अलीगढ़ मुस्लिम वि.वि. में छात्र संघ बहाली के लिए, छात्रों का जुझारू संघर्ष

शिवार्थ

पिछले करीब डेढ़ महीने से अलीगढ़ मुस्लिम वि.वि. में हज़ारों की संख्या में छात्र, छात्र संघ की बहाली के लिए संघर्षरत हैं। इसकी शुरुआत 4 अक्टूबर को वी.सी. लॉज के सामने छात्रों के धरने के साथ हुई। यह धरना मुख्यतः दो माँगों को लेकर आयोजित किया गया था – पहला छात्र संघ बहाल करने की माँग और दूसरा डीन, वित्त अधिकारी और प्रवोस्ट की बर्खास्‍तगी की माँग। धरने के तीन दिन बाद ही कुलपति से छात्रों के प्रतिनिधिमण्डल की वार्ता हुई। यह वार्ता कुलपति के तानाशाही रवैये के कारण बेनतीजा साबित हुई। इसके बाद छात्रों ने आम सहमति से संघर्ष को और तेज़ करने के लिए 12 अक्टूबर से अनियतकालीन भूख हड़ताल की शुरुआत कर दी। भूख हड़ताल के जारी रहने के बावजूद कुलपति और वि.वि. प्रशासन के कान पर जूँ तक नहीं रेंगी, उल्टे वे संघर्षरत छात्रों पर शान्ति भंग करने की तोहमत मढ़ने लगे। इसी बीच 18 अक्टूबर को भूख हड़ताल पर बैठे छात्र अदिल की तबीयत काफी ख़राब हो गयी और विषम परिस्थितियों में उन्हें भूख हड़ताल तोड़नी पड़ी। इसके बाद भी छात्रों द्वारा करीब 30 अक्टूबर तक भूख हड़ताल जारी रखी गयी, पर वि.वि. प्रशासन टस से मस न हुआ। इसी दौरान 20-30 अक्टूबर के बीच विभिन्न हॉस्टलों के छात्रों ने मेस के खाने का सामूहिक बहिष्कार करके, संघर्ष में अपनी भागीदारी दर्ज करायी। 24 अक्टूबर को धरना-स्थल पर ही केन्द्रीय मानव संसाधन मन्त्री कपिल सिब्बल का पुतला फूँककर केन्द्र सरकार तक अपनी बात पहुँचाने का प्रयास किया गया।

धरना-स्थल पर वैसे तो छात्रों का दिनभर आना-जाना लगा रहता है, लेकिन रोज़़ शाम को सभा का आयोजन किया जाता है और आगामी कार्यक्रम तय किया जाता है। यह रिपोर्ट लिखे जाने तक धरना-प्रदर्शन जारी है और विश्वविद्यालय प्रशासन का अड़ियल रुख़ भी। इतना ज़रूर है कि छात्रों की एकता को फौरी तौर पर भंग करने के लिए प्रशासन छात्रों के सामने यह लुकमा फेंक रहा है कि अगर छात्र धरना समाप्त कर दें तो छात्र संघ चुनाव जनवरी माह के अन्त में करा दिये जायेंगे। अब यह कोई मूर्ख भी समझ सकता है कि सत्र के अन्त में चुनाव कराकर वि.वि. प्रशासन क्या हासिल करना चाहता है! और फिर यह आश्वासन पूरा हो, इसकी भी कोई गारण्टी नहीं है। फिलहाल छात्रों और प्रशासन के बीच तनातनी कायम है। अलीगढ़ मुस्लिम वि.वि. के छात्रों के इस संघर्ष में ‘दिशा छात्र संगठन’ और ‘जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी स्टूडेण्ट्स यूनियन’ (जे.न.यू.एस.यू.) ने अपना पूर्ण समर्थन व्यक्त किया है और ख़ुद विश्वविद्यालय पहुँचकर छात्रों को सम्बोधित भी किया।

