ओबामा की भारत यात्रा के निहितार्थ
प्रेमप्रकाश
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा नबम्बर माह की अपनी भारत यात्रा के दौरान ‘शौ मैन’ के रूप में नज़र आये। संसद भवन के सेण्ट्रल हाल में दोनों सदनों के सदस्यों को अपने 35 मिनट के सम्बोधन में उन्होंने जमकर वाहवाही लूटी। ओबामा की इस ग्लैमरस यात्रा को लेकर भारतीय मीडिया ने ख़ूब हो-हल्ला मचाया। ओबामा की लगभग 3,600 करोड़ के ख़र्चे वाली इस यात्रा के निहितार्थ का विश्लेषण हम आगे करेंगे। आइये हम अपनी बात की शुरुआत ‘‘मि. प्रेसीडेण्ट’‘ के संसदीय सम्बोधन की पड़ताल से करते हैं।
राष्ट्रपति ओबामा ने अपनी बात की शुरुआत करते हुए कहा – ‘‘उपराष्ट्रपति महोदय, स्पीकर महोदया, प्रधानमन्त्री महोदय, लोकसभा और राज्यसभा सदस्य और सबसे ऊपर भारत की जनता।’‘ ओबामा जिस भारतीय जनता को सबसे ऊपर बता रहे हैं, उसी भारतीय आम जनता की जिन्दगी को नर्क बनाने वाली पूँजीवादी संसदीय प्रणाली में वह अपने देश के धनलोलुप पूँजीपतियों की नुमाइन्दगी करने आये थे। जिस अमेरिका में आज भी लोग रंगभेद, नस्लभेद के शिकार होते हैं, भयानक बेरोज़गारी की मार झेल रहे हैं उस देश के राष्ट्रपति के भारतीय जनता को सर्वापरि रखने के अपने धूर्ततापूर्ण व्यापारिक मायने हैं। क्या ओबामा के लिए भारत, इण्डोनेशिया, जापान व दक्षिण कोरिया की जनता अनायास ही प्रिय हो गयी है? हम जानते हैं कि इराक पर थोपा गया युद्ध व अफगानिस्तान पर सैन्य कब्ज़ा अमेरिका की घृणित विदेश नीति का हिस्सा हैं। क्या दुनिया विकिलीक्स पर दिखाये गये उन तमाम दस्तावेज़ों से रूबरू नहीं है, जिनमें अमेरिकी फौजों द्वारा इराकियों का बर्बरतापूर्ण दमन दिखाया गया है? इस सम्बन्ध में यह भी ज्ञातव्य है कि अमेरिका का सबसे बड़ा रक्षा व सैन्य बजट नोबल शान्ति पुरस्कार से सम्मानित मि. ओबामा के समय में ही पास हुआ। आगे भारतीय शासक वर्ग की प्रशंसा करते हुए मि. प्रेसीडेण्ट ने कहा कि ‘‘आपने ऐसी संस्थाओं का निर्माण किया जिन पर सच्चा लोकतन्त्र खड़ा हो सकता है।’‘ यह एक ढोंगी की ही भाषा हो सकती है जो अपने शागिर्दों की पीठ थपथपा रहा है। नहीं तो ग़रीब वर्ग, मज़दूर आबादी, सामाजिक कार्यकर्ताओं और आदिवासियों पर हो रहे अत्याचार वाला भारत कैसा सच्चा लोकतन्त्र है – हम सभी जानते हैं? अगर कोई व्यक्ति भारत-लोक में रहते हुए इस भारत-तन्त्र पर सवाल खड़ा करता है, तो उसके लिए इस भारतीय लोकतन्त्र में कोई स्थान नहीं है। भारत में हर दूसरे, तीसरे या पाँचवें साल होने वाली चुनावी नौंटकी को, जिसकी असलियत आज हर आम भारतीय के सामने उजागर हो चुकी है, ओबामा ने ‘निष्पक्ष और स्वतन्त्र चुनाव व्यवस्था’ कहा। आम आदमी जब आज भी न्याय के लिए दर-दर भटक रहा है, न्याय व न्यायपालिका बाहुबल और पैसे का खेल हो गयी है तो ओबामा ने इसे ‘निष्पक्ष न्यायपालिका और कानून के राज’ की संज्ञा दी। राष्ट्रपति महोदय ने कहा – ‘‘आपने आज़ाद प्रेस, गतिवान नागरिक संस्थाएँ बनायीं, जिससे हरेक की अभिव्यक्ति की आज़ादी सुनिश्चित हुई।’