आबादी: एक समस्या?
मनाली चक्रवर्ती
दोस्तों-परिचितों से गपशप करते हुए कितनी बार बात आबादी पर आकर रुकती है। यह हम सबका अनुभव है – पानी की समस्या, बिजली की समस्या, रोज़़ी-रोटी की समस्या, ग़रीबी-बदहाली की समस्या, जरायम और तस्करी की समस्या, आदि-आदि, ले-देकर सारी समस्याओं की जड़ हमारी विशाल आबादी है। इस बात पर कमोबेश एक आम राय-सी बन जाती है। अगर आप भी इस तर्क से सहमत हैं, तो आप आश्वस्त रहिये आप बहुमत में हैं। और हों भी क्यों नहीं, मानव जाति की आबादी आज तकरीबन साढ़े छः अरब (बिलियन) है जो कि मानव इतिहास में पहली बार हुआ है। हमारी अपनी देश की आबादी करीबन 110 करोड़ है, यानी हर छठा व्यक्ति भारतीय है। चारों तरफ जहाँ देखिये – सरकार से लेकर बुद्धिजीवी वर्ग, युवा पीढ़ी से लेकर वयोवृद्ध – इस ‘‘विकराल’‘ समस्या से भीषण चिन्तित हैं और उससे निपटने की फिक्र में जुटे हुए हैं। देशी-विदेशी ग़ैर-सरकारी और सरकारी संस्थाएँ इस समस्या से जूझने के लिए परियोजनाएँ बना रही हैं, अरबों-खरबों रुपये उड़ेल रही हैं। यूएनएफपीए (युनाइटेड नेशंस पॉपुलेशन फण्ड) एक पूरा संस्थान है, जो 1967 से आबादी पर नियन्त्रण के कार्यक्रमों में जुटा है। ज़ाहिर है उनकी सारी परियोजनाएँ तीसरी दुनिया के देशों पर केन्द्रित हैं।
जानकारों में, कुछ तो नरमी से इन बच्चा-पैदा-करने- वाली-मशीनों से ग्रसित आबादी को प्यार-पुचकार की भाषा से समझाने में विश्वास रखते हैं। पर कुछ हस्तियों को डर है कि पानी सर से ऊपर चला गया है और अब प्यार-पुचकार की भाषा की विलासिता हम वहन नहीं कर सकते। अब तो इन नासमझों पर ज़बरन ही कुछ तौर-तरीकों का इस्तेमाल करना पड़ेगा, वरना यह धरती ही संकट में आ जायेगी। और हम यह देख रहे हैं कि बुद्धिजीवियों और पॉलिसी बनाने वाले अहम तबके में यह दूसरा तरीका अपनाने वाले ज़ोर पकड़ते जा रहे हैं।
अब यह तो हम-आप भी मानेंगे कि इक्कीसवीं सदी में प्रवेश करने के बावजूद मानव समाज भीषण तंगी, बदहाली और ग़रीबी से जूझ रहा है। शहरों की मलिन बस्ती से लेकर गाँव तक, अफ्रीका और एशिया से लेकर लातिनी अमेरिका तक, यहाँ तक कि कई विकसित देश भी बुनियादी समस्याओं से ग्रसित हैं। अभी हाल ही की एक रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका में भी 490 लाख लोग भूखे सोते हैं (न्यूयॉर्क टाइम्स, 18 नवम्बर 2009)। तो क्या हम भी यह मान लें कि आबादी ही सकल समस्या की जड़ है? आइये, विस्तार से देखें।
आधुनिक इतिहास में, सुनियोजित तरीके से बढ़ती आबादी के ख़तरे पर प्रकाश डालने वालों में शायद सबसे पहले शख़्स हैं रेवरेण्ड थॉसम माल्थस। यह अंग्रेज़ पादरी अपने-आप को गणिज्ञत मानते थे और सामाजिक समस्याओं का गणितीय आधार खोजने में प्रयासरत रहते थे। अठारहवीं सदी के अन्त में इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रान्ति ज़ोर पकड़ रही थी। इसका प्रभाव व्यावसायिक समाज पर तो बहुत लाभदायक था, पर आम जनता की स्थिति अत्यन्त दयनीय थी। लोग भूख से बेहाल, मौसम से जूझने में नाकाम, मक्खियों की तरह मर रहे थे। शहरों का यह हाल था कि चारों तरफ गन्दगी का मंज़र, एक-एक कमरे में 20-25 लोग ठुँसे रहने को विवश, तीन-चार साल के बच्चे भी फैक्टरी और खदानों के दमघोंटू माहौल में काम करने के लिए मजबूर। आम बीमारी भी हर बार महामारी का रूप ले लेती। इस माहौल में हमारे रेवरेण्ड माल्थस ने यह हिसाब लगाया कि आबादी तो 2, 4, 8, 16, 32 की रफ्तार से यानी ज्यामितीय प्रोग्रेशन में ही बढ़ सकती है। खाद्यान्न का उत्पादन महज़ 2, 4, 6, 8, 10 की रफ्तार से यानी ऑरिथमैटिक प्रोग्रेशन में ही बढ़ सकता है। इसके चलते जल्द ही आबादी इतनी बढ़ जायेगी कि धरती पर खाद्यान्न का संकट हो जायेगा। माल्थस साहब अपनी इस खोज से इतने आशंकित हो गये कि उन्होंने 1798 में एक किताब लिख डाली ‘एन एस्से ऑन दि प्रिंसिपल ऑफ पॉपुलेशन।’ उस किताब में उन्होंने इस ‘‘विकराल’‘ समस्या के बारे में विस्तार से लिखा, यह भी भविष्यवाणी की कि सन् 1890 में मानव आबादी समूचे खाद्यान्न उत्पादन को पार कर जायेगी। एक अच्छे शोधकर्ता की तर्ज पर उन्होंने इस भीषण संकट से उबरने का उपाय भी सुझाया। उपाय सीधा था: ‘‘अमीर तबके के हिस्से के पर्याप्त साधन बनाये रखने के लिए ग़रीबों को मारना होगा।’‘ उन्हीं की किताब से कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करती हूँ:
