एल.एच.सी. प्रयोग, हिग्स बूसॉन और बिग बैंग
भौतिकवाद के लिए संकट?

प्रशान्त

दार्शनिक व वैज्ञानिक समय-समय पर अपनी कल्पना शक्ति, तर्कों व प्रयोगों के द्वारा अनन्त ब्रह्माण्ड के रहस्यों को सुलझाने, विभिन्न आकाशीय पिण्डों तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति व विकास के नियमों को जानने-समझने का प्रयास करते रहे हैं और इसमें कई महत्वपूर्ण सफलताएँ भी हासिल की है। अपनी इस अन्वेषी यात्रा में मानव जाति आज एक अभूतपूर्व मुक़ाम पर खड़ी है। अब तक की सबसे बड़ी मशीन एल.एच.सी. यानी लार्ज हाइड्रन कोलाइडर में ब्रह्माण्ड की प्रारम्भिक अवस्थाओं को पुनर्निमित करने का प्रयास किया जा रहा है। इस प्रयोग से मिले तथ्यों के आधार पर ब्रह्माण्ड के कई अनसुलझे रहस्यों जैसे डार्क मैटर, डार्क एनर्जी, पदार्थ की एंटीमैटर (प्रतिपदार्थ) पर अधिकता, बिग-बैंग के बाद के पहले सेकेण्ड में ब्रह्माण्ड में होने वाले परिवर्तनों व उस दौरान भौतिकी के नियमों, बुनियादी कणों के द्रव्यमान व विभिन्न बुनियादी कणों के द्रव्यमान में अन्तर के कारणों, आदि से जुड़े सवालों के सुलझने की आशा है। साथ ही बहुत बड़ी मात्रा में सूक्ष्म बुनियादी कणों से लेकर ब्रह्माण्ड के जन्म व विकास-सम्बन्धी कई नए तथ्यों के उजगार होने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। इससे भौतिकी व सम्पूर्ण विज्ञान में क्रान्तिकारी परिवर्तन हो सकते हैं।

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जाहिरा तौर पर विज्ञान के क्षेत्र में होने वाला ऐसा अभूतपूर्व प्रयोग समाज को प्रभावित किए बिना नहीं रह सकता। लगभग पिछले 2 सालों से यह प्रयोग अखबारों, न्यूज चैनलों व हॉलीवुड की फिल्मों में छाया रहा हैं। इसका एक पहलू जो सबसे अधिक चर्चा का विषय रहा है वह है हिग्स बुसॉन नाम के कण के मिलने की सम्भावना जिसे ईश्वरीय कण या ”गॉड पार्टिकल’‘ के नाम से प्रचारित किया जा रहा है। एक तरफ तो जहाँ कुछ टटपुंजिए कलमघसीटों तथा बुर्जुआ मीडिया ने इस प्रयोग के होने पर दुनिया के अन्त की बात कह डाली, वहीं कुछ हिग्स बुसॉन को किसी अदृश्य बाहरी शक्ति या किसी चेतन तत्व द्वारा दुनिया के निर्माण के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं और भौतिकवाद की हार के दावे कर रहे है। यहाँ तक कि दुनिया भर के कई भौतिकवादी व मार्क्सवादी भी अपनी गैर-द्वन्द्वात्मक पद्धति के कारण इस बात को सही मानकर विलाप करने व चीख-पुकार मचाने में लगे हुए हैं। मज़े की बात यह है कि हिग्स बुसॉन की अवधारणा के जन्मदाता पीटर हिग्स स्वयं एक नास्तिक हैं तथा इस कण को ईश्वरीय कण कहने के खि़लाफ हैं।

इस लेख में हम यह जानने की कोशिश करेंगे की क्या वास्तव में हिग्स बुसॉन की खोज से भौतिकवाद की सेहत पर कोई प्रतिकूल प्रभाव पढ़ेगा? इसके लिए पहले हमें हिग्स बुसॉन की अवधारणा को समझना होगा। साथ ही भौतिकवाद की विकास यात्रा व इसके अपने विकास के उच्चतम शिखर द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद तक पहुँचने की चर्चा भी संक्षेप में ज़रूरी है जिससे की इस विषय पर सही भौतिकवादी दृष्टिकोण को समझा जा सके।

हिग्स बुसॉन की अवधारणा

हिग्स बुसॉन अपेक्षाकृत अधिक द्रव्यमान वाला एक हाइपोथेटिकल (परिकल्पनात्मक) बुनियादी कण है। इसकी अवधारणा 1964 में पीटर हिग्स व अन्य कई वैज्ञानिकों ने मिलकर दी। यह कण कण भौतिकी (पार्टिकल फिजिक्स) के स्टैण्डर्ड मॉडल का मूलभूत कण है। स्टैण्डर्ड मॉडल कण भौतिकी का वह सिद्धान्त है जो चार बुनियादी बलों में से तीन को एक सामान्यीकृत सिद्धान्त के द्वारा अभिव्यक्त करता है।

इस सिद्धान्त के अनुसार प्रकृति में 16 बुनियादी कण हैं जिन्हें दो वर्गों में वर्गीकृत किया जाता है-फर्मिऑन (fermions) व बुसॉन (bosons)। फर्मिऑन पदार्थ के बुनियादी संघटक कण हैं। स्टैण्डर्ड मॉडल में 12 फर्मिऑन हैं। बुसॉन इन फर्मिऑन्स के बीच विनिमय होने वाले कण हैं और इन्हीं की वजह से बुनियादी अन्तर्व्यवहार (interaction) अस्तित्व में आते हैं। स्टैण्डर्ड मॉडल में चार बुसॉन हैं जो तीन प्रकार के बुनियादी अन्तर्व्यवहार – विद्युत चुम्बकत्च, शक्तिशाली अन्तर्व्यवहार व कमज़ोर अन्तर्व्यवहार को जन्म देते हैं। इसके साथ ही इस सिद्धान्त में एक अन्य बुसॉन – हिग्स बुसॉन की परिकल्पना भी की गयी है जो सभी बुनियादी कणों को हिग्स पद्धति के द्वारा द्रव्यमान देता है। हिग्स बुसॅान की खोज पर इतना ज़ोर होने के कारणों को समझने के लिए पहले बुनियादी अन्तर्व्यवहारों को समझना ज़रूरी है। बुनियादी अन्तर्व्यवहार वे अन्तर्व्यवहार हैं जिन्हें किन्हीं और अन्तर्व्यवहारों के द्वारा व्यक्त या निगमित नहीं किया जा सकता। 20वीं शताब्दी की शुरुआत के पहले केवल दो बुनियादी अन्तर्व्यवहार ज्ञात थे। आज इनकी संख्या चार हो चुकी है।

