खाप पंचायतों के फ़रमान और पूँजीवादी लोकतंत्र की दुविधा

शिशिर

हाल ही में हरियाणा राज्य के करनाल शहर की एक अदालत ने एक खाप पंचायत के मुखिया समेत पाँच लोगों को फाँसी की और एक को उम्र कैद की सज़ा सुनायी। इस फैसले के साथ ही हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान और पंजाब की खाप पंचायतें एकजुट होकर इस फैसले का विरोध करने लगीं। यह फैसला प्रसिद्ध मनोज और बबली के मामले में सुनाया गया था। दो साल पहले हरियाणा में मनोज और बबली नाम के दो युवाओं ने प्रेम विवाह किया जिसे वहाँ की खाप पंचायत ने एक ही गोत्र में हुई शादी के कारण अवैध करार दिया और यह फरमान सुनाया कि मनोज और बबली अलग हो जाएँ। इस फैसले के बाद मनोज और बबली ने गाँव छोड़ दिया और पुलिस से सुरक्षा की माँग की। लेकिन एक ही सप्ताह बाद खाप पंचायत द्वारा नियुक्त हत्यारों ने मनोज और बबली की नृशंस हत्या कर दी। ये हत्यारे और कोई नहीं थे बल्कि बबली के ही रिश्तेदार थे। करनाल की अदालत ने जब इस हत्या के मामले में दोषियों को सज़ा सुनाई तो पूरे हरियाणा की खाप पंचायतें इसके खि़लाफ लामबन्द हो गयीं और वे हिन्दू विवाह कानून में बदलाव करने की माँग करने लगीं। ये पंचायतें माँग कर रही हैं कि हिन्दू विवाह कानून में संशोधन करके सगोत्रीय विवाह को गैर-कानूनी घोषित कर दिया जाय। ज्ञात हो कि विवाह जैसे व्यक्तिगत मसलों के लिए कोई एकल नागरिक संहिता (यूनीफॉर्म सिविल कोड) नहीं बल्कि विभिन्न पर्सनल लॉ प्रभावी हैं। यह अपने आप में एक विडम्बना और विरोधाभास है कि जिस संविधान की ‘लोकतान्त्रिक आत्मा’ की बार-बार दुहाई दी जाती है, वह संविधान ‘धार्मिक भावनाओं को ठेस’ न पहुँचे, इसके लिए विभिन्न सम्प्रदायों की सामन्ती, अलोकतान्त्रिक और निरंकुश परम्पराओं को भी स्पेस देता है।

