना को लागू करने की बात आती है तो वही योजनाएँ ठीक से लागू होती हैं, जिनमें सरकार अपनी जिम्मेदारियों से पीछे हटते हुए उसे निजी हाथों में सौंप रही होती है।

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इसी क्रम में आगे बढ़ते हुए केन्द्रीय स्वास्थ्य मन्त्रालय ने ‘एम्स’ की सेवाओं का शुल्क कई गुना बढ़ाने का फैसला किया है। भारत के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल एवं अनुसंधान संस्थान अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में देशभर से आम आबादी इलाज कराने आती है। लेकिन सरकार द्वारा यहाँ की स्वास्थ्य सेवाओं का शुल्क बढ़ाने से आम लोगों के लिए अब यहाँ इलाज कराना मुश्किल हो जायेगा। भारत सरकार ने केरल के पूर्व निदेशक डॉ. एम.एस. वलियाथन की अध्यक्षता में एम्स के सन्दर्भ में ‘वलियाथन समिति’ का गठन किया। इस समिति ने अपनी सिफारिशों में एम्स में विनिवेश की वकालत की। तत्काल ही केन्द्रीय स्वास्थ्य मन्त्रालय ने एम्स को एक सर्कुलर जारी किया। जिसमें कहा गया है कि एम्स में चिकित्सा की सभी विधियों की प्रक्रियाओं की सूची बनाकर दी जाये, ताकि उनके नये शुल्क तय किये जा सकें। मन्त्रालय ने इलाज व जाँच के बाज़ार की दर व निजी अस्पतालों के शुल्क के बारे में भी जानकारी माँगी है ताकि उसी अनुपात में एम्स में होने वाली जाँच व इलाज के शुल्क तय किये जा सकें। साथ ही मन्त्रालय ने कर्मचारियों, डॉक्टरों सहित समूचे मानव संसाधन पर होने वाला ख़र्च (वेतन आदि) भी माँगा है। और अब सी. और डी. श्रेणी के कर्मचारियों की भर्तियाँ प्राइवेट एजेंसियों से भी होगी। सरकार द्वारा अक्सर जारी किये जाने वाले ऐसे सर्कुलर सरकार की पक्षधरता को और साफ कर देते हैं। इस बार के 11 लाख करोड़ बजट में ही जहाँ कारपोरेट जगत को लगभग 5 लाख करोड़ की छूट दी गयी है, वहीं स्वास्थ्य और परिवार कल्याण के लिए 22,300 करोड़ रुपये रखे गये। जो देखने में बहुत बड़ी रकम लगती है, लेकिन अगर सवा अरब लोगों पर यह मद ख़र्च की जाये तो प्रतिव्यक्ति मात्र 20 रुपये आयेगा। एक तरफ जहाँ सरकार स्वास्थ्य क्षेत्रों में सब्सिडी में लगातार कटौती कर रही है और इसका कारण पैसों की कमी होना बता रही है, वहीं दूसरी तरफ देश के भ्रष्ट नेताओं का बेहिसाब वेतन बढ़ाया जा रहा है।

ऐसे में साफ है कि हमारे देश के मन्त्री विकास का जितना हो-हल्ला मचायें, देश की बहुसंख्यक आबादी के हालात सारी सच्चाई को बयान कर देते हैं। अभी हाल ही में आयी एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत एशिया का सबसे बीमार देश है। हमारे यहाँ शिशु और मातृ मृत्यु दरें दुनिया में सबसे ख़राब हैं। 2008 में भारत में टी.बी. से 2.8 लाख जानें गयीं, वहीं पिछले साल 20 लाख नये मामले सामने आये। रिपोर्ट के ही मुताबिक इन बीमारियों से मृत्यु दर बढ़ने का एक कारण सुनियोजित उपेक्षा भी है। मुनाफे के लिए संवेदनहीन होती इस व्यवस्था में स्वास्थ्य संस्थान भी कमाई का एक ज़रिया बन जाये तो इसमें आश्चर्य कैसा? पूँजीवादी व्यवस्था की तो नियति ही यही है। अगर हमें स्वास्थ्य या अन्य बुनियादी ज़रूरतों को आमजन के लिए सुलभ बनाना है, तो हमें इस बीमार व्यवस्था का इलाज ढूँढ़ना ही होगा।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,नवम्‍बर-दिसम्‍बर 2010

 

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