राष्ट्रीय शहरी रोज़गार गारण्टी अभियान का जन्तर-मन्तर पर विशाल प्रदर्शन

‘आह्वान’ के पिछले अंकों में हम पाठकों को दिशा छात्र संगठन, नौजवान भारत सभा, बिगुल मज़दूर दस्ता और स्त्री मुक्ति लीग द्वारा पिछले डेढ़ वर्ष से देश के विभिन्न हिस्सों में चलाए जा रहे ‘राष्ट्रीय शहरी रोज़गार गारण्टी अभियान’ के बारे में अवगत कराते रहे हैं। गत मई दिवस को इन संगठनों ने नई दिल्ली के जन्तर-मन्तर पर शहरी रोज़गार गारण्टी की माँग को लेकर मज़दूरों, छात्रों और नौजवानों का एक विशाल प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन में उत्तर प्रदेश, पंजाब, दिल्ली समेत देश के अलग-अलग हिस्सों से आए हुए मज़दूर, नौजवान, स्त्रियाँ और छात्र शामिल हुए। इस प्रदर्शन के दौरान हुई सभा में देश के अलग-अलग हिस्सों से आए अभियान के प्रतिनिधियों ने भाषण दिये। इसके बाद भारत सरकार के प्रधानमन्त्री को अभियान के संघटक अंगों की तरफ से करीब 30 हज़ार हस्ताक्षरों वाला एक ज्ञापन सौंपा गया जिसमें एक पाँच सूत्रीय माँगपत्रक भी शामिल था।

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इस अभियान के तहत ये संगठन सरकार से माँग करते रहे है कि जिस प्रकार सरकार ने 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़ागर गारण्टी योजना को लागू किया था और यह स्वीकार किया था कि गाँव के बेरोज़गारों को रोज़गार देना सरकार की जिम्मेदारी है और इस बाबत सरकार जवाबदेह है, उसी प्रकार शहरी ग़रीबों और बेरोज़गारों के लिए सरकार को रोज़गार गारण्टी का प्रावधान करना चाहिए। इस बात से सभी वाकिफ हैं कि गाँव के ग़रीबों के लिए लागू रोज़गार गारण्टी योजना का क्या हश्र हो रहा है। इस योजना के तहत इस बजट में लगभग 40,000 करोड़ रुपये का आबंटन किया गया है। लेकिन इससे गाँव का ग़रीब कम खुश है और सरपंच से लेकर, तहसीलदार और ब्लॉक डेवलेपमेण्ट ऑफिसर ज़्यादा! सभी जानते हैं और सरकार भी मानती है कि राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी योजना के तहत आने वाले मद का अधिकांश भ्रष्टाचारियों की जेब में चला जाता है। लेकिन इसके बावजूद यह जनता के संघर्षों का दबाव और उसमें पनप रहे असन्तोष का भय है जिसने शासक वर्गों को कम-से-कम कागज़ी तौर पर यह बात मानने को मजबूर किया कि गाँव के ग़रीबों को रोज़गार देना उनकी जिम्मेदारी है।

यह अभियान यह माँग कर रहा है कि अगर गाँव के ग़रीबों के लिए ऐसी योजना का प्रावधान है जिसमें सरकार रोज़गार देने को अपनी जिम्मेदारी मानती है, तो शहरों के ग़रीबों और बेरोज़गारों के लिए भी सरकार को ऐसी योजना बनानी चाहिए और रोज़गार देने की जिम्मेदारी को स्वीकार करना चाहिए। इस योजना से शहर के ग़रीब और बेरोज़गार कोई मालामाल नहीं हो जाएँगे, लेकिन सरकार के जवाबदेही स्वीकार करने पर उसे रोज़गार देने के लिए बाध्य कर पाना एक हद तक सम्भव हो जाएगा। इसके अतिरिक्त, ऐसी योजना से अगर समस्त शहरी ग़रीब आबादी को नहीं तो उसके एक हिस्से को एक फौरी राहत मिलेगी। इसके अतिरिक्त, इस योजना के तहत रोज़गार न देने पर या भ्रष्टाचार के व्याप्त होने पर इस पूरी पूँजीवादी व्यवस्था की पोल-पट्टी जनता के सामने और अच्छी तरह से खुलेगी। इसलिए शहरी रोज़गार गारण्टी की माँग एक महत्वपूर्ण मध्यवर्ती माँग है।