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खाप पंचायतों के इस मसले पर लामबन्द होते ही अपने-अपने चुनावी हितों के लिए विभिन्न पार्टियाँ और उनके नेता खाप पंचायतों के समर्थन में उतर आए। महेन्द्र सिंह टिकैत और ओमप्रकाश चौटाला ने खुले तौर पर खाप पंचायतों का समर्थन किया। यहाँ तक कि कांग्रेस के ‘जेनरेशन नेक्स्ट’ के उभरते नेताओं में से एक नवीन जिन्दल ने भी खाप पंचायतों की वकालत की, हालाँकि कांग्रेस हाईकमान से झिड़की के बाद वे शान्त हो गये। तमाम चुनावी पूँजीवादी पार्टियाँ इस बात को भली-भाँति समझ रही हैं कि हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान के पूरे सामाजिक-आर्थिक ढाँचे पर खापों की जकड़बन्दी के कारण उन्हें नज़रअन्दाज करना सम्भव नहीं है और वोट बैंक की राजनीति करने वाला कोई भी दल खापों के खुल्लम-खुल्ला विरोध में नहीं जा सकता। यही कारण था कि एक संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार के कानून मन्त्री वीरप्पा मोइली के लिए नयी दिल्ली में खाप.विरोधी अवस्थिति अपनाना तो आसान था और हिन्दू विवाह अधिनियम में संशोधन की गुंजाइश से इंकार करना भी सरल था, लेकिन हरियाणा के करनाल में बैठे नवीन जिन्दल के लिए प्रत्यक्ष तौर पर ऐसी अवस्थिति अपनाना मुश्किल था। तमाम पार्टियों की अवस्थिति साफ तौर पर पूँजीवादी चुनावी राजनीति के समीकरणों से निर्धारित हो रही है। जो हरियाणा-आधारित क्षेत्रीय राजनीतिक दल हैं, वे खुल्लम-खुल्ला खापों का समर्थन कर रहे हैं और सामन्ती मध्ययुगीन बर्बरता के सामने नतमस्तक हो रहे हैं, वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय पूँजीवादी राजनीतिक दल भी इस पर कोई कठोर रुख़ नहीं अपना पा रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के देवेन्द्र स्वरूप जैसे ‘‘दार्शनिक-चिन्तक’‘ बता रहे हैं कि विज्ञान भी सगोत्रीय विवाहों की इजाज़त नहीं देता और यह ‘इंसेस्ट रिलेशनशिप’ जैसा माना जाता है! ऐसे रचनात्मक विचार किस वैज्ञानिक ने पेश किये हैं, यह तो देवेन्द्र स्वरूप जैसे लोग ही बता सकते हैं। लेकिन एक बात साफ है कि तमाम धार्मिक, जातिवादी, सामन्ती मूल्यों का पूँजीवादी व्यवस्था से ‘इंसेस्ट रिलेशनशिप’ कराने वाले दल और चिन्तक अपने-अपने बिलों से निकल आए हैं और बरसाती मेंढकों की तरह खाप पंचायत के समर्थन में कोरस गाने में लग गये हैं। ऐसे में कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे उभरकर सामने आ रहे हैं।

खाप पंचायतों का इतिहास बहुत पुराना है। ये पंचायतें पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, और राजस्थान के तमाम इलाकों में छठवीं-सातवीं शताब्दी ईसवी से प्रभाव में देखी जा सकती हैं। ये समाज के सामाजिक-आर्थिक संगठन का एक रूप थीं। परम्परागत तौर पर एक खाप के तहत एक ही गोत्र के 84 गाँव आते थे। इसके नीचे सात-सात गाँवों के समूह होते थे, जिन्हें थाम्बा कहा जाता था। एक थाम्बा में 12 गाँव होते थे। बाद में, कई ऐसी खापें अस्तित्व में आईं जिनमें 12 या 24 गाँव ही होते थे। फिलहाल, जाटों की कई प्रभावी पंचायतें हैं जैसे कि बालियान खाप, धनकड़ खाप, रमाला चौहान खाप, बत्तीसा खाप, आदि। महेन्द्र सिंह टिकैत स्वयं बालियान खाप के मुखिया हैं। बाद में, 1986 में उन्होंने खाप को ही आधार बनाकर धनी किसानों का आन्दोलन शुरू किया और भारतीय किसान यूनियन अस्तित्व में आयी। वास्तव में, इस समय भी खापें हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गाँवों में धनी किसानों के आर्थिक और साथ ही साथ सामाजिक और सांस्कृतिक वर्चस्व को कायम रखने की एक प्रणाली का काम करती हैं। ये खाप पंचायतें बर्बर सामन्ती और यहाँ तक कि आदिम सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों का पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था के साथ ‘सगोत्रीय विवाह’ का मण्डप बनी हुई हैं। निश्चित रूप से, खाप पंचायतें सामन्ती बर्बरता के मूल्यों का प्रतिनिधित्व करती हैं, लेकिन उन्हें महज़ सामन्ती संस्था कह देना एक जटिल मामले का अतिसरलीकरण होगा।