‘‘आबादी को एक सन्तुलित मात्रा में बनाये रखने के लिए जितने बच्चे ज़रूरी हैं उनके अतिरिक्त बच्चों को ज़रूरतन ख़त्म हो जाना होगा, नहीं तो वयस्कों को मारकर उनके लिए जगह बनानी पड़ेगी…। इसलिए हमें प्राकृतिक नियमों से मौत आसान करनी होगी, न कि बेवकूफीवश उसमें रोड़ा डालें, और अगर हमें बार-बार आने वाली भुखमरी से डर लगता है, तो हमें पक्की लगन से दूसरी विनाशकारी ताकतों को बढ़ावा देना होगा, जो प्रकृति को मजबूरन अपनानी पड़ती हैं। हमें ग़रीबों को साफ-सुथरा रखने की बजाय गन्दगी की आदत डलवानी पड़ेगी। अपने शहरों में हमें और संकरी गलियाँ बनवानी पड़ेंगी और घरों में और ज़्यादा लोग ठूँसने पड़ेंगे, और हमें प्लेग-जैसी महामारियों को खुले हाथों से आमन्त्रण देना होगा। गाँव की तरफ हमें पूरे-पूरे कस्बे गन्दे, सड़ते हुए तालाब, नाले के निकट बसाने होंगे और लोगों से आग्रह करना होगा कि वह अपने घर अधिक से अधिक अस्वास्थ्यकर परिवेश में बनायें।’‘ (एन एस्से ऑन प्रिंसिपल ऑफ पॉपुलेशन, खण्ड 5, अध्याय 5)
माल्थस सबसे ज़्यादा नाराज़ डॉक्टरों से थे। उनका कहना था कि ये ‘‘भले, पर गुमराह लोग मानव जाति की भलाई के नाम पर उसका पूरी तरह विनाश करने पर तुले हैं।’‘
यह किताब बहुत लोकप्रिय रही, ख़ासकर अमीर तबके में। याद रखियेगा कि माल्थस और उनके प्रशंसक-समर्थक पिछड़े देशों की नहीं, बल्कि उस ज़माने के सबसे उन्नत, ताकतवर और अमीर देश इंग्लैण्ड की बात कर रहे थे। उनके बाद इन सवा दो सौ सालों में कई बार इस विचार ने तूल पकड़ा। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में डारविन और फिर उनके बाद उन्हीं के रिश्तेदार फ्रांसिस गाल्टन ने इस विचार को वैज्ञानिक तर्क का जामा पहनाया। उनका मानना था कि ग़रीबों की बड़ी तादाद में बढ़ोत्तरी से मानव प्रजाति धीरे-धीरे मन्दबुद्धि होती जा रही है (क्योंकि ग़रीब मन्दबुद्धि होते हैं और उनकी संख्या ज़्यादा होने पर औसत बुद्धिमत्ता घट जायेगी) इस प्रक्रिया को रोकने के लिए गाल्टन साहब ने ‘’युजैनिक्स’‘ की पद्धति सुझायी। साधारण भाषा में इसका मतलब है – ‘‘अच्छी नस्ल का प्रजनन।’‘ उनके बाद मार्गरेट सैंगर नाम की एक प्रसिद्ध समाजसेवी महिला ने ‘’प्लाण्ड पेरेण्टहुड’‘ की शुरुआत की – यानी योजनाबद्ध मातृत्व। उनका मानना था कि ग़रीबों की मदद करना मानवता के खि़लाफ है और मानव-जाति को उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। सैंगर का मानना था कि ग़रीबों को बच्चे पैदा ही नहीं करने चाहिए और ज़रूरत पड़ने पर उनकी नसबन्दी करवा देनी चाहिए। उनका कहना था कि जैसे सुन्दर बग़ीचे बनाने के लिए खर-पतवार उखाड़ फेंकना ज़रूरी है वैसे ही गुणवत्ता बनाये रखने के लिए ग़रीब जनता को बच्चे पैदा करने से रोकना अनिवार्य है। उनका यह तर्क उस ज़माने के धनी लोगों को ख़ूब भाया, जैसे कि रॉकफेलर, ड्यूक, लास्कर, डुपोण्ट आदि को। बींसवी शताब्दी के बीचो-बीच जर्मनों ने इसी को अमल में लाने का प्रयास किया। इसके चलते तकरीबन साठ लाख यहूदियों की हत्या कर दी गयी। उसके बाद हर कुछ साल में यह आबादी को ज़बरन कम करनेवाला मुद्दा ज़ोर पकड़ता आया है। इमरजेंसी के दौरान इस देश में संजय गाँधी के नेतृत्व में जो अभियान छिड़ा था, उसकी यादें अभी भी विभीषिका बनकर हमें सताती हैं। पिछले कुछ सालों से यह विचार फिर ज़ोर-शोर से वापस आ रहा है। कइयों को कहते सुना जाता है कि ‘’साहब, अब अच्छा लगे या बुरा, तरीका तो वही है। अब सर्जन की छुरी के नीचे आना किसे भाता है, पर जब अंग सड़ जाये या फिर कैंसर हो, तो फिर उसके बिना चारा नहीं। अब चीन को ही देख लीजिये, कितना आगे निकल गया। उसका सख़्त ‘एक-बच्चा-परिवार कानून’ ही इसका मुख्य कारण है।’‘
इतने सारे ज्ञानी-गुणी सैकड़ों सालों से जो बात कह रहे हैं, तो चलिये थोड़ी देर के लिए मान ही लेते हैं कि बहुजन की भलाई के लिए कुछ लोगों को कुर्बानी देनी पड़ेगी। अब मन मारकर यह कदम भी अगर उठाना पड़े, तो देखते हैं उसका असर क्या होगा! कितने लोगों के कम हो जाने से स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन नज़र आयेगा – 10 प्रतिशत, 20 प्रतिशत, 30-40 या 50 प्रतिशत? चलिये, 20 प्रतिशत मानकर चलते हैं। आइये देखें, 20 प्रतिशत आबादी कम होने से क्या फर्क पड़ेगा। तालिका-1 में देखते हैं कि नीचे से 20 प्रतिशत आबादी कम करने से यानी 100 में सबसे ग़रीब 20 प्रतिशत लोग और ऊपर से सबसे अमीर 20 प्रतिशत लोग घटने से संसाधनों की उपलब्धता में कितना अन्तर आयेगा।
तालिका-1
