पूँजीवादी न्याय बेनक़ाबः हज़ारों निर्दोष नागरिकों के हत्यारे आज़ाद
सम्पादकीय
2 दिसम्बर, 1984 की ठण्ड से ठिठुरती रात भोपाल की सड़कों पर लोग दर्दनाक तरीक़े से मरने लगे। कुछ उल्टियाँ करते-करते गिरकर मर गये; कुछ खून उगलते-उगलते मर गये; कुछ का दम घुट गया। मासूम बच्चे जो अपनी माँ की लोरियाँ सुनते हुए अपनी-अपनी माँओं की छाती से चिपककर अभी-अभी सोए थे, वे कभी न उठ सके; न ही उनकी माँएँ ही उठ सकीं। सड़कों पर सोने वाले बेघर सड़कों पर तड़प-तड़पकर मर गये। जो बचे वे उस डरावने मंज़र के गवाह बने; सड़कों पर ज़हरीला सफेद धुँआ फैल गया था। अगले दिन तक दुनिया को पता चला कि भोपाल में अमेरिकी कम्पनी यूनियन कार्बाइड की सहायक कम्पनी यूनियन कार्बाइड इण्डिया लिमिटेड के भोपाल स्थित संयंत्र से हज़ारों टन घातक ज़हरीली गैस मीथेल आइसोनेट का रिसाव हो गया था और इस गैस से भोपाल के 56 नगर निगम वार्डों में से 36 वार्ड प्रभावित हुए हैं और नतीजतन 4000 लोग तत्काल मारे गये। आने वाले सप्ताहों के दौरान लोग मरते रहे और गैर-सरकारी आकलनों के मुताबिक गैस रिसाव के कारण मरने वालों की कुल संख्या 30 से 35 हज़ार के बीच है। इसके कारण हज़ारों लोग तत्काल विकलांग हो गये। आज तक भोपाल में इस गैस रिसाव के कारण पैदाइशी तौर पर विकलांग और विकारग्रस्त बच्चे पैदा होते हैं। यूनियन कार्बाइड के परित्यक्त संयंत्र में पड़े रासायनिक कचरे से भोपाल का वातावरण आज भी प्रभावित है और उसके आस-पास का भूजल प्रदूषित है जिसे 20,000 लोग पी रहे हैं। कारण यह कि मध्यप्रदेश सरकार उन्हें पीने का पानी मुहैया नहीं करा रही है और बाज़ार से ख़रीदकर पानी पीना उनकी औक़ात के बाहर है।
विश्व के इतिहास की इस भयंकरतम औद्योगिक दुर्घटना के करीब ढाई दशक बाद भी भोपाल की आम जनता इसकी कीमत अदा कर रही है। मानवीय संवेदना को अन्दर तक झकझोर देने वाली इस त्रासदी का कारण कोई लापरवाही नहीं थी। यह सीधे-सीधे पूँजीवादी मुनाफे के लिए की गयीं हत्याएँ थीं। आज सारी दुनिया जानती है कि भोपाल में संयंत्र लगाने के लिए यूनियन कार्बाइड के तत्कालीन सी.ई.ओ. वॉरेन एण्डरसन ने उन तकनोलॉजियों, प्रारूपों और सुरक्षा मानकों का स्वयं व्यक्तिगत तौर पर अनुमोदन किया जो बेहद ख़तरनाक थे और पश्चिमी देशों में उनका उपयोग अरसे पहले बन्द किया जा चुका था। लेकिन इन जानलेवा तकनीकों के इस्तेमाल से उत्पादन की लागत को घटाया जा सकता था और मुनाफे को बढ़ाया जा सकता था। यही कारण था कि यूनियन कार्बाइड लम्बे समय से (चार वर्ष से भी अधिक समय से) भारतीय सरकार से भोपाल में संयंत्र लगाने की आज्ञा माँग रही थी। उसे इसकी आज्ञा इन्दिरा गाँधी के शासन में आपातकाल के दौरान मिल गयी। इसके बाद, पश्चिम में परित्यक्त पिछड़ी हुई और ख़तरनाक तकनोलॉजी, प्रारूप और सुरक्षा इंतज़ामात वाला संयंत्र भोपाल में लगा। जनता की जान से खिलवाड़ शुरू हो चुका था। संयंत्र लगने के कुछ समय बाद ही दुर्घटनाएँ शुरू हो चुकी थीं और कम्पनी के सभी अधिकारी और संयंत्र में काम करने वाले मज़दूर जानते थे कि कभी-भी कोई भयंकर दुर्घटना घट सकती है। वास्तव में संयंत्र के चालू होने के बाद से लेकर 1984 के बीच 30 छोटी-बड़ी दुर्घटनाएँ हो चुकी थीं जिसमें गैस रिसाव भी शामिल था। 1981 में हुए एक गैस रिसाव के कारण एक मज़दूर की मौत हो गयी थी। उसके ठीक बाद एक गैस रिसाव के कारण 25 मज़दूरों को अस्पताल में भर्ती किया गया था।