ये खाप पंचायतें सामन्ती और आदिम बर्बर मूल्यों को उन्ही पर थोप पाती हैं जिनके पास आर्थिक शक्ति नहीं है। ‘तहलका’ पत्रिका ने हाल ही में एक रपट छापी जिसमें दिखलाया गया कि पिछले दो दशकों के दौरान जिन प्रेमियों को खाप पंचायतों के फरमानों का शिकार बनना पड़ा, वे आर्थिक रूप से समृद्ध पृष्ठभूमि से नहीं आते थे। इस रपट ने दिखलाया कि हरियाणा में ही, आज से नहीं बल्कि काफी पहले से ही, कई सगोत्रीय विवाह हुए हैं। जिन-जिन मामलों में सगोत्रीय विवाह करने वाले युवा धनी किसानों के परिवारों से आते थे, वहाँ खाप पंचायत फरमान सुनाती रह गयी, लेकिन उसका कोई असर नहीं पड़ा। खाप पंचायतों की इतनी हिम्मत नहीं थी कि उन धनी और प्रभावी परिवारों के युवाओं की हत्या के लिए भाड़े के हत्यारों को भेज दे या उनके परिवार को मजबूर कर दे। ‘तहलका’ ने ऐसे तमाम दम्पतियों का साक्षात्कार भी छापा जिन्होंने सगोत्रीय विवाह किया था और उनकी उच्च आर्थिक स्थिति के कारण खाप पंचायतें उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाईं।

साफ है कि आज के समय में खाप पंचायतें अपने आर्थिकेतर उत्पीड़न को उस तरह से समाज पर नहीं थोप पातीं जिस रूप में सामन्ती उत्पादन पद्धति और सामन्ती संस्कृति के पूर्ण वर्चस्व के दौर में थोप सकती थीं। पूँजीवादी उत्पादन पद्धति और उत्पादन सम्बन्धों के गाँवों में 1970 के दशक से वर्चस्वकारी बनने के बाद भी सामन्ती मूल्यों और संस्कृति का प्रभाव कम होने के बावजूद बना हुआ है। सामन्ती उत्पीड़न के कई रूपों को भारत में पैदा हुए रुग्ण पूँजीवाद ने अपना भी लिया है। पूँजीवादी उत्पादन पद्धति और सामाजिक ढाँचा हर हमेशा जनवादी ही होगा, यह बहुत बड़ा भ्रम है। ठीक उसी प्रकार जैसे कि यह समझना कि पूँजीवाद हमेशा रैडिकल भूमि सुधारों के साथ ही आएगा। अलग-अलग देशों में पूँजीवाद का विकास अलग-अलग रूपों में हुआ है। फ्रांसीसी या अमेरिकी मॉडल या फिर ब्रिटिश मॉडल पूँजीवादी विकास के एकमात्र मॉडल नहीं हैं। जर्मनी और प्रशिया में पूँजीवाद का जिस प्रकार विकास हुआ उसने पूँजीवाद-पूर्व सामन्ती निरंकुशता और गैर-जनवादी सामन्ती मूल्यों को अपने फायदे के अनुसार अनुकूलित करके अपना लिया। कई सामन्ती परम्पराओं को छेड़ा नहीं गया और उन्हें तुष्टिकरण के तहत ज्यों-का-त्यों छोड़ दिया गया। भारत में भी तमाम भिन्नताओं के साथ, कुछ ऐसा ही हुआ। जिन समाजों में पूँजीवाद का विकास आमूल रूप से, ‘नीचे से’ (‘फ्रॉम बिलो’) नहीं हुआ, वहाँ समाज के पोर-पोर में निरंकुश, गैर-जनवादी परम्पराएँ प्रभावी रही हैं। यूरोप में 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक यह बात इटली, पुर्तगाल, जर्मनी आदि पर लागू होती थी। अफ्रीका और ख़ास तौर पर एशिया के उत्तर-औपनिवेशिक समाजों में जिस प्रक्रिया से पूँजीवाद आया, उसमें तो सामन्ती, निरंकुश और गैर-जनवादी परम्पराओं और मूल्यों की निरन्तरता और भी ज़्यादा रही। इन समाजों का पूँजीपति वर्ग सामन्तवाद के साथ प्रत्यक्ष युद्ध छेड़ने की ताक़त नहीं रखता था। आर्थिक शक्तिमत्ता के लिहाज़ से वह सामन्ती वर्गों से अधिक शक्ति ग्रहण कर चुका था और राजनीतिक रूप से संगठित हो गया था, लेकिन सामन्ती वर्गों के साथ समझौता करके ही वह अपने देश की जनता के शोषण-उत्पीड़न को जारी रख सकता था। भारत में भी यहाँ का पूँजीपति वर्ग जितना बैर उपनिवेशवादियों से रखता था, उतना ही वह देश की मेहनतकश जनता से डरता भी था। यही कारण था कि आज़ादी की लड़ाई के दौरान अंग्रेज़ों के खि़लाफ वह देश की जनता को साथ लेकर कोई रैडिकल फैसलाकुन लड़ाई नहीं लड़ पाया। वह एक क्रमिक प्रक्रिया में स्वशासन, डोमिनियन स्टेटस से होते हुए पूर्ण स्वराज की माँग तक पहुँचा। आज़ादी के बाद भी जनता के शोषण-उत्पीड़न का जारी रखने के लिए उसने सामन्ती तत्वों के साथ समझौते और समझाने-बुझाने की नीति को अपनाया। आर्थिक क्षेत्र में सामन्ती भूस्वामियों को पूँजीवादी भूस्वामियों में तब्दील हो जाने का पूरा अवसर दिया गया। सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में भी उच्च जातियों के भूस्वामी वर्ग के वर्चस्व को खुल्लम-खुल्ला चुनौती देने वाला कोई कदम यहाँ के पूँजीपति वर्ग ने नहीं उठाया। उल्टे सामन्ती शोषण-उत्पीड़न के तमाम रूपों को स्पर्श भी नहीं किया गया और तमाम रूपों को अनुकूलित करके भारत की विशिष्ट पूँजीवादी राज और समाज व्यवस्था में सहयोजित कर लिया गया। कानून और नियम के धरातल पर कुछ जनवादी दिखने वाले कानून बना दिये गये, लेकिन उनका कार्यान्वयन करने की कोई इच्छा-शक्ति कार्यकारी निकायों को नहीं दी गयी।

