सार्वजनिक वितरण प्रणाली : आम जनता का छिनता बुनियादी हक

गौरव

अभी हाल में संविधान के 60 वर्ष पूरे हुए हैं। मौजूदा सरकार ने नाच–गाकर–तालियाँ पीटकर लोगों को अहसास करवाया की जश्न का मौका है। पर अफसोस! आम आबादी जो बाज़ार की अन्धी ताकतों का कोड़ा अपनी पीठ पर खा रही है, जिसे रोज़ाना महँगाई का बुलडोज़र कुचल रहा है, वह कैसे इस झूठ पर खुशी मनाए की संविधान आम मेहनतकश आबादी के लिए प्रासंगिक है। संविधान और संवैधानिक सरकारों ने अब तक जो आम जनता को दिया है उसे हर कोई जानता है। इसे उसकी कार्यप्रणाली से बखूबी जाना जा सकता है।

शुरुआत में सरकार ने बाज़ार से गेहूँ खरीदकर राशन डीलरों के माध्यम से कम दर पर राशन लोगों तक पहुँचाने का जिम्मा उठाया था उसे वह सोची–समझी रणनीति के तहत धीरे–धीरे पूँजीपतियों की सेवा में प्रस्तुत कर रही है। वह पिल्सबरी, आशीर्वाद, शक्तिभोग जैसी बड़ी कम्पनियों को राहत देकर (बिजली, पानी, जमीन मुहैया कराने से लेकर करों में राहत आदि सहित) मुनाफा निचोड़ने की छूट दे रही है। दूसरी तरफ सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस.) को भ्रष्टाचार, भाई–भतीजावाद, अफसरशाही, कालाबाज़ारी से मुक्त करने की बजाए पी.डी.एस. को धीरे–धीरे खत्म करती जा रही है।

सरकार पी.डी.एस. के तहत जो राशन खरीदती है उसे सब्सिडी पर डीलरों को देती है। डीलरों को गेहूं ग़रीबी रेखा से नीचे रहने वाले (बी–पी–एल) कार्ड धारकों को 4.65 रू प्रति किलो की दर से बेचने का आदेश प्राप्त है। इसी तरह चावल उन्हें 6.09 रु प्रति किलो की दर से मिलता है तथा उसे 6.15 रु प्रति किलो की दर से कार्डधारकों को बाँटना है। ऐसा ही अन्त्योदय अन्न योजना के तहत निपट ग़रीबी मे रह रहे परिवारों के लिए, दो रुपया प्रति किलो की दर से गेहूँ और तीन रुपया प्रति किलो की दर से चावल समेत 35 किलो राशन मुहैया होना चाहिए। इसमें डीलर की लाभ दर लगभग 1.5 फीसदी रहती है। यहाँ तक सब ठीक ठाक है।

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परजीविता क्रम से सबसे नीचे का मोहरा

डीलर को गोदाम से दुकान तक राशन ले जाने का भाड़ा स्वयं ही वहन करना होता है। मान लीजिए प्रति बोरे पर औसत माल भाड़ा खर्च 10 रु आता है तो ऐसे में डीलर को प्रति बोरा बेचने पर लगभग 8.50 रु का घाटा होगा। डीलर को हर महीने सप्लाई इन्स्पेक्टर को कम से कम 500 रु देना पड़ता है। ग्राम प्रधान से लेकर बीडीओ तक को खुश रखना पड़ता है। ग्राम प्रधान ही राशन वितरण की पुष्टि करता है। आइये ज़रा और तथ्यों की रोशनी में इसकी पड़ताल करें।

• प्रख्यात अर्थशास्त्री ज्यां ड्रेज़ ने अपने सर्वेक्षण में पाया कि डीलर चोर बाज़ारी न करे तो उसे प्रति बोरा यानी प्रति क्विण्टल 58 रुपये का घाटा उठाना पड़ेगा। लगभग सभी डीलरों ने स्वीकार किया कि ‘चोर–बाज़ारी’ उनकी मजबूरी है।