‘ क्या हम नहीं जानते कि आये दिन न्याय की माँग करने वालों की बोलती बन्द की जाती है? इसी आज़ादी के आधिक्य के शिकार भारत में कुल 626 जिलों में से 101 जिलों में ‘सशस्त्र बल विशेष सुरक्षा अधिनियम’ लागू है। यानी भारत के करीब छठे हिस्से में सैन्य शासन कायम है, जहाँ सेना व अर्द्धसैनिक बलों की मिश्रित क्षमता का 60 प्रतिशत हिस्सा अपने ही लोगों के खि़लाफ लड़ाई में तैनात है। ओबामा ने अपने ‘सम्मोहनपूर्ण’ भाषण में कहा कि ‘‘आज मैं किसानों से मिला हूँ जो मौसम और बाज़ार की ताज़ा स्थिति की मुफ्त जानकारी अपने मोबाइल से लेते हैं।’‘ क्या यह भारत के किसानों का यथार्थ है? क्या हम नहीं जानते कि विदर्भ व देश के अन्य भागों में कितने किसान अपनी ग़रीबी व बदहाली से तंग आकर आत्महत्याएँ कर रहे हैं?
क्या हम आपने विवेक को प्रवंचना के ऐसे पुतले के हाथ में गिरवी रख देंगे जो आज आर्यभट्ट, विवेकानन्द, गाँधी और अम्बेडकर का नाम मात्र अपने हितों के लिए जप रहा है? क्या थोथी प्रशंसा की आड़ में आज जब कैप्टन हाकिंस और टामस रो आयेंगे तो हम अपनी आँखें बन्द रखेंगे? ओबामा का यह सम्बोधन ऐसी तमाम पाखण्डपूर्ण लफ्फाज़ी के बीच धूर्ततापूर्ण पूँजीवादी हितों की रक्षा से अधिक कुछ नहीं है। और ज़ाहिर है कि इससे सम्पूर्ण पूँजीपति वर्ग व मध्यवर्ग फूला नहीं समा रहा है। आइये देखें कि ऐसा क्या है जो विश्व पूँजीवाद के चौधरी को यह सब कुछ करना पड़ रहा है जिसमें अपने लाव-लश्कर, पत्नी समेत वह झूठी प्रशंसा से लेकर नाच-गाना तक कर रहा है।
ओबामा प्रशासन की वर्तमान अवस्थिति
लगभग दो वर्ष पहले अमेरिका में बुश विरोधी लहर पर सवार हो जनता के बीच ‘बदलाव’ और ‘येस वी कैन’ जैसे नारों के साथ ओबामा सत्ता में आये। इसके पीछे अमेरिकी जनता के अन्दर बुश की युद्ध-नीतियों की तीखी आलोचना एवं अमेरिकी सम्प्रभु पूँजीवादी से पैदा हुए तमाम संकट थे। अमेरिका के लोगों को यह लगता था कि राष्ट्रपति ओबामा अपने वादों के अनुरूप काम भी करेंगं। परन्तु ओबामा इसमें विफल रहे। चुनाव के दौरान ‘बेरोज़गारी मुक्ति कानून’ (एम्लायमेण्ट फ्री च्वाइस एक्ट) एवं वाल स्ट्रीट के ऊपर अंकुश लगाने की जो बात की गयी थी ओबामा उसमें पूर्णतः असफल रहे। स्वास्थ्य एवं रक्षा व्यवस्था में सुधार का कानून चुनावी वादों के मुकाबले समझौतापरस्ती से पास हुआ। इसके अतिरिक्त विश्व वित्तीय संकट की मार से भीमकाय बैंकों व वित्तीय संस्थानों को बचाने के लिए ओबामा प्रशासन ने लम्बे-चौडे़ ‘बेल आउट पैकेज’ दिये। जबकि ये संस्थाएँ ख़ुद ही मन्दी का संकट पैदा करने के लिए जिम्मेदार हैं। आज अमेरिका में बेरोज़गारी की दर 9.6 फीसदी है और इसके 15 फीसदी तक पहुँचने की आशंका जतायी जा रही है। इन तमाम स्थितियों से आम अमेरिकी का विश्वास ओबामा के घोषित ‘प्रगतिशील’ एजेण्डे से उठ रहा है। दूसरी तरफ इन परिस्थितियों का लाभ उठाकर रिपब्लिकन, नव-अनुदारपन्थी तथा