संसाधन धरती की सम्पूर्ण आबादी के धरती की सम्पूर्ण आबादी के
निचले 20 प्रतिशत में के ऊपरी 20 प्रतिशत में
खपत (सबसे ग़रीब) खपत (सबसे अमीर)
दुनिया के सकल निजी खपत में होनेवाले ख़र्चे में हिस्सेदारी 1.3% 86%
दुनिया के सकल मांस खपत में हिस्सेदारी 5% 45%
दुनिया के सकल ऊर्जा खपत मे हिस्सेदारी 4% 58%
दुनिया के सकल टेलीफोन लाइंस इस्तेमाल में हिस्सेदारी 1.5% 74%
दुनिया के सकल वाहन इस्तेमाल में हिस्सेदारी 1% 87%
स्रोत: ह्युमन डेवलपमेंण्ट रिपोर्ट 1998, ओवरव्यू, यूएनडीपी, 1995
जैसा कि तालिका-1 से साफ ज़ाहिर है कि 20 प्रतिशत आबादी कम होने पर निश्चित तौर पर संसाधनों की उपलब्धि में अन्तर आयेगा, पर यह नीचे के 20 प्रतिशत ग़रीबों की बजाय ऊपर के 20 प्रतिशत अमीरों को हटाने से होगा। सकल निजी खपत पर ख़र्च का 86 प्रतिशत लोग उपभोग कर रहे हैं – अगर वे उसे कम करें, तो बाकी बचे लोगों को औसतन वर्तमान में उपलब्ध सामान से (जो 14 प्रतिशत है) छः गुना ज़्यादा मिल पायेगा। वैसे ही मांस-मछली दोगुना ज़्यादा मिलेगा, ऊर्जा करीबन दोगुना, वाहन छः गुना ज़्यादा आदि, आदि। तो फिर कर दी जाये यह नीति लागू? क्या संजय गांधी का समर्थन करने वाले, बड़े-बड़े विद्वान इस नीति पर अपनी मुहर लगायेंगे? या फिर ग़रीब बेचारों पर, जो अपनी बात किसी गोष्ठी में रख नहीं सकते, आसानी से लागू होने वाले नियम, अमीरों पर आते ही क्यों डाँवाडोल हो जाते हैं? आखि़र इन ग़रीबों का सफाया करने से कितना बचेगा? सौ में नीचे के बीस लोग कम होने पर महज़ 1 प्रतिशत, 1.5 प्रतिशत या ज़्यादा से ज़्यादा 4 प्रतिशत? हुआ न हिसाब टेढ़ा?
आइये, मरने-मारने से थोड़ा हटकर ठण्डे दिमाग़ से यह पता लगायें कि आखि़र हमारी धरती पर कितने संसाधन हैं और सही ढंग से वितरण करने पर हरेक के हिस्से कितना आता है। हम बुनियादी ज़रूरतों पर ग़ौर करते हैं। पहले, रहने की जगह को लें। अब आपके हिसाब से एक व्यक्ति को रहने के लिए कितनी जगह चाहिए? अब रहने को तो सुना है मुम्बई-जैसे शहरों में एक 8 फुट गुणा 8 फुट के कमरे में 6-8 आदमी रह लेते हैं – हर दिन सामुदायिक शौचालयों में घण्टों लाइन में लगना पड़ता है। मलिन बस्तियों में तो पोलिथिन के छप्परों के नीचे करोड़ों आदमी गुज़ारा करते हैं, जहाँ भारतीय रेल की पटरी शौच के लिए एकमात्र स्थल है। पर मैं इसकी बात नहीं कर रही हूँ, मैं तो यह अनुमान लगाने की कोशिश कर रही हूँ कि इंसान की तरह जीने के लिए; ठीक-ठीक सुविधा, आराम के लिए कितनी जगह की ज़रूरत है? अच्छा, दूसरी तरह से हिसाब लगाते हैं। अभी इस धरती पर जनसंख्या करीब 6.5 अरब (बिलियन) है। क्या आपको पता है कि अगर हम हर व्यक्ति को तकरीबन 1240 वर्ग फीट जगह दें (आपकी जानकारी के लिए बता दें, शहरों में इतना क्षेत्रफल एचआईजी ¹हाई इनकम ग्रुप फ्लैट्स के होते हैं, यानी समाज के सबसे अमीर तबके के पास), तो इस हिसाब से धरती के सारे लोगों को बसाने के लिए कितनी जगह चाहिए? मैं बताती हूँ, हमारे देश के दो राज्यों महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के क्षेत्रफल (कुल 8,000 अरब वर्ग फुट) जितनी जगह! अब थोड़ी और गणना। चूँकि अमूमन इंसान अकेला घर पर नहीं रहता, परिवार में रहता है, यह मान लें कि चार-चार व्यक्तियों का परिवार है तो फिर उसी क्षेत्रफल में एक-एक परिवार को करीब 5,000 वर्ग फीट जगह मिलेगी, यानी एक बड़ा घर सारी सुविधाओं समेत, सामने फूलों का बग़ीचा, पीछे सब्ज़ी की क्यारियाँ, शायद थोड़ी खेती भी, एकाध मवेशी बाँधने/चराने की जगह भी निकल आयेगी। सोचिये, सारी दुनिया की आबादी महज़ दो राज्यों के बराबर क्षेत्रफल में समा सकती है। हालाँकि यहाँ यह मान लिया गया है कि वह सपाट ज़मीन होगी – नदी, नाला, टीला, पहाड़, जंगल, कुछ नहीं, पर फिर भी बाकी पूरी धरती ख़ाली! लगता है जगह की तो कोई कमी नहीं है।