• केरल में सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सफल माना जाता है। लेकिन अर्थशास्त्री मूइज ने अपने सर्वेक्षण में पाया कि वहाँ भी चावल 10 फीसदी और गेहूं 40 फीसदी काले बाज़ार में चली जाती है।

जनता के लिए उपलब्ध राशन की मात्रा एक घिनौना मज़ाक

अर्थशास्त्री कृष्ण और सुब्बाराव ने अपने अध्ययन में पाया कि ग्रामीण भारत में पी.डी.एस. के माध्यम से प्रति व्यक्ति गेहूँ उपलब्धता 0.24 किलोग्राम प्रति माह थी और चावल की उपलब्धता 0.62 किलोग्राम।

मधुर स्वामीनाथन ने अपने अध्ययन में पाया कि केरल (जहाँ यह प्रणाली सब से अधिक सफल मानी जाती है) में प्रति व्यक्ति राशन की उपलब्धता 5 किलो प्रति माह थी।

उत्तर प्रदेश और बिहार में ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या सबसे अधिक है इन राज्यों में प्रति व्यक्ति मासिक राशन उपलब्धता एक किलोग्राम से भी कम थी।

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अध्ययन में भी यह जाहिर हुआ कि ग्रामीण क्षेत्र में इस प्रणाली के अन्तर्गत हर महीने प्रति व्यक्ति एक किलो राशन उपलब्ध होता है।

2003 में पूर्वी उत्तर प्रदेश में इस प्रणाली के अन्तर्गत लाभार्थियों के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि औसतन उन्हें प्रतिमाह दो किलो खाद्यान्न हासिल हुआ। सोनभद्र जनपद के एक जनजाति बहुल प्रखण्ड के सर्वे में पाया गया कि सबसे गरीब लोग इस प्रणाली से एकमुश्त अनाज खरीदने में असमर्थ थे। निर्धनता के कारण कार्ड होते हुए भी वे चावल के महीन टुकड़ों को खुद्दी बाज़ार से खरीदते थे क्योंकि वह इस प्रणाली के अन्तर्गत मिलने वाले चावल से सस्ता था। एक अन्य अध्ययन से पता चला कि उत्तर प्रदेश में भूख से मरने वाले लोगों के पास राशनकार्ड तो था लेकिन राशन खरीदने के लिए उनके पास पैसे नहीं थे (ईपीडब्ल्यू 2002)।

सरकारी रिपोर्ट बताती है कि गाज़ियाबाद (उप्र) जिले तथा उसे सटे अन्य नगरों के 10 लाख 15 हजार 432 कार्डधारकों मे से 50 फीसदी लोगों को ही गेहूँ मिल रहा है। शासनादेश कुछ भी आए राशन डीलर अपने तरीके से राशन बाँट रहे हैं। जबकि हर साल न जाने कितनी दुकानों का लाईसेंस निलम्बित होता है, कितनों का रद्द होता है और कुछ को तो जेल की हवा भी खानी पड़ती है। राशन वितरण का ढर्रा जस का तस है। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार जनवरी–फरवरी में वितरण हेतु शासन स्तर से 64 हजार 300 क्विण्टल गेहूँ का आवण्टन किया गया। जबकि मार्च के लिए 10 हजार 890 क्विण्टल गेहूँ आया। पता चला कि अभी जनवरी माह के कोटे का गेहूँ बँटा तक नहीं है। स्थानीय शासन के अफसर तक मान रहे हैं कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली में अनियमितताएँ बढ़ी हैं। कार्डधारकों को 5 किलो देकर 10 किलो की राशनकार्ड में एण्ट्री हो रही है। विवरणों के आधार पर प्रति व्यक्ति गेहूँ का वितरण एक किलोग्राम बैठता है। तत्कालीन आपूर्ति मन्त्री शान्ता कुमार ने लोकसभा में एक सवाल के जवाब में स्वीकार किया कि उनके विभाग ने इस सम्बन्ध में जो सर्वेक्षण कराया उसके अनुसार कुल गेहूँ का 36 फीसदी, चावल का 31 फीसदी और चीनी का एक तिहाई काला बाज़ार की भेंट चढ़ जाता है। इसी मन्त्रालय ने हाल ही में प्रकाशित अपनी रपट में यह रहस्योद्घाटन किया है कि पिछले तीन सालों (2003 से 2006) में पी.डी.एस. का 31,585 करोड़ रु का खाद्यान्न काले बाज़ार में चला गया है। खैर, सरकार जानती है कि डीलर घाटे का सौदा नहीं करेगे और बिना चोरबाज़ारी किए कोई भी डीलर मुनाफा नहीं कमा सकता। चोरबाज़ारी करने के लिए विभागीय अधिकारियों और कर्मचारियों को लम्बी रिश्वत मिलती है इसलिए यह योजना बदस्तूर जारी रहती है।