1गुरुत्वाकर्षण बल (Gravitational interaction): यह द्रव्यमान-युक्त पदार्थों के बीच कार्य करने वाला बल है जो उन पदार्थों के द्रव्यमान व उनके बीच की दूरी पर निर्भर करता है। इस बल के नियमों का सुसंगत व सुव्यवस्थित सूत्रीकरण सर्वप्रथम न्यूटन ने किया जिसे न्यूटन के सार्वत्रिक गुरुत्वाकर्षण के नियम के रूप में जाना जाता है। आइन्सटीन के सापेक्षिकता का सामान्य सिद्धान्त (जनरल थियरी ऑफ रिलेटिविटी) के आने से पहले तारों, ग्रहों, उपग्रहों आदि की गति को समझने के लिए न्यूटन के नियमों का ही उपयोग किया जाता था। लेकिन न्यूटन के ये नियम बहुत ताकतवर गुरुत्वाकर्षण क्षेत्रों में काम नहीं करते। ऐसे क्षेत्रों में गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव का सही आकलन सापेक्षिकता का सामान्य सिद्धान्त करता है। यह गुरुत्वाकर्षण बल का अधिक सटीक सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार गुरुत्वाकर्षण बल किसी पदार्थ के द्रव्यमान के कारण चतुआर्यामी (4-डाइमेंशनल) दिक-काल कॉण्टीनुअम में आई वक्रता (कर्वेचर) के कारण होता है। जिस पदार्थ का द्रव्यमान जितना अधिक होता है उसके निकट दिक्-काल कॉण्टीनुअम उतना ही अधिक व्रक (कर्व्ड) होता है और उसका गुरुत्व बल उतना ही अधिक होता है। दिक्-काल कॉण्टीनुअम की अवधारणा का प्रतिपादन भी आइन्सटीन ने ही अपने सापेक्षिकता के विशिष्ट सिद्धान्त (स्पेशल थियरी ऑफ रिलेटिविटी) में किया था। इस सिद्धान्त के अनुसार प्रकाश की गति के तुल्य गति से गतिमान किसी वस्तु की स्थिति में परिवर्तन का सही आकलन त्रिआयामी दिक् (3-डाइमेंशनल स्पेस) व एकआयामी काल (यूनीडाइमेंशनल टाइम) को अलग-अलग करके नहीं किया जा सकता। सापेक्षिकता के सामान्य सिद्धान्त के विकास के दौरान ही क्वाण्टम थियरी भी विकसित हो रही थी।

इन दोनों सिद्धान्तों को मिलाकर गुरूत्वाकर्षण का क्वाण्टम सिद्धान्त जिसे क्वाण्टम ग्रैविटी कहा जाता है, विकसित किया गया है। यह काम पिछले दो दशकों के दौरान ही एक व्यवस्थित सिद्धान्त के रूप में उभर कर सामने आ सका है। इसके अनुसार द्रव्यमान-मुक्त पदार्थों के बीच गुरूत्वाकर्षण बल एक द्रव्यमान रहित कण ग्रेवीटॅान (graviton) के विनिमय से उत्पन्न होता हैं। हालाँकि, अभी तक ग्रेविटॉन का अस्तित्व सत्यापित नहीं हो सका है जिसके कारण इस सिद्धान्त का भी सत्यापन नहीं हो पाया है।

2- विद्युत चुम्बकत्व (electro-magnetic interactions): 19वीं शताब्दी से पहले विद्युत व चुम्बकत्व दो अलग-अलग बल माने जाते थे। 19वीं शताब्दी में हुए कई प्रयोगों ने इन दोनों बलों के सम्बन्धों को उजागर किया और मैक्सवेल ने इनके सम्बन्धों को सुव्यवस्थित सूत्रों व समीकरणों में व्यक्त किया। इस प्रकार विद्युत व चुम्बकत्व को विद्युतचुम्बकत्व अन्तर्व्यवहार के दो प्रभावों के रूप में देखा जाने लगा। 20वीं शताब्दी के पहले दशक में क्वाण्टम सिद्धान्त और विशिष्ट सापेक्षिकता सिद्धान्त अस्तित्व में आ चुके थे। क्वाण्टम सिद्धान्त सूक्ष्म कणों की गति के नियमों को व्यक्त करता है और विशिष्ट सापेक्षिकता सिद्धान्त प्रकाश के तुल्य गति से गतिमान वस्तु की गति को। 1927 में डिराक नामक एक युवा वैज्ञानिक ने इन दोनों सिद्धान्तों को मिलाकर विद्युतचुम्बकत्व का तर्कसंगत क्वाण्टम फील्ड सिद्धान्त प्रतिपादित किया जिसे क्वाण्टम इलेक्ट्रोडायनमिक्स के नाम से जाना जाता है। इसके अनुसार दो आवेशित कणों के बीच विद्युत चुम्बकीय अन्तर्व्यवहार एक द्रव्यमान रहित कण फोटॅान के विनिमय के कारण होता है।