आइये, अब खाद्यान्न पर चलते हैं – जिसके बारे में माल्थस से लेकर पीढ़ी-दर-पीढी चिन्तित होती आयी है। अभी हाल ही में सन् 2007 में पूरी दुनिया में भीषण खाद्यान्न संकट आन पड़ा था। विशेषज्ञों का मानना है कि वर्तमान में दुनिया के करीब एक अरब लोग भूखे सोते हैं, यानी हर छठे या सातवें व्यक्ति को ज़रूरत से कम खाना मिल पाता है। यह वाकई गम्भीर समस्या है। आइये, थोड़ी और गहराई से जाँच करें। खाद्य पदार्थ कई तरह के होते हैं, जैसे कि गल्ला, दालें, साग, सब्ज़ी, फल, बादाम, जड़े, मांस, मछली, आदि। मांस हमें उन जानवरों से मिलता है, जो या तो घास चरते हैं या फिर गल्ला खाते हैं। पर ग़ौर करने वाली बात यह है कि करीब एक किलो मुर्गी के मांस के उत्पादन के लिए दो किलो गल्ले की खपत होती है, इसी तरह एक किलो सुअर के मांस के लिए 3.5 किलो, भेड़ या बकरी के मांस के लिए 1.8 किलो (क्योंकि वह ज़्यादातर घास खाती है और तीसरी दुनिया के देशों में पलती है) और बड़े जानवरों के लिए 5 किलो गल्ले की खपत होती है। सम्पन्न देशों में ज़्यादा मांस खाया जाता है, बल्कि वहाँ मांस की खपत को सम्पन्नता का मानक माना जाता है। जैसा कि अन्दाजा लगाया जा सकता है कि मांस की खपत कम होने पर ज़्यादा गल्ला इंसानों के आहार के लिए उपलब्ध होगा। पर इन हिसाबों में अगर न भी जायें, तो भी जितना गल्ला उपलब्ध होता है, उसे अगर पूरी दुनिया में सभी में बराबर बाँट दिया जाये, तो हर व्यक्ति के हिस्से (प्रतिदिन के हिसाब में) तकरीबन 3,000 से 4,000 कैलोरी सिर्फ गल्ला से आयेगी। इसमें फल, सब्ज़ी, मांस, दूध, अण्डा, मछली आदि को तो जोड़ा भी नहीं। अब आपको यह बता दें कि विशेषज्ञों के अनुसार, एक स्वस्थ वयस्क इंसान को दिन में तकरीबन 2,200 से 2,400 कैलोरी तक खाद्य की ज़रूरत होती है। यानी उपलब्ध गल्ले का महज़ आधा या दो-तिहाई ¹कोई व्यक्ति अगर उत्पादन को बराबर बाँटने पर जितना उपलब्ध (3,500 कैलोरी) हो उतना ही खा लें, तो जल्द ही उसे मोटापे की शिकायत हो जायेगी (वर्ल्ड हंगर: ट्वेल्व मिथ्स)। ग़ौर करने की बात है कि जहाँ दुनिया में एक अरब लोग आधे पेट खाकर सोते हैं, वहीं तकरीबन उतने ही लोग अधिक मोटापे (ओबेसिटी) की बीमारी से ग्रस्त हैं।
चलिये, यह बात तो साबित हुई कि ऊपरी तौर पर खाद्यान्न उत्पादन में कोई कमी नहीं है। पर पर्याप्त से कहीं ज़्यादा उपलब्ध होने के बावजूद दुनिया में इतनी भुखमरी क्यों है? ख़ैर, यह एक अलग सवाल है – बहुत ही प्रासंगिक, पर यहाँ उस पर बात करने की गुंजाइश नहीं है।
अब यह जानने की कोशिश करते हैं कि आखि़र ग़रीब परिवारों में ही ज़्यादा बच्चे क्यों होते हैं? सुनने में आया है कि हमारे मौजूदा स्वास्थ्य मन्त्री का मानना है कि बच्चे जनना या उसकी बुनियादी प्रक्रिया में शामिल होना ग़रीब जनता के लिए मनोरंजन का एक सस्ता और उत्तेजक साधन है। एक संवेदनशील प्रगतिवादी नेता होने के कारण उन्होंने इस पर काबू पाने का एक अभिनव तरीका ढूँढ़ लिया है – गाँव-गाँव में बिजली। लोग देर रात तक टीवी का आनन्द उठायेंगे और फिर चैन की नींद सो जायेंगे तो मसला जड़ से सुलझ जायेगा। वाह री कल्पना-शक्ति की उड़ान! बिजली के बड़े सारे उपयोग सुने हैं, पर यह तो लीक से मीलों हटकर है। माननीय स्वास्थ्य मन्त्री पुरुष हैं, सौभाग्यवश वह कभी माँ नहीं बन सकते, इसलिए बच्चा पैदा करने का सबसे आसान विकल्प उनके लिए मनोरंजन हो सकता है। पर जिस माँ ने एक भी बच्चा अपने गर्भ में धारण किया है, नौ महीने तक तिल-तिल कर उसका पोषण किया है, प्रसव पीड़ा सही है और फिर अपने ख़ून को दुग्ध सुधा के रूप में बच्चे के नन्हे भूखे हलक में उतारा है, वह उसे महज़ मनोरंजन नहीं मान सकती। और मैं तो उन माँओं की बात कर रही हूँ, जो अक्सर अपना पहला बच्चा सोलह-सत्रह साल की कच्ची उम्र में जनती हैं और फिर जनती चली जाती हैं, साल-दर-साल। कुपोषित देह, ख़ून की भीषण कमी, यह तो हमारे-जैसे देश में माँओं के लिए आम बात है। गर्भ में शिशु पलने के बावजूद जहाँ पर वह माँ सबसे आखिर में परिवार का बचा-खुचा निगलती है और उस बेस्वाद निवाले से भी सारी पौष्टिकता उसके गर्भ में पलनेवाला कुल का चिराग अपने हिस्से कर लेता है। जन्म के बाद भी वह बच्चा अपनी माँ की सूखी छातियों को चूसकर मानो उसकी रही-सही जीवन-शक्ति ही निचोड़ लेता है। मातृत्व का वह काव्यात्मक रूप, जिसे हमने कविताओं, कहानियों और चित्रें में जाना है, इस प्रक्रिया में कहीं नज़र नहीं आता। बल्कि गहराई में जाने पर यह समझ बनती है कि साल-दर-साल बच्चे जनना तो एक गम्भीर राजनीतिक मसला है – वह है हमारे समाज में स्त्री-पुरूष के अधिकारों में मौलिक असमानता।
एक स्त्री का अपने शरीर पर कोई अधिकार नहीं। हमारे-जैसे पिछड़े समाज में वह भोग्य-वस्तु है, इस्तेमाल की वस्तु है और उसका इस्तेमाल इस पुरुष शासित समाज के नियमों के आधार पर होता है। हाँ शिक्षा का अभाव भी उसमें निर्णायक भूमिका अदा करता है, जोकि स्त्री-पुरुष दोनों पर लागू होता है। दुनिया में जब और जहाँ-जहाँ नारी को समान दर्जा और सबको उचित शिक्षा पाने का अवसर मिला है, वहाँ इस तरह का शोषण लगभग समाप्त हो गया है। पर क्या सिर्फ यह शिक्षा की कमी है, जो हरेक परिवार में इतने सारे बच्चे जनने के कारण है? नहीं, हमारा मानना है कि इसका ठोस आर्थिक आधार भी है, आइये देखते हैं।