यह तो अब सर्वविदित है कि ये संसदीय वामपन्थी पार्टियाँ भले ही कितना भी अपने को दूसरी चुनावबाज पार्टियों से अलग दिखलाने की कोशिश करें करनी में ये वही करती हैं जो पूँजीपतियों के लिए लाभकारी होता है। इसे राशन आन्दोलन के उदाहरण के जरिये समझा जा सकता है। मज़दूरों–गरीबों की पार्टी की सरकार के खिलाफ पश्चिम बंगाल की मज़दूर–गरीब जनता ने राशन न मिलने पर राशन आन्दोलन कर दिया था। सितम्बर 2007 के मध्य से प.बंगाल के दक्षिणी जिलों में चल रहा राशन आन्दोलन उत्तरी बंगाल तक फैल चुका था। दर्जनों राशन दुकानों पर तोड़–फोड़, आगजनी, लूटपाट करके जनता ने अपने दबे हुए गुस्से का इजहार किया। आक्रोशित जनता पर पुलिस ने करीब आधा दर्जन जगहों पर गोलीबारी की थी। जनाक्रोश का ऐसा उबाल पिछले चालीस सालों में बंगाल के गाँवों में नहीं देखा गया था। ये 1966–67 के बंगाल के दिनों की याद दिलाते थे जब अनाज के लिए दंगे हुए थे। दिलचस्प बात है कि यह आक्रोश भड़का ही माकपा द्वारा 16 सितम्बर, 07 को बाकुण्डा में बुलाई गयी ‘साम्राज्यवाद विरोधी सभा’ से। माकपा नेताओं ने मंच से जब भारत अमरीका परमाणु करार के खतरों के बारे में बोलना शुरू किया, तो लोग मंच पर चढ़ गये। एक शख्स ने माइक छीनकर कहा: अब हम तुम्हें सबक सिखायेंगे। तुम हमें चावल और गेहूं तो दे नहीं सकते। इसके बदले तुम हमें ऐसी बातें सुना रहे हो जो हमारी समझ से परे हैं। हमे परमाणु करार की बातें समझ में नहीं आती। (टेलीग्राफ 17 सितं. 07)। राशन के लिए लोगों का तोड़फोड़ पर उतर आना यूँ ही अचानक नहीं था।