3- शक्तिशाली अन्तर्व्यवहार (Strong Interactions): 20वीं शताब्दी के पहले दशक के अन्त तक परमाणु की संरचना के बारे में काफी जानकारी हासिल हो चुकी थी। परमाणु की अविभाज्यता के सिद्धान्त का खण्डन हो चुका था। प्रोटॉन और न्यूट्रान्स से मिलकर बने धनावेशित नाभिक के चारों ओर चक्कर काटते ऋणावेशित इलेक्ट्रान्स के रूप में परमाणु का रदरफोर्ड मॉडल सत्यापित हो चुका था। परमाणु के भीतर नाभिक और इलेक्ट्रान्स तो एक-दूसरे से विद्युत-चुम्बकत्व द्वारा बंधे रहते हैं, लेकिन अतिसूक्ष्म आकार के नाभिक में मौजूद प्रोटॅान के बीच एक ताकतवर विद्युत चुम्बकत्व विकर्षण (repulsion) होता है। अतः नाभिक के अस्तित्व के लिए नाभिक के भीतर किसी ऐसी ताकत का होना आवश्यक है जो प्रोटॉन्स को आपस में बांधे रख सके तथा नाभिक की परिधि के बाहर नगण्य हो, यानी कोई आकर्षणात्मक बल। इस प्रकार प्रकृति के एक नए बल की तस्वीर उभर कर सामने आने लगी। इस बल की सुसंगत थियरी देने का काम एक जापानी भौतिक विज्ञानी युकावा ने दो अन्य वैज्ञानिकों ताकेतानी व सकाता की मदद से किया । इसके लिए इन्होने नाभिकीय कणों के क्वाण्टम फील्ड सिद्धान्त को आधार बनाया तथा इस थियरी को और अधिक विकसित किया। इन वैज्ञानिकों ने द्वंद्वात्मक भौतिकवादी पद्धति का उपयोग करके एक कण मेसॉन के अस्तित्व की भविष्यवाणी की थी जिसकी वजह से नाभिक के भीतर प्रोटान्स व न्यूट्रान्स बंधे रहते हैं। मेसॉन की खोज इसकी भविष्यवाणी के लगभग 10 वर्जों बाद हो सकी और युकावा का सिद्धान्त सत्यापित हुआ।

1940 के बाद पार्टीकल भौतिकी के क्षेत्र में तेज़ी से विकास हुआ और कई पार्टीकल एक्सीलरेटरों का निर्माण हुआ। कई नए कणों के अस्तित्व के बारे पता चला। क्वार्क(Quarks) नाम के कण की खोज हुई, जिससे पदार्थ की संरचना का एक नया संस्तर सामने आया । ये क्वार्क्स प्रोटॅान्स और न्यूट्रॉन्स के संघटक कण हैं जो ग्लूऑन(Gluons) नाम के कणों के विनिमय द्वारा एक दूसरे से बंधे रहते है। क्वार्क्स को आपस में बाँधे रखने के लिए अत्यधिक विशाल परिमाण के आकर्षणात्मक अन्तर्व्यवहार की आवश्यकता होती है जिसे शक्तिशाली अन्तर्व्यवहार के नाम से जाना जाता है। नाभिक के अन्दर प्रोटान्स व न्यूट्रॅान्स को बाँधे रखने के लिए जरूरी बल, इनके संघटक कणों क्वार्क्स के बीच कार्य करने वाले शक्तिशाली अन्तर्व्यवहार के कारण ही उत्पन्न होता है तथा इन्हें अवशिष्ट(रेजीड्यूअल) शक्तिशाली अन्तर्व्यवहार कहा जाता है।

4कमज़ोर अन्तर्व्यवहार (Weak interactions): ग्लूऑन्स व फोटॉन्स को छोड़कर अन्य सभी बुनियादी कणों के बीच शक्तिहीन या कमज़ोर अन्तर्व्यवहार उपस्थित रहते हैं। ये W व Z बूसॅानों के विनिमय से उत्पन्न होते हैं। इस अन्तर्व्यवहार की पहचान सबसे पहले रेडियोएक्टिव विघटन के दौरान होने वाले बीटा क्षय (b decay) से हुई। अल्फा व गामा क्षय (a व c decay) की व्याख्या तो तब तक ज्ञात बलों जैसे रेजिड्यूअल शक्तिशाली व विद्युत-चुम्बकीय अन्तर्व्यवहारों के द्वारा हो जाती थी लेकिन इ क्षय की व्याख्या के लिए नाभिक में कार्यरत एक नए प्रकार के अन्तर्व्यवहार की अवधारणा की जरूरत थी। इस प्रकार के अन्तर्व्यवहार को शक्तिहीन अन्तर्व्यवहार (वीक इण्टरैक्शन) कहा गया क्योंकि यह अत्यधिक कम दूरी तक ही कार्य करता है और शक्तिशाली तथा विद्युत चुम्बकीय अन्तर्व्यवहारों के मुकाबले बहुत कमजोर होता है b क्षय परमाणु के नाभिक से बहुत अधिक ऊर्जा वाले इलेक्ट्रॅान के उत्सर्जन की प्रक्रिया को कहा जाता है। इस प्रकार अभी तक चार प्रकार के वाहक कणों-ग्रैबीटॉन, फोटॉन, ग्लूआन तथा W व Z बुसॅान्स में से ग्रेविटॉन को छोड़कर बाकी की खोज की जा चुकी है। साथ ही चार प्रकार के बुनियादी अन्तर्व्यवहारों के अस्तित्व भी सत्यापित हो चुके हैं। लगभग पिछले दो या तीन दशकों से इन बुनियादी अन्तर्व्यवहारों के एक सामान्यीकृत सिद्धान्त में संश्लिष्ट करने के लिए बड़े पैमाने पर शोध व अनुसंधान किया जा रहा है तथा दैत्याकार पार्टीकल एक्सीलेरेटर्स का निर्माण किया जा रहा है। जैसे फरमी लैब, एल.एच.सी. आदि।

स्टैण्डर्ड मॉडल भी इन चार बुनियादी अन्तर्व्यवहारों में से तीन विद्युत चुम्बकत्व, शक्तिशाली तथा शक्तिहीन अन्तर्व्यवहारों का एक सामान्यीकृत सिद्धान्त है जो विशेष परिस्थितियों में विशेष अन्तर्व्यवहारों में अपचयित (रिड्यूस) हो जाता है। उच्च ऊर्जा (हाई एनर्जी) भौतिकी की परिस्थितियों में गुरूत्वाकर्षण बल का प्रभाव बहुत कम होता है। अतः प्रयोगों के दौरान इसके प्रभाव को नगण्य मानकर छोड़ा जा सकता है। इस प्रकार स्टैण्डर्ड मॉडल गुरुत्वाकर्षण बल की व्याख्या नहीं करता है। यह सिद्धान्त 1970 के दौर में पार्टीकल भौतिकी के नियमों की सफलता का सूचक रहा है। आज यह एक सुव्यवस्थित सिद्धान्त है लेकिन अभी भी हिग्स बुसान की खोज न हो सकने के कारण इसका पूरी तरह सत्यापन नहीं हो सका है।