घोर-दक्षिणपन्थी ताकतें (जैसे टी पार्टी) लोगों का झुकाव अपनी ओर करने में सफल हो रही हैं। अमेरिका की अनेक निगम कम्पनियाँ स्वास्थ्य बीमा बाज़ार तथा वाल स्ट्रीट पर ओबामा के अकुंश लगाने के प्रयास से नाराज़ हैं। करोड़ों डॉलर की मदद से नव-अनुदारपन्थी तथा टी-पार्टी के लोगों के दिमाग़ में यह बात पैठाने में कामयाब हो गये हैं कि उनकी बेरोज़गारी व आर्थिक कठिनाइयों के लिए सरकार की उत्प्रेरण नीति एवं अर्थव्यवस्था के नियमन की वकालत करने वाली ‘विस्तारित सरकार’ ही जिम्मेदार है।
इन सब बातों को लेकर तमाम संगठनों को, जिन्होंने हाल के चुनाव में अपना असर दिखाया है, बड़े-बड़े राष्ट्रीय ग्रुपों द्वारा आर्थिक मदद देकर समन्वित और संचालित किया जा रहा है। इसमें फ्रीडम वर्क्स, द पार्टी एक्सप्रेस, अमेरिकन फॉर प्रास्पैरिटी’ जैसे ग्रुप शामिल हैं। लेकिन इनमें से अधिकांश का नेतृत्व रिपब्लिकन पार्टी के हाथ में है।
ओबामा की यात्रा के ठीक पहले अमेरिका में हुए मध्यावधि चुनाव में ओबामा प्रशासन (डेमोक्रेटों) को भारी धक्का लगा। अमेरिका के इतिहास में विगत आठ दशकों में ऐसा पहली बार हुआ है कि प्रतिनिधि सदन (हाउस ऑफ रिप्रज़ेण्टेटिव) में बहुमत एक पार्टी के हाथ से निकलकर दूसरी पार्टी के हाथ में चला गया जबकि सीनेट में ऐसा नहीं हुआ। इस चुनाव से पहले प्रतिनिधि सदन में डेमोक्रेटों की 256 एवं रिपब्लिकन की 178 सीटे थी, परन्तु अब रिपब्लिकन की संख्या 239 हो गयी एवं डेमोक्रेटों की संख्या 185 रह गयी। इसी प्रकार सीनेट में पहले डेमोक्रेटों की 58 सीटें घटकर 50 रह गयी हैं तथा रिपब्लिकनों की सीटें 40 से बढ़कर 48 हो गयी हैं। मध्यावधि चुनावों से स्पष्ट है कि ओबामा का जनाधार तेज़ी से नीचे जा रहा है।
ओबामा की भारत, इण्डोनेशिया, जापान एवं दक्षिण कोरिया की यात्रा के दो प्रमुख मकसद स्पष्ट हैं। प्रथम है मन्दी की मार झेल रही अमेरिका की अर्थव्यवस्था को बचाना और अमेरिकी कम्पनियों के लिए नये बाज़ार की खोज व अमेरिका में रोज़गार के सृजन से अपने खो रहे जनाधार को वापस लाना। यह यात्रा आगामी चुनावी वर्षों में अमेरिकी पूँजीवाद की नुमाइन्दगी के लिए ओबामा प्रशासन की तैयारी है। दूसरा विश्व पूँजीवाद में पिछले दो दशको में आये बदलाव एवं कई नये राष्ट्र-राज्यों के पूँजी उभार से विश्व बाज़ार में अमेरिकी पूँजी की चौधराहट में कमी आयी है। एशिया में चीन के आर्थिक उभार व विश्व बाज़ार में सशक्त उपस्थिति को देखते हुए अमेरिका दक्षिण पूर्व एशिया को अपनी दूरगामी विदेशी नीति के केन्द्र एवं बाज़ार क्षेत्र के रूप में देखता है। ओबामा की इस यात्रा का मकसद चीन को यह सन्देश भी देना है कि विश्व व्यापार एवं आर्थिक साझेदारी के लिए दक्षिण पूर्वी एशिया अमेरिका के साथ है।
पूँजी के हित का खेल