एक अन्य महत्वपूर्ण कारक यह है कि भारतीय समाज में पुनर्जागरण, प्रबोधन और धार्मिक सुधार के वैसे रैडिकल और समाज में गहराई से पाँव जमाए जनान्दोलन नहीं हुए जैसे कि पश्चिमी यूरोप में हुए थे। यहाँ कोई कबीर, कोई नानक, कोई रैदास, कोई पल्टू बीच-बीच में एक बिजली के समान कौंधा। राहुल सांकृत्यायन, राधामोहन गोकुलजी जैसे कुछ यशस्वी व्यक्तित्व बीच-बीच में प्रकट हुए। लेकिन कुछ जाति-विरोधी आन्दोलनों समेत कुछ महत्वपूर्ण अपवादों को छोड़कर जनवादी मूल्यों, सामन्ती बर्बरता और निरंकुशता विरोधी कोई व्यापक समाज-व्यापी जनान्दोलन नहीं हो पाया। इसका कारण 17वीं-18वीं सदी में भारतीय समाज का औपनिवेशीकरण भी था। अंग्रेज़ों के आने से ठीक पहले ऐसे कुछ जनान्दोलन भ्रूण रूप में नज़र आने लगे थे। लेकिन पूरी भारतीय सामाजिक संरचना का नैसर्गिक विकास उपनिवेशवाद के आने के कारण बाधित हो गया। अंग्रेज़ों ने अपने वर्चस्व को पूर्ण रूप से स्थापित करने के बाद समाज या अर्थव्यवस्था के धरातल पर सामन्ती मूल्यों और सम्बन्धों को ज़्यादा छेड़ा नहीं, बल्कि उन्हें यह समझ में आया कि अधिशेष विनियोजन के लिए भारतीय समाज में मौजूद आर्थिकेतर उत्पीड़न के रूपों को औपनिवेशिक राज्य व्यवस्था में सहयोजित कर लेना ज़्यादा बेहतर है। इसलिए 1793 में स्थायी बन्दोबस्त आया जिसने पूरे उत्तर-पूर्वी भारतीय समाज में ज़मीन्दारों की सत्ता को और मज़बूत बनाकर उसे अंग्रेज़ी औपनिवेशिक राज्य का सहयोगी बना दिया। उत्तर और उत्तर-पश्चिमी भारत में रैयतवाड़ी बन्दोबस्त लागू किया गया लेकिन खाप पंचायतों के सामाजिक-सांस्कृतिक वर्चस्व को कहीं पर भी छेड़ा नहीं गया।