मज़दूरों ने लगातार प्रबन्धन को चेताया कि बिना उचित सुरक्षा इंतज़ाम के और ख़तरनाक तकनोलॉजी के उपयोग से कभी भी कुछ त्रासद घट सकता है। लेकिन इस चेतावनी को सुनने की बजाय वॉरेन एण्डरसन ने ऑपरेशन मैनुएल को और उदारीकृत कर दिया, रेफ्रिजरेशन इकाइयों को हटा दिया, देखरेख पर्यवेक्षक के पद को समाप्त कर दिया, क्योंकि इतनी ख़राब और सस्ती तकनोलॉजी के उपयोग के बावजूद यूनियन कार्बाइड का संयंत्र घाटे में चल रहा था और उसकी लागत में एण्डरसन और अधिक कटौती करना चाहता था। परिणाम दिसम्बर 1984 में सामने आया। जर्जर हालत में पड़े टैंकों और पाइपों और ज़ंग लगे उपकरणों और 6 सुरक्षा उपायों के काम न करने के कारण मीथेल आइसोनेट गैस की भारी मात्रा का रिसाव हो गया और हज़ारों लोग एक इजारेदार पूँजीवादी कम्पनी की मुनाफे की हवस की भेंट चढ़ गये।
इसके बाद का पूरा घटनाक्रम भोपास गैस त्रासदी पर भोपाल के एक सेशन कोर्ट फैसले के बाद खुलकर सामने आने लगा है। इस घटनाक्रम ने पूँजीवादी राजसत्ता के हर अंग को जनता के सामने नंगा करके रख दिया है। पहले सरकार और उसके मन्त्रियों को देखिये।
यह बात खुलकर सामने आ चुकी है कि वॉरेन एण्डरसन गैस त्रासदी के बाद खुलेआम भोपाल आया और उसके बाद एक दिन के लिए नज़रबन्द होने के बाद भारत सरकार के मन्त्रियों से लेकर उच्च अधिकारियों की मदद से वह डंके की चोट पर यहाँ से निकल गया। हाल ही में एक टेलीविज़न चैनल ने एक फुटेज दिखाया जिसमें भोपाल की आम जनता का हत्यारा वॉरेन एण्डरसन पूरी ढिठाई के साथ यह कहता नज़र आता है, ‘‘नजरबन्द कर लो या नज़रबन्द मत करो, जमानत दो या जमानत न दो, मैं घर जाने के लिए आज़ाद हूँ—संयुक्त राज्य अमेरिका का एक कानून है—भारत, बाय-बाय, शुक्रिया!’’ यह कथन पूरी पूँजीवादी व्यवस्था की शर्मनाक सच्चाई को हमारे सामने उघाड़कर रख देता है। 40 हज़ार मासूमों का हत्यारा कैमरे के सामने ताल ठोंक-ठोंक कर चुनौती देता है और कहता है कि तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। इसके बाद, उस प्रान्त का मुख्यमन्त्री अर्जुन सिंह बयान देता है कि उनका एण्डरसन महोदय को तंग करने का इरादा बिल्कुल नहीं था, जो चन्द घण्टों की नज़रबन्दी थी, वह बस ग़लतफहमी के कारण हो गयी थी और एण्डरसन महोदय को ससम्मान जाने दिया जाएगा। और यही होता है राज्य की कांग्रेस सरकार और केन्द्र की कांग्रेस सरकार के आदेश पर भोपाल के अधिकारियों को आदेश दिया जाता है कि एण्डरसन को बाइज़्ज़त छोड़ दिया जाय। दो उच्चस्तरीय सरकारी अधिकारी पूँछ हिलाते हुए आते हैं और वॉरेन एण्डरसन को सरकारी गाड़ी में ले जाते हैं; इसके बाद एक विशेष सरकारी विमान से यह हत्यारा सरकारी चाकरों की सेवा में दिल्ली लाया जाता है और फिर वह सबकी आँखों के सामने से वापस अमेरिका चला जाता है। इधर भोपाल में मासूमों की दर्दनाक मौतें जारी हैं।