अपनी यात्रा में ओबामा ने अपना सर्वाधिक समय उद्योग नगरी मुम्बई में बिताया। ज़ाहिर है, बातों से भारतीय संस्कृति और सभ्यता का गुणगान करने वाले ओबामा मुम्बई में भारतीय पूँजीपतियों से मिलकर संस्कृति की कला-मीमांसा नहीं कर रहे थे। इन सबका मकसद वैश्विक पूँजीवाद में पूँजी निवेश के लिए पैदा हुए नये आयामों और परिधियों में अमेरिकी पूँजी का हित और भारतीय पूँजीपतियों को इन तमाम क्षेत्रों में सेवा एवं तकनीकी उपलब्ध करवाकर भारतीय संसाधनों एवं बाज़ार का दोहन करना है जो भारत के मेहनतकशों के शोषण से ही सम्भव है। भारत में सेवा क्षेत्र, कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर-हार्डवेयर, टेलीकॉम, हाउसिंग-रियल स्टेट और निर्माण कार्य – पाँच प्रमुख विदेशी निवेश के क्षेत्र हैं। अमेरिका खुदरा व्यापार और सेवा क्षेत्र में पैसा लगाने के नियमों में सफलता चाहता है। कृषि उत्पादों की नयी खोज, उद्योग-धन्धों में धन लगाने और सेवा क्षेत्र में सहयोग जैसे क्षेत्रों में रहे-सहे नियमों एवं रेगुलेशन को हटाने के लिए दोनों देश सहमत हैं।
बीस वर्ष पूर्व भूमण्डलीकरण व उदारीकरण की जो नीतियाँ भारत में लागू हुई थीं, उनसे भारतीय पूँजीपतियों ने जनता को निचोड़कर अब अपनी शक्ति इतनी बढ़ी ली है कि ख़ुद भी व्यवस्था के अन्दर के नियमनों में ढील चाहता है। दूसरी तरफ ‘‘मुक्त पूँजीवाद’‘ का हिमायती अमेरिकी पूँजीवाद बेशक अपनी इसी प्रवृत्ति के कारण मन्दी के दलदल में फँसा है, फिर भी वह पीछे नहीं जा सकता। अब वह रहे-सहे बन्धनों को तोड़कर पूरे विश्व में बेलगाम दौड़ना चाहता है। यह यात्रा इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए थी। अनिल अम्बानी ग्रुप के रिलायंस पावर एवं स्पाइस जेट के 30 बोइंग 737 व अन्य सौदे लगभग 10 बिलियन डॉलर के हैं। ओबामा ने कहा – ‘‘हम भारत को तेज़ी से बढ़ते विश्व बाज़ार के केन्द्र के रूप में देखते हैं, जहाँ हम अपने निर्यात को बेच सकते हैं। अमेरिका के लिए यह एक रोज़गार रणनीति है।’‘ अमेरिका की यह व्यापारिक सौदेबाज़ी सीधे तौर पर अमेरिका में 50,000 नौकरियाँ सृजित करेगी; दूसरी ओर स्पाइस जेट बोइंग से भारत में कम किराया वाली हवाई यात्रा को बढ़ावा देगी। आन्ध्र प्रदेश के सामलकोट में 2400 मेगावाट के पावर प्लाण्ट के लिए उपकरणों की ख़रीद से रिलायंस को ऊर्जा क्षेत्र में पूँजी लगाकर और अधिक मुनाफा कमाने का अवसर देगा। जनरल इलेक्ट्रिकल कम्पनी जो दुनिया के एक तिहाई ऊर्जा उपकरणों का निर्माण करती है, गैस एवं भाप टरवाइन की आपूर्ति करेगी। भारतीय सेना अमेरिका से एयर क्राफ्ट ख़रीदेगी। ओबामा की योजना अमेरिकी निर्यात को दोगुना करना है, जिसके लिए वे विश्व के ऐसे देशों को जहाँ बड़ा बाज़ार है, अपना लक्ष्य करेंगे। संयुक्त वक्तव्य में कहा गया कि राष्ट्रपति ओबामा ने भारत द्वारा अमेरिका से उच्च तकनीकी एवं रक्षा मदों की ख़रीद का स्वागत किया।’