जन्तर-मन्तर पर हुई सभा का संचालन राष्ट्रीय शहरी रोज़गार गारण्टी अभियान के संयोजक अभिनव ने किया। शुरुआत में बात रखते हुए जागरूक नागरिक मंच के सत्यम ने कहा कि शहरी रोज़गार गारण्टी इस देश के शहरी ग़रीबों और बेरोज़गारों का जन्मसिद्ध अधिकार है। शहरी रोज़गार गारण्टी सम्बन्धी अधिनियम अपने आप में देश के शहरों से ग़रीबी और बेरोज़गारी को दूर नहीं कर सकता है। यह अधिक से अधिक एक फौरी राहत दे सकता है, और वह भी अगर कुछ प्रभावी तरीके से लागू हो तो। लेकिन इस अधिनियम का राजनीतिक महत्व यह है कि यह सरकार की जिम्मेदारी और जवाबदेही को निर्धारित करेगा। इस रूप में यह जनपक्षधर ताक़तों की एक बड़ी विजय होगी। यह एक महत्वपूर्ण मध्यवर्ती माँग है। निश्चित रूप से यह संघर्ष का अन्त नहीं होगा, बल्कि उसका एक मोर्चा फतह करना होगा।

इसके बाद बिगुल मज़दूर दस्ता के अजय ने बात रखी। अजय ने कहा कि राष्ट्रीय शहरी रोज़गार गारण्टी की माँग वास्तव में मज़दूर वर्ग की माँग है।  जाहिर है कि ऐसी किसी भी योजना के तहत सरकार जो काम देगी उसकी प्रकृति वही होगी जिसे मज़दूर कर सकते हैं। ऐसे में हमें इस माँग के लिए विशेष रूप से मज़दूरों को गोलबन्द और संगठित करना होगा। इसका यह अर्थ नहीं है कि देश के शहरों में बेरोज़गार घूम रही करोड़ों की निम्न मध्यवर्गीय युवा आबादी से यह मसला जुड़ा हुआ नहीं है। इस माँग को लेकर हमें शहर की झुग्गी-बस्तियों से लेकर निम्न मध्यवर्गीय कालोनियों तक जाना होगा। अजय ने यह भी कहा कि नरेगा के तहत मज़दूरी के भुगतान में सरकार अपने ही बनाए न्यूनतम मज़दूरी कानून का पालन नहीं कर रही है। हमें नरेगा में न्यूनतम मज़दूरी के भुगतान की माँग करनी चाहिए और साथ ही पहले से ही यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हम शहरी रोज़गार के तहत न्यूनतम मज़दूरी के भुगतान की माँग करें।

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आगे अभियान के संयोजक अभिनव ने बात रखते हुए कहा कि हर तर्क और दृष्टि से शहरी रोज़गार गारण्टी कानून की माँग एक उचित माँग बनती है। अगर सरकारी आँकड़ों को ही उठाकर देखें तो हम पाते हैं कि शहरों में बेरोज़गारी कहीं अधिक रफ्तार से बढ़ रही है और शहरी बेरोज़गार कहीं अधिक अरक्षित हैं। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक शहर में काम करने के योग्य हर 1000 व्यक्तियों पर 337 के पास रोज़गार है। गाँव में यह संख्या 417 है। शहर में बेरोज़गार बढ़ने की दर करीब 10 प्रतिशत है जबकि गाँव में यह दर 7 प्रतिशत के करीब है। शहरों में प्रति वर्ष काम करने वाले 1 करोड़ लोगों की वृद्धि हो रही है। गाँव से इसके विपरीत पलायन हो रहा है। शहर के बेरोज़गार के लिए शहरी ग़रीबी और बेरोज़गारी के झटकों को सोख पाने की कोई प्रणाली नहीं है, जबकि गाँव में असुरक्षा और अव्यवस्था होते हुए भी, शहरों जैसी अनिश्चितता नहीं है। ऐसे में, यदि सरकार गाँव के ग़रीबों और बेरोज़गारों को रोज़गार मुहैया कराना अपनी जिम्मेदारी मान चुकी है, तो शहर के बेरोज़गारों को रोज़गार की गारण्टी देना भी उसकी जिम्मेदारी बनती है।