अब सरकारी जाँच एजेंसी और उसके जाँच की स्थिति देखिये। मामले की जाँच सी.बी.आई. को सौंपी जाती है। इस पूरी जाँच के दौरान क्या-क्या हुआ यह भी अब सामने आने लगा है। इस मामले की जाँच कर रहे सी.बी.आई. के पूर्व संयुक्त निदेशक बी.आर.लाल ने हाल ही में बताया कि विदेशी मामलों के मन्त्रलय से सी.बी.आई. को निर्देश दिया गया कि वह वॉरेन एण्डरसन को भारत ले आने के प्रयास छोड़ दे। एक भूतपूर्व अमेरिकी राजनयिक गार्डन स्ट्रीब ने 16 जून को मीडिया को बताया कि भारत सरकार ने यूनियन कार्बाइड और अमेरिकी सरकार को यह आश्वासन दिया था कि वॉरेन एण्डरसन पर कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी। इन दोनों खुलासों से साफ है कि भारत सरकार एक हत्यारे कारपोरेशन को हज़ारों की हत्या के बाद साफ बच निकलने देने के लिए प्रतिबद्ध थी। जाहिर है, कि यह सरकार देश की जनता की नहीं बल्कि पूँजी के हितों की नुमाइन्दगी करती है। इस पर और अधिक पन्ने रंगे जा सकते हैं और सनसनी पैदा की जा सकती है कि किस प्रकार भारत सरकार के सभी अंगों ने, मन्त्रलयों से लेकर नौकरशाही तक, वॉरेन एण्डरसन और यूनियन कार्बाइड को बचाने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक कर दिया। लेकिन यह बात सभी जानते हैं और इस पर ज़्यादा कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है। पूँजीवादी मीडिया अपने आन्तरिक अन्तरविरोधों से इन सभी सनसनीखेज सच्चाइयों को रोज़ दिखला रहा है और अपनी टी.आर.पी. बढ़ा रहा है।
पूँजीवादी पार्टियों की स्थिति भी साफ थी। कांग्रेस वॉरेन एण्डरसन को बचकर निकल जाने देने के लिए चारों तरफ से हमलों का शिकार हो रही है। राज्य में और केन्द्र में कांग्रेस की सरकारें थीं और अब यह साफ हो चुका है कि एक हत्यारे पूँजीवादी कारपोरेशन को बचाने में कांग्रेस की सरकारों ने मुख्य भूमिका निभाई थी। कांग्रेस के फँसने में भारतीय जनता पार्टी को अपने पुनरुत्थान का अवसर नज़र आया और उसने अपने हमले तेज़ कर दिये लेकिन जल्द ही वह भी शर्मनाक स्थिति में नज़र आई। कारण यह था कि यूनियन कार्बाइड को खरीदने वाली कम्पनी डाउ केमिकल्स को भोपास गैस त्रासदी के मामले में किसी भी मुआवज़े से मुक्ति और रासायनिक कचरा साफ करने की जिम्मेदारी से मुक्ति देने के लिए भारतीय जनता पार्टी ने ही केन्द्रीय भूमिका निभाई थी। दरअसल, भाजपा नेता अरुण जेटली ने अपनी कानूनी विद्या का इसके लिए जमकर प्रयोग किया। इसके अलावा, यह बात भी सामने आई कि मध्यप्रदेश में आई भाजपा की सरकारों ने भी वॉरेन एण्डरसन के प्रत्यर्पण के लिए कोई प्रयास नहीं किया। असल में, कई गवाह और प्रमाण जो यूनियन