‘ भारत में नाभिकीय ऊर्जा के क्षेत्र में असीम अवसरों के पूँजीवादी हितों की रक्षा के लिए भी ओबामा की यह यात्रा उल्लेखनीय है। अमेरिका अपनी कम्पनियों के लिए ऊर्जा क्षेत्र में कानूनों को आसान करना चाहता है, जिससे दुर्घटना की जिम्मेदारी को कम किया जा सके। संयुक्त बयान में इस बात की प्रतिबद्धता व्यक्त की गयी कि ‘‘संयुक्त राज्य अमेरिका वस्तुओं एवं सेवाओं में भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक पार्टनर है और अब भारत दुनिया के उन देशों में से है जो प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए अमेरिका में प्रवेश कर रहे हैं। दोनों नेता (ओबामा और मनमोहन सिंह) व्यापार अवरोधों एवं रक्षणात्मक मानकों को कम करने के लिए कदम उठायेंगे।’‘ बात एकदम स्पष्ट है कि पूँजी के लिए रहे-सहे श्रम कानूनों एवं नागरिक उत्तरदायित्व के मानकों को तोड़ दिया जाये।
खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा देने के नाम पर वास्तव में अमेरिका वालमार्ट तथा मोन्सेटो जैसे बहुराष्ट्रीय निगमों की मुनाफाख़ोरी के लिए भारत के दरवाज़े खुलवाना चाहता है। बीज विधेयक को पारित करवाना बहुराष्ट्रीय बीज कम्पनियों के हित में है। भारत और अमेरिका के बीच जो प्रमुख समझौते हुए उनमें ‘स्वच्छ ऊर्जा एवं शोध के लिए विकास केन्द्र की स्थापना’, ‘विश्व परमाणु ऊर्जा सहभागिता’, ‘शैल गैस संसाधनों का आकलन’, ‘ग्लोबल डिज़ीज़ डिटेंशन सेण्टर’ की स्थापना प्रमुख है। इन सबका उद्देश्य अमेरिकी पूँजी के तकनीकी घरानों के लिए बाज़ार एवं भारतीय पूँजीपतियों के लिए इस तकनीकी के इस्तेमाल के ज़रिये पूँजी के शोषणकारी चरित्र को घनीभूत करना है। शिक्षा के क्षेत्र में होने वाला समझौता भारतीय शिक्षा बाज़ार में पूँजी की असीम सम्भावनाओं के लिए रास्ते को आसान बनाना है व भारत में शिक्षा के बाज़ारीकरण में मुनाफे को सुनिश्चित करना है। तभी तो ओबामा ने अपने सम्बोधन में कहा ‘’ज्ञान ही इक्कीसवीं सदी की मुद्रा है।’‘ क्योंकि पूँजीपतियों के लिए समाज की हर चीज़ मुद्रा है। ख़रीदे-बेचे जाने का उपकरण।
इस यात्रा में अमेरिका की 200 बड़ी कम्पनियों के प्रतिनिधियों तथा भारत के टाटा, रिलायंस, विप्रो, गोदरेज, महिन्द्रा एण्ड महिन्द्रा व अन्य कम्पनियों के प्रतिनिधियों के व्यापारिक हितों की रक्षा के लिए दोनों देशों के शासक एक मंच मुहैया करा रहे थे। इस यात्रा में यह एक बार फिर पूर्णतया स्पष्ट हो गया कि पूँजीवादी संसद पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी होती है। ओबामा की यह यात्रा अमेरिकी कम्पनियों के हित साधन का निमित्त मात्र है। दूसरी तरफ भारतीय शासक वर्ग द्वारा पलकें बिछाकर इसका स्वागत किसी आत्मिक आनन्द से नहीं वरन भारतीय पूँजीपतियों के हितों से अनुप्राणित है। यह यात्रा भी तमाम व्यापारिक सम्मेलनों, द्विपक्षीय वार्ताओं और समितियों की तरह दो देशों के पूँजीपतियों की नुमाइंदगी करने वाले राष्ट्र-राज्यों के वर्गीय हितों से ही संचालित हैं। इससे आम भारतीय का कोई भला होने वाला नहीं है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,नवम्बर-दिसम्बर 2010
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