आगे बात रखते हुए अभिनव ने कहा कि जिस समय शहर के ग़रीबों को ऐसी योजना की ज़रूरत है, उस समय सरकार इसके लिए धन आबंटित करने की बजाय जनता के मेहनत से खड़े सरकारी खज़ाने को कारपोरेट घरानों पर लुटा रही है। इस बार पेश किये गये बजट में शहरी ग़रीबों के लिए तो कोई योजना नहीं पेश की गयी लेकिन कारपोरेट घरानों को करों में छूट, ऋण-मुक्ति और शुल्कों में छूट के रूप में 80,000 करोड़ रुपये की छूट दे दी गयी। धनी किसानों को 900 करोड़ रुपये का पैकेज दिया गया। पूँजीपतियों के लिए अवसंरचना निर्माण के लिए हज़ारों करोड़ रुपयों का प्रावधान किया गया। लेकिन नरेगा के मद में मामूली-सी बढ़ोत्तरी की गयी। साफ जाहिर है सरकार पूरी तरह से पूँजीपतियों की नुमाइन्दगी कर रही है। चुनाव के पाँच साला नौटंकी के वक्त तमाम पार्टियाँ वोट के लिए जनता का गुणगान करते हुए आ जाती हैं। लेकिन पूँजीवादी संसदीय प्रणाली का चुनाव सिर्फ प्रतिनिधित्व का भ्रम पैदा करता है। जनता से इस बात की रज़ामन्दी ली जाती है कि उसे अगले पाँच साल तक लूटा-खसोटा जाएगा और यह काम शासक वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाली कौन-सी पार्टी करेगी। अगर ऐसा न होता तो जनता की जेब को निचोड़कर कारपोरेट घरानों की तिजोरियाँ न भरती यह सरकार।

इसके बाद बादाम मज़दूर यूनियन के संयोजक आशीष ने कहा कि बादाम मज़दूर यूनियन पूरी तरह से इस अभियान के साथ है। जिस उद्योग के मज़दूरों ने यह यूनियन बनाई है वे शहरी ग़रीबों और बेरोज़गारों का दर्द अच्छी तरह से जानते-समझते हैं। बादाम संसाधन के उद्योग में लगी मज़दूर आबादी शहरी ग़रीबों के निम्नतम संस्तरों में से एक पर खड़ी है। आदिम कार्य स्थितियों और आदिम जीवन स्थितियों में रहने को मजबूर इस आबादी के लिए शहरी रोज़गार गारण्टी एक बहुत बड़ा मसला है। ऐसी गारण्टी के जरिये ठेकेदारों और टटपुँजिये मालिकों पर इन मज़दूरों की निर्भरता कम हो जाएगी और वह अपनी आजीविका को विविधता देकर अपनी राजनीतिक ताक़त का बढ़ा पाएँगे। आशीष ने कहा कि दिल्ली के मज़दूरों के पास जीवट की कमी नहीं है और दिसम्बर में बादाम मज़दूरों द्वारा की गयी दिल्ली के असंगठित क्षेत्र के विशालतम हड़ताल ने यह एक बार फिर साबित किया है। दिल्ली का मज़दूर अपनी इस माँग के लिए विजय मिलने तक लड़ेगा और इस माँग को लेकर रहेगा।