इस हिग्स बुसॉन को ”गॉड पार्टीकल’‘ की संज्ञा दिया जाना हिग्स फ़ील्ड व हिग्स मेकैनिज्म से जुड़ा हुआ है। अतः अब हम इनको समझने की कोशिश करते हैं।

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आज से करीब 13-7 बिलियन सालों पहले बिग बैंग से बह्माण्ड का जन्म हुआ। ऐसा माना जाता है कि बिग बैंग के 10-43 सेकण्ड तक अर्थात t=0 से t=10-43 सेकण्ड के बीच ब्रह्माण्ड का तापमान लगभग 1032 K (केल्विन) था। इतने अधिक तापमान पर चारों बुनियादी अन्तर्व्यवहार अस्तित्व में नहीं आए थे। साथ ही बुनियादी कणों में अभी द्रव्यमान नहीं आया था। पूरे ब्रह्माण्ड में निर्वात था जो पूरी तरह खाली नहीं था बल्कि सघन उर्जा वाले एक फील्ड से भरा हुआ था जिसे हिग्स फ़ील्ड कहा जाता है। हिग्स फ़ील्ड एक तरह से विद्युत चुम्बकीय फील्ड के समान ही होता है और जिस प्रकार विद्युत चुम्बकीय फील्ड फोटान्स से मिलकर बना होता है उसी प्रकार हिग्स फ़ील्ड भी हिग्स बुसॉन्स से मिलकर बना होता है। ब्रह्माण्ड के शुरुआती दौर में पूरे ब्रह्माण्ड में यह फ़ील्ड एक समान रूप से फैला हुआ रहता है तथा बहुत अधिक तापमान के कारण बहुत तेजी से घटता-बढ़ता रहता है। इस प्रकार निर्वात में एक तरह की सममिति (Symmetry) होती है। जैसे-जैसे ब्रह्माण्ड फैलता है, तापमान कम होने लगता है और हिग्स फ़ील्ड स्थिर होने लगता है जिससे उसकी सममिति टूट जाती है इसे स्वतःस्फूर्त सममिति भंग (स्पॅाण्टेनियस सिमेट्री ब्रेकिंग) कहा जाता है। इस सममिति भंग के कारण बुनियादी अन्तर्व्यवहार एक-दूसरे से अलग होने लगते हैं।

यहीं हिग्स फ़ील्ड बुनियादी कणों को उनका द्रव्यमान भी देता है। हिग्स फ़ील्ड से अन्तर्व्यवहारों के दौरान जिस कण पर प्रतिरोध (रेजिस्टेन्स) जितना अधिक होता है उसका द्रव्यमान भी उतना ही अधिक होती है और जिस पर प्रतिरोध कम लगता है उसका द्रव्यमान भी कम होता है जैसे फोटॅान्स द्रव्यमान रहित होते है जबकि W  व Z बुसान का द्रव्यमान बहुत ज्यादा होता है। बुनियादी कणों में द्रव्यमान के उत्पन्न होने की इसी प्रक्रिया को हिग्स मेकैनिज्म कहा जाता है।

इस पूरे स्टैण्डर्ड मॉडल तथा हिग्स बुसॅान से उनके सम्बन्ध का सारांश संलग्न चित्र द्वारा दिया गया है। इसमें प्रदर्शित 6 लेप्टॉन्स भी बुनियादी कण हैं और फरमिऑन्स की श्रेणी में आते हैं। इनके बारे में विस्तार से चर्चा करना यहाँ सम्भव नहीं है। यहाँ बस इतना जान लेना पर्याप्त होगा की इलेक्ट्रान भी एक प्रकार का लेप्टॅान है तथा लेप्टॉन्स परमाणु के नाभिक के बाहर पाए जाने वाले बुनियादी कणों को दर्शाते हैं। स्पष्ट है कि हिग्स मेकैनिज्म, हिग्स फील्ड व स्टैण्डर्ड मॉडल के सत्यापन के लिए हिग्स बुसॅान के अस्तित्व का सत्यापन होना आवश्यक है। लेकिन आज तक इसे खोजा नहीं जा सका है। इसका कारण हिग्स बुसॅान की खोज के लिए अधिक ऊर्जा वाले फील्ड की आवश्यकता होना है। इतनी अधिक ऊर्जा आज तक किसी भी पार्टीकल एक्सीलेरेटर में पैदा नहीं की जा सकी है। पहली बार एल.एच.सी. में ही इतनी अधिक मात्रा में ऊर्जा उत्पन्न की जा रही है जिसमें हिग्स बुसॅान के पाए जाने की सम्भावना है।

इस प्रकार एल.एच.सी. में हो रहे प्रयोग का व्यापक महत्व समझ में आता है। अगर इसमें हिग्स बुसॅान की खोज हो जाती है तो स्टैण्डर्ड मॉडल सत्यापित हो जाएगा और तीनों बुनियादी अन्तर्व्यवहारों का एक सामान्यीकृत सिद्धान्त सिद्ध हो जाएगा। साथ ही बुनियादी कणों में द्रव्यमान की उत्पत्ति या पदार्थ की उत्पत्ति के कारण स्पष्ट हो सकेंगे। इसके साथ ही बुनियादी कणों के द्रव्यमान में अन्तर के कारण भी स्पष्ट हो सकेंगे।