कार्बाइड की आपराधिक कार्रवाई को साबित करते थे, वे भाजपा की सरकारों के दौरान ही अस्तित्व में आए। लेकिन उन्हें लेकर नये सिरे से कोर्ट में जाने का कोई भी कदम भाजपा की सरकार ने नहीं उठाया। इन खबरों के सामने आते ही भाजपा के तमाम नेता भी अपने चेहरे छिपाते घूमने लगे। कमोबेश यही हाल अधिकांश पूँजीवादी पार्टियों का था। सरकार के तमाम अफसरान की भूमिका भी वॉरेन एण्डरसन को बचाने में बहुत महत्वपूर्ण थी। नौकरशाही का हर अंग वॉरेन एण्डरसन को बच निकलने देने के काम में लगा हुआ था। एण्डरसन को दिल्ली ले जाने वाले पायलट से लेकर, भोपाल के पुलिस अधिकारियों और पूर्व सी.बी.आई. अधिकारियों और तत्कालीन प्रधानमन्त्री कार्यालय के नौकरशाहों तक के बयान अब इस बात को किसी भी सन्देह से परे साबित कर चुके हैं कि सरकार के तमाम मन्त्रियों से लेकर उच्चस्तरीय अधिकारियों तक, सभी एक हत्यारे पूँजीवादी कारपोरेशन को बचाने में लगे हुए थे।
जब पूँजीवादी राजसत्ता के सभी प्रमुख अंग पूँजी के हितों की सेवा में लगे हुए थे तो न्यायपालिका क्यों पीछे रहती। 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने वॉरेन एण्डरसन और अन्य अभियुक्तों पर लगे आरोपों को धारा 304(II) से धारा 304 ए के तहत ला दिया। यानी कि वह धारा जो सड़क पर लापरवाही से वाहन चालन के कारण होने वाली दुर्घटनाओं में लगाई जाती है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस अहमदी की इस सेवा से सभी अभियुक्तों को काफी राहत मिली क्योंकि पहले लगी धाराओं के तहत जुर्म साबित होने पर 10 साल की कैद हो सकती थी, और बाद में लगी धाराओं के तहत जुर्म साबित होने पर अधिक से अधिक 2 वर्ष की कैद और जुर्माना हो सकता था। बाद में अपील पर कैद रद्द कर सिर्फ जुर्माना भी लगाया जा सकता था। 40,000 लोगों की जघन्य हत्या को भारत के सम्माननीय सुप्रीम कोर्ट ने एक यातायात दुर्घटना में तब्दील कर दिया! जस्टिस अहमदी ने अपने फैसले के पक्ष में तर्क दिया कि भारतीय दण्ड संहिता में ऐसी औद्योगिक दुर्घटनाओं के लिए दोषी को सज़ा देने का कोई कानून मौजूद नहीं है। ऐसे में यही धारा लग सकती थी। जस्टिस अहमदी ने अपने चकित कर देने वाले तर्क को जारी रखते हुए कहा कि अगर मेरी कार का चालक लापरवाही से कार चलाते हुए किसी की मौत का कारण बनता है तो इसके लिए मुझे मुख्य दोषी नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन सवाल यह है कि यदि कार का मालिक ही चालक को एक ऐसी कार चलाने के लिए देता है जिसमें न ब्रेक काम कर रहा है न स्टियरिंग व्हील तो कौन जिम्मेदार होगा? आज यह एक प्रमाणित तथ्य है कि वॉरेन एण्डरसन ने यह जानते हुए भी एक ख़तरनाक तकनोलॉजी और निष्प्रभावी सुरक्षा मानकों के उपयोग की इजाज़त दी, कि इसके कारण हज़ारों जानें जा सकती हैं, सिर्फ इसलिए कि अधिक से अधिक मुनाफा कमाया जा सके। इसके बाद रहे-सहे सुरक्षा मानकों और प्रबन्धों को भी वॉरेन एण्डरसन की आज्ञा से ही हटाया गया ताकि घाटे में चल रहे संयंत्र का मुनाफा बढ़ाया जा सके। ऐसे में, जस्टिस अहमदी ने जो चालक-मालिक का रूपक दिया है, उसे या तो वे समझ सकते हैं या यूनियन कार्बाइड के हत्यारे।