आम आबादी से उनका राशन छीनकर ये लोग अपनी तिजोरियों को भरते रहते हैं। यह बात तमाम सर्वेक्षणों में साबित हुई है। ग्राम प्रधान और बीडीओ राशनकार्ड बनाते हैं जिसमें भाई–भतीजावाद, घूसखोरी, भ्रष्टाचार जमकर चलता है। भारत सरकार स्वयं यह बात कबूल करती है। मप्र में 58.48 फीसदी बीपीएल कार्ड का राशन बोगस है और अपात्र व्यक्तियों द्वारा उपयोग किया जा रहा है। इससे सरकार को प्रति वर्ष 600 करोड़ का नुकसान उठाना पड़ रहा है। गोण्डा (उ–प्र–) जनपद के सांख्यिकी विभाग की ओर से जारी आँकड़ों के मुताबिक 2008 में गोण्डा में कुल परिवारों की संख्या पाँच लाख से थोड़ा अधिक होने का अनुमान है। जबकि इस समय जनपद में बने राशन कार्डों की संख्या 5.94 लाख है, विभागीय अधिकारी यह बता पाने की स्थिति में नहीं हैं कि परिवारों की अनुमानित संख्या से करीब एक लाख ज़्यादा राशन कार्ड कैसे बन गए ?(जनसत्ता 24 फरवरी 2010–) एक अध्ययन से पता चला है कि तमाम बड़े राज्यों में 40 फीसदी से ज़्यादा घरों में गलत कार्ड बनाए गए हैं। गरीबों का अनाज खुले बाज़ार में बेचा जाता है। सिर्फ 42 फीसदी अनाज सही हाथों में पहुंचता है। इस तरह पीडीएस पर खर्च किए गए 4 रुपये में से महज 1 रुपया गरीबों तक पहुँच पाता है।(दैनिक भास्कर 11 मार्च, 2010) दिसं– 2009 में खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति राज्यमन्त्री ने बताया की 2006 के बाद अकेले पं– बंगाल में 53 लाख फर्जी राशन कार्ड पकड़े जा चुके थे। सबसे कम उड़ीसा में फर्जी कार्ड पकडे़ गये जो 2.50 लाख के आस–पास थे। केन्द्र सरकार का सब्सिडी बिल 2009 में 1.11 लाख करोड़ था लेकिन फर्जी राशनकार्ड के भारी आँकड़े बताते है कि यह सब्सिडी वास्तविक हकदारों तक तो पहुँचती ही नहीं।(11 मार्च 2010, दैनिक भास्कर)

इस मामले में राजधानी भी किसी से कम नहीं। राष्ट्रमण्डल खेल दूर नहीं है। युद्धस्तर पर राजधानी को सजाया–सँवारा जा रहा है। लेकिन गरीबों, मज़दूरों को क्या मिला रहा है ? गरीबों–मज़दूरों के लिए 2001 में दिल्ली में 3165 राशन की दुकानें थी जो 2007 में घटकर 2501 रह गयी। इन राशन की दुकानों से भी 53 फीसदी चावल और 25 फीसदी चीनी चोरी हो जाती है और उसे अफसर–मन्त्री निगल जाते है। भोजन के बुनियादी अधिकार पर सुप्रीम कोर्ट में 2001 से चल रहे मामलों मे कोर्ट द्वारा अपने पूर्व न्यायधीश डी–पी– वाधवा की अध्यक्षता में गठित समिति ने अदालत में 31 अगस्त, 07 को पेश अपनी रपट में कहा है कि सरकारी राशन प्रणाली का पूरा ढाँचा ‘अक्षम और भ्रष्ट है। बड़े पैमाने पर अनाज की काला बाज़ारी हो रही है। गरीब लोगों को कभी पर्याप्त और स्तरीय अनाज नहीं मिल पाता।’ समिति ने राजधानी दिल्ली की 32 राशन दुकानों और छ: में से तीन गोदामों का मुआयना किया। सबमें ‘बड़े पैमाने पर धाँधलियाँ पायी गयीं, और यह बात सामने आई कि भ्रष्ट डीलरों, व्यापारियों, ट्रांसपोर्टरों का गठजोड़ काम कर रहा है। जिसे राजनीतिक छत्र–छाया हासिल है।’ न्यायाधीश वाधवा ने कहा कि कोई भी गोदाम या दुकान ऐसी नहीं मिली जहाँ गड़बड़ी नहीं हो। जब देश की राजधानी का ये हाल है तो गाँव–देहात में क्या हालत होगी। (फिलहाल, नवम्बर ‘07’)