जहाँ तक हिग्स बुसॉन को “गॉड पार्टिकल’‘ की संज्ञा देकर इसे भौतिकवाद के लिए खतरे के रूप में प्रचारित किए जाने का सवाल है तो इसके पीछे का कारण निर्वात में हिग्स फ़ील्ड की मौजूदगी व इस फील्ड से क्रिया के द्वारा बुनियादी कणों में द्रव्यमान की उत्पत्ति होना है जिसे पदार्थ की उत्पत्ति भी कहा जा सकता है। यह साबित होना कि पदार्थ भी पैदा हुआ था, भौतिकवाद का खारिज होना नहीं है। कारण यह है कि भौतिकवाद के सामने कभी यह प्रश्न ही नहीं था कि पदार्थ कभी पैदा हुआ था या नहीं। भौतिकवाद के लिए प्रश्न सिर्फ यह था कि चेतना पदार्थ से पहले नहीं अस्तित्वमान हो सकती है। अगर हिग्स मैकेनिज़्म का सत्यापन हो जाता है तो सिर्फ इतना ही साबित होगा कि पदार्थ पैदा हुआ था और उससे पहले निर्वात की स्थिति थी। लेकिन निर्वात चेतना नहीं है। निर्वात भी एक भौतिक यथार्थ है। द्रव्यमान वाले पदार्थ का मौजूद न होना भौतिकवाद के लिए कोई अस्तित्व का संकट नहीं पैदा करता। उल्टे यह तो द्वंद्ववाद को और अधिक पुष्ट करता है। द्वंद्वात्मक सिद्धान्त किसी भी अस्तित्व के सदा से सदा तक मौजूद रहने को ख़ारिज करता है। अगर पदार्थ पैदा हुआ तो द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की दृष्टि से अच्छा ही हुआ! निर्वात में मौजूद सघन ऊर्जा वाले हिग्स फील्ड को चेतना के पदार्थ से पहले मौजूद होने के प्रमाण के रूप में प्रचारित करना विज्ञान के साथ एक खिलवाड़ है। आइन्सटीन ने लगभग एक सदी पहले ही अपने द्रव्यमान-ऊर्जा के तुल्यता (मास-इनर्जी इक्वीवैलेन्स) के सिद्धान्त में ही द्रव्यमान व ऊर्जा के बीच के सम्बन्धों को स्पष्ट कर दिया था। उनके द्वारा दिया गया प्रसिद्ध समीकरण E=mc2 इसी सम्बन्ध को दर्शाता है।

पिछले दो-तीन दशकों में विकसित हुई ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का इनफ्लेशनरी सिद्धान्त भी आइन्सटीन के इसी सिद्धान्त के अनुसार ऊर्जा के द्रव्यमान में रूपान्तरण को आधार बना कर ब्रह्माण्ड के विकास की व्याख्या करता है।

बहरहाल, ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति व विकास का यह सिद्धान्त सत्यापित होता है या नहीं यह तो भविष्य का सवाल है और इसमें एल.एच.सी. में हो रहे प्रयोग की भी महत्वपूर्ण भूमिका होगी। जहाँ तक बुनियादी कणों में द्रव्यमान की उत्पत्ति या पदार्थ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में भौतिकवादी दृष्टिकोण का सवाल है तो इसके लिए हमें भौतिकवाद की विकास यात्रा पर एक नजर डालनी होगी।

भौतिकवाद का संक्षिप्त इतिहास

प्राचीन काल से ही दर्शन दो प्रमुख शाखाओं में बँटा रहा है-भाववाद और भौतिकवाद। इन दोनों के बीच जिस केन्द्रीय प्रश्न पर बहस रही है वह है कि पहले चेतना आई या पदार्थ। यह सवाल प्राचीन काल के दार्शनिकों के बीच भी विवाद का विषय बना रहा है और आधुनिक काल के दार्शनिकों के बीच भी। अभी प्राचीन काल के दार्शनिकों की बहसों पर विचार न करके हम सीधे आधुनिक काल की शुरुआत से भौतिकवादी दर्शन के कदम-दर-कदम विकास पर बात करते हैं क्योंकि फिलहाल मुख्य विषय-वस्तु को समझने की दृष्टि से इतना ही पर्याप्त होगा।

अभी हमें इस चर्चा में भी जाने की ज़रूरत नहीं है कि दर्शन के इन दो भिन्न स्कूलों के अस्तित्व के पीछे समाज में मौजूद वर्ग संघर्ष है। परस्पर संघर्षरत वर्ग प्रारम्भ से ही अपने भौतिक हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले विचार शाखाओं का विकास करते रहे हैं। भाववाद और भौतिकवाद के विचारों को जन्म देने वाले व्यक्ति किसी निर्वात में नहीं बल्कि एक निश्चित संरचना में बंधे समाज में पैदा हुए थे। अपने परिवेश और अपनी परवरिश और अपने अस्तित्व की शर्तों और स्थितियों के अनुसार उनके अपने पूर्वाग्रह और पूर्वकल्पित अवधारणाएँ थीं और वस्तुगत रूप से उन्होंने उनके अनुसार और अनुकूल सिद्धान्तों की रचना की, क्योंकि इन्हीं कारकों से उनका पूरा विश्व दृष्टिकोण निर्धारित होता था। भाववाद विचार को प्रथम मानता है। भाववाद के सबसे प्रसिद्ध प्रवक्ता और उसे विकसित करने वाले दार्शनिक थे हेगेल। लेकिन भाववाद का इतिहास काफी पुराना है। हेगेल ने भाववाद को उसके शीर्ष तक पहुँचाया लेकिन साथ ही उन्होंने अपने ऐतिहासिक दृष्टिकोण से एक ऐसे अप्रोच और पद्धति की रचना भी की जिसे और परिशुद्ध और विकसित करके तथा वैज्ञानिक भौतिकवाद के साथ मिलाकर मार्क्स और एंगेल्स ने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की रचना की।