सुना है सारी जीव-जातियों में शायद एक इंसान का बच्चा ही है, जिसकी सालों तक देखभाल करनी पड़ती है। मध्यम वर्ग, अमीर वर्ग में तो ‘’बच्चे’‘ बड़े ही नहीं होते, युवावस्था तक वे अपने माँ-बाप और परिजनों से सहारे की उम्मीद रखते हैं। अपने हाथ-पाँव चलाकर कुछ कर दिखाने की जगह वह विरासत में मिली सम्पत्ति या जान-पहचान से मिली नौकरी पर ज़्यादा भरोसा रखते हैं। बल्कि इसे अपनी शान समझते हैं – ‘‘मैं टाटा का भतीजा हूँ’‘, ‘‘मैं बिड़ला का भांजा हूँ’‘, ‘‘मैं फलाँ ख़ानदान का हूँ’‘, ‘‘मैं ब्राह्मण हूँ’‘, आदि-आदि। ये सारे कुलदीपक सही मायने में एक भारी बोझ हैं, जिन्हें समाज सदियों से ढो रहा है। पर ग़रीब तबके का बच्चा तो अपनी पहली साँस लेने के पहले से ही जिन्दा रहने की जद्दोजहद में फँस जाता है। कुपोषित, कमज़ोर माँओं के ज़्यादातर बच्चे भी कुपोषित होते हैं। ह्यूमन डेवलपमेण्ट रिपोर्ट 2009 के अनुसार भारत में 47 प्रतिशत बच्चे, यानी हर दूसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है। भारत में हर साल पाँच साल से कम उम्र के 23.5 लाख बच्चे मर जाते हैं। यहाँ हर 15 सेकेण्ड में एक बच्चे की मौत हो जाती है। चार लाख से ज़्यादा बच्चे तो जन्म के 24 घण्टे के भीतर बिल्कुल साधारण बीमारियों (डायरिया, निमोनिया) के चलते मर जाते हैं। मतलब यह कि ग़रीब तबके के माँ-बाप को इस बात का कोई भरोसा नहीं कि उनके कितने बच्चे वयस्क होने तक बच पायेंगे। छः साल की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते ग़रीब परिवार का बच्चा परिवार की आमदनी में योगदान करना शुरू कर देता है। और महज़ 12 साल की उम्र या उससे भी कम में पारिवारिक आय में उसका योगदान, जितना उस पर ख़र्च होता है उससे ज़्यादा होता है। इसका तात्पर्य यह है कि बच्चा एक मुँह नहीं बल्कि दो हाथ होता है परिवार के लिए। अब आप ही बताइये कि असंगठित मज़दूरों पर अर्जुन सेनगुप्ता की अध्यक्षता में बनी सरकारी कमिटी के अनुसार अगर 78 प्रतिशत भारतीयों को 20 रुपये या फिर उससे भी कम में गुज़ारा करना पड़ता है, तो फिर सिर्फ दिन में दो जून खाना जुटाने के लिए ही परिवार के 7-8 लोगों को रोज़गार में जुटना पड़ेगा या नहीं? आखि़र चावल, आटा, चीनी, दाल, नमक, तेल, आलू, प्याज़ आदि के दाम पिछले कुछ सालों में आसमान को भी चीरकर मानो किसी और नक्षत्र तक पहुँच चुके हैं। इसके अलावा कपड़ा, मकान और चीज़ें भी तो चाहिए। इसमें बीमार पड़ना विलासिता है, जो कि छः साल के बच्चे के लिए भी वर्जित है। इतिहास के पन्ने पलटकर देखें, तो समझ बनती है कि आज के विकसित देशों में भी सौ-सवा सौ साल पहले तक परिवारों में औसतन दर्जनों बच्चे होते थे। पर जैसे-जैसे आधुनिक चिकित्सा में विकास के चलते मृत्युदर में गुणात्मक कमी आयी और उसके साथ-साथ मज़दूर आन्दोलनों की बदौलत पगार बढ़ी और काम के घण्टों और परिवेश पर कानूनी नियन्त्रण लागू हुए, परिवार छोटे होते गये। सदी की शुरुआत आते-आते कई यूरोपीय देशों में सरकारी सोशल सिक्योरिटी (सामाजिक सुरक्षा) की व्यवस्था हो जाने पर लोगों को स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास और बेरोज़गारी भत्ता-जैसी बुनियादी ज़रूरतें अधिकार के तौर पर मिलने लगीं और परिवार छोटे और ख़ुशहाल नज़र आने लगे। दूर जाने की ज़रूरत नहीं, हमारे ही देश के केरल राज्य को ले लीजिये। आबादी के घनत्व (एक वर्ग किलोमीटर में बसने वाली औसत आबादी) के हिसाब से यह प्रदेश देश के औसत तकरीबन तीन गुना ज़्यादा बैठता है। पर बेहतर स्वास्थ्य सुविधा, शिक्षा की सुविधा और कारगर खाद्यान्न सबसिडी के चलते यहाँ बच्चों की मृत्युदर देश के औसत से आधा है। यहाँ स्त्री शिक्षा की दर देश के औसत से तकरीबन दो गुणा ज़्यादा है (केरल में 87 प्रतिशत औरतें शिक्षित हैं)। और, शायद इसी के चलते यहाँ जन्मदर राष्ट्रीय औसत की एक-तिहाई है, जोकि अमेरिका-जैसे देश से थोड़ी ही ज़्यादा है। अब जिस इंग्लैण्ड को देखकर माल्थस साहब शंकित हो गये थे, उसकी आबादी माल्थस साहब के समय करीब 83 लाख थी। आज इंग्लैण्ड की आबादी करीब 512 लाख है, यानी माल्थस साहब के समय से साढ़े छः गुना ज़्यादा। पर क्या आज कोई इंग्लैण्ड के बारे में वह शंका जतायेगा, जो कि आज से दो सौ साल पहले जतायी गयी थी? कदापि नहीं। फिर से यह बात साबित होती है कि महज़ बढ़ती आबादी ही ग़रीबी और बदहाली-जैसी समस्याओं का मुख्य कारण नहीं है।