दरअसल ए.एम.यू. में यह संघर्ष पिछले तीन सालों से लगातार किसी न किसी रूप में जारी रहा है। 2007 में मनमाने तरीके से कुलपति मान्यवर पी.के. अब्दुल अज़ीज द्वारा छात्र संघ बर्खास्‍त कर दिया गया था और तब से इसकी बहाली के लिए छात्र किसी न किसी रूप में संघर्ष कर रहे हैं। इसी संघर्ष की कड़ी में नवम्बर, 2009 में इन छात्रों द्वारा दिल्ली के जन्तर-मन्तर पर धरना, प्रदर्शन व भूख हड़ताल किये गये थे और अपनी माँगों को लेकर छात्रों का एक प्रतिनिधिमण्डल केन्द्रीय मन्त्री श्रीमान ऑस्कर फर्नाण्डीस से भी मिला था।

अगर इस समय पूरे हिन्दुस्तान के विभिन्न विश्वविद्यालयों की स्थिति पर नज़र डाली जाये तो उत्तर भारत के ज़्यादातर केन्द्रीय एवं राज्य स्तर के विश्वविद्यालयों में छात्र संघ को बर्खास्‍त कर दिया गया है और छात्र संघ चुनाव नहीं कराये जा रहे हैं। मिसाल के तौर पर बी.एच.यू. में 1997 से, इलाहाबाद वि.वि. में 2003 से, लखनऊ वि.वि. में 2005 से, गोरख़पुर वि.वि. में 2006 से छात्र संघ बर्खास्‍त है। सभी जगह वि.वि. प्रशासन द्वारा एक ही कारण सुझाया गया है कि छात्र संघ अपराधियों और गुण्डों का अड्डा बन गया था और छात्र राजनीति वि.वि. के अकादमिक माहौल को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रही है। इस तर्क से चला जाये, तो देश की सरकार को सर्वप्रथम देश की संसद और विधानसभाओं को बर्खास्‍त करना चाहिए क्योंकि इससे बड़ा अपराधियों का अड्डा और कोई नहीं, और संसदीय और राजकीय चुनाव, देश के सामाजिक सौहार्द को उससे कई गुना अधिक प्रभावित करते हैं जितना कि छात्र संघ के चुनाव। दूसरे, अगर यह तर्क जायज़ होता तो उन जगहों पर जहाँ पर छात्र संघ बहाल हैं, शैक्षणिक माहौल अत्यधिक प्रभावित होना चाहिए। व्यवहार में सापेक्षिक तौर पर दिल्ली वि.वि., कलकत्ता वि.वि., जादवपुर वि.वि. इत्यादि में जहाँ छात्र संघ फिलहाल कार्यरत हैं, शैक्षणिक माहौल उत्तर भारत के ज़्यादातर विश्वविद्यालयों से कहीं बेहतर है। तीसरा और सबसे महत्त्वपूर्ण कि छात्र संघ की बर्खास्‍तगी सीधे-सीधे छात्रों के जनवादी अधिकार पर हमला है। अगर लिंगदोह कमीशन के प्रावधानों से भी चला जाये, तो 2011-12 तक देश के सभी उच्च शिक्षण संस्थानों में छात्र संघ जैसी छात्रों की किसी प्रातिनिधिक निकाय की बहाली हो जानी चाहिए। ऐसा न करना सीधे-सीधे उच्चतम न्यायालय के आदेश की अवहेलना होगा; लेकिन प्रदेश के विश्वविद्यालयों के रुख़ से इसकी सम्भावना न के बराबर लगती है।

दरअसल, छात्र संघ को बर्खास्‍त करने के पीछे की मंशा छात्र राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त करना नहीं, बल्कि छात्रों को राजनीति से ही मुक्त कर देना है। पिछले एक दशक के दौरान पूरे देश के कैम्पसों की संरचना में काफी मूलभूत बदलाव हुए हैं। फीसों को कई गुना बढ़ाकर और सापेक्षिक तौर पर सीटों को घटाकर शिक्षा को पूरी तरह बिकाऊ माल बना दिया गया है। साथ ही छात्रावासों से लेकर पठन-पाठन के लिए ज़रूरी पूरे परिवेश को अत्यधिक महँगा एवं ग़ैर-जनवादी बनाया गया है। सेमेस्टर सिस्टम जैसी व्यवस्था से छात्रों की रचनात्मकता को यथासम्भव कुन्द करने का प्रयास किया जा रहा है। कुल मिलाकर कहा जाये तो उच्च शिक्षण संस्थाओं को बाज़ार के लिए प्रोडक्ट पैदा करने वाले पंसारी की दुकानों में तब्दील कर दिया गया है।