सही मायनों में भौतिकवाद भाववाद के समक्ष एक अदमनीय शक्ति के रूप में 16वीं सदी से उभरना शुरू हुआ। प्रारम्भिक भौतिकवाद दो अलग-अलग धाराओं में विकसित हुआ। एक धारा थी महाद्वीपीय यूरोप की तर्कवादी धारा, जिसके पुरोधा थे रेने देकार्त और बाद में स्पिनोज़ा। दूसरी धारा थी जो ब्रिटिश अनुभवाद की धारा थी। इसके प्रमुख सिद्धान्तकार थे फ्रांसिस बेकन, हॉब्स और लॉक। वैसे तो तर्कवादी धारा और अनुभववादी धारा के भीतर भी कई किस्म के अन्तरविरोध थे, लेकिन उन पर चर्चा यहाँ न तो ज़रूरी है और न ही संभव। ‘आह्वान’ के आगामी अंकों में हम उस पर भी सामग्री देने का प्रयास करेंगे। यहाँ फिलहाल तर्कवादी धारा और अनुभववादी धारा पर चर्चा अनिवार्य और पर्याप्त है। ये दोनों ही धाराएँ मानती थीं कि भौतिक विश्व या पदार्थ जगत है और उसके अस्तित्व पर कोई सन्देह नहीं किया जा सकता है। तर्कवादी धारा का मानना था कि भौतिक विश्व के बारे में हमारा ज्ञान मुख्य रूप से इन्द्रीय बोध पर आधारित है और उससे परे विश्व के बारे में हमारे ज्ञान का आधार सिर्फ तर्क हो सकता है। अनुभववादी धारा मानव मस्तिष्क द्वारा तार्किक विश्लेषण और सिम्यूलेशन को गैर-ज़रूरी मानती थी। इस धारा का मानना था कि समस्त ज्ञान का आधार अनुभव है। अनुभव से जो ज्ञात है, वहीं भौतिक विश्व है। देकार्त और स्पिनोज़ा, दोनों ही तर्कवादी थे लेकिन उनमें एक अन्तर था। देकार्त चेतना और पदार्थ की द्वैतता में विश्वास करते थे और मानते थे कि इनके बीच में सम्बन्ध बाह्यता में स्थापित होता है। जबकि स्पिनोज़ा का मानना था कि ऐसा कोई द्वैतवाद नहीं है। प्रकृति ही समूचा पदार्थ जगत है और वही ईश्वर है। मनुष्य की तार्किक गतिविधि इस प्रकृति या ईश्वर की तार्किक समझदारी ही है और इस प्रकार पदार्थ और चेतना एक ही वस्तु के दो पहलू हैं। यह बात यदि एक निरीश्वरवादी ज़मीन पर खड़ी होकर कही जाती तो विचारणीय थी, लेकिन द्वैतवाद को खत्म करने का अभिकरण (एजेंसी) स्पिनोज़ा ने ईश्वर को दे दिया! लेकिन फिर भी, उस समय में यह एक महान योगदान था।

दूसरी ओर थॉमस हॉब्स और जॉन लॉक ने फ्रांसिस बेकन के अनुभववादी भौतिकवाद को ही आगे बढ़ाया।

सत्रहवीं सदी के प्रारम्भ में भौतिकवाद के चरम शत्रु बर्कले, जो एक ईसाई बिशप थे, ने अनुभववादी भौतिकवाद के समक्ष एक ऐसा प्रश्न रख दिया जिससे अनुभववाद आज तक नहीं उबर पाया है। बर्कले ने कहा कि अगर समस्त ज्ञान का स्रोत अनुभव है, और अनुभव का स्रोत हमारे मस्तिष्क में प्रतिबिम्बित इन्द्रीय धारणा है, तो हम मस्तिष्क के अलावा जानते ही क्या हैं? हमारे लिए तो जो कुछ है वह इसीलिए है कि हमारे पास मस्तिष्क है? चेतना ही न हो, तो इन्द्रीय धारणा कहाँ निवास करेगी? अगर सारा ज्ञान अनुभव है, तो भौतिकवाद के लिए यह आत्मघाती होगा! बर्कले इसी कमज़ोरी से ईश्वर तक जाने का रास्ता निकाल देते हैं। अनुभववाद को अगर उसकी तार्किक परिणति पर ले जाया जाय तो पदार्थ स्वयं ही एक ‘‘अमूर्त विचार’‘ बन जाता है क्योंकि पदार्थ मस्तिष्क पर प्रतिबिम्बन के अलावा कुछ और भी है, इसका अनुभववादी कोई प्रमाण या उत्तर नहीं दे सकते हैं।

यहीं पर इसाक न्यूटन का योगदान आता है। न्यूटन पूरे प्रकृति की एक सुसंगत व्याख्या करते हैं, हालाँकि वे इसमें ईश्वर का खण्डन नहीं करते। लेकिन इस पर हम बाद में आते हैं। न्यूटन पूरी प्रकृति को एक कठोर नियम से चलने वाली व्यवस्था के रूप में व्याख्यायित करते हैं। अपने प्रसिद्ध गति के नियमों में वे उसका अचूक सामान्यीकरण करते हैं और आनुभविक तौर पर उसे सिद्ध भी कर देते हैं। प्रकृर्ति एक बन्द व्यवस्था (क्लोज़्ड सिस्टम) के रूप में सामने आती है, जो सदा से रही है और सदा रहेगी। उसमें जो भी परिवर्तन होगा वह नियमों से पूर्णतः निर्धारित होगा और वे नियम अपने आप में अपरिवर्तनीय होंगे, पूर्व-निर्धारित होंगे। ईश्वर को न्यूटन ने खत्म नहीं किया, लेकिन उसे ब्रह्माण्ड की सीमा-रेखा के बाहर पहुँचा दिया। सीमा-रेखा के भीतर के पूरे तंत्र का निर्माण कर ईश्वर ने ‘‘स्टार्ट’’ बटन दबा दिया और बस! तब से खेल जारी है-एकदम नियमबद्ध रूप में! न्यूटन द्वारा बनाई गई पूरी व्यवस्था इस कदर ‘‘फुलप्रूफ’’ थी कि जब तक सूक्ष्म विश्व सामने नहीं आया तब तक उसकी सार्वभौमिकता पर कोई प्रश्न ही नहीं खड़ा हो सकता था। पदार्थ की प्रकृर्ति के बारे में न्यूटन की समझ पूरी तरह प्रभावी रही और कहा जाता था कि न्यूटन ने सबकुछ खोज लिया है, आगे के वैज्ञानिकों का काम गणनाएँ करना और न्यूटन के विचारों की व्याख्या करना है। लेकिन बीसवीं सदी ने न्यूटोनियाई विज्ञान में ‘‘संकट’‘ पैदा कर दिया। क्वाण्टम क्रान्ति ने एक नया विश्व उद्घाटित किया जिसमें न्यूटन के नियम नहीं लागू होते थे। लेकिन यह एक अलग चर्चा का विषय है।

न्यूटन एक भौतिकवादी थे, क्योंकि वे बाह्य भौतिक विश्व के अस्तित्व में यकीन रखते थे। वे पूरी तरह वस्तुगततावादी और प्रत्यक्षवादी थे। उनके पूरे वैज्ञानिक तंत्र में संयोग या अनिर्धारितता का कोई स्थान नहीं था। सबकुछ निर्धारित था। यही कारण था कि उनका भौतिकवाद भी यांत्रिक था। ईश्वर के अस्तित्व के बारे में भी अभी तक के आधुनिक भौतिकवाद ने कोई गम्भीर सवाल अब तक नहीं खड़ा किया था।