इस पूरे मामले ने दिखला दिया है कि मार्क्स का वह कथन कितना सत्य है जिसमें उन्होंने कहा था कि पूँजीवादी व्यवस्था में सरकारें पूँजीपति वर्ग के मामलों का प्रबन्धन करने वाली समितियाँ होती हैं। पूँजीवादी राजसत्ता का हर अंग विधायिका से लेकर कार्यपालिका और न्यायपालिका तक हज़ारों आम लोगों के हत्यारे कारपोरेशन को बचाने में लगी रहीं और जनता के साथ एक आपराधिक धोखा करती रहीं। इस पूँजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत इसके अलावा और कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती। चुनावों की महाखर्चीली महानौटंकी के बावजूद हर आम आदमी जानता है कि चुनने के लिए कुछ भी नहीं है और पड़ने वाले आधे वोटों में आधा या उससे भी कम वोट पाने वाली पार्टी या गठबन्धन जो सरकार बनाता है, वह देश की जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। आज़ादी के 63 वर्षों का इतिहास इस बात का गवाह है कि पूँजीवादी सरकारें पूँजीपतियों के मुनाफे की मशीनरी के सुचारू प्रचालन के लिए होती हैं। नाभिकीय दुर्घटना जवाबदेही बिल के तहत भी मौजूदा पूँजीवादी सरकार विशालकाय इजारेदार कारपोरेशनों को हर प्रकार की जवाबदेही, जिम्मेदारी और कर्तव्य से मुक्त होकर अधिक से अधिक मार्जिन के साथ अतिलाभ निचोड़ने की आज़ादी देने का प्रबन्ध कर रही है। इतने नग्न तौर पर पूँजी के हितों की सेवा शायद भारत में पहले कभी नहीं हुई है।
भोपाल गैस हत्याकाण्ड भारत के पूँजीवाद के इतिहास की एक प्रतीक घटना है। इसने पूँजीवादी राजसत्ता के हर स्तम्भ के असली चरित्र को सामने ला दिया है। यह पहला मौका नहीं है जब इस आदमखोर, मानवद्रोही और अन्यायपूर्ण व्यवस्था का चरित्र बेनकाब हुआ है। ऐसा छोटे-बड़े मौकों पर हर रोज़ होता है। सवाल यह है कि इस देश के आम छात्र-नौजवान कब जागेंगे? पूँजीपति वर्ग और उसके चाकरों को शायद यह भरोसा हो चला है कि इस देश के आम युवाओं का पौरुष चुक गया है और जघन्य से जघन्य पूँजीवादी अपराध पर बस वे ‘‘तौबा-तौबा’‘ करके रह जाएँगे और फिर अपना सिर झुका कर हर अन्याय, शोषण और उत्पीड़न का मूक साक्षी बनने को तैयार हो जाएँगे। शायद उन्हें यह यक़ीन हो चला है कि अब हर किस्म की कुरूपता और अन्याय हमारे लिए मान्य और स्वीकार्य हो चला है और गैर-बराबरी और नाइंसाफी को चुपचाप देखते रहना हमारी आदत बन चुका है। इसे ग़लत साबित करना है या सही, यह सवाल हर सच्चे नौजवान के सामने है। सवाल यह साबित करने का है कि हम आज़ाद, इंसाफपसन्द और बहादुर नौजवान हैं, या दासवृत्ति के शिकार आत्मसम्मान से रिक्त नौजवान। सवाल हमारे सामने है; इतिहास इन्तज़ार कर रहा है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2010
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