कुल मिलाकर परिणाम यह रहा कि भारतीय समाज उस प्रकार के पुनर्जागरण, प्रबोधन और धार्मिक सुधार का साक्षी नहीं बन पाया जिसने यूरोप में व्यक्तिगत सम्बन्धों के पूरे ताने-बाने से लेकर राज्य और व्यक्ति के सम्बन्ध और राज्य और धर्म के सम्बन्ध तक में एक जनवादी क्रान्ति को अंजाम दिया। यही कारण है भारतीय जनमानस के एक बड़े हिस्से में स्वयं एक गैर-जनवादी रुझान मौजूद है जो समय-समय में गैर-जनवादी सामन्ती और निरंकुश फासीवादी ताक़तों के भी पक्ष में खड़ा होता रहता है। जब एनडीटीवी ने खाप पंचायतों के मसले पर एक परिचर्चा आयोजित कराई और खाप पंचायतों की अवस्थिति पर एसएमएस से दर्शकों कर राय माँगी तो 84 प्रतिशत दर्शकों ने खाप पंचायतों का समर्थन किया। हरियाणा में भी व्यक्तिगत विद्रोहों को छोड़ दिया जाय तो खाप पंचायतों के खि़लाफ कोई जनान्दोलन खड़ा नहीं हुआ है। धीरे-धीरे शहरी पूँजीवादी विकास के साथ कुछ क्षेत्रों में उनकी पकड़ थोड़ी ढीली हुई है लेकिन यह प्रक्रिया बहुत धीमी है। कारण यह है कि पूँजीवादी राजनीति के अपने द्वन्द्व में खाप पंचायतों का वर्चस्व पूँजीवादी वर्चस्व में सहयोजित हो गया है। यह आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों पर प्रभुत्व को बनाए रखने का उपकरण बन गया है। इस वर्चस्व को तोड़ने का काम अलग से कानून बनाकर नहीं हो सकता। न ही इसका समाधान महज़ सांस्कृतिक प्रचार और समझाने-बुझाने से हो सकता है। पूँजीवादी समाज और राज्य व्यवस्था के दायरे के भीतर इसका समाधान सम्भव नहीं ही नहीं है।

निश्चित रूप से खाप पंचायतों और इस प्रकार के सभी निरंकुश सामाजिक-आर्थिक निकायों के वर्चस्व को तोड़ने के लिए तर्कप्रसार, वैज्ञानिक दृष्टि के प्रसार, जाति-विरोधी प्रचार-प्रसार के कामों को हाथ में लेना होगा। युवाओं के बीच विशेष रूप से इन अभियानों को सांस्कृतिक रूपों के सहारे चलाना होगा। लेकिन इन सभी कार्यभारों को पूरे सामाजिक-आर्थिक ढाँचे को आमूल-चूल रूप से बदल डालने वाले क्रान्तिकारी आन्दोलन का हिस्सा बनाना होगा। युवाओं को इस पूरे काम में ख़ास तौर पर आगे आना चाहिए और भारतीय समाज में एक नये प्रकार के पुनर्जागरण और प्रबोधन के आन्दोलन का अगुआ बनना चाहिए। इसके बग़ैर हम इस मामले में एक भी कदम आगे नहीं बढ़ा सकते हैं।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2010

 

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