ईश्वर के अस्तित्व के लिए गम्भीर संकट फ्रांसीसी प्रबोधानकालीन भौतिकवादी दार्शनिकों ने पैदा किया जिसमें सर्वोच्च थे देनी दिदेरो। इंग्लैण्ड में ह्यूम ने भौतिकवादी सिद्धान्त के भीतर ही समझौते का रास्ता अख्तियार किया और संशयवादी भौतिकवाद को जन्म दिया। इसके अनुसार भौतिक विश्व तो है लेकिन अनुभव या तर्क के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि वह कैसा होगा, या कैसा बन जाएगा? दिदेरो के लिए सबकुछ निर्धारित था। वे सीधे-सीधे मानते थे कि जैविक पदार्थ का जन्म अजैविक पदार्थ से हुआ है। दोनों भौतिक जगत का हिस्सा हैं जो निस्सन्देह है और अनुभव और तर्कणा के आधार पर यह भी पूर्ण रूप में जाना जा सकता है कि वह कैसा है और उसके क्या होगा। सबकुछ निर्धारित किया जा सकता है। जो है यही भौतिक पदार्थ जगत है। इससे परे कुछ भी नहीं है। चेतना जैविक पदार्थ के ही उन्नततम रूप में पैदा हुई। लेकिन दिदेरो के लिए भौतिक विश्व एक अपरिवर्तनीय तंत्र था जो कुछ नियमों से पूर्ण रूप से निर्धारित है, ठीक वैसे ही जैसा कि न्यूटन ने कहा था। इसलिए यह एक अनालोचनात्मक भौतिकवाद था जिसमें अभिकरण किसी के पास नहीं, या अगर है तो वे मृत नियम हैं। इस विश्व को बदलने का अभिकरण किसी के पास कैसे हो सकता है, जब सबकुछ पूर्ण वस्तुगत नियमों से निर्धारित है, जो यांत्रिक सटीकता से काम करते हैं। इस भौतिकवाद के केन्द्र में मनुष्य का अभिकरण नहीं था क्योंकि अभी भौतिकवाद का मेल द्वंद्ववाद से नहीं हुआ था। लेकिन उस समय तक के भौतिकवादियों में दिदेरो सबसे अधिक उन्नत थे। पदार्थ की प्राथमिकता और प्रधानता को उन्होंने प्रश्नों से परे स्थापित किया। चेतना उन्नततम जैविक पदार्थ की चारित्रिक आभिलाक्षणिकता है। लेकिन जब चेतना नहीं थी, तब भी पदार्थ जगत था।

भौतिकवाद को आगे विकसित करने में इमानुएल काण्ट का भी महान योगदान रहा। काण्ट का योगदान इस रूप में रहा कि उन्होंने उस समय तक के भौतिकवाद की यांत्रिकता को काफी हद तक कम किया और निश्चयवाद पर भी चोट की। काण्ट ने न्यूटन के प्रकृर्ति के क्लोज़्ड मॉडल को कठघरे में खड़ा किया और एक नया मॉडल दिया जो आगे चलकर आधुनिक विज्ञान ने सही सिद्ध किया। काण्ट ने कहा कि प्रकृर्ति कोई स्थिर वस्तु नहीं बल्कि एक सतत् प्रक्रिया है। यह लगातार नष्ट होने और अस्तित्व में आने की सतत् प्रक्रिया का नाम है जिसमें पदार्थ लगातार अपना रूप बदलता रहता है। साथ ही, काण्ट ने तर्क की शक्ति को स्थापित भी किया और साथ ही उसकी कठमुल्लावादी समझ पर चोट भी की। काण्ट ने यह दलील पेश की कि कुछ शुद्ध और आधारभूत विश्लेषणात्मक अवधारणाएँ मानव मस्तिष्क का एक आन्तरिक गुण है। काण्ट का दर्शन अपने आप में एक अलग विस्तृत लेख की माँग करता है। काण्ट न्यूटोनियाई यांत्रिाक भौतिकवादी निश्चयवाद पर चोट करते हुए दूसरे छोर पर चले जाते हैं। काण्ट कहते हैं कि भौतिक विश्व है और इसमें कोई सन्देह नहीं किया जा सकता। लेकिन मस्तिष्क यह नहीं बता सकता कि यह भौतिक विश्व एकदम सटीक और ठीक-ठीक क्या और कैसा है? हम इस भौतिक विश्व के इन्द्रीय बोध तक ही पहुँच सकते हैं। यही था काण्ट का अज्ञेयवाद। भौतिक विश्व अज्ञेय है। इसका जवाब द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद ने आगे चलकर दिया और बताया कि अज्ञेय को ज्ञेय बनाने का रास्ता व्यवहार से होकर जाता है। विज्ञान जब तक व्याख्या पर ही रुका रहेगा, और अपनी रूपान्तरकारी भूमिका अपनाते हुए व्यवहार में नहीं उतरेगा तब तक विश्व या तो अज्ञेय बना रहेगा या उसे पूर्ण ज्ञात मान लेने का भ्रम पैदा होगा, यानी कि निश्चयवाद।

लुडविग फायरबाख़ ने अपने पूरे भौतिकवाद के निशाने पर ईश्वरवाद को रखा और आस्तिकता की ऐसी आलोचना रखी जिसने उनकी पुस्तक एसेंस ऑफ  क्रिश्चियैनिटी को दुनिया भर के निरीश्वरवादियों की लिए एक अनिवार्य रचना बना दी। फायरबाख़ ने हेगेल के ईश्वरवाद और परम विचार (देमी उर्गोस) के सिद्धान्त की आलोचना पेश की और भौतिक विश्व की प्राथमिकता और अस्तित्व को मज़बूती से स्थापित कर दिया। लेकिन फायरबाख का भौतिक विश्व भी मनुष्य को कोई परिवर्तन का अभिकरण या शक्ति नहीं देता था। जिस प्रकार कोई भी निर्जीव या अजैविक पदार्थ प्रकृर्ति का अंग था वैसे ही मानव भी प्रकृति और उसके विस्तार, यानी समाज का अंग था। वह अजैविक पदार्थों से बस इस मायने में अलग था कि वह इस भौतिक विश्व पर चिन्तन कर सकता था। लेकिन वह बदल नहीं सकता था। इसीलिए मार्क्स ने फायरबाख़ के भौतिकवाद से बहुत कुछ सीखते हुए भी उसे चिंतनकारी भौतिकवाद (कण्टेम्प्लेटिव मटीरियलिज़्म) कहा। कम लोग ही जानते हैं कि मार्क्स की यह उक्ति किसी भाववादी दार्शनिक के बारे में नहीं थी, बल्कि फायरबाख़ के बारे में थी-‘‘दार्शनिकों ने अब तक दुनिया की तरह-तरह से व्याख्या की है, जबकि सवाल उसे बदलने का है।’’ यह छोटी-सी पंक्ति यांत्रिक और चिन्तनकारी भौतिकवाद की, अनुभववाद की और अज्ञेयवाद की कालजयी आलोचना है।