अच्छा चलिये, अब यह पता लगाते हैं कि एक इज़्ज़तदार आरामदायक जिन्दगी बसर करने के लिए कौन-कौन-सी बुनियादी ज़रूरतें हैं और उन्हें सबको मुहैया करवाने में कितना ख़र्च आयेगा? मेरे हिसाब से आम सहमति इस पर बनेगी कि सभी को एक न्यूनतम स्तर तक की शिक्षा मिलनी चाहिए, पीने और अन्य दैनिक कार्य के लिए स्वच्छ पानी और साफ-सुथरा परिवेश, सभी को पर्याप्त पोषण और स्वास्थ्य सुविधा और चूँकि प्रजाति को बनाये रखने और मानव जाति की सर्वांगीण प्रगति के लिए आने वाली पीढ़ी का स्वस्थ होना सर्वोत्तम महत्त्व रखता है, प्रजनन और मातृत्व सहायक चिकित्सा की सुविधा सबको अधिकार के रूप में मिलनी चाहिए। पर इसमें तो बहुत ख़र्च आयेगा! ज़ाहिर है पूरी दुनिया की आबादी की बात हो रही है। यूएनपीडी ने 1998 की अपनी रिपोर्ट में इस ख़र्च का एक मोटा-मोटा अन्दाज़ा लगाया है। उन्होंने तमाम शोध के ज़रिये इस बात का अनुमान लगाया है कि इन सुविधाओं पर वर्तमान में हो रहे ख़र्च से कितना अधिक ख़र्च करने पर सबको ये बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध करवायी जा सकती हैं।
तालिका-2
दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति को बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध करवाने पर अतिरिक्त ख़र्च
प्राथमिक सुविधाएँ अतिरिक्त ख़र्च
सभी के लिए बुनियादी शिक्षा 6 अरब डॉलर
पीने का पानी औैर साफ-सुथरा परिवेश 9 अरब डॉलर
बनाये रखने के लिए
बुनियादी स्वास्थ्य और पर्याप्त पोषण 13 अरब डॉलर
महिलाओं के लिए प्रजनन सम्बन्धी स्वास्थ्य सुविधा 12 अरब डॉलर
यह कुल 40 अरब डॉलर
(स्रोत: ह्युमन डेवलपमेण्ट रिपोर्ट 1998, ओवरव्यू)
जैसा कि तालिका-2 से समझ बनती है कि बुनियादी ज़रूरतें पूरी करने के लिए 40 अरब डॉलर की विशाल राशि ख़र्च करनी पड़ेगी। यह वाकई एक बड़ी राशि है। यह आयेगी कहाँ से? तिस पर ये आँकड़े 1995 के दामों के आधार पर आँके गये हैं। ज़ाहिर है इन 15 सालों में वह कुछ और बढ़ गयी होगी। देखते हैं, दुनिया में हो रहे तमाम ज़रूरी-ग़ैरज़रूरी ख़र्चों में से कुछ कटौती करके इन बुनियादी ज़रूरतों को पूरा किया जा सकता है या नहीं? नीचे दिये गये तालिका-3 में कुछ विशेष मदों के साथ उन पर सालाना व्यय का विवरण दिया गया है। यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि ये आँकड़े भी 1995 के हैं और इनमें तो पिछले दशक में ग़जब की बढ़ोत्तरी हुई है।
तालिका-3
कुछ विशेष मदों पर सालाना व्यय का विवरण
मद सालाना व्यय
अमेरिका में सौन्दर्यवर्धक सामग्री पर ख़र्च 8 अरब डॉलर
यूरोप में आइसक्रीम पर ख़र्च 11 अरब डॉलर
अमेरिका तथा यूरोप में इत्र/परफ्यूम पर ख़र्च 12 अरब डॉलर
यूरोप तथा अमेरिका में पालतू जानवर के खाद्य पर ख़र्च 17 अरब डॉलर
जापान में व्यावसायिक मनोरंजन पर ख़र्च 35 अरब डॅालर
यूरोप में सिगरेट पर ख़र्च 50 अरब डॉलर
दुनियाभर में नशीले पेय पर ख़र्च 400 अरब डॉलर
दुनियाभर में सैन्यबल तथा अस्त्र-शस्त्र पर ख़र्च (2009) 1300 अरब डॉलर
हाल में आयी मन्दी से उबरने के लिए अमेरिकी सरकार 700 अरब डॉलर
द्वारा बेल आउट पैकेज (2009)
संवेदी सूचकांक के भीषण रूप से गिर जाने पर और 970 अरब डॉलर
मन्दी के कारण हुआ नुकसान (2009)
यूरोप में शराब पर ख़र्च 105 अरब डॉलर
(स्रोत: ह्युमन डेवलपमेण्ट रिपोर्ट 1998, ओवरव्यू)
दब गयी न दाँतों तले उँगली? अब आप सर खुजला रहे होंगे कि इतनी-इतनी ‘’गम्भीर’‘ ज़रूरतों के रहते आम आबादी की शिक्षा, स्वास्थ्य, पीने का पानी-जैसी मामूली ज़रूरतों के लिए कैसे पैसे निकलेंगे? अब अगर हम सौन्दर्यवर्धक सामग्री को छोड़ दें, या फिर आइसक्रीम खाने की ललक को बने रहने दें, पालतू जानवर की खुराक पर हस्तक्षेप न भी करें, तब भी महज़ यूरोप में सिगरेट पर सालाना ख़र्च से बुनियादी सारी ज़रूरतें दुनियाभर में उपलब्ध करवायी जा सकती हैं। अगर विकसित देशों में शराब के बिना काम चले, तो इन सबके साथ सबके लिए पर्याप्त आवास भी बन सकता है। मादक पेय के सेवन में महज़ 10 प्रतिशत कटौती करने पर सारी बुनियादी सुविधाएँ सबको उपलब्ध करवायी जा सकती हैं। है न ताज्जुब की बात! अच्छा छोड़िये, भोग-विलास की वस्तुओं को अगर छोड़ भी दिया जाये, तो दुनियाभर में जहाँ सबसे ज़्यादा ख़र्च होता है, वह सैन्य बल और अस्त्र-शस्त्र में। वर्तमान में करीबन 13 खरब डॉलर सिर्फ मरने-मारने पर ख़र्च हो जाता है। वह भी सरकारी ख़र्च। आम लोगों के ख़ून-पसीने से उपजा पैसा। इसमें निजी ग़ैर-सरकारी अस्त्र, बल तो अभी शामिल ही नहीं। इस रकम का अगर सिर्फ तीन प्रतिशत ख़र्च किया जाये, तो दुनिया की पूरी मौजूदा आबादी तमाम बुनियादी सुविधाओं के साथ जी पायेगी। क्या यह एक नाजायज़ कटौती है? और क्या पता जीवन-स्तर बेहतर होने पर शायद इतनी बड़ी तादाद में मरने-मारने की ज़रूरत ही ख़त्म हो जाये।