स्त्री मुक्ति लीग की शिवानी ने कहा कि बेरोज़गारी और ग़रीबी की मार का असली अनुभव कामकाज़ी महिलाओं को होता है। निश्चित रूप से शहरी रोज़गार गारण्टी का हक़ हर शहरी ग़रीब का हक़ है। लेकिन इस योजना का विशेष लाभ महिलाओं को मिलेगा। इसका पहला कारण यह है कि इस योजना के तहत महिला मज़दूरों को काम मिलता है तो उन्हें पुरुषों के समान दर से भुगतान प्राप्त होगा और मज़दूरी की असमानता नहीं होगी। दूसरी बात, इससे स्त्रियों का आर्थिक सशक्तीकरण होगा और वे अपने हक़ों की लड़ाई को और ज़ोर के साथ लड़ सकेंगी। शिवानी ने आगे कहा कि इस माँग को साम्राज्यवादियों की खैरात पर पलने वाले स्वयंसेवी संगठन सुधारवादी दृष्टिकोण से उठा रहे हैं। ऐसी कोई भी योजना अगर जनता के संघर्षों के फलस्वरूप बनती है, तो ये ही स्वयंसेवी संगठन सरकार और व्यवस्था के गुणगान में लग जाते हैं और इस माँग को यूँ पेश करते हैं मानो यह मेहनतकश वर्ग की आखिरी माँग हो। ऐसे संगठनों के खिलाफ हमें सावधान रहना होगा और इस बात को अच्छी तरह समझ लेना होगा कि यह माँग इस देश के मेहनतकशों की अन्तिम माँग नहीं है, बल्कि एक मध्यवर्ती माँग है। मेहनतकश वर्ग की मुक्ति तब तक नहीं हो सकती जब तक पूरी सत्ता-व्यवस्था, पूरे समाज का ढाँचा और उत्पादन सम्बन्धी निर्णय लेने की ताक़त उसके हाथ में नहीं आ जाती। जाहिर है यह सरकार से माँगकर, चुनाव के रास्ते या स्वयंसेवी संगठनों के ‘‘समाज-सुधार’‘ के रास्ते नहीं हो सकता। इसके लिए मज़दूरों, ग़रीब किसानों और निम्न मध्यवर्गों का क्रान्तिकारी विचारधारा पर आधारित देशव्यापी संगठन और आन्दोलन खड़ा करना होगा।

इसके बाद सभा नौजवान भारत सभा, पंजाब के रजिन्दर, दिशा छात्र संगठन, दिल्ली के शिवार्थ, समेत कई प्रतिनिधियों ने सम्बोधित किया। अन्त में, प्रधानमन्त्री कार्यालय को अभियान का पाँच-सूत्रीय माँगपत्रक और ज्ञापन सौंपा गया।

शहरी विकास मन्त्रालय का जवाब

इस प्रदर्शन और ज्ञापन सौंपने के करीब एक माह बाद शहरी विकास मन्त्रालय से राष्ट्रीय शहरी रोज़गार गारण्टी अभियान के पास एक जवाब आया। इसमें शहरी विकास मन्त्रालय ने लिखा है कि भारत सरकार शहरी बेरोज़गारों और ग़रीबों के लिए कई योजनाएँ चला रही है। इसके बाद कुछ ऐसी योजनाओं का नाम गिनाया गया है जो कुशलता-विकास, सूक्ष्म ऋण योजना, स्वरोज़गार योजना का काम करती हैं। लेकिन इनमें से एक भी योजना ऐसी नहीं है जो सरकार को शहरी बेरोज़गारों को रोज़गार देने के लिए जिम्मेदार और जवाबदेह बनाए और यह उसकी बाध्यता हो।

राष्ट्रीय शहरी रोज़गार गारण्टी अभियान की ओर से इस अधूरे जवाब का जवाब भेजा जा रहा है और यह पूछा जा रहा है कि हमने रोज़गार गारण्टी के सवाल पर सरकार से सवाल किया था, जिसका जवाब हमें नहीं दिया गया। जिन योजनाओं का जिक्र सरकार ने किया है, वैसी योजनाएँ आज से नहीं कई दशकों से चल रही हैं। लेकिन इनमें एक भी रोज़गार गारण्टी योजना नहीं है। हम रोज़गार गारण्टी की माँग कर रहे हैं। इसके बारे में सरकार हमें जवाब दे। आगे होने वाले परिवर्तनों से हम पाठकों को अवगत कराते रहेंगे।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2010

 

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