इसके बाद मार्क्स और एंगेल्स का ही दौर आ जाता है जिन्होंने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के रूप में सबसे उन्नत विश्व दृष्टिकोण की रचना की जो विश्व की सर्वाधिक सटीक व्याख्या करता है। न तो यह निश्चयवाद के गड्ढे में गिरता है और न ही अज्ञेयवाद की खाई में। यह दुनिया की एक द्वन्द्वात्मक और भौतिकवादी व्याख्या करता है, जो मानती है कि भौतिकता प्राथमिक और प्रधान है; यह भौतिकता सतत् गतिमान है और इसलिए इसके बारे में हमारा ज्ञान भी सतत् गतिमान होगा; यह ज्ञान कभी पूर्ण नहीं हो सकता और ज्ञान के समक्ष हमेशा एक ऐसा क्षितिज होगा जिसे उद्घाटित किया जाना बाकी होगा; भौतिकता के प्रधान होने का अर्थ यह नहीं कि यह पूर्वनिर्धारित होगी, बल्कि इस भौतिकता की संरचना और स्वरूप को मानव अभिकरण द्वारा बदला जा सकता है; मानव अभिकरण स्वयं भी उसी भौतिकता का अंग है और उसकी चेतना भी किसी आत्मिक विश्व का नहीं बल्कि भौतिकता का ही अंग है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का सिद्धान्त एक छोटे-से लेख में समेटा नहीं जा सकता है। इस पर फिर कभी आगे।

भौतिकवाद के विकास के पूरे इतिहास पर निगाह डालने से कुछ बातें स्पष्ट हो जाती हैं। भौतिकवाद ने अपने जन्म से आज तक कभी यह प्रश्न नहीं उठाया है कि पदार्थ का उद्भव हुआ है या नहीं। उसके सामने हमेशा से प्रश्न यह रहा है कि चेतना पहले आई या पदार्थ; इस चेतना के भीतर भौतिक जगत सही रूप में प्रतिबिम्बित होता है या नहीं; यदि होता है तो इसे सुनिश्चित किया जाय या नहीं; चेतना भौतिक जगत को जान सकती है या नहीं। भौतिकवाद ने अपने एजेण्डे पर कभी यह सवाल रखा ही नहीं कि पदार्थ पैदा हुआ था या नहीं। यह भौतिकवाद की विषयवस्तु नहीं है। यह प्राकृतिक विज्ञान की विषय वस्तु है। लेकिन द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद प्राकृतिक विज्ञान के इस प्रश्न का जवाब देने के लिए वैज्ञानिकों को एक सही अप्रोच और पद्धति दे सकता है। लेकिन अपने आप में इस सवाल का जवाब देना भौतिकवाद का एजेण्डा ही नहीं है। उसका एजेण्डा भाववाद से संघर्ष की प्रक्रिया में पैदा हुआ और वह सिर्फ इतना ही दावा करता है कि चेतना पदार्थ में ही निवास कर सकती है, उससे बाहर निर्वात में नहीं। पदार्थ का किसी मौके पर जन्म हुआ हो और उसके पहले एक निर्वात की स्थिति रही हो तो इससे यह साबित नहीं होता है कि चेतना पहले आई। इसका कारण बस इतना है कि निर्वात निर्वात होता है और चेतना चेतना!!! चेतना निर्वात नहीं होती और निर्वात चेतना नहीं होता!!! बल्कि कहा यह जाना चाहिए कि द्रव्यमान रखने वाला पदार्थ ही समस्त भौतिक जगत नहीं है, वह भौतिक जगत का एक अंग है। निर्वात भी एक भौतिक वास्तविकता है, यह कोई मायाजगत नहीं है जिसमें ईश्वर अपनी लीला खेल रहा हो! इसलिए भौतिकवाद को यह कहना कि ‘‘देखो, देखो!! पदार्थ पैदा हुआ था! अब बोलो!?’’ वैसा ही है जैसे कि हम किसी नृविज्ञानी से पूछें कि जेनोम डिकोडिंग कैसे होती है! यह नृविज्ञान की विषय-वस्तु नहीं है। इसलिए नृविज्ञानी के किसी जवाब को सवाल पूछने वाले ‘’गलत जवाब’‘ बोलकर हर्षातिरेक में चले जाएँ, इससे पहले नृविज्ञानी बोल उठेगा ‘‘गलत सवाल’’!

अगर फील्ड्स थियरी सही सिद्ध होती है और हिग्स बुसॉन मिलता है तो भी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के लिए कोई संकट नहीं है। यदि हिग्स बुसॉन मिलता है तो बस इतना ही साबित होगा कि भौतिक विश्व का एक नया पहलू था जो अब तक उद्घाटित नहीं हुआ था। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद इसकी व्याख्या, विस्तार और अन्य क्षेत्रों में इसके डेरिवेशन से और अधिक उन्नत होगा। भौतिकवाद ने द्रव्यमान वाले पदार्थ (मास्सिव मैटर) की मौजूदगी को अपना आधार कभी नहीं माना, बल्कि भौतिक विश्व या सामान्य रूप में भौतिकता को अपना आधार माना है। इसलिए पदार्थ की पैदाइश साबित होने से भौतिकवाद की सेहत पर कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ेगा बल्कि उसके उत्तरोत्तर विकास का एक नया रास्ता दिख जाएगा ।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2010

 

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