आइये एक और विशाल ख़र्च – शेयर बाज़ार, का भी थोड़ा विश्लेषण करें। ज़्यादा गहराई में न जाते हुए बस यह समझें कि शेयर बाज़ार की सट्टेबाज़ी के चलते पिछले साल दुनिया की अर्थव्यवस्था में हज़ारों अरब रुपयों का नुकसान हुआ, करोड़ों लोग बेघर हो गये, दसियों लाख की नौकरी चली गयी, सैकड़ों साल पुराने बैंक ढह गये, दसियों करोड़ लोगों की जीवनभर की पूँजी साफ हो गयी। दुनियाभर में आर्थिक मन्दी का यह विकराल प्रकोप किसी विश्वयुद्ध से कम विनाशकारी न था। अब आप ही बताइये कि ख़र्च की सूची क्या साफ-साफ यह नहीं दर्शाती कि दुनिया के कर्णधारों की प्राथमिकताओं में ग़रीबी, अशिक्षा, कुपोषण, ख़राब स्वास्थ्य, बेरोज़गारी, बदहाली-जैसी समस्याएँ हैं ही नहीं। मुँह से यह प्रतापी तबका चाहे कुछ भी बोले, उसकी कथनी और करनी में खाई काफी चौड़ी है। शायद इसीलिए जब-जब ग़रीब बहुजन इनके खिलाफ थोड़ी-सी भी आवाज़ उठाते हैं, या रत्तीभर भी जवाबदेही की उम्मीद करते हैं, ताकतवर लोग उनको कुचलने का कार्यक्रम बनाते हैं। इराक- अफगानिस्तान के युद्ध में अमेरिका ने अब तक 7,000 लाख डॉलर ख़र्च कर दिया और तमाम आश्वासनों के बाद भी वहीं जमा हुआ है। ग़रीबी हटाने की बजाय अरबों रुपये और डॉलर ग़रीबों को हटाने में लगा देते हैं, पर दुनिया में असमानता की गहरी खाई रत्तीभर भी नहीं भरती, बल्कि और विकराल होती जाती है। आप ही बताइये, थोड़ा खून-ख़राबा कम करने का प्रयास और बस थोड़ा ही सट्टेबाज़ी कम करने का आग्रह, क्या एक नाजायज़ माँग है? जवाब देने से पहले उस जन्म लेते ही मौत की तैयारी करने वाले बच्चे का चेहरा याद कर लीजिये, शायद जवाब देना फिर उतना मुश्किल न हो।
इतने सारे तर्कों के आधार पर क्या हम यह निष्कर्ष निकालें कि आबादी समस्या है ही नहीं? आइये, सफर के इस आखि़री पड़ाव में इस पर भी चर्चा करते हैं। सबसे पहले हम यह समझ बनाये कि आबादी बढ़ती क्यों है? जन्मदर के बारे में हम लोगों ने पर्याप्त चर्चा की है, पर उसके अलावा मृत्युदर में भी कमी, या फिर दूसरी तरह कहें तो औसत सम्भावित आयु में वृद्धि से भी आबादी बढ़ती है। लोग ज़्यादातर लम्बी आयु तक जीवित रहेंगे, तो ज़ाहिर है कि आबादी स्वतः बढ़ेगी। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि 1950-55 में दुनियाभर का औसत सम्भावित जीवन-काल तकरीबन 46 साल हुआ करता था। एक अर्धशताब्दी के अन्तराल में ही यह 20 साल बढ़कर 2000-2005 में 65 साल हो गया। विकसित देशों में तो औसत सम्भावित आयु 80 साल को छू रही है; विकासशील देशों में भी वह करीबन 63-65 वर्ष है। इसके मुकाबले 1850 के आसपास इंग्लैण्ड की सूती मिलों के गढ़ लंकाशायर में औसत मृत्यु की उम्र महज़ 17 साल हुआ करती थी (पूँजी, खण्ड 1)। दुनिया की आबादी में सालाना बढ़ोत्तरी की दर पिछले चालीस-पैंतालीस सालों में लगातार घटी है। 1965 में सालाना आबादी में बढ़ोतरी की दर तकरीबन 2.1 प्रतिशत थी, जो घटकर महज़ 1.14 प्रतिशत रह गयी है। भारत में यह दर सन् 1986 में 2.16 प्रतिशत हुआ करती थी, जो घटकर सन् 2008 में 1.34 प्रतिशत हो गयी (वर्ल्ड बैंक डेवलपमेण्ट इण्डीकेटर्स)। यानी आबादी बढ़ने का मुख्य कारण यह नहीं है कि हम लोग बेलगाम खरगोशों की तरह झुण्ड-के-झुण्ड बच्चे जनते जा रहे हैं, बल्कि शायद कीड़े-मकोड़े या मक्खियों की तरह बेमौत मर नहीं रहे हैं। किसी भी समूह के लिए यह एक शानदार उपलब्धि है, एक अपार ख़ुशी और गर्व की बात! पर ताज्जुब की बात है कि हमारी सरकार, नीति बनाने वाले विशेषज्ञ, अमीर तबका, बुद्धिजीवी वर्ग और काफी संख्या में मध्यमवर्गीय लोग भी इसका मातम मना रहे हैं। क्या वह इस बात से उल्लासित नहीं हैं कि जहाँ हमारे दादा-नाना, 40-42 साल में ही मृत्यु की तैयारी में जुट जाते थे, वहीं आज ज़्यादातर लोग 65-70 वर्ष तक तत्पर और पूर्णतः परिपूर्ण जीवन जीने की सम्भावना रखते हैं?