खाद्यान्न का कुप्रबन्ध: एक सोची समझी योजना     

खाद्यान्न के भण्डारण पर ही अधिकारियों द्वारा यह दिखाया जाता है कि सालाना 500 करोड़ का खाद्यान्न नष्ट हो जाता है, जो वास्तव में ब्लैक कर दिया जाता है। प्रधानमन्त्री ने राज्यों के मुख्य सचिवों के सम्मेलन में अनाजों का उत्पादन कम होने पर चिन्ता प्रकट की। लेकिन राज्यों में अनाज के रखरखाव में ही इतना कुप्रबन्धन है कि अकेले राजस्थान में ही 16.7 लाख टन खाद्यान्न खराब हो जाता है। इतने खाद्यान्न से राज्य के 1.83 करोड़ लोगों का सालभर तक पेट भर सकता है।(दैनिक भास्कर) जिन राज्यों में चावल की माँग नहीं है, वहाँ के गोदामों में चावल पड़ा सड़ता रहता है। वहाँ निगम के गोदामों में गेहूँ है। मेरठ (उ–प्र–) की मिसाल लीजिए। परतापुर स्थित भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में 68 हजार क्विण्टल चावल पिछले पाँच साल से पड़ा है। सेना ने भी उसे लेने से मना कर दिया है। करोड़ों रुपये का यह चावल लगातार खराब हो रहा है पर निगम के अफसरों को उसके इस्तेमाल की कोई चिन्ता नहीं है। आए दिन देश के विभिन्न हिस्सों से खबरें आती हैं कि निगम के गोदामों में सड़ रहे अनाज से चूहे मोटे होते जा रहे है।(जनसत्ता 7 फरवरी 2010) देश में पर्याप्त वेयर हाउ़स न होने के कारण हर साल 30 फीसदी से ज़्यादा फसल नष्ट हो जाती है (दैनिक भास्कर) जिस तेज रफ़्तार से भारत के सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर्ज हो रही है, उसी रफ़्तार से सार्वजनिक वितरण प्रणाली में आम गरीब आबादी के लिए आवण्टित अनाजों की लूट बढ़ती जा रही है। चावल और गेहूँ की ऐसी लूट साल 2004–05 में 9918.17 करोड़ रु थी, 2005–06 में 10,330.28 करोड़ रु और 06–07 में 11336.98 करोड़ रु। इन तीन सालों में गरीबों–मज़दूरों के लिए आवण्टित 31586 करोड़ रु के गेहूँ और चावल राशन डीलरों, नौकरशाहों, और राजनेताओं ने लूट लिए। यह लूट स्वास्थ्य के दो साल के सरकारी खर्च, और शिक्षा पर साल भर के खर्च के बराबर है। यह बात केन्द्र सरकार द्वारा तैयार एक अध्ययन के आँकड़े बताते हैं। अध्ययन में कहा गया है कि हर साल पी.डी.एस. से 53.2 फीसदी गेहूँ और 39 फीसदी चावल काला बाज़ार चला जाता है(फिलहाल, नवम्बर–07) पी.डी.एस. के लिए केन्द्र राज्य सरकारों को दोषी ठहराता है और राज्य सरकारें केन्द्र को। वैसे ही जैसे दो शरारती बच्चे एक दूसरे पर दोष लगाते है। असल बात तो आम मेहनतकश जनता के जीवन की बुनियादी सुरक्षा की गारण्टी है। संविधान और सरकार जब मुट्ठी भर लोगों को लाभ पहुँचाने के एवज में बहुसंख्यक अवाम की ज़िन्दगी से खिलवाड़ करे तो हमें आगे आकर एक ऐसा रास्ता तो बनाना ही होगा जो बहुसंख्यक आबादी को एक गरिमापूर्ण, सम्मानजनक जीवन दे सके। यह एक ही बुनियादी प्रश्न जो इस मौजूदा व्यवस्था की पोल खोल कर रख देता है, वरना प्रश्न और भी हैं, और उनके जवाब हमें ही ढूँढ़ने हैं।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2010

 

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