यह प्रक्रिया निर्बाध रूप से जारी रह सके, इसके लिए छात्रों का विराजनीतिकरण करना बहुत ज़रूरी है। छात्र संघ अगर अभी नहीं तो कालान्तर में इसके लिए बाधा उत्पन्न कर सकते थे, इसलिए इन्हें पहले बर्खास्‍त किया जा रहा है और लागू होने की एवज़ में लिंगदोह कमीशन के माध्यम से इन्हें बिल्कुल अप्रभावी बना दिया जायेगा। दूसरे वि.वि. प्रशासन से लेकर व्यवस्था के दूरगामी चिन्तक इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि अगर छात्र संघ पर कोई क्रान्तिकारी शक्ति काबिज़ हो जाती है तो पर्दे के पीछे प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा जारी करोड़ों की लूट और तानाशाही (जिसके दम पर शिक्षकों के मनमाने भर्ती से लेकर विभिन्न गोरखधन्धे किये जाते हैं) पर भी अंकुश लग जायेगा।

अगर हम यहाँ ए.एम.यू. की बात करें तो जुलाई 2007 के बाद से प्रशासन की तानाशाही का आलम यह है कि अब तक प्रॉक्टर द्वारा पूछताछ के लिए 2401 छात्रों को तलब किया जा चुका है। यानी कि करीब 3 छात्र रोज़़ाना। 152 छात्रों को निलम्बित किया जा चुका है। विश्वविद्यालय को कई बार अनिश्चित-अवधि के लिए बन्द किया जा चुका है। इस दौरान भ्रष्टाचार के भी नये कीर्तिमान स्थापित किये गये हैं। कुलपति श्रीमान पी.के. अब्दुल अज़ीज पर विश्वविद्यालय के फण्ड से अपना आयकर चुकाने से लेकर पी.एफ. सम्बन्धी 8 करोड़ रुपये के घोटाले जैसे कई आरोप हैं। इन आरोपों की जाँच करने के लिए केन्द्र सरकार द्वारा एक दो सदस्यीय कमेटी का गठन किया है, जिसकी रिपोर्ट का कोई अता-पता नहीं है। रजिस्ट्रार साहब, जो कि अब्दुल अज़ीज साहब के काफी करीबी माने जाते थे, उन पर भी इसी प्रकार के कई आरोप हैं। कमोबेश यही स्थिति प्रदेश के ज़्यादातर विश्वविद्यालयों की है। ‘आह्नान’ के आगामी अंकों में हम प्रदेश के विभिन्न विश्वविद्यालयों के कच्चे-चिट्ठे उजागर करने का प्रयास करेंगे।

अपनी मूल चर्चा पर वापस लौटते हुए, उपर्युक्त विश्लेषण से हम प्रमुख रूप से दो नतीजे निकाल सकते हैं। पहला यह कि छात्र संघ की बर्खास्‍तगी के पीछे अहम कारण छात्रों की व्यापक आबादी का विराजनीतिकरण करना है, न कि छात्र राजनीति का शुद्धीकरण। दूसरा, जैसा कि ए.एम.यू. में पिछले तीन सालों से जारी संघर्ष से पता लगता है कि बिना किसी सुदृढ़ राजनीतिक एवं सांगठनिक नेतृत्व के संघर्ष को जारी तो रखा जा सकता है, लेकिन किसी मुकाम तक नहीं पहुँचाया जा सकता।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,नवम्‍बर-दिसम्‍बर 2010

 

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