हमारा मानना है कि इन समझदारों को आबादी से जुड़ी आसन्न एक और विकराल समस्या पर ग़ौर करना चाहिए। किसी भी समाज का सबसे महत्त्वपूर्ण संसाधन, मानव संसाधन है – स्वस्थ, सबल बच्चे और युवा वर्ग। अब यह गहन चिन्ता की बात है कि दुनिया के कई देशों में जन्मदर इतनी भी नहीं है कि आबादी आज के स्तर तक भी बनी रहे। रूस, जर्मनी, चेक रिपलिब्क, पोलैण्ड, इटली, जापान और आस्ट्रिया-जैसे देशों में तो आबादी की बढ़ोत्तरी दर शुन्य से कम है – यानी उनकी आबादी क्रमशः घटती जा रही है। विशेषज्ञों का मानना है कि दुनिया की आबादी, जो आज तकरीबन 6.5 अरब है, सन् 2040 तक तो रेंगती हुई बढ़ेगी और करीब 7.6 अरब तक पहुँच जायेगी, उसके बाद साल-दर-साल घटेगी और इक्कीसवीं सदी के अन्त तक वह घटकर पाँच अरब रह जायेगी। पर चिन्ता पर विषय यह है कि उस आबादी में बच्चे और युवा वर्ग के लोगों का अनुपात आज के मुकाबले कहीं कम होगा। आज भी कई विकसित देशों में आबादी की औसत उम्र 35 से 50 वर्ष है, पर इस सदी के अन्त तक बहुसंख्यक लोग 65 या उससे ज़्यादा उम्र के होंगे। और यह हाल सिर्फ यूरोप, अमेरिका में ही नहीं, बल्कि चीन, भारत और अफ्रीकी देशों में भी होगा। क्या आप कल्पना कर सकते हैं इस भीषण विभीषिका का, जहाँ बच्चों की किलकारियाँ, युवाओं का अदम्य उत्साह बहुसंख्यक बुजुर्गों की कराह के नीचे दब जायेगी? कहाँ से आयेंगी नयी सम्भावनाएँ, नयी ऊर्जा, नये विचार, नये प्रयोग? किसी भी प्रजाति के लिए यह एक भीषण संकट का विषय है। विशेषज्ञ इस आसन्न परिस्थिति को आबादी का असली संकट (the real demographic crisis) मानते हैं। किसी ने ठीक ही कहा था कि बीमारी की सही डॉयगनोसीस (यानी पहचान) करने से ही हम उसका सही उपचार कर सकते हैं। यह पहला और उचित कदम लिये बिना उपचार करना, अन्धे के हाथ में छुरी पकड़ाने के बराबर है – मरीज की गर्दन भी कट सकती है। अब यह हम सब पर है कि हम अपनी सारी ऊर्जा, उद्यम इस बात पर लगायें कि हमारे सबसे अनमोल संसाधन – मानव, उसकी जिन्दगी कैसे और ख़ुशहाल बनायें, उनकी बुनियादी ज़रूरतें मूल अधिकार-स्वरूप कैसे उपलब्ध करायें, ताकि हर बच्चा, बूढ़ा और युवा, नर-नारी, सभी अपनी सृजनशक्ति का भरपूर इस्तेमाल कर सकें और तमाम सम्भावनाएँ चारों तरफ विकसित हो पायें। या फिर एक विक्षिप्त शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सर छुपाये इन सम्भावनाओं की निर्मम हत्या करने की योजना बनायें? फैसला आप पर है, मुझ पर है, हम सब पर है। इतिहास के पन्ने पलटते हुए भविष्य की पीढ़ियाँ हमारी कमजोरियों पर हमदर्दी तो जता सकती हैं; हमारी नाकाम, आंशिक कोशिशों से इत्तेफाक रख सकती हैं; पर हमारी निष्क्रियता या बेईमानी से उठाये गये कदम को माफ नहीं करेंगी, कभी नहीं।
सन्दर्भ सूची
1. एफ.एम. लाप्पे, जोसेफ कॉलिंस, पीटर रोसेट और लुईस एस्परजा, 1998, वर्ल्ड हंगरः टवेल्व मिथ्स, ग्रोव प्रेस, न्यूयॉर्क
2. कार्ल मार्क्स, पूँजी खण्ड 1
3. थामस माल्थस, 1798, एन एसे ऑन प्रिंसिपल ऑफ़ पापुलेशन
4. स्टीवेन मोशर, 2008, पॉपुलेशन कण्ट्रोल रीयल कॉस्ट्स, इल्यूजरी बेनेफिट्स ट्रांजैक्शन पब्लिशर्स
5. ह्यूमन डेवलपमेण्ट रिपोर्ट, 1998, ओवरव्यू: चेंजिग टुडेज़ कंज़म्प्शन पैटर्न्स फॉर टुमारोज़़
6. ह्यूमन डेवलपमेण्ट रिपोर्ट, 2009
(साभार – वैकल्पिक आर्थिक सर्वे, 2009-2010)
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,नवम्बर-दिसम्बर 2010
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