भारतीय शिक्षा के लिए घातक! – विदेशी विश्वविद्यालय
मनीज तोमर ‘स्वतंत्र’, बड़ौत
केन्द्रीय मन्त्रीमण्डल ने विदेशी विश्वविद्यालयों के कैम्पस देश में खोलने की अनुमति देने वाले विधेयक को मंजूरी दे दी है। इसे देश के शैक्षणिक क्षितिज पर बदलाव के एक बड़े संकेत रूप में देखा जा रह है। मानव संसाधन विकास मन्त्री कपिल सिब्बल जिस तरह से विदेशी विश्वविद्यालयों के देशी निवेश में तत्पर दिख रहे हैं, कारण कुछ समझ नहीं आता। लेकिन इसके विषय में तर्क देते हुए उन्होंने कहा है कि विदेशी विश्वविद्यालयों के आने से देश में शैक्षणिक प्रतिस्पर्द्धा बढ़ेगी और उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार आएगा।
समझ में नहीं आता कि मंत्री महोदय ने यह तर्क बिना सोचे-विचारे, बिना बुनियादी ज़रूरतों को समझे दे दिया है या उनके कुछ अन्य सरोकार हैं। क्या वह इस वास्तविकता को नहीं समझते जिसे एक साधारण शिक्षित व्यक्ति भी साफ-साफ समझ सकता है कि विदेशी विश्वविद्यालयों के आने से यदि शैक्षणिक स्तर पर प्रतिस्पर्द्धा बढ़ेगी तो ये सीधे रूप में हमारे देशी विश्वविद्यालयों के साथ होगी। यह प्रतिस्पर्द्धा सार्थक व सही दिशा में न होकर, हमारी शैक्षणिक संस्थाओ के लिए अत्यन्त घातक सिद्ध होगी। क्योंकि कोरपोरेट जगत की चकाचौंध में लाभ हेतू पूँजी का जितना अधिक निवेश विदेशी संस्थाओं में होगा उतना देशी संस्थाओं में नहीं । हमारी शिक्षण संस्थाएँ तो पहले ही उपेक्षा की मार झेल रही हैं। रही-सही कसर इस विदेशी निवेश से पूरी हो जाएगी। यदि मंत्री महोदय शिक्षा के वाकई शुभचिन्तक होते तो देशी विश्वविद्यालयों की दशा सुधारने की ओर ध्यान देते।
‘द वॉल स्ट्रीट जर्नल’ की सर्वेक्षण रिर्पोट में विश्व के बीस अग्रणी विश्वविद्यालयों में एक भी भारतीय विश्वविद्यालय को नहीं शामिल किया है। भारत में पहले विश्वविद्यालय को स्थापित हुए 150 वर्ष बीत चुके तथा देश को स्वतन्त्र हुए 62 वर्ष । यदि इन 62 वर्षों में विश्व के सर्वाधिक धनी व्यक्तियों की सूची में कई भारतीय अपना निश्चित स्थान रखते है तो 62 वर्षों के इतिहास में 200 भारतीय विश्वविद्यालय कोई सम्मानजनक स्थान क्यों नहीं रखते? 200 विश्वविद्यालयों और 16000 महाविद्यालयों के माध्यम से दी जाने वाली उच्च शिक्षा आखिर आज भी इतनी पिछड़ी क्यों है?
क्योंकि वर्तमान में भी जब बजट के माध्यम से कोरपोरेट जगत को 5,00,000 करोड़ का तोहफा दिया गया है तब शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का सिर्फ 4 प्रतिशत खर्च होता है। माध्यमिक शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों में से केवल 7 प्रतिशत की पहुँच ही उच्च शिक्षा तक है। बरसों से इसे 15 प्रतिशत करने की बात की जा रही है लेकिन इन सभी बुनियादी ज़रूरतों को नज़रअन्दाज़ करते हुए शिक्षा को निजी स्वार्थो और आर्थिक लाभों के लिए विदेशी हाथों में बेचने का मसविदा तैयार किया जा रहा है। यह पूँजी के हितों के प्रति कटिबद्ध पूँजीपतियों की प्रबन्धन समिति के रूप में काम करने वाली सरकार की शिक्षा नीति ही है, जिसका फल आम नौजवानों को भुगतना पड़ रहा है।
यशपाल समिति ने हालाँकि विदेशी विश्वविद्यालयों की आवश्यकता को ख़ारिज किया है लेकिन साथ ही यह भी कहा है कि हमें विदेशी शिक्षकों को व्यापक पैमाने पर भारतीय विश्वविद्यालयों में लेना चाहिए क्योंकि इससे हमें विश्वस्तरीय विद्वानों से ज्ञान विनिमय का अवसर मिलेगा।
लेकिन कहने की ज़रूरत नहीं है कि एक पूँजीवादी व्यवस्था की शिक्षा व्यवस्था भी पूँजीवादी ही होती है। पाठ्यक्रमों के निर्माण से लेकर शिक्षकों की नियुक्ति तक पूँजी के हितों को ध्यान में रखकर ही कदम उठाये जाते हैं। ऐसे वातावरण में विदेशी शिक्षकों से जो विचार विनिमय होगा वह भी पूँजी के हितों से ही विनियमित होगा।
विदेशी विश्वविद्यालयों ने जहाँ भी अपनी शाखाएँ खोली है वहाँ वे केवल कार्यकारी परिसर बनकर रह गयी हैं और उन्होंने ऐसे पाठ्यक्रम शुरू किये हैं जिनमें ख़र्च कम और लाभ अधिक है। अमेरिकी विश्वविद्यालय दो वर्षों के पाठ्यक्रम के लिए 35 से 45 लाख रुपये की फीस वसूलते है, जिससे स्पष्ट हो जाता है कि ऐसे विश्वविद्यालयों में केवल वही लोग प्रवेश के अधिकारी होंगे, जिनकी जेबें भारी होंगी। आम साधारण जन में पायी जाने वाली प्रतिभाओं की पहुँच से ये शिक्षण संस्थान बाहर ही रहेंगे। आम साधारण वर्ग अपने आर्थिक कारणों से तो पहले ही शिक्षा से वंचित है साथ ही सरकार की इस प्रकार की नीतियों के परिणामस्वरूप सरकार का उसकी शिक्षा-सम्बन्धी माँगों से भी पीछा छूट जायेगा। यह वर्ग अपने ही दायरों में सिमटकर रह जाने के लिए बाध्य होगा। सरकार की छल, दम्भ, शोषण, उत्पीड़न और मुनाफे की नीति में स्वाहा होगा हिन्दुस्तान का वह आम छात्र नौजवान जो अपनी मेहनत के पर जीवन में कुछ कर गुज़रने के ढेरों सपने अपनी आँखों में पाले हैं। वस्तुतः जैसे-जैसे शिक्षा पर सरकार का नियंत्रण ढीला होगा, वैसे-वैसे विदेशी विश्वविद्यालयों को इस क्षेत्र में पनपने का मौका मिलेगा और शिक्षा का क्षेत्र किसी भी किस्म की सार्वजनिक जवाबदेही से मुक्त होकर बाज़ार के हवाले होता जाएगा। जाहिर है कि यह शिक्षा के बुनियादी अधिकार पर एक सीधी चोट है। यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि विदेशी शिक्षण संस्थाओं का मूल व प्राथमिक कार्य व्यवसाय करना है न कि उच्च शिक्षा स्तर को सुधारना। लेकिन सरकार पूँजीवादी स्वार्थों के चलते अपनी इस नीति को लागू करने के लिए पूर्ण रूप से प्रतिबद्ध है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2010
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